Bhavyata me bhayavahta bhi hoti hai in Hindi Short Stories by Sushma Munindra books and stories PDF | भव्यता में भयावहता भी होती है

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भव्यता में भयावहता भी होती है

भव्यता में भयावहता भी होती है

सुषमा मुनीन्द्र

कॉंल बेल की घ्वनि सुन माधुरी बाहरी बरामदे में आई। शुक्ला प्रणामी मुद्रा में तैनात मिले —

‘‘मैडम, मैं शुक्ला। टी.सी. । आप और डॉंक्टर साहब जबलपुर जा रहे थे। मैं ए.सी. कोच में ड्‌यूटी पर था।''

आरम्भिक द्विविधा के बाद माधुरी ने पहचान लिया —

‘‘आइये।''

माधुरी ने ट्रेन में काफी बातें की थीं अतः शुक्ला को आशा थी वे उन्हें देख कर उत्साह दिखायेंगी। नहीं दिखाया। शुक्ला ने बुरा नहीं माना। पॉंच घण्टे की रेल यात्रा कर इस वक्त वे राह भटके हुये मुसाफिर की भॉंति अस्त—व्यस्त लग रहे होंगे। सम्भव है माधुरी असहजता का अनुभव कर रही हों।

माधुरी उन्हें बैठक में ले आई —

‘‘बैठिये।''

‘‘डॉंक्टर साहब नहीं हैं ?''

‘‘वे इस समय नर्सिंग होम में होते हैं।''

‘‘अच्छा—अच्छा।''

अच्छे परिसर वाले भव्य मकान की भव्यता देख कर शुक्ला का लघुता बोध बढ़ गया। वे मानो माया लोक में बैठे थे। कीमती सोफे, कालीन, पर्दे। समझ नहीं पा रहे थे क्या बात करें। माधुरी ट्रेन में वाचाल होकर बोल रही थीं अतः उन्हें आशा थी बोलती जायेंगी और बात के सिलसिले बनते जायेंगे। माधुरी कुछ देर चुप बैठी रहीं फिर एकाएक उठ खड़ी हुई —

‘‘देखिये, मुझे भूलले की आदत है। आपको पानी तक को नहीं पॅूंछा।''

‘‘मैं लड़की वाला हॅूं मैडम। आपके घर का अन्न—जल मेरे लिये उचित न होगा।''

‘‘अभी उचित है। संबंध हो जाये तो आज के पानी का शुल्क ले लूॅगी।''

‘‘शुल्क ?''

शुक्ला हॅंसे पर ठीक से न हॅंसे। भव्यता ऐसा गहरा असर डाल रही थी कि उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था वे उस भव्यता में हैं।

पानी के बहाने भीतर गई माधुरी देर तक न लौटीं। शुक्ला हताश हो गये। यहॉं आकर बेवकूफी तो नहीं की ? यात्रा के साथ ही उस दिन की बात खत्म हो गई ? ए0सी0 कोच में शुक्ला की ड्‌यूटी थी। डॉक्टर साहब और माधुरी रिश्तेदार के विवाह में सम्मलित होने के लिये जबलपुर जा रहे थे। डॉक्टर साहब ने शुक्ला से कहा —

‘‘बर्थ मिलेगी ? जो कहेंगे दे दॅूंगा।''

‘‘बैठ जाइये।''

ट्रेन चल पड़ी। जल्दी ही शुक्ला, डॉक्टर साहब की बर्थ पर आये —

‘‘कहॉ जायेंगे ?''

‘‘जबलपुर।''

‘‘चार सौ दीजिये। सरकारी काम से जा रहे हैं ?''

‘‘नहीं।''

‘‘हाई कोर्ट के कारण लोग जबलपुर जाते रहते हैं इसलिये पूॅछा।''

‘‘शादी में जा रहे हैं।''

शादी जैसा शब्द सुन शुक्ला वहीं बैठ गये। जिसे वे ईश्वरीय प्रेरणा से बैठना मान रहे थे —

‘‘बताइये, हर साल हजारोें शादियॉ हो रही हैं लेकिन मैं अपनी बेटी के हाथ पीले नहीं कर पा रहा हॅूं। कहीं बात नहीं बनती।''

डॉक्टर साहब ने प्रतिक्रिया नहीं दी जबकि पूरी तरह शांत बैठी माधुरी ने ऐसी व्यग्रता दिखाई कि शुक्ला चौंक गये।

‘‘आपकी बेटी कैसी है ? क्या बहुत सुंदर है ?''

