शकबू की गुस्ताखियां
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 1
सुबह पढ़ने के लिए पेपर उठाया तो नज़र शहर में एक नए फाइव स्टार होटल के खुलने के विज्ञापन पर ठहर गई। पेपर के पहले पूरे पेज़ पर एक बेहद खूबसूरत युवती की नमस्ते की मुद्रा में बहुत ही प्रभावशाली फोटो थी। और होटल के ग्रुप का नाम छोटा सा एकदम नीचे दिया गया था। पहला पेज़ खोलते ही अंदर पूरे पेज पर होटल के सबसे ऊपरी मंजिल का दृश्य था। पंद्रहवीं मंजिल पर स्वीमिंग पूल का। फ़ोटो ऐसे एंगिल से ली गई थी कि वहां से नीचे अंबेडकर पार्क का विहंगम दृश्य बहुत लुभावना लग रहा था। अंग्रेजी और हिंदी के बेहद प्रतिष्ठित अखबारों में छपे इस विज्ञापन ने सुबह-सुबह कुछ देर तो एक अजीब सी खुशी, प्रसन्न्ता दी, कि हमारा शहर कहां से कहां पहुंच गया है।
लक्ष्मण का वह शहर लखनऊ जहां आज़ादी के संग्राम में कभी स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। जहां आज मैट्रो ट्रेन चल रही है पहले कभी वहां की सड़कों पर ‘इक्कों-तांगों का राज हुआ करता था। जिसके अवशेष पुराने शहर में आज भी हैं। कुछ पुरानी यादें एकदम ताज़ा होने लगीं। इन ताजा होती यादों में ही अचानक ही मेरा प्यारा मित्र शकीबुल्लाह आ गया। और मन दुखी कर गया। इतना कि आंखें भर आईं। मन ही मन कहा अरे शकबू ज़िन्दगी के आखिरी दिनों में यह पागलपन करने की ज़रूरत क्या थी? शकबू मैं तुम्हारे उस काम को आज भी पागलपन ही कहूंगा।
शकबू की याद ने मेरी खुशी को एकदम खत्म कर मुझे दुख में डुबो दिया। मेरी हालत महाभारत के युद्ध में घायल पड़े दुर्योधन सी हो गई। जिसे यह वरदान था कि जब उसके सुख-दुख का स्तर एक समय में एक बराबर हो जाएगा तभी उसके प्राण-पखेरू उड़ेंगे। जैसे भीम की गदा से घायल दुर्योधन तड़प रहा था वैसे ही मैं कराह उठा था। शकबू की याद में डूबते-डूबते पेपर पढ़ना भूल गया। पेपर पढ़ना मेरे लिए एक नशे की लत सा है। ऐसी लत जो मरते दम तक नहीं छूटेगी। मगर यह लत इस समय एकदम स्थगित हो गयी थी। हिंदी, अंग्रेजी, दोनों पेपर मैंने सामने पड़ी बेंत की टेबल पर रख दिए। और मकान की दूसरी मंजिल की बॉलकनी में बैठा सामने पार्क में खेलते बच्चों को देखने लगा। जो सामने ही स्थित एक स्कूल के बच्चे हैं। और स्कूल में कंडोलेंस मीटिंग के बाद असमय ही हुई छुट्टी के कारण पार्क में खेल रहे थे।
मेरी नजर इधर-उधर उन पर ठहर रही थी। लेकिन दिलो-दिमाग शकबू में खोया जा रहा था। जीवन के करीब सत्तर साल पूरे करने के बाद भी यदि कोई चीज ऐसी थी जो मुझे दुख पहुंचाती थी तो वह सिर्फ़ शकबू था। वह भी पिछले दो साल से नहीं तो मैंने जीवन में जो चाहा वह पाया। पूरे चालीस साल वकालत करने के बाद पेशे को आखिरी प्रणाम किया था। शकबू ने भी ठीक उसी दिन। अपने जीवन में मैंने शकबू के बाद उसके जैसा ज़िंदादिल आदमी केवल अपने एक चचेरे भाई को पाया था। और ज़िंदादिली भी क्या कि जो भी दिल चाहा वह कर गुजरे। शकबू ने सरसठ-अरसठ की उम्र में बाइस वर्षीया शाहीन को दिल देने का मन किया तो दे दिया। उससे निकाह कर जब घर पहुंचे तो पहली बेगम को पता चला। फिर कोहराम मचना था तो मचा। मगर शकबू जीवन में कब किसी की सुनता था, जो उस दिन सुनता।
