बाल उपन्यास
आई तो आई कहाँ से
(1)
भोले मन की साम्राज्ञी
आरुषि ........ आरुषि ........
हाँ मम्मा, मैं यहाँ हूँ l अपनी गुड़िया के साथ खेल रही हूँ l
अच्छा, अच्छा अब जल्दी से तैयार हो जा, शाम हो गई है, चल मैं तेरी चोटी गूँथ दूँ l
हाँ, पहले मेरी कविता तो सुन लो -
बड़े मजे की गुड़िया मेरी,
आँखें गोल - गोल मटकाती l
धीरे - धीरे गाना गाती,
चलने में करती है देरी l
नाक है इसकी टेढ़ी - मेढ़ी,
बड़े मजे की गुड़िया मेरी l
अरे, वाह ! आरुषि तुम्हारी गुड़िया ने तो तुम्हें कविता लिखना सिखा दिया l
हाँ मम्मा, इसलिए तो मैं इसके साथ खेलती हूँ l काश, मुझे सचमुच की गुड़िया मिल जाती l
अच्छा, अभी तो तैयार हो जाओ, बातें करना तो कोई तुमसे सीखे l
मम्मा, मैं अपनी सहेली ऋतु के यहाँ खेलने जाऊं ?
हाँ, लेकिन अकेली जाएगी क्या ?
ठीक है, बाजू वाले प्रिंस के साथ चली जाऊँ ?
हाँ ये सही रहेगा , संभल कर जाना और जल्दी आ जाना l
मम्मा मैं जा रही हूँ ........
आरुषि और प्रिंस बातें करते, मस्ती करते ऋतु के यहाँ जा रहे थे, प्रिंस ने दौड़ लगा दी, आरुषि पीछे रह गई l
तुम दौड़ क्यों लगा रहे हो प्रिंस ? रुको ..... रुको .....
किन्तु प्रिंस दौड़कर, रोड पार कर गली में मुड़ गया l आरुषि थोड़ा दौड़ी लेकिन, वह थक गई थी l वह मन ही मन गुस्सा हो गई , चले जाओ, क्या मुझे ऋतु का घर नहीं मालूम है ? मैं आराम से पहुँच जाऊँगी l
***
गर्मी के दिन थे, सूरज डूब चुका था किन्तु, अँधेरा नहीं हुआ था l शाम के करीब 6 बजा होगा l आरुषि अपनी धुन में चली जा रही थी l ऋतु के घर जाकर क्या खेलूंगी - सांप - सीढ़ी, चंगा - अटठू ? न न न, बैठने का खेल तो दिन भर से खेल रही हूँ l लुका - छिपी, नदी - पहाड़ खेलूंगी तो बहुत मजा आएगा l छुट्टियों के दिन कितने अच्छे होते हैं ! रास्ते में उसने ऊपर सिर करके देखा, पंछियों के झुण्ड के झुण्ड उड़ते हुए अपने - अपने घोसलों की ओर जा रहे थे l आसमान में कुछ पतंगें भी उड़ रही थीं l तभी एक छोटा सा पिल्ला दौड़ता हुआ आरुषि के बगल से निकला l आरुषि उसे पकड़ने दौड़ी - रुक रुक पिल्लू कहाँ भागा जा रहा है ? वह पिल्ले के पीछे - पीछे भागी जा रही थी l पिल्ला एक झाड़ी के पास जाकर छिप गया l आरुषि भी झाडी के पास चली गई किन्तु, वहां जाकर वह ठिठक गई l उसे धीमी - धीमी रोने जैसी आवाज सुनाई दी l वह आवाज के करीब गई, देखकर हैरान हो गई l एक कुत्ता