Sanvednao ke swar : ek drashti - 3 in Hindi Poems by Manoj kumar shukla books and stories PDF | संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि - 3

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संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि - 3

संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि

(3)

मित्र मेरे मत रूलाओ.....

मित्र मेरे मत रूलाओ, और रो सकता नहीं हूँ ।

आँख से अब और आँसू, मैं बहा सकता नहीं हूँ ।।

जिनको अब तक मानते थे, ये हमारे अपने हैं ।

इनके हाथों में हमारे, हर सुनहरे सपने हैं ।।

स्वराज की खातिर न जाने, कितनों ने जिंदगानी दी ।

गोलियाँ सीने में खाईं, फाँसी चढ़ कुरबानी दी ।।

कितनी श्रम बूदें बहाकर, निर्माण का सागर बनाया ।

कितनों ने मेघों की खातिर,सूर्य में हर तन तपाया ।।

धरती की सूखी परत ने, विश्वासों को चौंका दिया ।

कारवाँ वह बादलों का, सरहदों से मुड़ गया ।।

काँच के दर्पण -से सपने, टूट कर कुछ यों गिरे ।

पैरों में नस्तर चुभाते, खूँ से धरा को रंग गये ।।

मित्र मेरे मत रुलाओ, और रो सकता नहीं हूँ ।

आँखों से अब और आँसू, मैं बहा सकता नहीं हूँ ।।

***

दूर क्षितिज के पार से है.....

दूर क्षितिज के पार से है,

झाँकता मुखड़ा सलोना ।

दे रहा फिर प्रेम का वह,

गर्म साँसों का बिछौना ।।

उदासियों की साँझ जाने,

किस दिशा में खो गयी ।

कौन सी औषधि न जाने,

दुखते मन को धो गयी ।।

मुस्कान टेसू ने बिखेरी,

गुलाब की कलियाँ खिली ।

बेला की खुशबू लजायी,

रात की रानी खिली ।।

चाँद की फिर चाँदनी है,

छा गयी आकाश में ।

तन दहकने सा लगा है,

इस भरे मधुमास में ।।

फिर शिरायें रक्त की,

गर्म हो - हो कर मचलती ।

आलिंगनों की चाह में,

मन की कलियाँ हैं विहंसती ।।

पँख फैलाये परिन्दा,

नीड़ में फिर आ गया ।

तृप्ति का रसपान करने,

फिर घरोंदा भा गया ।।

***

चलो सुनहरे गीत सजायें.....

चलो सुनहरे गीत सजायें,

दिल में खुशियाँ मीत जगायें ।

जीवन के उजड़े आँगन में,

हॅंसी –खुशी से तीज मनायें ।।

अमराई में झुकी डाल से,

कोयलिया ने कूक लगायी।

मस्त पवन की पुरवाई से,

खेतों की बालें हरषायी ।।

खुशहाली के गीत गूँजते,

गाँवों की चैपालों में ।

टोरा - टोरी धूम मचाते,

खेत - मेढ़, खलिहानों में ।।

सूरज की किरणें भी नभ में,

फैल गयी हैं अभी - अभी ।

मौसम की डालों में कोपल,

मुसकायी है नयी - नयी ।।

सब के दामन में अब खुशियाँ,

चलो बिखेरें रंग - भरी।

और चाँदनी के सँग मिलकर,

रास रचायें हॅंसी-खुशी ।।

***

फागुन के स्वर गूँज उठे.....

फागुन के स्वर गूँज उठे,

छायी भंग तरंग ।

ढोल मजीरे बज उठे,

झाँझ मृदंग के सँग ।

ये होली आयी है, गजब की छायी है ।

कि होली आयी है, गजब की भायी है ।।

तन चंदन सा महक उठा,

भई मतवाली चाल ।

लाख सम्हाले मन नहीं,

माने दिल की बात ।

ये होली रंग लायी, खुशी के क्षण लायी ।

कि होली आयी है, गजब की छायी है ।।

हवा बसंती बह रही,

मौसम है किलकन्त ।

राग द्वेष सब उड़ गये,

हुआ दुखों का अंत ।

ये होली भोली है, मधुरिमा घोली है ।

कि होली आयी हे, गजब की छायी है ।।

  • आँखों से अॅंखियाँ मिली,
  • अॅंखियों से मिली आँख ।
  • साड़ी चुनरी यॅूं रंगी,
  • ज्यों तितली की पाँख ।
  • ये होली आयी है, रंगों को लायी है ।

    कि होली आई है, गजब की भायी है ।।

  • मन डूबा जब रंग में,
  • झूम उठे सब अंग ।
  • पिचकारी की धार से,
  • अॅंगिया हो गयी तंग ।
  • ये होली शरमायी, लाज से घबरायी ।

    कि होली आयी है, गजब की भायी है ।।

    फगुनाई की धूप में,

    विरहन के जले अंग ।

    अँखियाँ कन्त निहारते,

    भए पथरीले पंथ ।

    ये होली याद आयी, पिया मन को भायी ।

    कि होली आयी है, गजब की भायी है।।

    पास पड़ोसी सब खड़े,

    सँग टोली हुड़दंग ।

    साजन द्वारे आ गये,

    हो गये सबरे दंग ।

    ये होली हरजाई, प्यार से मुसकायी ।

    कि होली आयी है, गजब की छायी है ।।

    चूड़ियाँ तब खनकन लगीं,

    तन भयो सूत कपास ।

    हँसकर होली कह उठी,

    प्रियतम क्यों हो उदास ?