सबसे छोटा लड़का जो कि चार साल से तलाकशुदा ज़िंदगी जी रहा था उसने ज़्यादा हंगामा किया तो साफ बोल दिया ‘मेरी ज़िंदगी है। मैं जैसे चाहूंगा जीयूंगा। तुमने मेरी मर्जी के खिलाफ निकाह किया तो मैंने कुछ नहीं कहा था। फिर तुम मेरे मुआमले में क्यों दखल दे रहे हो। अम्मी का तुम्हें ज़्यादा ख्याल है तो चाहो तो उन्हें लेकर दूसरे मकान में रहो। जहां तक मेरा सवाल है तो मैं चाहूं तो उन्हें तीन सेकेंड में तलाक दे दूं। लेकिन मैंने जैसे आज तक उन्हें पूरी इज्जत, प्यार, दिलोज़ान से लगा कर रखा है, आगे भी रखूंगा।
शाहीन के कारण उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। वह मेरी बेगम हैं, उसे समझाना-बुझाना, बाइज्जत रखना मेरा काम है।’ लड़का जब बोला कि ‘वह उसकी अम्मी भी हैं और उसे हक़ है बोलने का।’ तो शकबू भड़क उठा था। आग बबूला हो बोला था। ‘बिलकुल वह तेरी अम्मी हैं, लेकिन उससे पहले मेरी बेगम है। और मैं तेरा अब्बा। और एक सीमा के बाद मेरे जातीय मसले पर तुम भी नहीं बोल सकते। तुम चाहो तो रहो मेरे साथ, ना चाहो तो ना रहो। चाहो तो शाहीन को अपनी दूसरी अम्मी मानो, चाहो तो ना मानो। मगर मेरी ज़िंदगी के इस मुआमले में अब कुछ नहीं बोलना। मैं कतई बर्दाशत नहीं करूंगा।’
बात किसी तरह ठंडी पड़ी। शकबू की बेगम ने अपने बेटे को समझाया। चुप कराया। बोलीं ‘हमारे मुकद्दर में यह बदकिस्मती बाकी थी वह भी हो गई। अल्लाहतआला ने जो लिखा है मुकद्दर में, होगा तो वही ना। इनकी आदतें, बातें देखकर मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि जीवन में कभी सौतन का भी मुंह देखूंगी। बुढ़ापे में शौहर तलवार गर्दन पर रख कर अपनी मनमानी पर चुप रहने को मज़बूर कर देगा। मगर अल्लाह की ऐसी मर्जी थी तो यह भी देखा।’
यह कहते-कहते शकबू की बेगम रो पड़ी थीं। उनके बेटे तौफ़ीक ने उन्हें समझाया और चुप करा कर अंदर दूसरे कमरे में ले गया। मगर जाने से पहले शकबू अपने अब्बा पर एक साथ कई गोले दाग गया कि ‘आज से आपके और परिवार के बाकी सब लोगों के रास्ते अलग-अलग हो गए हैं, हमेशा के लिए।
अब हमारे आप के बीच कोई रिलेशन नहीं रहा। और भूल कर भी किसी को मेरी दूसरी अम्मी ना कहिएगा। मुझे जिसने जन्म दिया मेरी बस एक वही अम्मी है।’ इस पर आग-बबूला शकबू और भड़क उठा था। उसे बेटे की यह बात अपनी नई-नवेली जवान बेगम की तौहीन लगी। और अपनी भी कि बेटे ने नई बेगम के सामने ऐसा कह दिया। उसने थरथराते हुए कहा ‘तुम अपनी हद से बाहर आ रहे हो। तुम्हारे मानने न मानने से कोई फर्क़ नहीं पड़ने वाला। शाहीन तुम्हारी दूसरी अम्मी है। दुनिया यही कहेगी। और मैं चाहूं तो अभी दो निकाह और कर सकता हूं। मुझे अन्य मुसलमानों की तरह चार निकाह करने की बाकायदा इज़ाज़त है। तुम एक से इस तरह खफ़ा हो जब कि चाहूं तो दो बेगम और ला सकता हूं। और वह सब भी तुम्हारी सौतेली अम्मी होंगी। दुनिया यही कहेगी। तुम रोक नहीं पाओगे।’
शकबू के यह कहने पर तौफ़ीक और भड़क उठा था। उसने बेलौस होकर कहा ‘आपको शायद मालूम नहीं कि चारों निकाहों के लिए कुछ शर्तें भी हैं। ये नहीं कि जैसी मर्जी हो वैसा कर लो। तलाक की भी अपनी शर्तें हैं। ये नहीं कि बस आ गए मूड में तो तीन सेकेंड में कह दिया तलाक, तलाक, तलाक। जैसा कि अभी आपने धमकी दी।