जमीन से कुछ खोद रहा है l रोने की आवाज वहीँ से आ रही है l आरुषि को लगा, ये तो छोटे बच्चे की रोने की आवाज है l किन्तु, कचरे के ढेर में ? उसने एक बड़ा सा पत्थर उठा कर कुत्ते को मारा, कुत्ता भाग गया l आरुषि ने कचरा हटाया, वहां सचमुच छोटी नन्हीं सी गुड़िया रो रही थी l आरुषि क्या करे, किसे बुलाये ? कोई दिख भी तो नहीं रहा l आरुषि के अभी दूध के दाँत टूटना शुरू हुए थे, वह भी तो अभी छोटी ही थी l लेकिन, आरुषि करे क्या ? यदि उसे छोड़कर जब तक माँ को बुलाने जाती है, तो कहीं कुत्ता फिर उसे झपटने आ गया तो ? आरुषि ने अपनी चुन्नी से उस नन्हीं शिशु गुड़िया को ढंक दिया। ..... नहीं, नहीं, इसे छोड़कर नहीं जा सकती, मैं इसे गोद में उठा सकती हूँ l बिल्कुल मेरी गुड़िया की तरह तो है यह और अगले ही क्षण चुन्नी में लिपटी वह गुड़िया आरुषि की गोद में थी l गुड़िया को लेकर वह घर की तरफ भागी जा रही थी l वह भूल ही गई कि ‘ उसे ऋतु के घर जाना था, प्रिंस कहाँ गया ‘ l गुड़िया को छुपाये वह घर आ गई l
मम्मा ...... मम्मा ...... जल्दी दरवाजा खोलो मम्मा .........
अरे क्या हुआ आरुषि ?
मम्मा देखो तो, यह सचमुच की गुड़िया l
माँ घबराकर - ये तू कहाँ से लाई, किसकी है ?
मम्मा, ये तो कचरे के ढेर में पड़ी रो रही थी, कुत्ता इसको परेशान कर रहा था l मैंने कुत्ते को पत्थर मारकर भगाया और इसे उठा लाई l
मम्मा, ये वहां आई तो आई कहाँ से ?
आरुषि की माँ कभी आरुषि को देखती, कभी उस नन्हीं सी जान को जो मुश्किल से एक - दो दिन की होगी l माँ ने उसे गोद में ले लिया l माँ का स्पर्श पाकर बच्ची कुनमुनाने लगी, उसके चेहरे पर हल्की खरोंच थी l सचमुच मोम की गुड़िया सी बड़ी - बड़ी आँखें, काले - काले बाल और बिल्कुल गोरी चाँद का टुकड़ा l माँ का ह्रदय पीड़ा और ममता से भर गया l बच्ची अब रोने लगी थी - ऊंहा ....... ऊंहा ..... वह अपनी उंगली मुँह में डालकर चूसने लगी l आरुषि खुश हो गई l माँ इसे दूध पिलाओ ना ...... इसे भूख लगी है l
माँ ने आरुषि के साथ - साथ अपने को संभाला l उसने गुड़िया को गरम पानी से अच्छी तरह से स्पंज किया फिर दूध पिलाया l गुड़िया चुक्क - चुक्क दूध पीने लगी l वह हाथ - पैर चला रही थी l आरुषि की प्रसन्नता का ठिकाना ना रहा l इतने में ही आरुषि के पापा आफिस से घर आ गए l सारी घटना माँ ने सुनाई - ये आरुषि की बुद्धि को क्या करूँ मैं ?
