पिक्चर हॉल की सीढ़ियां चढ़ते समय मैं अचानक ठिठक गई थी .एक दिन इन्हीं सीढ़ियों से उतरते समय मैं अख्तर के साथ थी और अचानक घुटनों के बल गिर गई थी, तब उसने एकदम मुझे संभाल लिया था .उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया था .गिरी मैं थी शर्म उसे आई थी वह था ही बहुत शर्मीला.
यह आगे बढ़ गए थे ,फिर अचानक पीछे देखकर इन्होंने पूछा था ,अरे तुम पीछे क्यों रुक गईंं ?"
"साड़ी का पल्लू पैर के नीचे आ गया था ."मैंने हड़बड़ा कर बहाना बना दिया था. वह आगे आगे चल रहे थे ,फिर बालकनी में दाई तरफ मुड़ कर ऊपर एक पंक्ति छोड़कर सीट के आगे खड़े होकर मुझे बैठने का इशारा कर रहे थे मेरा कलेजा मुंह को आ रहा था.
इसी सीट पर तो मैं अख्तर के साथ बैठी थी. मुझे याद है- तब भी यहां नंबरिंग सिस्टम नहीं था ,इस तरफ इक्का-दुक्का लोग बैठे थे और वह मुझे साथ लेकर यहां एकांत में बैठा था .कोई उबाऊ सी फिल्म लगी थी .मगर फिल्म देखने कौन आया था ? उस दिन मैं बातोंं के बीच फिल्म तो बिल्कुल नहीं देख पाई थी.
यह कुछ पूछ रहे थे पर मैं कुछ जवाब नहीं दे पा रही थी. इन्होंनें पूछा था ,,"क्या बात है ,कुछ उदास हो?"
"नहीं -नहींं ..." मैं एकदम हंस दी थी, ताकि यह अपने विचारों को भ्रम समझे. फिर यह भी मुस्कुरा दिए थे .
पर्दे पर फिल्म शुरू हो गई थी .मेरी स्मृतियों की फिल्म भी चलने लगी थी.
जब मैंने कई बरस पहले अख्तर को देखा था तो वह एकदम घमंडी लड़का लगा था .बहुत कम बोलने वाला , नीली टी शर्ट उस पर बहुत फबती . वह था भी बहुत खूबसूरत, सच में मैं उसकी सुंदरता पर मर मिटी थी. मगर वह बोलता ही नहीं था .एक दिन बातों बातों में राज़ खुला कि वह तो बेहद शर्मिला दब्बू लड़का है ,घमंडी बिल्कुल भी नहीं ,दरअसल कम बोलना उसकी आदत थी. मगर वह बातों में रस बोलता था. जब मैंने उसके सामनेेे अपने दिल की कैफियत बयान की थी तो उसका चेहरा किसी नई नवेली दुल्हन की तरह गुलाबी हो गया था, मर्द होकर भी ऐसा क्या शर्माना ?मैंनेे सोचा था.
मैंने तो उसे एक सुंदर युवक मानकर चाहा था मगर वह निकला बहुत गुणी एक दिन बातों ही बातों में मालूम हुआ था कि वह कहानीकार है .उसने एक पत्रिका भी दी थी. कई दिन वह मेरे पास पड़ी रही थी . उन्हीं दिनों वह कहीं किसी नौकरी के लिए इंटरव्यू देेेने चला गया था और मुझे बाजी के पास मसूरी जाना पड़ गया था उनके आशू होने वाला था .
मैं वहांं खूब दिल भर कर घूमी थी. एक दिन शाम को जब मैं सैर सपाटे के बाद जीजा जी के साथ होटल लौटी थी तो मेज पर एक हिंदी पत्रिका रखी थी, अभी मैं ने उसे उल्टा-पुल्टा ही था कि उसमें अख्तर की छपी कहानी दिख गई थी.यही कहानी तो उसने मुझे दिखाई थी .एकाएक दिल के नाज़ुक तार झनझना उठे थे.याानि वह यहां भी मेरे साथ था. उसका दिल दिमाग मेरे साथ था . काश, मेरे पास पंख होते तो मैं उसी समय उसके पास पहुंच जाती .