    ये होली ऋतु आयी, सभी के मन भायी।

    कि खुशियाँ लौट आयीं, सभी के मन भायीं ।।

    ***

    आघातों-प्रतिघातों से कब.....

  • आघातों - प्रतिघातों से कब,
  • किसको क्या मिल पाया है ।
  • भीष्म पितामह सा योद्धा भी,
  • सर – शैया पर अकुलाया है ।
  • वाणी की कर्कशता साथी,
  • कभी ना मुझको भायी है ।
  • बचपन से मेरे दिल में यह,
  • जहर घोलती आयी है ।
  • प्रेम, शांति मुस्काते रहना,
  • सदा यही बस भाया है ।
  • तन-मन-धन जीवन यह सारा,
  • इस पर सदा लुटाया है ।
  • ईर्ष्या, बैर, बुराई, नफरत,
  • दीमक सा तन को खाती है ।
  • हर पल मन मर्माहत करके,
  • काल- रात्रि ये बन जाती है ।
  • प्रियतम दिल में बसना चाहो,
  • सारी खुशियाँ दे दूंगा ।
  • आँचल में नभ, चाँद, सितारे,
  • ला - ला कर नित भर दूंगा ।
  • नेह प्रेम की खातिर अपना,
  • सारा जीवन न्यौछावर है ।
  • बदले में यदि प्राण चाहिए,
  • सहज भाव में अर्पित है ।
  • ***

    पत्थर के सीने में उगकर.....

    पत्थर के सीने में उगकर,

    जो लहराये कविता है ।

    कीच भरे दल- दल के ऊपर,

    जो खिल जाये कविता है ।

    पथरीली ऊसर जमीन को,

    जो हरिया दे कविता है ।

    थके राहगीरों को शीतल,

    छाया दे वह कविता है ।

    शोषित-पीड़ित जन मानस में,

    क्रांति जगा दे वह कविता है ।

    घने तिमिर का चीर के सीना,

    जो रख दे वह कविता है ।

    जन-मन के दुखते घावों को,

    जो सहला दे कविता है ।

    काँटों के जो बीच बैठकर,

    मुस्काये वह कविता है ।

    द्वेष, ईर्ष्या और नफरत को,

    जो दफना दे कविता है ।

    प्रेम - भाई - चारा फैला दे,

    वही समझिये कविता है ।

    गिरे हुये लोगों का सम्बल,

    जो बन जाये कविता है ।

    पिछड़ों को गतिवान बना दे,

    वही समझ लो कविता है ।

    ***

    ओ दीप तुझे जलना होगा.....

    ओ दीप तुझे जलना होगा, तूफां से लड़ना होगा ।

    इस घने तिमिर के रात्रि पहर में, उजियारा करना होगा ।।

    जाति –पाँत की फसलें उगती, राजनीति के बागानों में ।

    लज्जित सी आहत मानवता, सिसक रही शमशानों में ।।

    स्वार्थ, मोह के गलियारों में, सारा तंत्र कलंकित है ।

    गिरे चरित्र के हर पारे से, हर जन -मन आतंकित है ।।

    खुलेआम नारी की अस्मत, लुटती भरे बाजारों में ।

    आहत मानवता की चीखें, गूँज रही अखबारों में ।।

    तुलसी, नानक और कबीरा, बंद पड़े तहखानों में ।

    मस्ती,लोफर और आवारा, बिकते हैं दुकानों में ।।

    गोली की चलती बौछारें, शांत हिमालय की घाटी में ।

    जब चाहे नापाक कदम भी, बढ़ते देश की माटी में ।।

    गुरू -ग्रंथ के शबद कीरतन, खोये बमों धमाकों में ।

    गुरुनानक गोविंद की वाणी, खोयी आज फिजाओं में ।।

    उग्रवाद, आतंकी किस्से, गूँजे गली बाजारों में ।

    रिश्वत, भ्रष्टाचार, घोटाले, छाये हर अखबारों में ।।

    बेईमानी की फसल उगी है, खलिहानों में अटी पड़ी है ।

    चरित्रवान के घर आँगन में, नेकी अब लाचार खड़ी है ।।

    सिसक रही मरियम और सीता,आहत मन का ताजमहल है ।

    रोती है कुरान - बाईबिल, गीता सँग रामायण नम है ।।

    ***

    दो मुँहे अब साँप भी, बढ़ने लगे हैं.....