पापा ने कहा - उसने अपने विवेक से काम लिया है l अब हमें अपने विवेक से काम लेना है l पुलिस में रिपोर्ट करा दें और इसे अस्पताल में दे आयें, उसकी देखभाल वहां अच्छे से होती रहेगी l
हाँ, यही ठीक होगा l
नहीं मम्मा, ये कहीं नहीं जायेगी l इसे मैं सम्भालूंगी ना, मैं इसके साथ खेलूंगी l
हाँ - हाँ, ठीक है लेकिन इसे अभी डॉक्टर को दिखाने की जरूरत है, देखो इसे चोट भी लगी है l
ठीक है, लेकिन फिर घर ले आना
आरुषि के माँ - पापा ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करा दी और अस्पताल में उस बच्ची को सौंप दिया l सोचा, थोड़े दिन में आरुषि भूल जायेगी l
माँ - पापा घर आ गए l आरुषि ने कहा - मेरी गुड़िया मम्मा ..... मेरी सचमुच की गुड़िया आप कहाँ छोड़ आईं, मुझे वो चाहिए l आरुषि की आँखों से बड़े - बड़े आंसू टपकने लगे l माँ - पापा ने मनाया लेकिन, आरुषि ने तो खाना - पीना ही छोड़ दिया l वह रोते - रोते सो गई किन्तु, नींद में भी उसे गुड़िया दिख रही थी, उसकी नन्हीं उंगलियां और कुत्ते का कचरा कुरेदना l वह बड़बड़ा रही थी - माँ देखो गुड़िया को भूख लगी है, वह उँगली चूस रही है, मुझे गुड़िया को गोदी में लेना है l
पूरी रात माँ - पापा आरुषि के सिरहाने बैठे रहे l माँ बोली, ऋतु के यहाँ खेलने गई थी, कहाँ से ये आफत ले आई l वह दुखी भी थी, किस पत्थर ह्रदय ने इस नन्हीं सी जान को फेंक दिया, पैदा ही क्यों किया ? सबेरे उठने पर आरुषि की आँखों में फिर वही प्रश्न था l उसे बुखार हो रहा था l उसके मासूम मन पर गहरा आघात पहुंचा था l वह पूछ रही थी, बच्चे तो माँ के पेट में होते हैं, पक्षियों के बच्चे घोंसले में होते हैं फिर गुड़िया कचरे के ढेर में आई तो आई कहाँ से ?
नन्हीं आरुषि के प्रश्न का जवाब माँ भला उसे कैसे देती l उसे लाख बहलाने की कोशिश की माँ ने कि वह तो एक परी है, कहीं भी जा सकती है ना l
माँ, मुझे वो परी चाहिए......
ठीक है, पहले दूध पी लो
आरुषि फिर लेट गई, उसका बुखार तेज हो रहा था l
माँ - पापा बहुत परेशान थे l उन्होंने डॉक्टर को दिखाया l
बच्ची को गहरा सदमा लगा है ....
आखिरकार माँ ने कहा - क्यों ना हम उसे गोद ले लें ?
धीरे - धीरे एक हफ्ता गुजर गया था l अस्पताल में मालूम किया तो पता चला, उसे गोद लेने कोई नहीं आया l आरुषि की ख़ुशी के खातिर माँ ने जिद्द करके पापा से कहा, गुड़िया को गोद लेना ही पड़ेगा l पापा ने भी बेटी की ख़ुशी में अपनी सहमति दे दी l
***
सारी औपचारिकताओं के बाद गुड़िया घर में आ गई l आरुषि की आँखों में चमक आ गई l अब उसने पहले गुड़िया को दूध पिलाया और स्वयं भी पिया l उसे गोद में लेकर ऐसे बैठ गई जैसे किसी साम्राज्य की साम्राज्ञी हो l वह माँ - पापा को बार - बार कृतज्ञता की दृष्टि से देख रही थी - थैंक्यू मम्मा, आप बहुत अच्छी हो l
मम्मा, मैं इसका नाम क्या रखूं, आप बताओ ना ?
नहीं, इसका नाम तो तुम्हीं सोच कर रखो l
अच्छा सोचती हूँ .....
इसका नाम दुर्गा रख देती हूँ l ये ना दुर्गा देवी की तरह सुन्दर है और दुर्गा देवी की तरह बहादुर भी, तभी तो कुत्ते से भी जीत गई, है ना मम्मा, अच्छा नाम है ना दुर्गा ?
हाँ आरुषि, इससे अच्छा नाम तो हो ही नहीं सकता l
दुर्गा .... दुर्गा ....., आरुषि उसे खिला रही है लेकिन, उसने शू शू कर दी है l
मम्मा बचाओ, इसने शू शू कर दी है l
माँ जोर - जोर से हंसने लगी - इतना क्यों घबरा रही है, अभी तो शू शू की है, पोट्टी भी करेगी l
छी छी छी .....
