I am still waiting for you, Shachi - 14 in Hindi Fiction Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 14

Featured Books
Categories
Share

आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 14

आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची

रश्मि रविजा

भाग - 14

( समापन क़िस्त )

शची के यहाँ से निकला.... निरुद्देश्य सा इधर उधर भटकता रहा थोड़ी, देर... कुछ लोगों से बातें की... मन में भले ही झंझावात चल रहें हों.. पर प्रोफेशनल ड्यूटी तो निभानी ही है... जिस काम के लिए आया है, उसे तो अंजाम देना ही है..... भले ही दिल के अंदर अरमानों की मौत हुई हो... पर नए विचार, आलेख के जन्म लेने के लिए तो जमीन तैयार करनी ही होगी.

थक हार कर गेस्ट हाउस लौटा. और प्रोफेशनल चोला उतार कर फेंकते ही एकदम कमजोर पड़ गया. सोचने लगा, किस मुहूर्त में यहाँ आने का फैसला लिया. कम से कम इतने दिनों, शची से मिलने की उम्मीद पर जिंदा था... अब तो वो भी गयी. पर शची के मन में भी क्या कोई भावना सर नहीं उठा सकी?. कैसे भूल गयी वह, सबकुछ?.. और एक वो है, उन्हीं दिनों की याद को सारी ज़िन्दगी भेंट कर दी. पर शची क्या सचमुच भूल गयी है?.. फिर कैसे, जब वह 'कणिका ' को नहीं याद कर पा रहा था तो बड़ी गहरी मुस्कराहट के साथ बोली थी, "कभी तो तुम्हारी बड़ी गहरी छनती थी उस से " इसका अर्थ है, वह भूली नहीं है कुछ. फिर इस अभिनय का क्या अर्थ है? आखिर किस बात से बचना चाहती है?

शची को देखते ही कितने अरमानों ने सर उठा लिया था... एक पुस्तक भी तो रची जा रही थी इस धरा पर. जिसके आधे से अधिक पन्ने कोरे रह गए थे. आज शची को देख, एक आशा जगी, काश उसके अंतिम पन्ने पर ही कुछ उकेरा जा सके. पर शची को यूँ अपने कार्य के प्रति समर्पित देख, काली छायाएं मंडराने लगी थीं, उस आशा पर... फिर उसका अजनबी व्यवहार उसे सर्द बना गया और आज उसकी दुनिया से साक्षात्कार के बाद तो बिलकुल ही दफ़न हो गयी यह आशा.

इतने दिनों से संचित आत्मविश्वास बिखरने लगा. खामियां ही खामियां नज़र आने लगी, खुद में. क्या किया उसने जीवन में? आज ही अगर उसे कुछ हो जाए. तो कौन है ऐसा, जिसे उसकी कमी शिद्दत से महसूस होगी?... आँसू बहाने वाले जरूर बहुत मिल जाएंगे पर कोई तो ऐसा नहीं... जिसे, उसके बगैर, अपनी ज़िन्दगी ही व्यर्थ होती नज़र आए. पर आज ऐसे खयालात क्यूँ आ रहें हैं?.. क्या शची को यूँ संतुष्ट देख?.. शची को अपनी दुनिया में लिप्त देख, उसे भी यह कमी खल रही है ? खुद से ही सवाल कर बैठा. तो वह क्या शची को भी अपनी तरह एकाकी जीवन बिताते देखना चाहता था? शायद शची से अब तक वह एक एकाकीपन के डोर से बंधा हुआ था और खुद ही सोच लिया कि एक छोर पर वह अकेला है तो दूसरे छोर पर शची.. और अब शची के जीवन में दो प्यारे मासूम से बच्चों की उपस्थिति सहन नहीं कर पा रहा, अगर कोई पुरुष होता, फिर क्या करता वह?... यही है प्यार उसका?... मन पश्चाताप से भर उठा, ये कैसा प्यार है? अपनी हर सांस में उसने शची की ख़ुशी चाही है.... या सिर्फ उसे ऐसा मुगालता था?

मन बेचैन हो उठा... उठकर बालकनी में आ गया. ऐसा लगा जैसे अपने मन की सच्ची तस्वीर वो देख नहीं पा रहा. आज खुद को इतना छोटा.. इतना स्वार्थी देखना.. सहन नहीं कर पा रहा था.

