Him Sparsh - 75 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | हिम स्पर्श - 75

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हिम स्पर्श - 75

75

“जीत, हम अपने लक्ष्य के निकट ही हैं।“ वफ़ाई ने जीत की तरफ देखा। जीत ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह थोड़ा आगे जाकर रुक गया।

“जीत, सुनो तो...। कुछ...।”

“श...श...श...।” जीत ने वफ़ाई को रोका। जीत दूर कहीं देखने लगा। वफ़ाई भी उस दिशा में देखने लगी। वफ़ाई को कुछ समझ नहीं आया। उसने जीत की तरफ प्रश्नार्थ द्रष्टि से देखा। जीत ने दूर घाटी की तरफ हाथ का संकेत किया। वफ़ाई ने उस बिन्दु पर ध्यान केन्द्रित किया।

“दूर पेड पर जमी हुई श्वेत हिम के बीच कुछ रंग दिखाई दे रहे हैं?” वफ़ाई ने उत्तर में नयन झुका दिया।

“यह रंग यहाँ कैसे आ गए? हिम तो कभी रंगीन नहीं होता। वह रंग चलित भी हो रहे हैं। हिम तो सदैव स्थिर रहता है। तो यह...?” जीत की आँखों में विस्मय था। वफ़ाई जीत के विस्मय को देखकर प्रसन्न हो रही थी। वह मन ही मन प्रार्थना करने लगी,’जीत के मुख पर ऐसे अनेक विस्मय जन्म लेते रहे, अनंत काल तक।‘

“वफ़ाई, कहो न यह रंग कैसे?”

“जीत एक काम करते हैं।“

“क्या?”

“तुम ही बताओ यह रंग यहाँ इस श्वेत धरती पर क्या कर रहे हैं? कुछ धारणा करो।“

वफ़ाई उस रंगों को देखने लगी, जीत भी।

‘वहाँ दूर तक कोई मनुष्य तो जा नहीं पाएगा। अर्थ यह कि उस रंगों का कारण मनुष्य नहीं है। तो फिर किसी मनुष्य का रंगीन कपड़ा उड़कर वहाँ चला गया हो। नहीं, नहीं। यह भी संभव नहीं। एक तो कोई मनुष्य यहाँ तक कदाचित ही आ पाएगा और दूसरा यदि वह कपड़ा है तो चलित क्यूँ है? हवा तो जरा सी भी नहीं चल रही। तो कोई फूल होगा। फूल बड़े रंगीन होते हैं। हाँ फूल ही होगा। किन्तु किसी भी एक फूल के अनेक रंग तो नहीं होते और ना ही वह बिना हवा के चलित हो पाते हैं। रंगों का ऐसे चलित होना ही कोई रहस्य है। अथवा यही रहस्य का उत्तर है। कुछ तो है। कोई निर्जीव वस्तु बिना हवा के चलित नहीं होती। इसका अर्थ स्पष्ट है, यह कोई जीवित वस्तु, वस्तु कहाँ, जीव कहना उचित रहेगा, तो हाँ यह कोई जीव, कोई प्राणी होगा।‘ जीत अपने ही विचारों के द्वंद को जीतकर प्रसन्न हो उठा। उसने वफ़ाई की तरफ किसी विजेता की द्रष्टि से देखा। वफ़ाई जीत के बदलते भावों को ही निहार रही थी।

“कहो किस निष्कर्ष पर पहोंचे हो तुम, जीत?”

“वह रंग किसी प्राणी अथवा किसी पंखी के हैं। क्या मेरी धारणा सही है, पर्वत सुंदरी वफ़ाई?”

“शत प्रतिशत सही है। वह पंखी ही है।“

“क्या नाम है उस पंखी का?”

“वह पंखी है, मनुष्य नहीं। नाम तो मनुष्यों के होते हैं, पंखियों के नहीं।“

“किन्तु कुछ तो नाम होगा। तुम जानती हो उसका नाम?”

“हाँ। जानती हूँ।“

“तो कहोना। मुझे जानना है।‘

“क्या करोगे जानकर?”

“मेरे इस प्रवास के वह सह-प्रवासी है। सह-प्रवासी का नाम तो ज्ञात होना चाहिए न?”