इस समय आप बिलकुल उन काफिरों की तरह बात कर रहें हैं, जो अपनी हाइपर सेक्सुअल डिजायर पूरी करने के लिए इस्लाम कबूल कर कई औरतों से निकाह कर लेते हैं। जब कि सच में उनका इस्लाम पर कोई ईमान होता ही नहीं। उनका इस्लाम से कोई लेना-देना ही नहीं होता।’ इसके बाद तौफीक ने अपने अब्बा शकबू को कई ऐसी सख्त बातें कह दीं कि शकबू अपना आपा खो बैठा था। बाप-बेटे में हाथा-पाई की नौबत आ गई थी।
तौफीक की अम्मी इस अप्रत्याशित घटना को बर्दाश्त न कर सकीं। वहीं गश खाकर गिर गईं। यह तमाशा देख कर शाहीन भी घबरा गई थी। उसने अपने शौहर शकबू को शांत कराया। मगर सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह थी कि अपनी नई बेगम के सामने शकबू इस तरह बंधा-बंधा सा था कि गश खाकर गिरी अपनी पहली बेगम को उठाना तो छोड़िए उसकी तरफ एक कदम भी बढ़ाया नहीं कि वह कैसी हैं? यह भी देख सके । वही शकबू जो कभी अपनी इसी पहली बेगम पर जान छिड़कता था। उसकी सुंदरता पर फिदा हो उसे शमशीर कहता था। वह जब टोकती ‘‘क्या शमशीर-शमशीर कहते हो। यह भी भला कौन सा नाम हुआ?’’ बेगम चाहती थी कि वह अव्वल तो उसका नाम ले ही ना। अगर ले तो जो उसका वास्तविक नाम है शाजिया, वही ले।
उस रोज इसी शाजिया की तरफ शकबू के कदम बढ़े ही नहीं। जैसे उनमें बेड़ियां जकड़ीं हों। जब कि नई बेगम ने बड़ी दिलेरी दिखाई और अपनी सौतन की मदद के लिए उसकी तरफ बढ़ गई। मगर आग-बबूला तौफ़ीक ने उसे इतना तेज़ डपटा कि वह सहम कर चौंक गई। और पीछे हट कर अपने शौहर के पीछे जा खड़ी हुई। वह कांप रही थी। शकबू भी कांप रहा था। लेकिन वह डर से नहीं। बेटे के व्यवहार से गुस्सा हो कर कांप रहा था। शाजिया अगर बेहोश ना होती तो अब तक वह अपने बेटे पर हाथ उठा देता। तौफीक अम्मी को उठा कर बगल के कमरे में ले गया। इधर शकबू अपनी नई नवेली बेगम को घर की पहली मंजिल पर अपने उस कमरे में ले गया जो पेशे से रिटायरमेंट लेने के बाद उसने अपने लिए स्टडीरूम कम बेडरूम की तरह बनवाया था।
शकबू को उपन्यास पढ़ने का जुनून था। इधर कुछ बरसों से मेरे कहने पर वह हिंदी के नामचीन हिंदी उपन्यासकार नरेंद्र कोहली, मनू शर्मा के उपन्यासों के अलावा अंग्रेजी के हिंदी में उपलब्ध उपन्यासों को पढ़ क्या रहा था बल्कि घोंट कर पी रहा था। इसके पहले वह जासूसी उपन्यासों का दीवाना था। जेम्स हेडली चेईज, अगाथा क्रिस्टी, सुरेंद्र मोहन पाठक, वेद प्रकाश शर्मा आदि के तो शायद ही कोई उपन्यास छूटे हों। इनके अलावा देवकी नंदन खत्री, इब्ने शफी, कुशवाहा कांत, जयंत कांत, को भी ढूंढ़-ढूंढ़ कर पढ़ता था। इसके लिए वह नज़ीराबाद में एक स्पोर्ट्स गुड्स की दुकान के सामने पुरानी किताबें बेचने वाले पर डिपेंड था।
जब मैं कहता ‘यार क्या यह सब पढ़ते रहते हो। मुझे तो लगता है तुम टाइम बरबाद करते हो। अरे कोई स्तरीय साहित्य पढ़ो।’ इस पर शकबू मुझे तरेर कर देखता। फिर कहता। ‘यार लाला तुम और ये बड़े़े-बड़े साहित्यकार इन लेखकों को कुछ मानते ही नहीं। जब कि इनके लिखे में भी दम होता है। ये भी वही सब लिखते हैं जो हमारे बीच घटता है। बस कल्पना कुछ ज़्यादा हो जाती है। पर इसको सस्ता साहित्य कह कर सड़क पर फेंक दिया जाता है। तुम लोग इसको पढ़ने वाले को भी दुत्कारते हो। मगर यार कभी दिल पर हाथ रखकर इन लोगों के दिल का हाल भी जानो। तो शायद जो तुम मुझे मना करते हो वह न करो। खैर छोड़ो तुम नहीं समझोगे। तुम पढ़ो अपना स्तरीय साहित्य। मुझे पढ़ने दो अपना साहित्य।’