एक दिन फिल्म चलने के लिए मैंने ही उससे कहा था.वह एकदम खुश हो गया था शायद शर्मीलेपन की वजह से उसे किसी लड़की का सान्निध्य अभी तक प्राप्त नहीं हो
सका था .उसके बाद फिल्म का सिलसिला चल पड़ा था.
मैं अभी यहीं तक सोच पायी थी की फिल्म का मध्यांतर हो गया था .ये बड़े खुश नजर आ रहे थे. मेरी तरफ देख कर बोले," देखा ,क्या गजब की आर्ट फिल्म है?"
मैं बिल्कुल उसी तरह चौंंकी थी, जैसे पहली बार अख्तर के साथ फिल्म देखते हुए चौंकी थी .वह भी एक कला फिल्म ही थी. अख्तर अपनी सीट पर बैठा हुआ खामोशी से पिक्चर देखता रहा था .मुझे बड़ी कोफ्त हुई थी .एक बार भी मेरी तरफ नहीं देखा उस ने, ना ही मेरा हाथ अपने हाथ में लिया था .मैंने हिम्मत करके जैसे ही अपना हाथ उसके हाथ पर रखा था कि मध्यांतर हो गया था .वह मेरी ओर बच्चे सी मुस्कुराहट बिखेर कर बोला था," देखा ,क्या गजब की आर्ट फिल्म है ."मैंने शरारती आंखों से उसे देखा था तो वह मुस्कुराने लगा था.
फिर अंधेरा हो चुका था .मेरा हाथ उसके हाथ में था. फिल्म में हीरो की बहन अंतिम सांसे ले रही थी. पिक्चर भी अंत पर थी अख्तर में एकदम जैसे आत्मविश्वास भर उठा था. अपना दायां हाथ मेरी कमर में डालकर मुझे अपनी ओर खींचकर वह फुसफुसया था ,"देखो, वह जा रही है, मगर तुम मत चली जाना ."
उस दिन के बाद हम दोनों एक दूसरे के बहुत करीब आ गए थे .मैं उसके प्रति पूर्णतया समर्पित थी. मगर वह पास आकर भी बहुत दूर था .मैं पिताजी के दिए हुए सारे पैसे उसके ऊपर खर्च करने लगी थी .वह बेरोजगार लेखक था और उसे आर्थिक और मानसिक शांति की सख्त ज़रूरत थी .मैंने उसे मानसिक तनाव से दूर रखने के लिए पूरी कोशिश की थी. वह अक्सर बोलते बोलते उदास हो जाता था. उसकी आंखों में आंसू भर आते थे. वह पैसे की तंगी को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था .मैं उसे पूरी तरह ढांढस बंधाती थी. जब उसकी किसी कहानी का पारिश्रमिक आता था तो वह सगर्व मुझसे कहता था ,"तुम मुझे बिल्कुल महत्व नहीं देती हो जबकि लोग मेरा मूल्य जानते हैं?" मैं उससे दुगने उत्साह से कहती थी," नहीं नहीं ,मैं तुम्हें बहुत महत्व देती हूं, भले ही तुम इस बात को समझ नहीं पाते हो."
दिन गुजरते गए थे. वह निराशा की पराकाष्ठा पर पहुंच चुका था. वह साहित्य में जितना प्रतिष्ठित होता जा रहा था उतना ही उसकी आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही थी. वह अत्यंत भावुक ,कायर और कमजोर होता जा रहा था. उसे देख कर मुझे किसी लिजलिजाते हुए केंचुए की याद आ जाती थी. स्त्री सब कुछ सहन कर सकती है ,मगर आदमी को कमजोर और कायर नहीं देख सकती.
मेरे और उसके संबंधों की चर्चा मेरे घर में हो चुकी थी बाजी तो अख्तर को पसंद करती थी मगर पिताजी ने साफ इनकार कर दिया था कि बिना रूपयों के ज्ञान की उनकी नज़र में कोई महत्व नहीं था. इधर अख्तर की बेरोजगारी का भी कोईअंत नजर नहीं आता था.