अरे, तू भी तो बिल्कुल ऐसे ही करती थी तो मैं साफ़ करती थी l अब तो तू दीदी बन गई है दुर्गा की, तू भी साफ़ कर l
मम्मा, लेकिन मैं तो अभी बहुत छोटी हूँ, मुझसे तो यह गिर ही जायेगी
आरुषि खिलखिलाने लगी, पूरे घर में रौनक छा गई l
छुट्टियां ख़तम हो गईं स्कूल खुल गए l आरुषि बहुत खुश थी l मन से जितनी भावुक और दयालु थी आरुषि, उतनी ही शैतान l दूध के दांत टूटने के बाद अभी तक उगे नहीं थे l कक्षा तीन में प्रवेश ले लिया था उसने यानि सात - आठ वर्ष की थी आरुषि l उसके पापा छोटी - मोटी सरकारी नौकरी में थे और गाँव के सरकारी स्कूल में ही पढ़ती थी आरुषि l ज्यादातर बच्चे गाँव के ही पढ़ते थे उसके साथ जिनके माता - पिता मजदूरी करते थे या छोटी - मोटी नौकरी l इसलिए आरुषि की अच्छी धाक थी विद्यालय में l उसका रहन - सहन दूसरे विद्यार्थियों से अलग - थलग था l चाहे प्रिंस, मनीष, नवीन हों, चाहे पूजा, बिंदिया, हिना, मीनाक्षी, सोनाली हों l शैतान आरुषि को मीनाक्षी नाम बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था, वह थोड़ा तुतलाती भी थी l बस फिर क्या था, उसे चिढ़ाने में आरुषि को बहुत मजा आता l वह उसके आने के पहले ही सभी बच्चों को अपनी तरफ करके कहती, जैसे ही मीनाक्षी क्लास रूम में घुसे, सब लोग एक साथ आक्छी - आक्छी करना l आरुषि पढ़ने में बहुत होशियार थी, वह क्लास - कैप्टन भी थी इसलिए सब उसका कहना मानते l जैसे ही मीनाक्षी क्लास रूम में प्रवेश हुई, पूरी क्लास आक्छी - आक्छी - मीनाक्षी करने लगी l मीनाक्षी बेचारी सीधी - साधी दब्बू लड़की थी l वह कुछ न बोल पाती l कद में छोटी होने के कारण टीचर उसे आरुषि के आगे वाली सीट में बैठातीं थीं l आरुषि चुपके से कभी उसकी फ्राक के अंदर पेन्सिल डाल देती, कभी उसकी लम्बी चोटी सीट से बाँध देती l वह उठती तो उसकी चोटी खिंच जाती l
***
आरुषि की दादी कुछ दिनों के लिए आई हुई थीं l दादी तो आरुषि की सहेली ही थीं l घर में नई गुड़िया के आगमन से वे भी खुश थीं और आरुषि को शाबासी दे रही थीं कि उसने अच्छा काम किया है l किन्तु, आरुषि के मन में प्रश्न ज्यों का त्यों बना था, गुड़िया आखिर कचरे में आई तो आई कहाँ से ? वह दादी से पूछती l दादी कहती - ‘ का कड़ी कदम कड़ी ‘आ’ कड़ी मध्ये, का कड़ी कदम कड़ी ‘म’ कड़ी मध्ये, का कड़ी कदम कड़ी ’ खा ‘ कड़ी मध्ये, का कड़ी कदम कड़ी ‘ गु ‘ कड़ी मध्ये, का कड़ी कदम कड़ी ‘ ठ ‘ कड़ी मध्ये, का कड़ी कदम कड़ी ‘ ली ‘ कड़ी मध्ये, का कड़ी कदम कड़ी ‘ म ‘ कड़ी मध्ये का कड़ी कदम कड़ी ‘ त ‘ कड़ी मध्ये, का कड़ी कदम कड़ी ‘ गि ‘ कड़ी मध्ये का कड़ी कदम कड़ी ‘ न ‘ कड़ी मध्ये l आरुषि सुनकर लोटपोट हो गई - अरे ये क्या बोल रही हैं आप ? कुछ समझ में नहीं आया किन्तु बहुत मजा आ रहा है l मुझे भी यह बोलना सिखाइये l बताइये, आपने क्या उत्तर दिया है l दादी ने कहा, मैंने कहा - ‘ आम खा, गुठली मत गिन ‘ l तुझे गुड़िया मिल गई, बस उसके साथ खेल l कैसे आई, कहाँ से आई, ये बातें छोड़ दे l चल तुझे ‘ का कड़ी ‘ सिखाती हूँ l दादी ने ‘ का कड़ी ‘ का शास्त्रीय ज्ञान देकर आरुषि को ‘ का कड़ी कदम कड़ी ‘ की भाषा सिखा दी l फिर क्या था, अब तो कक्षा में इस कोड में बात करने के लिए उसने प्रिंस को भी सिखा दिया था l दोनों मिलकर कक्षा में मजे - मजे से बातें करते, कोई समझ ही न पाता l एक दिन मीनाक्षी ने टीचर से शिकायत कर दी - आरुषि और प्रिंस मिलकर ‘ कढ़ी - कढ़ी ‘ खाने की बात करते रहते हैं और मुझे ‘ आक्छी - आक्छी ‘ मीनाक्षी चिढ़ाते हैं l आक्छी पर टीचर को थोड़ा हंसी तो आई किन्तु ‘ कढ़ी ‘ की बात समझ में नहीं आई l उन्होंने आरुषि को आँख दिखाई l फिर उन्होंने आरुषि को डांटा भी कि किसी के नाम को लेकर उसे चिढ़ाना अच्छी बात नहीं है l जानती हो, मीनाक्षी का अर्थ क्या होता है, ' जिसकी आँखें मछली यानि मीन की तरह सुन्दर हों ' l आरुषि झट खड़ी होकर बोली – ‘ का कड़ी कदम कड़ी ‘ सॉ ‘ कड़ी मध्ये, का कड़ी कदम कड़ी ‘ री ‘ कड़ी मध्ये l पूरी कक्षा के बच्चे जोर - जोर से हंसने लगे l आरुषि ने कहा, मैडम, मैंने कहा - सॉरी l अब तो टीचर भी इस भाषा का विज्ञान समझने के लिए उत्सुक हो गईं l आरुषि ने बिल्कुल दादी की तरह समझा दिया l
स्कूल से छुट्टी होने पर उसके मन में बस गुड़िया ही बसी हुई होती l होमवर्क, खाना - पीना सब बाद में, पहले गुड़िया को प्यार करना l वह भी तो दिनों - दिन बढ़ रही थी l आरुषि को देखकर हाथ - पैर चलाती, हूँ - हूँ करती l आरुषि गोदी में लेकर उसे खिलाती l दादी ने उसे लोरी सिखा दी थी l वह दुर्गा को थपकी देकर सुलाती -
रानी बेटी सो जा, सपनों में खो जा
लाल परी आएगी, तुझको ले जायेगी
चंदा के गांव में, तारों की छाँव में
चंदा - तारे सो गए, तू भी सो जा .......