मेरा यही प्रिय मित्र शकबू यदि उस कबाड़ी के यहां मेरे लायक कोई किताब पाता तो खरीद कर जरूर मुझे देता। एक बार वह करीब-करीब दुर्लभ सी किताब मध्यकालीन कवि सोमनाथ की ‘सोमनाथ ग्रंथावली’ ले आया मेरे लिए। तीन खंडों में करीब अठारह सौ पृष्ठों से बड़ी यह किताब आज भी मेरे पास मेरी किताबों की अलमारी में सुरक्षित है।
यह संयोग ही था कि उसकी बेगम शाजिया भी बड़ी पढ़ाकू थीं। उन्हें फैंटेसी या अय्यारी की किताबें पढ़ने का शौक़ था। उन्होंने देवकी नंदन खत्री की चंद्रकांता संतति, भूतनाथ बार-बार पढ़ी। खुद शकबू उन्हें ऐसी किताबें लाकर दिया करता था। उस दिन वही शकबू भूल गया था अपनी शाजिया को। उसकी सौतन तो ले ही आया। जले पर नमक यह कि सौतन को लेकर पहली रात बिताने उसी कमरे, उसी बेड पर गया जो यह मकान बनवाते समय उसने खास अपने लिए, अपनी जरूरतों के हिसाब से बनवाया था। मुझसे कहता था ‘यार लाला एक बात बताऊं, कि ज़िंदगी भर कमाने में ही लगा रहा। ज़िंदगी जी कैसे जाती है, यह जब समझ पाया तो देखा ज़िन्दगी की तो शाम हो चुकी है। यार सोचता हूं कि पता नहीं कब अचानक रात हो जाए। इसीलिए मैं बाक़ी ज़िन्दगी जी लेना चाहता हूं। जितना ज़्यादा से ज़्यादा जी पाऊं उतना। मैं बहुत जल्दी में हूं यार।’
यही जल्दी शकबू के लिए बड़ी दर्दनाक साबित हुई। जिस शकबू को मैंने कभी उदास नहीं देखा था। उसी शकबू ने जीवन संध्या में कुछ ही दिनों में ऐसे दुःख झेले कि सारी ज़िंदगी के सुख उसके सामने पसंघा भी नहीं रह गए। उस दिन भी वह उस कमरे में नई बेगम के साथ अपनी ज़िन्दगी जी रहा था और जो बेगम ज़िन्दगी भर हमशाया बनी रही वह जीवन की जंग लड़ रही थी। लड़के और परिवार के अन्य सदस्यों ने गुस्से में उन्हें बताया ही नहीं कि सदमें के चलते शाजिया को रात ग्यारह बजे जो सिवियर हार्ट अटैक पड़ा तो उन्हें डॉक्टर भी बचा ना पाए। लॉरी हॉस्पिटल में जब उन्होंने तड़के चार बजे आखिरी सांस ली तब शकबू अपनी नई बेगम के साथ सोए हुए थे।
उन्हें पता तब चला जब शाजिया की मिट्टी घर आ गई। लोग इकट्ठा हो गए। रोना-धोना शुरू हो गया। हक्का-बक्का शकबू, शाजिया के चेहरे से चादर हटाते ही खुद को रोक ना पाया और शाजिया के सिर को पकड़ कर फ़फ़क कर रो पड़ा था। उसका पूरा शरीर हिल रहा था। मगर शाजिया अब थी कहां? जो हमेशा की तरह उसका सहारा बनती। उन्हें संभालती। अब तो मिट्टी थी। लड़के, घर के बाकी सदस्यों में गुस्सा इतना था कि किसी ने उन्हें कहने भर को भी सांत्वना देने के लिए एक कदम ना बढ़ाया।
रो-रो कर बेहाल होते शकबू की हालत जब मुझसे नहीं देखी गई तो मैं अपने इस दोस्त को संभालने आगे बढ़ गया। उन्हें दोनों हाथों से थाम कर उठाया और एक तरफ पड़ी कुर्सी पर बैठाने को चला तो शकबू ने गिजगिजाकर मुझे जकड़ा और फिर फफक कर रो पड़ा। रोते-रोते बोला ‘लाला शाजिया चली गई। यार मैंने ऐसा गुनाह किया है कि परवरदिगार भी मुझे मुआफ नहीं करेगा। मैंने मार डाला। मैंने मार डाला उसे।