‘‘मैडम आप देख ले तो खुश हो जायें। सुंदर है। शालीन है। इंग्लिश में एम0ए0 है। मांगलिक है इसलिये तमाम अड़चने हैं। कुण्डली मिलान होता है तो मुझे लड़का नहीं जमता। अच्छा लड़का है, तो कुण्डल्ी नहीं मिलती। ब्र्राम्हणों में अच्छा लड़का मिलना बहुत कठिन है।''

माधुरी की व्यग्रता बढ़ गई ‘‘आप ब्राम्हण हैं ?''

‘‘जी। मैं मामखोर शुक्ल हॅूं। चाहे जैसे घर में बेटी देते नहीं बनता।''

‘‘अरे। हम भी ब्राम्हण हैं। आप अच्छे मिल गये। ऐसी ही लड़की मुझे अपने बेटे के लिये चाहिये। वह भी मांगलिक है। दिल्ली में एम0एस0 कर रहा है। एम0एस0 पूरा हो जायेगा तो वह डॉक्टर साहब का नर्सिंग होम ज्वाइन करेगा।''

माधुरी ने डॉंक्टर साहब की ओर संकेत किया। शुक्ला डॉंक्टर साहब से सम्बोधित हुये —

‘‘आप डॉंक्टर हैं ?''

‘‘हॉं।''

माधुरी ने डॉंक्टर साहब को आगे न बोलने दिया —

‘‘हम कान्यकुब्ज ब्राम्हण हैं। आप कान्यकुब्ज को लड़की देेंगे ?''

शुक्ला को लगा अच्छा संयोग ठीक सामने है।

‘‘मैडम, सरयूपारीण, कान्यकुब्ज, सनाढ्‌य में क्या रखा है। लड़की सुखी रहे।''

‘‘रहेगी। हम तीन प्राणियों का छोटा सा परिवार है।''

डॉंक्टर साहब ने दखल दिया ‘‘माधुरी, शादी —ब्याह की बातें इस तरह ट्रेन में नहीं तय होती।''

माधुरी उदास हो गई ‘‘आपने टोक दिया। इसीलिये काम नहीं बनता।''

शुक्ला के समक्ष सुनहरा अवसर। उन्होंने न डॉंक्टर साहब के दखल का बुरा माना न माधुरी की उदासी को लक्ष्य किया। बोले ‘‘बात तय होनी होती है तो इसी तरह तय हो जाती है डाॅंक्टर साहब।''

सुनकर माधुरी की उदासी गायब और व्यग्रता बढ़ गई ‘‘शुक्लाजी कभी घर आइये। कुछ बातें हो जायेंगी।''

‘‘हाजिर होता हॅूं मैडम।''

माधुरी ने शुक्ला को घर का पता नोट कराया और शुक्ला ने सुविधा शुल्क हठपूर्वक वापस किया।

पानी और पेठा लेकर माधुरी देर बाद लौटी —

‘‘लीजिये।''

शुक्ला ने सिर्फ पानी लिया।

माधुरी ने फ्रेम्ड तस्वीर की ओर संकेत किया ‘‘यह है, मेरा बेटा रुद्रनाथ। देख लीजिये कितना खूबसूरत है।''

शुक्ला इस बीच तस्वीर को कई बार देख चुके थे। अनुमान लगा चुके थे माधुरी के बेटे की तस्वीर होनी चाहिये। अब तस्वीर को हैरान होकर देखा। डॉंक्टर साहब और माधुरी खूबसूरत नहीं हैं लेकिन रुद्रनाथ सचमुच खुबसूरत है।

‘‘कमाल है —।''

‘‘कमाल का लड़का है। उसका एम0एस0 कम्प्लीट होने को है। आप कुण्डली लाये हैं ?''

