Him Sparsh - 74 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | हिम स्पर्श - 74

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हिम स्पर्श - 74

74

“जीत, कितना मनोहर है न यह द्रश्य? सूरज का इस तरह अस्त होना। चारों दिशाओं में हिम से आच्छादित पर्वत हो। नयनरमय घाटी हो। रंग बदलता सूरज हो।” वफ़ाई बोले जा रही थी। जीत ने कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया। वह बस सूरज को, घाटी को और क्षितिज के रंगों को देखता रहा।

वफ़ाई चिढ़ गई,“जीत, कुछ बोलो ना, कुछ कहो ना। तुम मेरी बात सुन रहे हो ना?”

“शी...श....श..।” जीत ने वफ़ाई के अधरों पर उँगलियाँ रख दी। वफ़ाई मौन हो गई। जीत की भांति वह भी अस्त होते सूरज को देखती रही। धीरे धीरे सूरज और गहरी घाटी में उतरने लगा। अंतत: अस्त हो गया, कहीं दूर क्षितिज में विलीन हो गया।

वफ़ाई ने क्षण भर के लिए आँखें बंध कर ली, फिर खोल दी। जीत की तरफ देखा।

जीत अभी भी गगन को देख रहा था, पश्चिम की तरफ क्षितिज को देख रहा था, अपलक नयनों से।

वफ़ाई जीत से बात करना चाहती थी किन्तु जीत कोई भिन्न विश्व में था। वफ़ाई इधर उधर देखने लगी। कुछ ही क्षण में वफ़ाई का मन भर गया। फिर से वह स्वयं को जीत से कहीं दूर अनुभव करने लगी।

वफ़ाई ने अधीरता से जीत के हाथ को पकड़ा और उसे अपनी छाती से लगा लिया।

जीत की तंद्रा टूटी, पुन: वास्तविक जीवन में प्रवेश कर गया।

“वफ़ाई, क्या कर रही हो?”

“बस, किसी मार्ग से भटके हुए यात्री को...।“

“उस यात्री को अधिक भटका रही हो।”

“क्या?”

“ऐसे तुम अपनी छाती पर मेरा हाथ रख दोगी तो मैं तो क्या कोई भी यात्री भटक जाएगा।“

“चुप हो जाओ भटके हुए यात्री।“

“वफ़ाई, मुझे समज नहीं आ रहा है कि तुम्हारे साथ रहकर मैं मार्ग से भटक जाता हूँ अथवा मुझे मार्ग मिल जाता है?”

“यह सब दुविधाओं को छोड़ो और कहो कि यह घाटी में सूर्य का अस्त होना कैसा लगा?”

“अदभूत। आनंदमय। मैं तो उस क्षण, उस घटना के भीतर ही खो गया था।“

“तभी तो लंबे समय तक बस देखते ही रहे उसे। सूरज के ओझल होने के बाद भी तुम उसे निहारते रहे थे।“

“हाँ, उस क्षण की अनुभूति अलोकिक थी। सूरज का धीरे धीरे घाटी के अंदर उतरना, जैसे कोई पंखी अपने पंख फैलाये गगन में विहार कर रहा हो, धीरे धीरे उड़ने का आनंद ले रहा हो, मार्ग में आ रहे प्रत्येक जीव से मिलता जा रहा हो, प्रत्येक कण को स्मित दे रहा हो। जैसे वह सब को अपना प्रकाश दे रहा हो। अपने रंग में रंग रहा हो। और किसी ऋषि की भांति निर्लेप होकर, सब कुछ छोड़ कर चल पड़ा हो अपने अगले लक्ष्य की तरफ। क्या यह सूरज जोगी होता है?”

“सूरज तो सूरज ही होता है। जोगी हो अथवा भोगी हो, हमें क्या? मुझे यह सब का ज्ञान नहीं है।“ वफ़ाई ने कहा।

“जो भी हो किन्तु वह द्रश्य अनुपम था। मन कर रहा है कि उस द्रश्य को केनवास पर उतार लूँ। जीवन भर स्मृति में..।” जीत की आँखों में चमक आ गई।

“मन तो मेरा भी कर रहा था कि मैं इसे मेरे केमरे में कैद कर लूँ, सदा के लिए। किन्तु क्या करूँ? केमरा साथ में नहीं है।“

“वफ़ाई, तुम बिना केमरे के चली आई? कहाँ हैं केमरा? और हाँ, कहाँ है मेरा केनवास, मेरी तूलिका, मेरे रंग?”

“वह सब तो मैंने मेरे गाँव भेज दिया। मेरा केमरा भी।“ वफ़ाई ने जवाब दिया।

“क्या? तुम ने क्यूँ किया ऐसा, वफ़ाई?”