अब मैं अल्लाहतआला को क्या मुंह दिखाऊंगा। शाजिया मुझे इतनी बड़ी सजा देगी मैंने सोचा भी नहीं था लाला। यार तुम्हारी बात मान लेता तो मुझसे यह गुनाह ना होता।’ शकबू का रोना देख कर मैं भी बड़ा भावुक हो रहा था। आंखें बस छलक ही जाने को थीं। ऐसा दोस्त ऐसी दोस्ती जिसे मुझे लगता है आज तक कोई देख ही नहीं पाया है। मैं उसे चुप जरूर करा रहा था। लेकिन खुद को कितनी देर रोक पाऊंगा कुछ समझ नहीं पा रहा था। तभी एक और अप्रिय घटना हो गई। शकबू की नई बेगम शाजिया भी मिट्टी के पास पहुंच गई।
उसका वहां पहुंचना था कि शकबू का लड़का तौफ़ीक चिल्ला पड़ा ‘हाथ ना लगाना मेरी अम्मी को। चली जाओ, जहां थीं उसी कमरे में।’ तौफ़ीक इतनी तेज़़ चीखा था कि वहां उपस्थित सभी चिहुंक पड़े थे। शकबू एकदम सहम सा गया था। और शाहीन, वह भी नया खून थी, लेकिन थी तो आखिर महिला। तो वह भी एकदम चौंक गई थी। बेहद गोरे उसके चेहरे पर बड़ी-बड़ी उसकी आंखों से आंसू झर रहे थे। दरअसल तब उस घर में सबसे दयनीय स्थिति उसी की थी। अभी इस घर में आए उसे चंद घंटे ही हुए थे। कुछ घंटे पहले ही अपने शौहर की बांहों में सिमटी ज़िंदगी के हसीन सपनों में खोई हुई थी।
दस-बारह घंटे पहले इस घर में पहली बार आने पर जिस तरह उसका इस्तकबाल हुआ था उससे वह यह तो जान गई थी कि हर तरफ से हमला होगा। और सिर्फ़ उसका शौहर ही उसकी ढाल, तलवार सब है। जब तक वह है साथ तब तक तो कोई चिंता नहीं। कुल मिला कर रोज काँटों भरे रास्ते से गुजरना है। फिर कुछ देर को फूलों का बगीचा मिलेगा। मगर यहां तो कहर ही टूट पड़ा था। ऐसा कहर जिसने यह भी डर पैदा कर दिया था, कि कहीं उसकी तलवार, ढाल ही उसका साथ ना छोड़ दे। जीवन के करीब पचास साल साथ रही पहली बेगम शाजिया के इंतकाल के चलते कहीं भावुकता में वह उसके ही खिलाफ ना खड़ा हो जाए। वह हक्का-बक्का अपनी ओढ़नी से सिर और मुंह ढंके थरथराते क़दमों के साथ पीछे हट गई। तभी शकबू कुछ बोलने को हुआ तो मैंने उसे शांत रहने का इशारा करते हुए कंधे से पकड़ लिया।
इसी बीच शकबू की मंझली लड़की ने आगे बढ़ कर शाहीन को बांह से थामा और कान में कुछ फुसफुसाते हुए उसे ले जाकर ऊपर उसके कमरे में छोड़ आई। शकबू बार-बार फूट पड़ रहा था। उसकी चारों लड़कियां भी जोर-जोर से रो रही थीं। फिर बारह बजते-बजते शाजिया को गुसल कराया गया। नमाज पढ़ाने आए मौलवी को शकबू ने नमाज पढ़ाने की इज़ाजत दी। इसके बाद जनाजा कब्रस्तान के लिए रवाना किया गया।
पचास सालों से हर पल साए की तरह साथ रही शाजिया मेरे प्यारे शकबू को पल में छोड़ कर चली गई। और मुझे भी। शाजिया को मैं भाभी कहता था। मेरी और शकबू की शादी में मात्र तीन हफ्ते का अंतर था। शकबू ने जब पहली बार उनसे मेरा परिचय कराया था। मुझे अपनी बांहों में भर कर कहा था ‘शाजिया ये मेरा बचपन का यार है। हम दोनों चौथी कक्षा से साथ पढ़े हैं। बस ये समझ लो ये मेरा यार ही नहीं मेरा भाई भी है, मेरा साया है। इसकी आवभगत में कभी कोई कोताही ना करना। ध्यान रखना, बड़ा नकचढ़ा है। मुंहफट तो इतना कि अल्लाह बचाएं। मगर दिल का साफ है। इसीलिए मेरी इसकी बचपन से छनती आ रही है और जीवन भर छनेगी।’