‘‘जी। ——— एक निवेदन है। आपके सम्मान के मुताबिक न दे सकॅूंगा लेकिन कसर न उठा रखॅूंगा।''

‘‘कुछ मॉंगा आपसे ? यहॉं कमी देख रहे हैं ? लड़की मेरे बच्चे को खुश रखे। इतना ही। बहुत प्रस्ताव आये पर अच्छी मांगलिक लड़की नहीं मिलती। नहीं मिलती कि शादी तो आपकी लड़की से होनी है। मेरा दिल कहता है संयोग बन रहा है।''

‘‘कृपा मैडम।''

शुक्ला को स्टेशन रोड से होकर रेल्वे स्टेशन पहॅुंचना था। डॉंक्टर साहब का नर्सिंग होम ‘लााईफ लाइन' इसी रोड पर है अतः शुक्ला ने उनसे मिल लेना जरूरी समझा।

लाईफ लाइन।

ग्राउण्ड फ्लोर और बेसमेंट में फैला सुनियोजित विस्तार।

यहॉं सफेद संगमरमर की भव्यता, स्वच्छता, शांति थी अलबत्ता घर जैसी गतिहीनता और एकांत नहीं था। डॉंक्टर साहब अपने केबिन में मिले। शुक्ला उनकी स्मृति में थे यद्यपि उन्होंने नहीं सोचा था माधुरी की बातों के आधार पर वे इतनी दूर चले आयेंगे। डॉंक्टर साहब ने उत्साह नहीं दिखाया लेकिन पहचान लिया —

‘‘क्या लेंगे ? चाय, कॉंफी।''

‘‘कुछ नहीं। आपके घर से आ रहा हॅू। मैडम ने खिला पिला दिया है।''

‘‘तो —— आप माधुरी से मिल आये ?''

‘‘जी। आप घर पर नहीं थे। दर्शन करने यहॉं चला आया। आप और मैडम बिटिया को देख लेते तो कृपा होती। आप चाहें तो बिटिया को लेकर मैं हाजिर हो जाऊॅं या आप मेरे गरीबखाने में पधारें।''

‘‘शुक्लाजी आपने रुद्र को देखा ?''

मैडम ने बताया वो दिल्ली में है। तस्वीर देखी।''

‘‘बेटी तस्वीर से ब्याहेंगे ?''

‘‘जी ?''

‘‘तस्वीर का अर्थ समझते हैं ?''

‘‘जी ?''

‘‘पिछले साल एक सड़क हादसे में रुद्र तस्वीर बन गया।''

‘‘जी ?''

‘‘हॉं।''

‘‘पर मैडम —

‘‘माधुरी, रुद्र के एहसास से छूट नहीं पा रही हैं। वे गहरी नींद में है।। उन्हें जगाना खतरनाक होगा। वे उस समय में ठहरी हुई हैं जब रुद्र था। माघुरी को लगता है रुद्र अब भी दिल्ली में पढ़ रहा है और अब उसकी शादी हो जानी चाहिये।''

डॉंक्टर साहब के स्वर में कोई भाव न था।

शुक्ला अविश्वास, सदमे, नाउम्मीदी से कुर्सी की पुश्त पर ढह गये। लगा मायावी, भुतहे, फरेबी लोगोंं से घिर गये हैं। भव्यता भयावह भी होती है पहली बार जान रहे थे। पहली बार जान रहे थे भव्यता में आराम और चैन ही नहीं शून्यता और गतिहीनता भी होती है। जोर से चीखने की इच्छा हुई — आप कैसे डॉक्टर हैं जो अपनी पागल पत्नी को मेंटल हॉंस्पिटल में न डालकर छुट्‌टा छोड़ देते हैं कि वह अपने पागलपन में हम जैसे लोगों की उम्मीद का नाश करे। क्यों दिखते हैं हमें सपने ? क्यों देते हैं उम्मीद ? उम्मीद टूटने का कोई मुआवजा तय करेंगे आप ? — पर यह चिकित्सक तो वह अभागा पिता है जिसने अपना इकलौता बेटा खो दिया है।

‘‘पानी मिलेगा ?'' शुक्ला यही कह सके।

‘‘हॉं।'' डॉंक्टर साहब ने शुक्ला का क्लेश भॉंप लिया ‘‘जिस सच्चाई को सुनकर आपको पानी की जरूरत महसूस हो रही है उसे मैं और माधुरी सहन कर रहे हैं। मानता हॅूं आपको कष्ट हुआ पर हम दोनोें ॲंधेरों से इतना घिर गये हैं कि दूसरों की भावनाओं का ध्यान नहीं रख पाते। सच कहॅूं तो मैंने नहीं सोचा था आप इतनी दूर आयेंगे। जानता तो कुछ हिंट देता कि यहॉं आपको एक भ्रम मिलेगा और कुछ नहीं। मैंने माधुरी को बहुत बोलने के लिये टोका भी था पर आप उत्साह में थे।''