बाहर घुप्प अँधेरा फैला था... हाथ को हाथ नहीं सुझाई देने वाला. और ऐसी काली रात में अपनी ख़ास काली कॉफ़ी की तलब हो आई उसे. जिसमे दुधिया चांदनी का स्पर्श भी ना हो... ना ही, हो ओस की मिठास. बस एक एक जलता घूँट हलक से उतारता रहें, और उसके तन मन की आग कुछ ऐसा रूप ले ले की उसकी रोशनी में ही कुछ रास्ता नज़र आए. कितने ही ऐसे कशमकश भरे क्षण निकाले हैं उसके सहारे. पर यहाँ कॉफ़ी कहाँ मयस्सर. काश 'लंग्स कैंसर' पर एक फीचर तैयार करते वक़्त सिगरेट ना छोड़ी होती.. शायद उसके गोल्ड फ्लैक के दो कश ही कुछ रहत देते. या बियर की दो घूँट. पर इस अजनबी शहर में बहुत असहाय महसूस कर रहा था. इतने दिनों के यादों का संबल छूटने के बाद, आज उसे किसी सहारे की सख्त दरकार थी. आखिर बरसों पहले उठायी हुई कलम का ही सहारा ढूँढा, बेडलैम्प जला कुछ लिखने कि कोशिश की पर दो पंक्ति से गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकी.

खीझ कर कलम पटक दिया.

पता नहीं आज माँ की इतनी क्यूँ याद आ रही थी. लन्दन में भी जब भी इतना अकेलापन महसूस करता, झट माँ को फोन खटका लेता. पर पता था वहाँ अपनी नींद के साथ, माँ की नींद हराम नहीं कर रहा, उस वक़्त यहाँ दिन होता था, अभी तो माँ सो रही होंगी... इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया.. पर अब तो उसे ही रास्ता ढूंढना होगा... ऐसे क्यूँ नहीं सोच रहा, हो सकता है.. शची को यूँ सुखी-संतुष्ट देख वह भी अपने ज़िन्दगी के फैसले कर सके. ना अब और बेवकूफी नहीं. उसे शायद भगवान ने इसीलिए यहाँ भेजा कि वह शची की तरफ से आश्वस्त हो जाए... और जिन भावनाओं ने उन्हें रोक कर रखा था.. उस से छुटकारा पा सके... आसान नहीं पर कोशिश तो करनी पड़ेगी. कल चला जायेगा यहाँ से और एक बार बैठकर फिर से अपनी ज़िन्दगी पर गौर करेगा... अभी तो सोने की कोशिश करता है... और मुहँ तक चादर खींच उसने उलटी गिनती गिनने शुरू कर दी.

000

सुबह फिर, चाय के साथ, किसी के नीचे हॉल में इंतज़ार करने की खबर मिली... ओह! मन हुआ कह दे, बीमार है.. फिर सोचा उसका ही भला होगा.. इस जगह के बारे में कुछ और जानकारी मिलेगी. इस बार एक कॉलेज के फंक्शन में बुलाया गया था. चलो जाकर देखेगा... कैसा कॉलेज है.. उसकी नज़रें वह बहुत कुछ देख लेती हैं, जो सबकी नज़रों से छूट जाती है. उसकी राहत के लिए ये सज्जन कुछ गंभीर किस्म के थे और जरूरत से ज्यादा बातें नहीं की.

कॉलेज पहुंचा तो, फिर से शची को पाया वहाँ और मिस्टर पटनायक को भी. शायद ये लोग इस शहर के कुछ जानेमाने नाम में से थे और हर जगह आमंत्रित किए जाते थे. पटनायक साहब हमेशा की तरह हंसने-हंसाने के मूड में थे पर शची कुछ शांत दिख रही थी. कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद.. पूछ बैठी कब जा रहा है.. और जब बताया कि 'शाम को' तो कहने लगी... 'अगर फ्री हो तो घर पर आ जाओ लंच पे "

शची को यूँ उदास देख, उसने मजाक करने की सोची. और पूछ बैठा.. "अच्छा तो,, खाना भी बना लेती हो "

शची के पहले ही मिस्टर पटनायक बोल पड़े, " अरे और क्या खूब बना लेती हैं, ये मौका हाथ से नही जाने दीजियेगा... मैं तो राह देखता रहता हूँ.. कब के. एस. मैडम बुलाएं... "

"अरे आप भी आ जाइये ना.. ". शची बोल पड़ी. हम्म समथिंग रौंग... आज शची गुस्सा होना भी भूल गयी उनके के. एस. कहने पर.