शाजिया नजरें झुकाए शकबू की बातें सुन रही थीं। शकबू मेरी तारीफ के और कसीदे पढ़े इसकेे पहले ही मैंने शाजिया को हाथ जोड़कर कहा ‘भाभी जी नमस्ते’ उन्होंने बड़ी मधुरता के साथ बड़े हौले से आदाब किया। और पचास साल तक मैं जब भी अपनी इस भाभी से मिला तो इस भाभी ने ऐसे ही प्यार से हमेशा मेरा स्वागत सत्कार किया। मानो सगी भाभी हों। इन पचास सालों में एक भी ऐसा वाक्या, मुझे याद नहीं पड़ता जब मैंने उनकी नजरों में अपने लिए, एक देवर के लिए भाभी की नजरों में उमड़ता प्यार स्नेह ना देखा हो या कम देखा हो।
अपनी उसी प्यारी भाभी को सुपुर्दे खाक करते वक्त मैंने भी उस दिन उन पर खाक डाली। उस भाभी पर जिसके हाथों ना जाने कितनी बार खाना-पीना। चाय-नाश्ता किया था। उनके हाथ का बना मटन कोरमा मुझे बेहद पसंद था। मेरी इस पसंद को जानने के बाद वह जब मौका मिलता तो बुलातीं और अपने हाथों से परोसतीं। शकबू छेड़ता तो सिवाय मुस्कुरा कर चुप रहने के और कुछ ना करतीं। मगर मेरा शकबू अब अकेला है। मेरे मन में कब्रस्तान से लौटते वक्त यह बात पल भर को आई थी। मगर फिर खुद सोचा कि शकबू अकेला कहां है, शाहीन को कल ही तो नई बेगम बना कर ले आया है। भले अब शाजिया नहीं है और शकबू को रुला रही है।
कब्रस्तान से वापस मैं शकबू के घर तक फिर गया, उसे वहां छोड़ा। सांत्वना दी। तौफीक से विशेष रूप से रिक्वेस्ट की ‘बेटा जो किस्मत में था वह हुआ। सब ऊपर वाले की मर्जी से होता है। इस समय अब्बू, घर को संभालना तुम्हारा फर्ज है। ऐसा कुछ ना करना कि अब्बू को कोई तकलीफ हो।’ मैं समझा-बुझा कर लौट आया। उस दिन और पूरी रात मेरी आंख नहीं लग पाई। सुगंधा ने कई बार कहा कि ‘कुछ खा-पी लो। आराम कर लो। अब जो होना था वह हो गया। भाई साहब (शकबू) ने इस उम्र में जो किया वह कोई पत्नी बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। पत्नी सुगंधा शकबू को भाई साहब ही बोलती थी। उसके बार-बार कहने के बावजूद मेरे गले के नीचे कुछ उतर नहीं रहा था। अगले दिन सुबह फिर पहुंचा।
नमाज अता की जानी थी। जब यह सब हो रहा था, तो मैंने देखा शकबू पहले दिन की अपेक्षा उस दिन बिलकुल शांत था। चेहरे पर गहन उदासी थी। तौफीक का भी यही हाल था। हर तरफ मातम ही मातम था। शाहीन की झलक काले कपड़ों में मिली थी। फिर वह नहीं दिखी। पत्नी के साथ करीब दो घंटे वहां रहने के बाद मैंने चलते वक्त शकबू से कहा ‘हिम्मत से काम लो। जिसका जितना साथ लिखा होता है वह उतना रहता है। भाभी का जितना साथ लिखा था उतने दिन रहीं। उनके जाने के लिए कहीं से कोई दोषी नहीं है। तुम तो सब बातें जानते ही हो। मैं क्या कहूं।’ शकबू भरी-भरी आंखें लिए सब सुनता रहा। फिर बोला ‘लाला मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि मैं अकेला हो गया हूं या नहीं।