‘‘हॉं ——— नहीं ———।''

‘‘पानी लीजिये।''

शुक्ला ने एक सॉंस में गिलास खाली कर दिया मानो भ्रम से निकलने के लिये साहस और ताकत पानी से मिलनी है।

‘‘यहॉं आकर मैंने आपको कष्ट दिया।''

‘‘कष्ट आपको भी हुआ।''

‘‘मैडम जिंदगी भर भ्रम में रहेंगी ?'' शुक्ला, माधुरी को पागल न कह सके।

‘‘यही अच्छा है। भ्रम न रहेगा, वे न रहेंगी। वे भ्रम में हैं इसलिये उनके पास सपने, अरमान, योजनायें हैं। मेरे पास कोई योजना, कोई कार्यक्रम नहीं है। रुद्र नही ंतो कुछ नहीं। वैसे तो वह अब भी है। मेरे घर की हवा में, प्रकाश में, नमी में। मेरे अनुभव में है, रिश्तों में है। विचित्र बात है शुक्लाजी। इंसान चला जाता है पर रिश्ते बने रहते हैं। मैं अब भी रुद्र का पिता हॅूं। माधुरी उसकी मॉं हैं।''

शुक्ला ने ऐसी असहायता अब तक नहीं देखी थी। यह कामयाब चिकित्सक कैसा नाकामयाब है जो न अपने बेटे की चिकित्सा का अवसर पा सका, न विचित्र पत्नी का उपचार कर सकता है।

‘‘भाग्य और भगवान के आगे हमारी नहीं चलती डॉंक्टर साहब।''

‘‘तब तो भाग्य और भगवान से बड़ा धोखेबाज दूसरा न होगा। लोग कहते थे मैं बड़ा भाग्यशाली हॅूं। मेरे पास सफलता, नाम, पैसा, रुद्र जैसा होनहार बेटा है। मैं भाग्यशाली होता तो बेटा खो देता ? मुझे भाग्य पर भरोसा नहीं रहा। भगवान पर भी नहीं। फिर भी पर्चा लिखते समय मैं भगवान को हाजिर — नाजिर मान कर आर.एस. लिख कर दवा लिखता हॅू कि भगवान मरीज को स्वस्थ कर देंगे। मुझे जिंदगी पर भी भरोसा नहीं रहा। जिंदगी खत्म होने को आती है तब कोई योजना, व्यवस्था, अभ्यास काम नहीं आता। मुझे खुद पर भी भरोसा नहीं रहा। मैं नारमल दिखने की कोशिश करता हॅूं पर जानता हॅूं सब व्यर्थ है। माधुरी की मासूमियत पर फिर भी भरोसा है। उनकी मासूमियत से मैं ताकत पाता हॅूं। वैसे उस मासूमियत का सामना करना कठिन है। माधुरी अक्सर ऐसे प्रश्न करती हैं जिनका जवाब मेरे पास नहीं होता। आज आपको लेकर वे बहुत प्रश्न करेंगी। मैं जवाब नहीं दे पाऊॅंगा। वे आपके फिर आने की प्रतीक्षा करेंगी। कुछ दिन बाद मैं बताऊॅंगा कुण्डली नहीं मिली इसलिये मैंने फोन पर शुक्लाजी को कह दिया है न आयें। वे कहेंगी इस बार भी कुण्डली नहीं मिली। कहीं और देखेंगे। मेरे बेटे के लिये लड़कियों की कमी नहीं है।''

‘‘ओह ————।''

शुक्ला को वहॉ बैठे रहना अस्वाभाविक लग रहा था। डॉक्टर साहब उनकी असहजता समझ गये —

‘‘मुझे एक मरीज की सोनोग्राफी करनी है।''

‘‘जी ——— मैं चलॅूंगा। ट्रेन का वक्त हो रहा है।''

बेसमेंट की सीढ़ियॉं चढ़ शुक्ला स्टेशन रोड पर आ गये। मुड़कर लाईफ लाइन को देखा। लगा भव्यता में भयावहता भी होती है।

***

सुषमा मुनीन्द्र

द्वारा श्री एम. के. मिश्र

एडवोकेट

लक्ष्मी मार्केट

रीवा रोड, सतना (म.प्र.) — 485001