"मेरी कहाँ ऐसी किस्मत मैडम... अभी ३ पीरीयड लगातार लेने हैं.. भागता हूँ मैं, अब. " फिर उसकी तरफ मुखातिब होकर बोले..... "अभिषेक जी, भूल मत जाइएगा इस नाचीज़ को... आपके शहर आऊंगा तो जरूर मिलने आऊंगा "

"हाँ हाँ जरूर.. आइये.. मैं इंतज़ार करूँगा.. ".. और हाथ मिला, विदा हो गए.

शची ने पूछा, "अभी चल रहें हो साथ?"

"थोड़ा काम है.. निबटा कर आऊं.... "

"हाँ हाँ... टेक योर टाइम.. ".. और फिर से औपचारिक रूप से विदा हो लिए दोनों.

कुछ काम भी था और वह खाली हाथ भी नहीं जाना चाहता था. पहली बार तो उसे पता नहीं था कि बच्चे भी हैं, वहाँ... और आज जब पता चल गया तो एक चॉकलेट भी ना ले जाए.. इतना भी गैरजिम्मेदार नहीं वो.

महानगर के शो रूम्स के आदी, अभिषेक को, यहाँ की दुकानों पर कुछ भी अच्छा नहीं लगा.. फिर भी उसने ढेर सारे उपहार खरीद लिए दोनों बच्चों के लिए. और अब पुलिस मुख्यालय जाना था. यह एक आदर्श शहर था पर वो देखना चाहता था यहाँ अपराधों की क्या स्थिति है... क्या सबकुछ मुहैया होने पर आपराधिक मानसिकता कुछ कम हो जाती है. पर पुलिस डिपार्टमेंट पूरे देश में एक जैसी है... 'वो मोटी वाली, फ़ाइल लाना जरा'... 'हरी या लाल वाली??'.... 'एक भद्दी गाली.. अच्छा जा.. साहब के लिए एक चाय ला'... ओह, फेड अप हो गया है.. पर यहाँ जैसे किसी को समय की परवाह ही नहीं. बार बार घड़ी देख रहा था... और ये लोग एक से दूसरे के सर पर टाल रहें थे... मोटी मोटी धूल से भरी रजिस्टर.. उसके मुहँ पर ही झाड देते... काफी देर होती देख.. शची को फोन किया, "हे विल बी लिट्ल लेट".. ". नो प्रोब.. टेक योर टाईम... बाय ".... और बस बात ख़त्म... ये क्या हो रहा है... सुबह से बस दो लाईन बात हो रही है... रॉंग नंबर पे भी इस से ज्यादा बात हो जाती है... पर इस आखिरी मुलाकात को तो यादगार बनाना है. यहाँ से फुर्सत पा ले... फिर खूब हंसी मजाक करेगा... शची कितना नहीं बोलेगी.. देखता है.

वहाँ से काम ख़त्म कर सीधा गेस्ट हाउस भागा.. जल्दी से नहा कर कपड़े बदले और बैग समेत ही शची के घर की तरफ चला. वहीँ से सीधा स्टेशन जायेगा. अब जितना भी समय मिला है.. शची से दूर रहकर नहीं गँवाएगा. शची... उसके इंतज़ार में ही थी, प्लेन नीली साड़ी, छोटी सी नीली बिंदी और खुले बाल, उसपर कुछ इतने फब रहें थे कि देखा नहीं गया उसकी तरफ. उसके हाथों में इतने सारे पैकेट्स देख चौंक गयी... "ये ये सब क्या है.. "

"तुम्हारे लिए कुछ भी नहीं है.... यू कैन चेक.. बस बच्चों के लिए है कुछ... कहाँ हैं, दोनों?"

"नीतू... नलिन.. " शची ने आवाज़ दी और दोनों बच्चे भागते हुए आए. उसे नमस्ते किया और नीतू शची की साड़ी पकड़ खड़ी हो गयी. जैसे ही नीतू की तरफ पैकेट्स बढाए.. नीतू शची से थोड़ी और चिपक गयी.. "अंकल हमारा बड्डे नहीं है "

"ये बड्डे के एडवांस में है... "

"तो फिर हमें बर्थडे पर ही खोलने होंगे ये.. ?" नलिन था..

"नहीं.. नहीं.. " बस इतना ही बोल पाया.. कुछ सूझा ही नहीं... ये आजकल के बच्चे भी..

दोनों एक नज़र पैकेट्स को और एक नज़र शची को देख रहें थे. शची ने आँखों से इशारा किया और दोनों बच्चों की आँखों में चमक आ गयी.