    दो मुँहे अब साँप भी, बढ़ने लगे हैं,

    घर गली आँगन में, अब चलने लगे हैं ।

    खतरों के सैलाबों से, कैसे बचें हम,

    आस्तीनों में भी अब, पलने लगे हैं ।

    अब इसे तुम भाग्य या, दुर्भाग्य कह लो,

    या सुखों की दल-दली, बरसात कह लो ।

    या इसे जीवन का तुम, अवसाद कह लो,

    इनके संग रहना हमें, अब सीखना है ।।

    जख्मों से अब जख्म, भी बढ़ने लगे हैं,

    अब मर्ज भी बेमर्जी से, बढ़ने लगे हैं ।

    जिन्दगी लम्हों की खातिर, हैं परेशां,

    पल सुकूँ की खोज, सब करने लगे हैं ।।

    पीने को जब शेष, कुछ भी ना बचा हो,

    पी रहें हैं जहर सब, मजबूर होकर ।

    कब तलक सूखे अधर, तुम रह सकोगे,

    कब तलक जीवन से, यॅूं लड़ते रहोगे ।।

  • जिंदगी चौराहों में, सबकी खड़ी है,
  • किस दिशा में जाएँ, यह मुश्किल घड़ी है।
  • राष्ट्र की तरुणाई भी, अब रो पड़ी है,
  • रहनुमाई देश की अब, सो गयी है ।।
  • ***

    डायरी के वरक जब पलटने लगे.....

    डायरी के वरक जब पलटने लगे,

    कारनामों से परदे सरकने लगे ।

    तुमने चेहरे पे चेहरे लगाये तो क्या,

    लोग चाल अब तुम्हारी समझने लगे ।

    जुल्म जितने भी कर लो अंधेरे में तुम,

    भाग कर रोशनी से कहाँ जाओगे ।

    जिंदगी उलझनों में उलझ जायेगी,

    सत्य का सामना कैसे कर पाओगे ।

    सच का दामन पकड़ कर चलोगे जहाँ,

    फूल ही फूल पथ में मिलेंगे वहाँ ।

    तुम पे तोहमत ना कोई लगाये कहीं,

    पाक दामन पे धब्बा लगे ना कभी ।

    जग से रुखसत करोगे जब एक दिन,

    यह जग भी तुम्हें ना भुला पायेगा ।

    जब भी गुरबत के बादल उठेंगें यहाँ,

    याद तुमको करेगी यह दुनिया सदा ।

    जिंदगी को सॅंवारो सलीके से अब,

    काम ऐसा करो जिसकी जयकार हो ।

    ***

    राष्ट्र भक्ति और सेवा के नारे सभी.....

    राष्ट्र भक्ति और सेवा के नारे सभी,

    उड़ रहे हैं फिजाओं में तिनकों-से अब ।

    मूर्तियाँ जो मंदिर में रखवाईं थीं,

    देखते - देखते सब वे खंडित हुईं ।

    आज नजरें जहाँ तक भी दौड़ाओगे,

    चंद गद्दारों को तुम वहाँ पाओगे ।

    सबके सब झूठ के हैं पुलिन्दे बने,

    देश के वास्ते वे हैं खतरे बने ।

    वंदनाएँ गुँजाते थे जन- गण की जो,

    वे भी खामोश हैं पत्थरों की तरह ।

    आज दुबके हैं कहीं गुमनामी में फिर,

    या भटकते फिरें मुफलसी दौर में ।

    राजनीति अॅंधेरों के कब्जे में हैं,

    देश मेरा लुटेरों के कब्जे में है ।

    इन लुटेरों से हमको ना मोहताज रख,

    मेरे भगवन मेरे देश की लाज रख ।

    ***

    स्मृतियाँ कैद हुईं, चित्रों में मौन .....

    स्मृतियाँ कैद हुईं, चित्रों में मौन,

    धुँधआई यादों में, माटी की सौंध ।

    आमों के झुरमुट से, कोयल की कूक,

    जग आई प्रियतम से, मिलने की हूक ।

    प्यासी रहट की वह, अनबुझ सी प्यास,

    छाया हो मौसम में, जैसे मधुमास ।

    कुंज-कुंज गली-गली, झूमती बयार,

    बौराए मौसम सँग, करती मनुहार ।

    खेतों में हरियाली, दिखती अपार,

    मेंढ़ें भी सज-धज कर, करती शृंगार ।

    स्वर्णिम सी देह लिये, झूमे हर डाल,

    शर्मीली लगती है, गेंहूँ की बाल ।

    श्रम का पसीना और, खेतों पे काम,

    बैलों को हाँकती वह, खलिहानी शाम ।

    प्रेम भरे बंधन का, अनुपम संसार,

    डोली ले आया हो, दुल्हन कहार ।

    गाँवों में मौसम की, मदमाती शान,

    वंशी सँग गूँजती है, वीणा की तान ।

    ***