हवाओं से आगे
(कहानी-संग्रह)
रजनी मोरवाल
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प्रिय लिपि !
लिपि सेंट्रल पार्क के किनारे उगे घने मेपल ट्री के नीचे बिछी बेंच पर जाकर बैठ गई, नीचे पड़े सूखे पत्तों की चरमराहट से एक अजीब-सी ध्वनि उत्पन्न हुई | उसने ललाई लिए एक अधपके पत्ते को उठाकर स्नेह से सहलाया और कुछ देर यूँ ही थामे रही मानों उस पत्ते में सिमटी ऊष्मा को दोनों हाथों के सकोरों में भर-भरकर बटोर रही हो, अतीत की यादें उससे अनायास ही आ टकराईं, उसने मेपल के पत्ते को जूड़े में खोंस लिया | सर्द हवाएँ उसके कानों को सुर्ख किए दे रही थी, ओवरकोट पहने होने के बावजूद भी उसकी देह में झुरझुरी दौड़ गई | उसने स्कार्फ़ को कसकर लपेट लिया, लिपि को अपने सभी स्कार्फ़ में से यही वाला अतिप्रिय है, यह पोलका डॉट वाला पीला स्कार्फ़ वर्तनी ने अमेरिका से उसे भिजवाया था, जिसके किनारे पर क्रोशिए की झालर बनी हुई थी | लिपि जानती है ये झालरें वर्तनी ने खुद बनाई होंगी, लिपि को खुशी होती है कि वर्तनी उसकी सिखाई हर विधा को संभाले हुए है | वर्तनी का पति सेनफ्रांसिस्को की एक बड़ी कंपनी में फार्मेसिस्ट है और वर्तनी घर से ही भारतीय व्यंजन बनाने की क्लासेस चलाती है साथ ही उसने वहाँ के ग्रीन कार्ड होल्डर भारतियों के लिए एक टिफिन सेंटर भी खोला हुआ है |
लिपि ने अकेले ही वर्तनी की देखभाल की, उसे पढ़ाया-लिखाया और पाँच बरस पहले ही वर्तनी की शादी अपनी पसंद के ही एक भारतीय लड़के से कर दी थी | वर्तनी की तीन बरस की बिटिया शुद्धि बिलकुल अपनी माँ पर गई है, वर्तनी जहाँ अमेरिका के तौर-तरीके से वाकफियत रखती है वहीं वह अपने संस्कार भी नहीं भूली | उसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है किन्तु व्यवसाय के रूप में उसने भारतीय पाक कला को ही चुना है, एक ऐसे देश में जहाँ चिप्स जैसी चीज़ में भी बीफ़ पाया जाता हो वहाँ वर्तनी द्वारा शाकाहारी खाने का टिफिन सेंटर खोलना बड़े साहस का काम था | अपने देश के लोगों को शाकाहारी खाना उपलब्ध करवाने के इस निर्णय ने लिपि का सिर भी गर्व से ऊंचा कर दिया था |
लिपि को डर है तो शुद्धि के भविष्य का, नई पौध अपनी मूल तत्व को छोडकर हायब्रीड संस्कार ग्रहण न करेगी ये गारंटी नहीं ली जा सकती है | बदलते वातावरण का प्रभाव वहाँ की हवा, पानी, मिट्टी और जल पर भी पड़ता ही है, खासकर प्रदूषण से बचाव करते-करते भी कुछ हिस्सा अमूमन प्रभावित हो ही जाता है, तभी तो हर बरस फसल का कुछ प्रतिशत अक्सर संक्रमित हो ही जाता है | लिपि सोचती है जड़ों को अपनी ताकत पर भरोसा होता है किन्तु तने को तो हरियल पत्तियों को संवारना पड़ता है तब कहीं जाकर सूर्य के प्रकाश में संश्लेषण की क्रियाविधि आगे बढ़ती है और पौधा पनपता है, फल और फूल तो बाहरी विकास का नतीजा होता है | नई सदी में आधुनिक फूलों पर मनुष्यता का इतना अधिक प्रभाव पड़ा है कि फूलों की कई प्रजाति तो प्रकृति में परागनित ही नहीं हो सकती है, लिपि को अपनी भावी पौध की चिंता सताती है ऐसे में वह कभी-कभी वापस अपने देश लौट जाना चाहती है किन्तु वह यह भी बखूबी जानती है कि अगर बदलता वातावरण फूल के मूल आकार में परिवर्तन कर भी दे तब भी उसकी ख़ुशबू को नहीं बदल सकता | बीज की नस्ल का प्रभाव पौधे के सभी अंगों में अंततः बना ही रहता है बस यही विचार लिपि को अक्सर आश्वस्त कर जाने के लिए काफी रहता है और वह निश्चिंत हो जाती है |