“शांत हो जाओ, जीत।“

“अरे तुम यूं ही निकल पड़ी बिना केमरे के? हमारी इस यात्रा को यदि केमरे में केद कर लेती तो जीवनभर स्मृति बन जाती। तुम इस क्षणों को ...।”

“मैं ने इन क्षणों को मेरे ह्रदय में उतार लिये है। वहाँ से वह जीवनभर मिटेंगे नहीं।“

“बिना केमरे के?”

“जीत, तुम ही तो कहते थे कि केमरे की छवि आभासी होती है, कृत्रिम होती है। किन्तु यदि उस क्षण को ह्रदय से जी लो तो वह छवि स्वाभाविक होगी, शाश्वत होगी।“

“हाँ मैं ने ऐसा ही कहा था। किन्तु, तुम केनवास भी साथ नहीं लायी। अब मैं चित्र कैसे बनाऊँगा? तुम भी।”

“यदि तुम केनवास पर चित्र खींचना चाहते हो तो तुम्हें मेरे गाँव आना पड़ेगा। आओगे ना जीत?”

“यदि जीवन रहा तो अवश्य आऊँगा।“ कहते कहते जीत फिर से उदास हो गया।

जीत फिर से मृत्यु के विषय में सोचने लगा है। मुझे उस का ध्यान कुछ और बात में लगाना पड़ेगा। वफ़ाई ने बात बदल दी,“मुझे तो भूख लगी है। यहाँ कुछ भी तो नहीं मिल रहा। तुम्हें भूख लगी है क्या?“

“भूख तो मुझे भी लगी है। यह सूरज भी अपनी मोहक मुद्राओं से ऐसा मोह लेता है कि भूख और तृषा सब भूल जाता है मनुष्य।“

“तो हमें चलना चाहिए।“

वफ़ाई और जीत लौट गए।

***

“कल भी हम यही पहड़ियों पर चलेंगे, वफ़ाई।“ जीत ने सोने से पहले कहा।

“इसी पहाड़ी पर क्यूँ?” वफ़ाई भी थक चुकी थी।

“कितना मनोहर स्थान है वह। मुझे तो उस ने मोहित कर दिया। आज हमने सूर्यास्त देखा था, कल सूर्योदय भी देख लें तो?”

“हाँ, कल सूर्योदय तो देखना है किन्तु इसी पहाड़ी पर क्यूँ? कितनी सारी पहाड़ियाँ है यहाँ? तो किसी और पर चलते है।“

“तुम जानती हो इन सब पहाड़ियों को?”

“मैं पहाड़ की बेटी हूँ।“ वफ़ाई ने जीत को अपने मोहक स्मित का टुकड़ा धर दिया। जीत ने उसे स्वीकार कर लिया।

“ओ हिम सुंदरी, तो बताओ कि कल हम कहाँ जाएंगे?”

“बस इतना जान लो कि हमे कल सूरज निकलने से पहले ही चलना है।“

“वफ़ाई, इतने सवेरे सवेरे? किन्तु क्यूँ?”

“सूर्योदय जो देखना है। आगे तुम्हारी इच्छा।“

“सूर्योदय दिखेगा तो सही न?”

“जीत, जब मैं बच्ची थी तब मेरी माँ कहती थी कि जिस दिन तुम पाप करोगे उस दिन सूरज नहीं निकलेगा।“

“तो क्या मैं पापी हूँ?”

“तुम्हारी तुम जानो, मैं तो चली सोने। प्रभात के पहले प्रहर चलना है हमें, याद रहे।“ अपनी मोहक मुद्राओं को वहीं छोड़ कर वफ़ाई अपने कमरे में चली गई। जीत उन मुद्राओं को बनाता रहा, मिटाता रहा। वफ़ाई के मधुर शब्दों की ध्वनि में संगीत का अनुभव करता रहा। अंतत: निंद्रा के मोहपाश में बन्ध गया।

***

“वफ़ाई, इतने सवेरे सवेरे जाना आवश्यक था क्या? अभी तो कितना अंधकार है? सारा नगर सो रहा है। हमारे दोनों के सिवा कोई नहीं है इस मार्ग पर। ठंड भी कितनी है। नींद भी पूरी नहीं हुई और हम चल दिये।” वफ़ाई के पीछे पीछे विवशता से चल रहे जीत बोले जा रहा था। वफ़ाई आगे ही आगे जा रही थी।

“वफ़ाई, थोड़ा रुक जाओ न। यहाँ विश्राम करते हैं। फिर चलेंगे ना।“

वफ़ाई बिना रुके चलती रही। जीत भी।

“मैं क्यूँ बोले जा रहा हूँ? कोई सुनता ही नहीं। कदाचित यहाँ मैं अकेला ही हूँ। मेरे सिवा कोई है ही नहीं जो सुने।“