शाजिया के जाने से या शाहीन के रहते खुद को अकेला किस नजरिए से कहूं।’ शकबू का असमंजस देख कर मैंने कहा देखो ‘तुम अकेले नहीं हो। भाभी तुम्हें इतना चाहती थीं कि उनकी रूह तो कयामत तक तुम्हें छोड़ ही नहीं पाएगी। वैसे अब शाहीन तो है ही। इसलिए अकेलेपन की बात सोचकर अपना मन दुखी मत करो। तुमने ज़िंदगी को जीने की जो नई पहल शुरू की है। अब उससे पीछे हटना भी चाहो तो हट नहीं सकते हो। शाहीन अब तुम्हारे साथ है। इसलिए अब तुम्हें रुकना नहीं है। बस आगे ही बढ़ते रहना है। भाभी की रूह को इसी में शांति मिलेगी।’
मैंने ज़ोर देकर उससे कहा ‘सुनो, तौफीक कुछ कहे भी तो शांत रहना। बोलना मत। नया खून है, आवेश में है। इसलिए तुम धैर्य से काम लेना। जल्दी ही सब ठीक हो जाएगा।’ तभी शकबू बोला ‘सोच रहा हूं शाहीन को कुछ दिन के लिए घर भेज दूं क्या?’ उसकी बात सुनते ही मैंने कहा ‘नहीं। अब यह सब करने की जरूरत नहीं है।‘
मैंने सोचा इस समय पूरा घर इससे नाराज है। कोई खाना-पीना भी इसको नहीं पूछेगा। यह अकेला कमरे में पड़ा रहेगा। एक शाहीन ही है जो इसके साथ बनी रहेगी। इसका दुख-दर्द बांटेगी। बल्कि जल्दी ही शाजिया का दर्द खत्म कर देगी। दूसरे उसकी इसमें क्या खता कि शादी के एक दिन बाद ही पति को छोड़ कर मायके चली जाए। फिर उसके घर पर भी उसका कोई स्वागत नहीं होगा। पहाड़ सी मुश्किलें तो उसका वहां भी इंतजार कर रही हैं। सारे घर वालों को दरकिनार कर वह ना जाने क्या हुआ कि दिवानी सी शकबू के साथ आ गई। मेरे मना करने पर शकबू एकटक मुझे देखने लगा।
मैंने कहा ‘देखो, बात को समझने की कोशिश करो। यहां जो हालात हैं उसमें जरूरी यह है कि शाहीन हर समय तुम्हारे साथ रहे। तुम्हारी देखभाल कौन करेगा? फिर उसके घर वाले भी उससे नाराज हैं। कितना? यह तुम देख ही रहे हो कि क्षण भर को भी एक आदमी नहीं आया। इसलिए जहां तक मैं समझता हूं कि अब के हालात में तुम दोनों का एक रहना बेहद जरूरी है।’ अंततः शकबू मान गया। उदास मन लिए मैं सुगंधा के साथ घर आ गया। आते वक्त सिर्फ़ तौफीक ही मुझसे दो मिनट मिला था। बाकी घर का कोई सदस्य नहीं मिला। वही घर जहां मेरे पहुंचने पर परिवार का कोई सदस्य ऐसा नहीं होता था जो मुझसे ना मिलता। देर तक तरह-तरह की बातें ना करता। मगर बदले हालात में अब किसी को फॉर्मेलिटी के लिए ही सही नमस्कार करना भी गंवारा नहीं था।
शकबू-शाहीन के मसले पर शायद पूरा घर मुझे भी कहीं दोषी मान रहा था। सबको यह गुस्सा था कि शकबू मेरा बचपन का यार था। मुझे सब मालूम था। मैं उसे यह सब करने से रोकता तो क्या वह मानता नहीं। जब कि सच यह था कि जीवन भर कोई भी काम मुझसे सलाह-मसविरा किए बिना ना करने वाले शकबू ने जीवन में पहली बार मुझसे भी सब कुछ छिपाया। शाहीन के साथ उसका कोई रिश्ता बन चुका है इसकी उसने खबर तक नहीं की। जब निकाह करने जा रहा था तब सिर्फ़ फ़ोन कर कहा था ‘लाला बहुत जरूरी काम है। जितना जल्दी हो सके फलां जगह पहुंचो।’
मैं घबराया कि यह इतनी अफनाहट में क्यों है? पूछा तो बोला ‘परेशानी की कोई बात नहीं है। तुम तुरंत आओ बस।’ मैं पहुंचा तो देखा शकबू अपनी कार में एक युवती को लिए बैठा सिगरेट पी रहा है। मेरे पहुंचने पर कार से बाहर आया, सिगरेट की डिब्बी मेरी तरफ बढ़ाई, मैंने भी एक सिगरेट लेकर उसी के लाइटर से जला कर एक कश लिया और पूछा ‘अब बताओ क्या बात है? इतनी आफत कर दी खाना तक नहीं खाने दिया।’