“सह-प्रवासी का नाम पूछा नहीं करते। यदि इन बातों में उलझ गए तो लक्ष्य हाथ से छूट जाएगा। सह-प्रवासी का साथ होना पर्याप्त नहीं है क्या?” वफ़ाई के शब्दों ने जीत को मौन कर दिया। कुछ समय बाद जीत ने बात बदल दी।

“कितना अदभूत और अनूठा है इन हिम से आछादित पहाड़ियों के बीच भी कोई जीवन का होना। प्रकृति के इस रूप को मेरा वंदन।“ जीत ने भाव पूर्वक शीश झुका दिया।

फिर कोई कुछ नहीं बोला, दोनों रंगों को देखते रहे।

कुछ समय व्यतीत हो गया। जीत पहाड़ को, आकाश को, हिम से ढंकी चोटियों को, घाटियों को, जम कर स्थिर हो गए झरनो को, बादलों को देखने लगा। वहाँ की प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक कोना, प्रत्येक कण उसे रोमांचित करने लगा। वह प्रसन्न हो उठा।

“कितनी ऊंचाई पर होंगे हम?” जीत की जिज्ञासा जाग गई।

“यही प्रश्न तो मैं तुम्हें पूछने वाली थी। चलो धारणा लगाओ और कहो।“

“यह सही नहीं है वफ़ाई।“

“क्या हुआ अब?”

“देखो, हम तुम्हारे प्रदेश में हैं। तुम इसकी प्रत्येक बातों का ज्ञान रखती हो। मैं तो प्रवासी हूँ। मुझे क्या ज्ञान होगा यहाँ की किसी भी बात का?’

“तो?”

“तो क्या? मुझे जब जिज्ञासा हुई तो मैंने प्रश्न कर दिया और...।“

“प्रश्न करना तो अच्छी बात है।“

“मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं देना तो बुरी बात है ना? जब भी मैंने प्रश्न किया, तुमने उत्तर देने के बदले मुझे ही धारणा लगाने को कह दिया। यह तो उचित नहीं है।“

“जिसे जिज्ञासा होती है वही प्रवासी बनता है। और प्रवासी अपनी जिज्ञासा की तृषा को स्वयं ही तृप्त करता है। यही तो आनंद है, यही तो रोमांच है, यही तो सुख है प्रवासी होने का। मैं वह सुख, वह आनंद और वह रोमांच का अधिकार तुमसे छीनना नहीं चाहती।“ वफ़ाई ने उत्तर टाल दिया। जीत विद्रोह कर बेठा।

“अरे ओ दिशाओ, ओ पहाड़ियों, ओ घाटियों, सुनो, सुनो, सुनो। यह वफ़ाई...।” चिल्लाते हुए जीत को वफ़ाई ने रोका।

“शांत हो जाओ जीत। यह हमारा नगर नहीं है।“

“यही तो। यहाँ कोई नहीं रहता। मेरे चिल्लाने से किसी को क्या व्यवधान होगा?”

“यहाँ कुछ प्राणी और पंखी रहते हैं। यहाँ की प्रकृति में शांति है। यही शांति इन प्राणियों और पंखीयों का जीवन है। हमारे ऊंचे बोलने से वह शांति भंग हो जाएगी और उसे व्यवधान पहोंचेगा। उसका संगीत, उसका लय बिगड़ जाएगा। हम ऐसा नहीं कर सकते।“

“यदि हम ऐसा करेंगे तो कौन हमें रोकेगा?”

“तुम उसको अपना सह-प्रवासी कहते हो ना?”

“हाँ। तो?”

“तो तुम्हें ही स्वयं को रोकना पड़ेगा। अपने सह-प्रवासी का इतना तो ध्यान रख ही सकते हो ना?”

जीत के पास उन शब्दों का उत्तर नहीं था। जीत धारणा लगाने में व्यस्त हो गया।

“हम बीस से बाईस हजार फीट, नहीं पचीस हजार..।“ जीत की धारणा पर वफ़ाई हंस पड़ी।

“तुम हंस क्यूँ रही हो?“

“इस धारणा पर हंस रही हूँ।“

“तो तूम ही बता दो। एक तो मैं प्रश्न करता हूँ तो उत्तर नहीं देती और मुझसे ही उत्तर मांगती है। जब मैं उत्तर देता हूँ तो हंसती रहती हो।“

“अठारह हजार फीट से ऊपर की ऊंचाई पर जन जीवन अत्यंत कठिन होता है। लगभग सत्रह फीट पर हम है।“

“सत्रह हजार फिट।“ जीत ने दोहराया।