जीत ने आगे पीछे देखा।

“हाँ, वास्तव में यहाँ कोई नहीं। संभव है कहीं दूर कोई हो। मुझे जरा ऊंचे स्वर में बोलना पड़ेगा।“

जीत एक बड़े से पत्थर पर चड गया और चिल्लाने लगा,”कोई हैं यहाँ? मुझे कुछ कहना है। यदि तुम मुझे सुन रहे हो तो...।“

जीत की ध्वनि घाटियों में व्याप्त हो गई। प्रतिध्वनि बनकर सुनाई पड़ने लगी। वफ़ाई रुक गई, इन प्रतिध्वनियों को सुनकर।

“जीत, शांत हो जाओ। सोते पहाड़ को इस तरह जगाया नहीं करते।“

“सोते हुए जीत को जगाया जा सकता है तो पहाड़ों को क्यूँ नहीं? यह तो पक्षपात है, अन्याय है।“

“जीत, बस भी करो अब। चलो।“

“वफ़ाई, यह पहाड़ भी सो जाते हैं क्या?” जीत वफ़ाई के समीप जाकर वफ़ाई के कानों में धीरे से बोला।

“नहीं जीत। पहाड़ कभी नहीं सोते।“

“तो यह स्थिर खड़े पहाड़, शांत घाटियां, युगों से एक ही मुद्रा में खड़ी इन चोटियाँ, कोई पगरव नहीं, कोई परिवर्तन नहीं, यह सब क्या है? वफ़ाई इन पहाड़ों का रहस्य क्या है?” जीत गंभीर हो गया।

“पहाड़ों का रहस्य अति गहन होता है। युगों से ऋषि मुनि इन पहाड़ों पर तप करते आए हैं इसी रहस्य की खोज में। मैं नहीं जानती कि कितने ऋषि महर्षि इन रहस्यों को जान पाये होंगे। जिस जिस ने जाना होगा उन में से किसी ने उन रहस्यों को बाकी संसार के साथ कभी नहीं बांटा। कदाचित यही कारण है कि मनुष्य यहाँ खींचा चला आता है।“

“किन्तु यह पहाड़ स्थिर होकर करते क्या है?”

“तुम ही बताओ। तुम्हारा क्या मत है इस विषय में?” वफ़ाई ने बात को जीत की तरफ मोड दिया।

“मुझे तो लगता है कि यह पहाड़ ही स्वयं कोई ऋषि मुनि है और युगों से अपने तप, योग और साधना में लिन है। कोई इसे कहो कि तप करते करते उसे नींद आ गई है। किसी ना किसी को तो उसे जगाना चाहिए ना?”

"तो कोई जगा देगा उसे। तुम क्यूँ चिंता करते हो? तुम स्वयं जाग जाओ। सोया हुआ व्यक्ति किसी दूसरे को जगा नहीं सकता। यह सब बातें छोड़ो और सीधे सीधे चलते रहो।“

“किन्तु हमें जाना कहाँ है, इतने सवेरे सवेरे?“

“मैं एक ऐसे स्थान पर ले जाना चाहती हूँ जहां कुछ ही लोग जा पाते हैं। जो सौभाग्यशाली होते हैं वही उस स्थान पर जा पाते हैं।“ वफ़ाई चलते चलते बोले जा रही थी।

“क्या तात्पर्य है?”

“बस देखते जाओ।“

“देखूँ भी तो कैसे? चारों तरफ कितना अंधकार है?” जीत ने फिर रोना प्रारम्भ कर दिया।

वफ़ाई ने जीत का हाथ पकड़ लिया और उसे खींचने लगी। जीत, विवश बच्चे की भांति चलने लगा।

एक स्थान पर वफ़ाई रुक गई। प्रभात हो रहा था किन्तु अभी भी सूरज निकला नहीं था। अंधकार भी व्याप्त नहीं था। कुछ व्यक्ति दिखाई दे रहे थे। कदाचित पहाड़ यहाँ अपना तप भंग कर चुका था। जीत को यह देखकर अच्छा लगा।

“सूरज अभी भी नहीं निकला और तुम मुझे यहाँ तक ले आई। अब यह बता दो कि हम कहाँ आ चुके हैं?” जीत एक कोने पर खड़ा हो गया।

“अभी हमें रुकना नहीं है। थोड़ा और चलना होगा।“

“अभी और चलना होगा? और अर्थात कितना और? बड़ा सताती हो तुम।”

“अब अधिक नहीं, बस कुछ मिनट।“ वफ़ाई फिर चलने लगी।

“कुछ मिनट के बाद मैं नहीं चलने वाला। चाहे कुछ भी हो जाय। सुना तुमने?” जीत ने पीछे पीछे चलते हुए विद्रोह कर दिया।

ठीक बारह मिनट बाद दोनों रुके।