लिपि अपने ख़्यालों से लौटी तो साथ लाए फ्लास्क को खोलकर मग में कॉफी उड़ेलने लगी, गरम वाष्प उसके मुँह तक उड़ आई, उस भयंकर सर्दी में उसे वह वाष्प भी सुहाने लगी, उसने गरम मग को कसकर थाम लिया | तन की गर्माहट हाथों से होते हुए अन्तर्मन तक उतर गई, उसने भाँप लिया कि मन के भीतर जमी पड़ी बर्फ की सख्त परत धीमे-धीमे पिघलने लगी थी, वह उदास हो आई और बेहद अकेली भी | वक़्त के मानिंद बड़ी शांति से कुछ ईवनिंग वाकर्स आस-पास से गुज़रते जा रहे थे, इस भीड़ की शांति उसे और भी एकाकी कर गई | इंडिविजुलिस्म की फिलॉसफ़ी यहाँ टेबु नहीं है, भारतीय कल्चर के विपरीत लोग यहाँ आपके अकेलेपन को रेस्पेक्ट करते हैं बल्कि वे चाहते है कि आप अकेले रहें और अपना काम स्वयं करें बल्कि अपने-आपको खुश भी रखें | इसका यह मतलब कदापि नहीं कि आपके दोस्त और परिचित आपकी मदद नहीं कर सकते, मगर मूल रूप से इंडिविजुलिस्म यहाँ आपको अपनी वास्तविक पहचान कराने में मदद करता है |
लिपि को अक्सर भारतीय सोशल लाइफ की खूबियाँ याद आती हैं, कैसे एक छोटे से घर में बूढ़े माँ-बाप अपने बच्चों के बच्चों के साथ हँसते-खेलते अपना बुढ़ापा जी लेते है और अगली पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी से जुड़कर एक अदृश्य पुल चुन लेती है जिस पर होकर भविष्य की मजबूत राहें गुजरती हैं और एक यहाँ है कि अठारह वर्ष होते ही बच्चों को प्राइवेसी की दरकार होती है | कितने ही मामलों में तो लिपि ने देखा है कि माँ-बाप खुद भी बच्चों को अलग रहने और अपने तौर-तरीके से जीने की सलाह देते हैं तो किन्हीं मामलों में माँ-बाप खुद ही निजता तलाशते हैं | लिपि को तो उसकी परिस्थितियाँ ही अकेला कर गईं, बढ़ती उम्र में कहीं एक खालीपन है जो उसे इन दिनों भीतर ही भीतर उसे कचोटता है, यूँ तो उसे अब इस एकाकीपन की आदत हो चुकी है किन्तु यह उसकी चॉइस नहीं मजबूरी है...खासकर अपने पति शब्द के चले जाने के बाद |
मॉम...मॉम पास ही पार्क में खेलते बच्चों की बातें सुनकर वह मुस्कुरा उठी, एक सेब जैसे लाल-लाल गालों वाली बच्ची अपनी माँ को पुकार रही थी “मॉम व्हाय डोंट यू जस्ट कम एंड प्ले विद मी” उसकी माँ बेंच पर बैठी किसी अँग्रेजी पत्रिका के पन्ने उलट रही थी, उसने बच्ची की तरफ देखा और हाथ हिला दिया | लिपि को वर्तनी का बचपन याद हो आया, उसके कानों में वर्तनी की तुतलाती हुई बोलियाँ शहद घोलने लगीं थीं, अतीत उस पर हावी होने लगा था, वर्तनी उसे माँ और शब्द को बाबा कहा करती थी, हालांकि स्कूल में इस सम्बोधन के चलते कई बार उसका मज़ाक भी बनाया जाता था, कई मौकों पर तो वर्तनी ने चिढ़कर उनसे जिरह भी की थी कि क्यों वह