नीतू ने ही जल्दी से आगे बढ़.. पैकेट थाम लिया, और शची के कहने पर कि 'थैंक्यू तो बोलो' शर्मा कर इतने प्यार से 'थैंक्यू अंकल'बोला कि उसने उसे खींच गोद में बिठा लिया और फिर नीचे कालीन पर बैठ ही उसकी मदद करने लगा, पैकेट खोलने में. शची उसके लिए ठंढा लेकर आई पर बैठी नहीं. नलिन अपने पैकेट्स के साथ उलझा था और वे और नीतू दूसरे पैकेट्स खोलने में लगे थे. एक नज़र देखा शची की तरफ और कुछ दरक गया भीतर. अब ये कौन सा रूप है शची का... उसकी सारी चपलता, सारा बातूनीपन जाने कहाँ छुप गया था, धीर-गंभीर लगती, शची बहुत बहुत उदास दिख रही थी. और उसे यह ख़याल आ ही गया.. 'इस लड़की ने शुरू से चौंकाया है उसे, कभी भी उसका अनुमान खरा नहीं उतरने दिया. इतने दिनों के अजनबी व्यव्हार के बाद इस अपेक्षित उदासी का क्या रहस्य है. ? कुछ कहने की सोच ही रहा था कि नीतू का पैकेट खुल गया और सुन्दर सी डॉल देख नीतू ख़ुशी से चीख पड़ी.. "मम्मा.. कितनी सुन्दर डॉल है, देखो.. पिंक फ्रॉक.. पिंक रिबन और शूज़ भी पिंक... "

"खेलो, तुम मैं खाना गरम करती हूँ.. " कहती शची अंदर चली गयी.

"डॉल मोस्टली पिंक ही होती हैं... स्टुपिड".. नलिन अब तक अपने पैकेट्स में ही उलझा था.

"यू... यू... टोमैटो... पोटैटो... ".. शायद नीतू 'स्टुपिड' से कुछ ज्यादा वजनदार कहने की कोशिश कर रही थी.

नलिन उसकी तरफ झपटा और नीतू भागी.. उसने नीतू को अपने पीछे कर लिया. और नीतू पीछे से उसके गले में बाँहें डाल उसकी पीठ पर झूल गयी.

वो उसके बालों की बेबी शैम्पू की मीठी महक और बेबी सोप की खुशबू , बहुत ही प्यारी लग रही थी... बिलकुल नया अहसास था उसके लिए. मनीष-विंशी की बिटिया बहुत शर्मीली थी.. उस से खुल नहीं पाती थी पर ये तो बिंदास कणिका की बिंदास बेटी थी, एक पल नहीं लगा और इतना हिल गयी उस से. उसने भी उसके दोनों कोमल हाथ पकड़ पीठ पर झुलाना शुरू कर दिया. नलिन अपनी गन देख बहुत खुश हुआ.. और दौड़ा गया शची को बुलाने.. 'मम्मा देखो.. अंकल ने क्या लाया है.. " उसे पता था ये औरतें कभी गन खरीद कर नहीं देंगी... और सच ही निकली उसकी आशंका.. शची भी गन देखकर चौंक पड़ी.. 'ये क्यूँ ले आए.. ?'..

'पता था मुझे... ऋचा भी डांटती है, मुझे... उसके बेटे को खूब बिगाड़ता हूँ.. कहती है.. इस से हिंसक प्रवृति बढती है.. हिंसक प्रवृति माई फुट... जिसमे होगी.. बिना गन से खेले ही आ जाएगी"

"ऋचा का बेटा है.. ?. ". शची ने थोड़ी उत्सुकता से पूछा..

"हाँ.. ५ साल का "

"और मनीष, विंशी के क्या हाल हैं... कोई कॉन्टैक्ट है उनसे?"

"उन दोनों की भी शादी हो गयी एक बिटिया है.. ३ साल की "

"गुड़.. चलो खाना लग गया है.. ".. और शची अंदर चली गयी..

'हाँ, शची.. बस मेरे बारे में मत पूछना. '. मन ही मन कहा उसने... और बाकी पैकेट्स खोलने में बच्चों की मदद करने लगा. शची फिर से आई.. और बच्चों को भी हाथ धो, टेबल पर आने को कह गयी.