और सचमुच सो जाती दुर्गा l
आरुषि खो जाती उसकी छवि निहारती हुई l वह सोचती, दुर्गा धीरे - धीरे बड़ी क्यों हो रही है ? ये कब चलना सीखेगी, कब मेरे साथ खेलेगी ? उसे कचरे के ढेर में सोई गुड़िया बहुत परेशान करती l वह सोचती, मैं उसे उठाकर नहीं लाती तो क्या होता ? कुत्ता इसे काट लेता l नहीं नहीं ... ये तो परी है, ये तो कहीं भी जा सकती है l जो भी हो अब तो ये दुर्गा है l दुर्गा बड़ी होकर बहुत बहादुर बनेगी l हे भगवान, इसे जल्दी बड़ा कर दो l वह माँ से कहती - दुर्गा कब बड़ी होगी, उसे ज्यादा दूध पिलाया करो l
आरुषि स्कूल में अपनी सचमुच की गुड़िया के बारे में किसी को भी न बता पा रही थी यह सोचकर कि सब हँसेंगे और चिढ़ाएँगे - कचरे के ढेर से गुड़िया को उठा लाई, गन्दी होगी l आरुषि सोचती, दुर्गा जब बड़ी होगी तो कहीं कोई उसे ये बता न दे कि मैं उसे कचरे के ढेर से उठा कर लाई थी वरना वह भी प्रश्न करेगी कि मैं वहां आई तो आई कहाँ से ? फिर मैं उसे क्या बताऊंगी, यह तो मुझे भी नहीं पता l अरे, मैं भी अच्छी बुद्धू हूँ, मैंने तो किसी को बताया ही नहीं कि दुर्गा को कचरे के ढेर से लाई हूँ l माँ तो सबको बता देंगीं कि यह तो मेरी दुर्गा है, ये उसे अस्पताल से लाई हैं l ऊँह, अस्पताल में दुर्गा कहाँ से आई, उसकी मम्मा कौन है ? किसके पेट से निकली है ? ओफ्फो, मैं भी क्या सोचती रहती हूँ, दादी ने क्या कहा था, ‘ आम खा, गुठली मत गिन ‘ l उसने देखा, दुर्गा माँ की गोद में सोई है l आरुषि ने अपना होमवर्क किया और सो गई l
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परीक्षाएं नजदीक थीं l आरुषि अपनी तैयारी तो कर रही थी किन्तु, मन के कोने में दुर्गा समाई हुई थी जैसे दुर्गा के लिए वही सब कुछ है l माँ - पापा तो केवल उसकी देखरेख कर रहे हैं l दुर्गा अब एक साल की होने वाली है l उसका जन्मदिन वह धूमधाम से मनाएगी l सच्ची की गुड़िया का सच्ची - मुच्ची का जन्मदिन l विचारों के उधेड़बुन में लगी रहती आरुषि l परीक्षा के उत्साह में विचार कभी - कभी ठन्डे भी हो जाते l
परीक्षाएं ख़त्म हो गईं l आरुषि कक्षा चार में पहुँच गई l दुर्गा पैर - पैर चलने लगी पायल पहिनकर छम - छम l चूं चूं बजने वाले जूते पहिनकर चलती चूं चूं चूं l
धूमधाम से दुर्गा का जन्मदिन मनाने में जुट गई आरुषि l कहाँ बैलून सजाना है, सबके लिए टोपी लाना है , वह माँ से कहती - गुलगुले बनाना l दीपक जलाएंगे, मोमबत्ती नहीं बुझाएंगे l आखिर जन्मदिन आ ही गया l बहुत भीड़भाड़ थी l कुछ लोग तो कौतुहल के साथ दुर्गा को देख रहे थे l माँ ने बताया - हमने गोद लिया है, आरुषि के साथ खेलने के लिए, कोई नहीं था ना , वह रोज कहती थी, मुझे सचमुच की गुड़िया चाहिए l अब देखो, वह कितनी खुश है ! कुछ लोग कहते - अरे, गोद लेना था तो बेटा गोद ले लेते l अरे नहीं, आरुषि को तो गुड़िया ही चाहिए थी l आरुषि यह सुनकर खुश हो गई कि माँ ने सब कुछ संभाल लिया है l उसने दुर्गा को अपनी बाँहों में समेट लिया l जन्मदिन के ढेर सारे उपहार में आए खिलौनों से दुर्गा खेलने लगी और बढ़ने लगी प्रतिपल l
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