उन्हें अमेरिकी बच्चों की तरह मॉम-डेड नहीं बुला सकती किन्तु लिपि और शब्द अपने फैसलों में हमेशा की तरह ही अडिग रहे थे | वे दोनों जानते थे कि संस्कारों का अनुशासन से रोपण करना और उन्हें पल्लवित करते रहना आवश्यक है फिर वक़्त उन्हें आकार देने में अपनी भूमिका स्वयं निभाता है | नन्ही वर्तनी जल्द ही समझ गई थी कि सम्बोधन में मिठास अपनी ही भाषा घोलती है तभी तो इतने बरस बाद अब वर्तनी ने भी अपनी बिटिया से खुद को और अपने पति को माँ-बाबा कहलवाना ही चुना था | लिपि अपने विचारों में डूबी हुई बुदबुदा उठी “माँ-बाबा” उन दिनों माँ-माँ पुकारती हुई वर्तनी उसका हाथ पकड़कर दूर तक बिछी सफ़ेद बर्फ पर घसीटे चली जाती थी फिर बर्फ के गोले बनाकर अपनी माँ पर उड़ेलती वर्तनी कितना खिलखिलाया करती थी |
शब्द और लिपि ने अपना पूरा ध्यान वर्तनी को पालने-पोसने में लगा दिया था, ऑफिस से लौटकर शब्द का सारा वक़्त लिपि और वर्तनी का हुआ करता था, वे दिन कुछ और ही हुआ करते थे, तब लिपि सिंदूरी आभा से लिपटी सिर्फ शब्द के आस-पास ही घूमा करती थी | उन दोनों के मध्य स्नेह का यही तो अटूट बंधन था जिसके साथ वे उस विदेश भूमि को भी अपना कर्म क्षेत्र बनाने में सक्षम हुए थे हालांकि परिवार की नाराजगी के चलते दोनों ही कुछ समय के लिए झिझके थे किन्तु एक-दूजे के साथ ने आपस में उन्हें हिम्मत दिलाई थी और वे अपने वतन से दूर भी अपनी मर्जी का संसार बसाने निकल पड़े थे, जहाँ वे दोनों थे और अपनी प्यारी बेटी वर्तनी थी और था ढेर सारा प्यार जिसके सहारे वे अपने देश से दूर न्यूयॉर्क में आ बसे थे | यूँ तो लिपि और शब्द के यहाँ एक पुत्र भी हुआ था, बड़े प्यार से उन्होंने उसका नाम व्याकरण रखा था, अठारह वर्ष का होते ही व्याकरण उन तीनों को छोड़कर सदैव के लिए जा चुका था, घर की नींव चरमराने लगी थी, एक नई संस्कृति की आहट से लिपि और शब्द घबरा गए थे, उस रात पश्चिमी जुमलेबाज़ी का भयंकर तूफान उठ खड़ा हुआ था, उनके घर की छत वैसे तूफान की आदि न थी, मजबूत दीवारें भी उस रोज़ कुछ देर के लिए सिहर उठी थीं |
उस दिन से पूर्व तक लिपि, शब्द, वर्तनी और व्याकरण ने कसकर एक दूजे का हाथ थामे खुशियाँ बांटी थी किन्तु दूसरे मुल्क के परिवेश और विचारों की आँधी ने अपना रुख कठोर कर लिया था | बेरहम वक़्त के थपेड़ों के चलते व्याकरण उनसे हाथ छुड़ाकर जुदा हो चुका था, वह अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने के लिए आज़ादी चाहता था, वह सिर्फ कुछ वर्षों के लिए अपनी जिंदगी पर सिर्फ अपना हक़ चाहता था और वह सचमुच उन्हें छोड़कर चला गया था...इस दुनिया की यात्रा पर, अपनी नज़रों से अपनी दुनिया को परखने | जाते-जाते वह भरोसा दिला गया था कि एक दिन वह लौटेगा अवश्य तब तक उसे वे दुआओं में जरूर याद रखें | उन तीनों ने ही यह कसम खाई थी कि वे उसे हमेशा हँसते-मुस्कुराते ही स्मरण करेंगे और अपनी आने वाली जिंदगी में उसके प्यार में नई-नई परिभाषाएँ गढ़ेंगे और यही उन्होंने किया भी, वे हर वर्ष व्याकरण के जन्मदिन पर उसके नाम से एक रामायण किसी अमेरिकी बच्चे को भेंट करते हैं |