छोटी सी मेज थी... शची को भी कहा, बैठने को.. पर उसने कहा... "हाँ, आती हूँ, मैं भी.. जरा नीतू को पहले खिला लूँ.. बड़े नखरे हैं, इसके... ' पर वो ज्यादातर किचेन में ही कुछ न कुछ करती रही. जबकि एक महिला और थी, किचेन में काम करने को. उसने भी ज्यादा जोर नहीं दिया.. खाना तो बहुत अच्छा बना था... और काफी दिनों बाद उसे घर का खाना मिल रहा था. शची भी उसके प्लेट का पूरा ध्यान रख रही थी. कुछ भी कम होता, तुरंत और डाल देती.. और एक बार जब सब्जी देने को चम्मच बढ़ाया तो मुश्किल से डेढ़ फीट की दूरी पर थीं उनकी आँखें, उसने पाया वे कमल सी आँखें पानी से लबालब हैं... और नज़र मिलते ही शची बिना सब्जी दिए ही लौट गयी. एक आवेग सा उमड़ा.. पर नीतू के स्वर ने थाम लिया.. "अंकल आपको शेर की आवाज़ निकालनी आती है?'

'आती है.. पर पहले खाना ख़त्म करो.. "

"नईsss... अभी सुनाओ. ".. और चम्मच रख झूठमूठ के गुस्से से होठ बिसूर कर सर नीचे कर लिया.

"अंकल ये ऐसी ही जिद्दी है.... अपनी बात मनवाने के लिए ऐसी ही पप्पी फेस बना लेती है... आप मत मानना इसकी बात.. " नलिन था.

कैसे नहीं मानता इतनी प्यारी सी गुड़िया की बात... एक नज़र किचेन की तरफ देखा और धीरे से नीतू की तरफ झुक शेर की तरह गुर्राया तो नीतू हँसते हँसते लोट पोट हो गयी.. और फिर से जिद कर बैठी.. "एक बार और अंकल.. एक बार और.. "

उसने बुरा सा मुहँ बनाया. ". मम्मी मारेगी अब?.. तुम्हे तो कम मुझे ज्यादा... "

नीतू जैसे कल्पना कर बैठी और मुहँ दबा खी खी कर के हंसने लगी. ओह बच्चे भी कितने स्ट्रेस बस्टर होते हैं . और उसके कुलीग्स हैं.. घर जाने का नाम ही नहीं लेते, काम काम और बस काम... अब धक्के मारकर भेजेगा उन्हें.

000

खाना खाने के बाद, फिर से ड्राईंग रूम में आ गया. बच्चे ही साथ लगे रहें. शची अंदर ही प्लेट्स उठाने रखने में लगी थी. शची के लिए आया था.. पर आज शची छिटकी फिर रही थी. एक गहरा निश्वास लिया उसने.. ऐसे ही सही... क्या कर सकता है वह. अब तो चलने का वक़्त भी हो गया. बच्चे उसके जाने की बात सुन, बड़े उदास हो गए. उन्हें अपना एक अच्छा दोस्त छीनने की खबर अच्छी नहीं लगी. नीतू ने उसकी टांगों से लिपट कर कहा, "अंकल अभी बहुत दिन रहिये ना"

"कुछ जरूरी काम है बेटे... हम फिर आयेंगे "

"जाइए.. हम नहीं बोलते आपसे.. " नीतू ने फिर होठ बिसूर दिए.

"अरे नहीं बेटे... "... कहते उसका गला भी भर आया.. नीतू को उठा गले से लगा लिया... आँखों की नमी को उसके बालों में छुपा गया. ये कौन से क्षण होते हैं, जो सारी दूरी.. सारा अजनबीपन मिटा... ऐसी आत्मीयता उगा डालते हैं.

शची ने कहा..... "चलो तुम्हे स्टेशन छोड़ देती हूँ "

"अरे चला जाऊंगा... क्यूँ परेशान हो रही हो तुम "

"नहीं ऑटो मिलने में मुश्किल होती है.. "

"मुझे तो नहीं हुई अब तक.. "

और शची मुस्कुरा पड़ी, "हाँ, नहीं हुई होगी... तुम इस शहर के लगते कहाँ हो... उन्हें पता चल जाता होगा... तुम बाहर से आए हो और वे मनमाना किराया वसूल कर सकते हैं.. यहाँ मीटर नहीं होता, ना.. "

"येस्स... तो इसका मतलब.. शची ने नोटिस किया है, उसके एपियरेंस को... नॉट बैड... ' मन ही मन सोचा पर ऊपर से बोला.. " फिर तो मिल ही जाएगी.. क्यूँ तकलीफ कर रही हो... ?"

एकदम से उसकी आँखों में देख शची ने पूछ लिया, "क्यूँ... मेरी कंपनी इतनी नापसंद है ?"