मैं कुछ ना कह सकी थी. संशय की स्थिति में खामोश रही थी .पिताजी मेरे रिश्ते की तलाश सरगर्मी से करने लगे थे. मुझे कोई भी रिश्ता नहीं भाता था सोचती थी, कहीं अख्तर से कम हुआ तो फिर उसे कैसे मुंह दिखाऊंगी.
आदिल से मेरे रिश्ते की बात उसे मालूम हो गई थी .फिर एक दिन वह मुझे मिल ही गया था. मैं नजरें बचाने लगी थी तो वह दर्पपूर्ण मुस्कुराहट से बोला था ,"नसरीन ,मैं जानता हूं कि मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूं और तुम भी मेरे योग्य नहीं हो तुम ऐशो आराम में जीने की आदी हो ,मेरे साथ अभाव में रहोगी तो टूट जाओगी, मुझे रूसो की तरह एक ऐसी पत्नी की आवश्यकता है जो कि मुझे मां ,बहन और प्रेमिका की तरह चाह सके अभाव में मेरे साथ तिल तिल कर मिट सके पर टूटे नहीं और तुम्हारे अंदर मैंने वो बात नहीं देखी."
वह मेरे अंतर्मन को इस तरह पढ़ ले लेगा, मैं सोच भी नहीं पाई थी. अपने विचारों को मैं उसके मुंह से सुनकर भौंचक्की रह गई थी .मैं सचमुच उसके योग्य नहीं थी और वह वह भी मेरे योग्य नहीं था. वह महज एक खूबसूरत सपना था जो मैंने जागी आंखों से देखा था .मैं हकीकत में उसके साथ खुश नहीं रह पाती. जिंदगी महकाने वाले खूबसूरत सपने उसके साथ जीने से टूट जाते .अगर वह साहित्य में से इसी तरह जुड़ा रहा तो भले ही अमर हो जाए मगर वह जिस जिंदगी में तिल तिल कर जी रहा है उस जिंदगी से मुझे चिढ़ है. सोचती हूं पिताजी ने ठीक ही निर्णय लिया था वैसे उसे आज तक नहीं मालूम कि अगर मैं पिताजी से जरा भी अड़ जाती तो वह इंकार नहीं करते.
अचानक किसी रोमांटिक दृश्य है पर इनका हाथ मेरी कमर की तरह अधिक दबाव डालने लगा था और मैं जैसे स्वप्न में जाग सी गई थी. यह मेरे कानों में रस सा घोलने लगे थे.
फिर मुझे याद आया था की एक दिन इसी सीट पर बैठे हुए अख्तर ने मेरे कानों में भावुकता से कहा था," नसरीन, कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी जिंदगी अब ज्यादा नहीं है. क्योंकि मैं हमेशा असंतुष्ट रहता हूं. शेक्सपियर कह गया है असंतुष्ट इंसान संसार में अधिक समय जीवित नहीं रहते." मैंने अख्तर का ठंडा आप अपनी गरम हथेलियों में दबा लिया और फिर बोली थी "मगर तुम तो कहा करते हो कि सुकरात कह गया है कि हमारी आत्मा अमर है".
वो खुश होकर बोला था," मैं जिंदगी की बात कर रहा हूं -आत्मा तो मरने के बाद अमर है." उस दिन हम दोनों अपने अपने दिल की बातें करते रहे थे .हमने फिल्म का एक भी दृश्य ठीक से नहीं देखा था.
फिल्म समाप्त हो चुकी थी .ये उठ खड़े हुए थे .मैं आज अचकचाकर इनके साथ खड़ी हो गई थी. इनकी आंखों में फिल्म की खुमारी बात की थी और मेरी आंखों में मेरी यादों की नमी बरकरार थी. हाल से निकलते समय मैं फिर से उन सीढ़ियों पर से गुजरी थी तो मेरे पैर कांंप से गए थे. ऐसा लगता था जैसे यह सीढ़ियां मुझसे रूठ कर हट सी रही थी और मैं फिर से अपना संतुलन खोने लगी थी फिर उस दिन की तरह मैं गिर रही थी ,किंतु अब इन्होंने मुझे अपने सशक्त हाथों में थाम लिया था.
सम्पर्क-शराफ़त अली ख़ान
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