लिपि उम्मीद की संभावनाओं से लिपटी आशाओं के क्षण बटोरती है, हालात बदलते चले गए पर लिपि को अब भी इंतज़ार है कि एक रोज़ सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा | सूरज सिर पर उग आया था, लिपि घर लौटने के लिए अपना थैला जमाने लगी थी, उसने स्वेटर की सिलाइयाँ समेटी तो देखा ऊन का गोला कहीं दूर फिसल गया था, उसे लपेटने की जुगत लगाती-लगाती वह हर सिमटन पर स्वयं को भी वर्तमान की ओर धकेलने लगी | हर मंजिल पर पहुँचना इंसान की फितरत होती है किन्तु वहाँ से लौटना नियति का विधान सो लिपि भी घर लौटने को मुड़ी | लिपि को अमेरिका की उगती सुबह देखना बड़ा प्रिय है इसीलिए वह हर रोज़ उस पार्क में मेपल ट्री के तले से आ लगती है व सूरज के चढ़ते प्रभुत्व में अपना वजूद तलाशती है और दिन के चढ़ने से पूर्व वह पुनः लौट पड़ती है अपने उस घर में जिसमें शब्द, वर्तनी और व्याकरण की यादें बसती हैं |
उस रोज़ लिपि ने घर पहुंचने के लिए मेट्रो पकड़ी तो मेट्रो की रफ्तार से उसके कदमों का मेल नहीं हो पा रहा था, उसे लग रहा था कि अगर यही हालात रहे तो अब उसका घर से अकेले यूँ घूमने निकलना सीमित हो जाएगा | उस वक़्त उसे शब्द बहुत याद आया था, शब्द अक्सर मेट्रो में चढ़ते-उतरते वक़्त लिपि को सहारा दिया करता था और साथ ही एक ठहाका भी लगा दिया करता था “लिपि तुम और हम एक-दूजे के लिए बने हैं | तुमसे मैं हूँ और मुझसे तुम...बाक़ी रही वर्तनी सो हम दोनों से बंधी है और देखना अपना बेटा व्याकरण भी एक न एक दिन लौट ही आएगा” लिपि घुटने में दर्द के बावजूद मुस्कुरा उठी |
दरवाजे पर अख़बार के साथ दूध की बोतलें भी रखी थी, लिपि नीचे झुककर उन्हें उठाने लगी तो देखा कि दरवाजे के पास ही एक पत्र भी पड़ा था, देखने से पत्र स्थानीय ही लग रहा था | मोबाइल के जमाने में पत्र को देखकर लिपि को तनिक हैरानी हुई थी, उत्सुकतावश उसने जल्दी से पत्र को खोलकर पढ़ा था | किसी अमरीकी बच्चे ने उसके लिए हिन्दी में एक पत्र लिखा था “प्रिय लिपि माँ ! याद है आपने मुझे एक रामायण दी थी ? उसको पढ़कर मैंने हिन्दू धर्म को जाना व हिन्दी भाषा सीखी, अब आगे अध्ययन करने भारत जा रहा हूँ, धन्यवाद |” लिपि को अपने वर्षों के प्रयास किसी सही दिशा में बढ़ते प्रतीत हो रहे थे, वह कुछ और सोच पाती कि दरवाजे पर लगातार घंटी बजी जा रही थी, वह समझ चुकी थी व्याकरण वापिस लौट आया है, बचपन में भी वह स्कूल से लौटकर इसी तरह लगातार घंटी बजाया करता था | लिपि की वृद्ध होती आँखों में इंतज़ार के आँसू थे किन्तु इस बार ये आंसूँ खुशी के थे | व्याकरण से जी भरकर गले मिलने के पश्चात लिपि ने वर्तनी से यह ख़ुशखबरी साझा करने के लिए फोन किया, उधर से शुद्धि की आवाज़ आई थी “प्रणाम नानी, माँ अस्पताल में है, बाबा ने कहा है कि माँ मेरे लिए एक भाई लाई है और उसका नाम हम ‘शब्द’ रखेंगे |” लिपि को यह संसार अचानक नया-सा प्रतीत होने लगा था और पूर्ण भी |
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