मन हुआ, उसे कंधे से घेर, उसकी आँखों में झाँक कर बोले... " ताजिंदगी बस तुम्हारी कंपनी का ही सपना देखा है.. एक बार आजमा कर तो देखो... कभी आजमाती ही नहीं तुम.. " पर ऐसा कुछ नहीं बोल सका बस शची के पीछे हो लिया.... शची उसके उत्तर की प्रतीक्षा किए बगैर गाड़ी की तरफ बढ़ गयी थी.

सच शची ने उसे कभी मौका ही नहीं दिया अपना प्यार प्रूव करने का. कुछ लडकियां क्यूँ इतनी सेल्फ एश्योर्ड, इतनी कांफिडेंट होती हैं. अरे, एक बार जरा कमजोर पड़ कर तो देखो., जरा लड़खड़ा कर तो देखो.. थामने के लिए दो हाथ बढ़ते देख... कितना सुकून मिलेगा? पर नहीं, उन्हें चाहिए ही नहीं कोई सहारा... उन्हें पता है उन्हें ज़िन्दगी में क्या और कितना चाहिए... और अब ऐसी लड़कियों की तादाद बढती जा रही है.. सर हिलाया उसने. बैड लक बोएज़... अपनी तो कट गयी.. तुम लोगों के लिए उम्मीद कम है.

***

शची, ने स्टीयरिंग संभाल ली थी... साथ वाली सीट पर बैठ, वह सीट बेल्ट अनहुक करने लगा, लगाने को. और शची बोल पड़ी.. "अरे, रहने दो.. यहाँ रूल्स इतने स्ट्रिक्ट नहीं हैं.. चलेगा.. मैं भी नहीं लगाती"

और शची को पता नहीं था, उसने उसकी किस रग पर हाथ रख दिया है, बेल्ट लगाता हुआ बोला, "क्यूँ नहीं जरूरी है, लगाना ?"

शची की निगाहें सड़क पर थी, वरना उसके चहरे का भाव देखते ही, सब समझ जाती. बोली, "यहाँ कोई फाईन नहीं लगता "

"सीट बेल्ट अपनी सेफ्टी के लिए लगाए जाते हैं या फाइन से बचने के लिए "

शची ने एक नज़र उसकी तरफ देखा और बोली, "मेरा ये मतलब नहीं था... यहाँ उतना ट्रैफिक नहीं है... इसलिए कहा. "

"बात ट्रैफिक और फाइन की नहीं है, शची.. बात है एटीच्यूड की. एम नॉट टाकिंग अबाउट यू पर जेनेरली देखा है, अपने देश में कोई भी काम लोग लोग किसी ना किसी के डर से करते हैं, क्यूँ? अपनी जिम्मेवारी क्यूँ नहीं समझते? हमें आज़ाद हुए इतने दिन हो गए पर मन से गुलामी नहीं गयी. हमें सर पर किसी का खौफ चाहिए. जिसके डर से हम कोई काम करें. आस-पास फैली गन्दगी को ही ले लो.. इस शहर को तो फिर भी तुमलोगों ने काफी साफ़-सुथरा रखा है.. पर बड़े शहरों को ले लो. कोई नहीं देख रहा.. चुपके से कूड़ा डाल जाएंगे.. सिग्नल तोड़ जाएंगे. "

"अभिषेक, यहाँ जनसँख्या कितनी ज्यादा है.. अशिक्षा है.. गरीबी है.... अब विदेशों जैसी साफ़ सफाई ढूंढोगे तो यहाँ कहाँ मिलेगी?"

"हाँ रटते रहें सब वही जुमले... अरे मैं पढ़े लिखों की बात कर रहा हूँ... कितने लोग अपनी जिम्मेवारी समझते हैं? ड्रिंक कर के गाड़ी नहीं चलानी चाहिए कौन नहीं अवेयर है.. पर नहीं, जब तक पुलिस डंडा लेकर नहीं खड़ी होगी... कोई असर नहीं... "वह अपनी रौ में आ चुका था और अब पुराने अभिषेक की जगह नए अभिषेक ने ले ली थी.. रुकना मुश्किल था उसका, जारी रहा... " लन्दन में था... इण्डिया से दोस्त नेट पे आते.. ख़ुशी ख़ुशी अनाउंस करते.. "आज तो सारा दिन चाट पे.. बॉस छुट्टी पर है. ".. अरे बॉस के डर से काम करते हो?. यही मेंटालिटी है सबकी. कोई हम पर नज़र रखे और बताये कि क्या करना है., क्या नहीं वरना हम तो बस आराम से पड़े रहते हैं.... दैट्स टू बैड "

"बाबा इतना भाषण... अभी लगा लेती हूँ सीट बेल्ट.. "

"हाँ लगा लो.. " वह अभी उस मूड से निकला नहीं था.

शची ने गाड़ी साइड में की.. और एकदम से फिर घुमा ली... और जान बूझ कर गाड़ी दायें- बाएं करने लगी..

"अरे क्या कर रही हो ये.. "

" मेरे शहर में आ कर मुझे ही भाषण दोगे... मैं क्यूँ सुनूँ तुम्हारी... मेरा जो मन होगा वही करुँगी.. " हँसते हुए बोली.

हंसा पड़ा वह भी.. "हाँ तुम्हारे शहर में और तुम्हारी गाड़ी में बैठकर... पर गाड़ी तो स्टेडी करो... नो शची.. आई रियली फील वेरी स्ट्रोंगली अबाउट इट "

"कैन अंडरस्टैंड, अभिषेक.. पर वही चलता है एटीच्यूड "

शची की नज़र सामने थी और वह खिड़की से गुजरते... पेड़ पौधे... खेलते बच्चों को देखने लगा. याद हो आया उसे.. कभी वह गाड़ी चलाता था और शची ऐसे ही साथ वाली सीट पे बैठे खिड़की से नज़ारे देखती रहती थी.. शची की तरफ देखा.. जाने क्यूँ लगा. शची भी यही सोच रही है.. "

बाकी का रास्ता छोटा भी था और मौन में ही कटा.

स्टेशन पर ट्रेन लगी हुई थी और एक हूक सी उठी मन में अभी उसे लिए यह चली जाएगी.. शची से दूर...

अपनी बोगी देख उसके पास ही खड़ा रहा.. दोनों चुप हो आए थे... अब बचा भी क्या था, बोलने को.. अचानक शची ने दूसरी तरफ देखते हुए.. पूछा, "कविता और बच्चे कैसे हैं ?"

जैसे आसमान से गिरा वह... ओह, तो शची अब तक विवाहित समझती रही उसे. उसके अब तक के व्यावहार का कारण सूर्य प्रकाश की तरह स्पष्ट हो उठा. इसीलिए वो अब तक बचती रही पुरानी बातों से. इतनी सी बात उसके ध्यान में आने से कैसे रह गयी कि जबतक वह नहीं बताएगा.. शची कैसे जानेगी भला ? कितना डम्ब है वह भी.. ओह..

शची, अब भी दूसरी तरफ ही देख रही थी. लगा जैसे कब से पूछना चाह रही थी, वो और अब भी बड़ी हिम्मत जुटाई है उसने पूछने की खातिर. थोड़ी देर चुप रहा फिर बोला.. "कोई सब पर ईश्वर की कोप दृष्टि तो है नहीं... जहाँ भी होगी.. अच्छी ही होगी?'

"मतलब??.. ".. अब शची ने देखा उसकी तरफ.

कुछ देर तक वह वैसे ही उन बड़ी बड़ी आँखों का कौतूहल देखता रहा.. फिर धीरे से बोला... "आयम स्टिल वेटिंग फॉर यू, शची "

"क्याsssss... " शची सिर्फ आवाज़ से ही नहीं अपने पूरे अस्तित्व से चौंक गयी थी. विस्फारित नेत्रों से उसकी तरफ देख रही थी.. लेकिन उसकी आवाज़ ट्रेन की व्हिसल में खो कर रह गयी.

"येस्स... " उसने मुस्कुरा कर सर हिला दिया. ट्रेन सीटी पर सीटी दिए जा रही थी. वह कभी ट्रेन की तरफ देखता कभी शची की बड़ी बड़ी आँखों को जिनकी गहराइयों में तेजी से पानी भरना शुरू हो गया था. कोई फैसला नहीं ले पा रहा था.. पर सरकती ट्रेन ने ही जैसे उसके लिए निर्णय ले लिया. लोहे की ट्रेन ने आज उसके लिए मैगनेट का काम किया और कब वह दौड़ते हुए ट्रेन पर चढ़ गया.. पता ही नहीं चला. दरवाजे की हैंडल निहारता रहा, आहिस्ता अहिस्ता धूमिल पड़ती उस आकृति को, जिसकी सिर्फ फहराती साड़ी का आँचल ही नज़र आ रहा थ. चेहरा नहीं क्यूंकि चेहरे पर दस लम्बी लम्बी उंगलियाँ फैली थीं.

000

धीरे धीरे फहराती साड़ी का आँचल भी बस एक बिंदु भर रह गया.. और थोड़ी देर में वो बिंदु भी गायब हो गया. और उस बिंदु के गायब होते ही दिल में जबरदस्त टीस उठी.. अब फिर कभी नहीं देख पायेगा, शची को??.. वो मिला भी पर ना कुछ पूछा, ना बताया ना ही इस मुलाकात को किसी अंजाम तक पहुंचाया और लौट रहा है?? क्या फिर मिलेगा उसे यह मौका??... वो कहते हैं ना दुख बार बार आपका दरवाजा खटखटाता है और ख़ुशी एक बार.. और अगर आपने दरवाजा नहीं खोला तो गयी ख़ुशी फिर लौट कर नहीं आती.. ईश्वर ने उसे एक मौका दिया... और इतना ज्ञान बघारने वाला वह उसका फायदा भी नहीं उठा पाया... विचारों के इन्हीं तूफानों में घिरा था कि देखा.. 'ट्रेन तो दूर जा रही है.. "फिर वो कहाँ है?" ये सब सोचते कब वह दरवाजे का हैंडल छोड़ कूद पड़ा, उसे गुमान भी ना हुआ. कंधे पर टंगे भरी बैग कि तरफ गिरा था.. उसका सारा भर बैग ने ले लिए था. मिटटी झाड़ते हुए उठ खड़ा हुआ... 'शुक्र है... यह छोटा सा स्टेशन है... और यहाँ इतनी जल्दी ट्रेन स्पीड नहीं पकडती. यही अगर महानगरों कि ट्रेन होती तो कब के उसे वारे न्यारे हो गए होते और वह ऊपर पहुँच गया होता, जहाँ जाकर शची का वेट भी नहीं कर सकता था, उसपे दो छोटे बच्चों कि जिम्मेवारी है. मुस्कुरा पड़ा... अब तो मंजिल सामने खड़ी है... बेशुमार वक़्त है उसके पास, वहाँ तक पहुँचने को.

खरामा खरामा प्लेटफ़ॉर्म की तरफ चल पड़ा... देखा शची प्लेटफ़ॉर्म पर ही एक किनारे एक बेंच पर बैठी है और उसकी लम्बी लम्बी उंगलियाँ अभी भी उसके चहरे को ढके हुए हैं. बिलकुल सामने जाकर धीरे से पुकारा, 'शची"

शची ने चेहरे से हाथ हटा कर उसे देखा. उसके चेहरे पर अविश्वास, आश्चर्य और हर्ष के ऐसे मिले-जुले भाव थे कि उसके दिल के कैमरे ने कहा, 'क्लिक'

पर पिक्चर अभी सेव भी नहीं हो पायी थी कि शची एकदम से उठी और उस से इतने जोरों से लिपट गयी कि बैलेंस करने को उसे दो कदम पीछे हटना पड़ा. प्लेटफ़ॉर्म लगभग खाली हो चुका था. फिर भी इक्का दुक्का लोग और खोमचे वाले... स्टॉल वाले तो थे ही. पर आज शची को उसके सिवा कुछ नज़र नहीं आया था. झिझकते हुए हाथ उसने भी शची के गिर्द लपेट दिए. उसे अब कुछ भी पूछने की जरूरत नहीं थी. शची के हाथों की जकड़न बता रही थी कि कितना मिस किया, शची ने उसे. यहाँ शची के आंसुओं से उसकी शर्ट तरबतर हो रही थी पर उसका दिल बल्लियों उछल रहा था, 'शी मिस्ड हिम मैन... शी मिस्ड हिम.. " और उसने अपना सर ऊपर आसमान की तरफ उठा दिया और मन ही मन थैंक्स बोल उठा उस नीले छतरी वाले को. मन इतना हल्का-फुल्का हो आया था कि यहाँ तक सोच गया, 'अच्छा है शची ने नाखून बढाने छोड़ दिए... वरना आज तो उसकी शामत थी. '

बरसों पहले की शाम याद हो आई, जब ऐसे ही, उस से लिपट कर रोई थी शची, और उस दिन वह खुद भी दुखी हो आया था... कुछ नहीं बोल पाया था. पर आज शची के बाल सहलाते हुए बोल रहा था, "स्टॉप क्रायींग नाउ... एम हियर ओनली..... नेवर टू लीव. शची. नेवर टू लीव.. इतनी मुश्किल से मिली हो.... अब कहीं नहीं जाऊंगा तुम्हे छोड़कर शची.. कहीं नहीं.. कब्भी भी नहीं.

( इति शुभम )