इसी बीच मैंने यह भी देखा कि वह एक युवक की तरह मारे जोश के फड़क रहा है। साथ ही ब्रांडेड बेहद महंगी पैंट-शर्ट जूते पहन रखे हैं। राडो की महंगी घड़ी, गले में मोटी सी सोने की चेन। ना जाने कौन सा डियो स्प्रे किया था कि उसकी स्मेल आस-पास निकलने वालों को भी आकर्षित कर रही थी। उसको इस तरह देख कर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। क्यों कि वह ऐसे ही दिलकश अंदाज में रहता था।
मेरे पूछने पर कहा, ‘देखो लाला तुमने जीवन में कभी मेरी कोई बात नहीं टाली। मेरा पूरा यकीन है कि आज भी नहीं टालोगे। मैं जो करने जा रहा हूं उसमें मेरा कोई साथ नहीं दे रहा है। अब तुम्हीं मेरा साथ दो और जो करने जा रहा हूं वह पूरा कराओ।’ इस बीच मैंने देखा कि कार में बैठी युवती बार-बार सशंकित नजरों से मुझे एवं आस-पास से गुजरते लोगों को देखती जा रही है।
मैंने शकबू से कहा ‘जब जानते हो मैं टालूंगा नहीं तो इतनी भूमिका क्यों बना रहे हो। सीधे-सीधे बताओ करना क्या है? इन मोहतरमा का अभी तक परिचय नहीं कराया। ये कौन हैं जिन्हें लिए घूम रहे हो?’ शकबू बोला ‘वही तो बताने जा रहा हूं। ये तुम्हारी भाभी हैं। दूसरी भाभी।’ इस पर मैंने कहा ‘क्या मजाक कर रहे हो। तुम्हारी छोटी लड़की से कम उमर की लग रही है। और तुम उसे मेरी भाभी बता रहे हो।’
इस पर शकबू ने एक लंबा कश खींचा सिगरेट का और फिर धुंआ दूसरी तरफ फूंक कर बेहद रोमांटिक अंदाज में बोला। ‘यार ये दिल का मामला है और दिल के मामले में केवल भावनाएं देखी जाती हैं। बाकी कुछ नहीं। उम्र वगरैह कुछ नहीं।’ फिर शकबू ने बताया कि ‘यह वही शाहीन है जिसके बारे में तुम्हें बताया करता था। तुम यकीन नहीं करते थे। कहते थे मेरे जैसे बुढ्ढ़े से कोई लौंडिया क्यों इश्क फरमाएगी, लेकिन इश्क नहीं ये मेरी शरीकेहयात बन चुकी है। अब निकाह की रस्म भर पूरी करनी है। वह भी इसकी जिद है इस लिए कर रहा हूं, नहीं तो मैं तो ऐसे ही घर ले जा रहा था।’ शकबू ने यह बोलकर मुझे सकते में डाल दिया था।
शकबू शाहीन के बारे में पिछले कई महीने से कह रहा था। बड़े चटखारे लेकर बातें करता था। कई बार फुहड़ता की हद तक करता। अश्लीलता की सीमा पार कर देता। तब मैं इसे उसका ठिठोलीपन मानता। कहता ‘अबे संभल कर रहना इक्कीसवी सदी की कन्याएं हैं। कहीं लेने के देने ना पड़ जाएं।’ मगर उसका जवाब होता था कि ‘लाला यहां भी बरसों-बरस का तजुर्बा है। एक से एक बेअंदाज छोरियों को भी साधने का ऐसा तजुर्बा है कि इक्कीसवीं क्या बाइसवीं सदी की भी साध लूंगा। इसे जल्दी ही तुम्हारी भाभी ना बनाया तो कहना।’ तब क्या पता था कि शकबू सच में सब चरितार्थ कर देगा। कुछ ही महीने में।
मैं कुछ और कहूं इसके पहले ही वह मेरे पास शाहीन को लेकर आया। मुझसे परिचय कराते हुए बोला ‘शाहीन ये मेरा बचपन का यार लाला है। इसे मैं तुम्हारे बारे में सब बता चुका हूं। इसके-हमारे बीच कुछ भी राज नहीं है। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि यह तुम्हारा देवर है। ऐसा देवर जो तुम्हारी उतनी ही चिंता सम्मान और रक्षा करेगा जितना कि मैं।’ शकबू के मुंह से मेरे लिए देवर शब्द सुनकर शाहीन के चेहरे पर एक सुर्खी सी मुझे दिखाई दी थी। एक दबी मुस्कुराहट के साथ उसने नमस्कार किया। मैंने भी नमस्कार किया।
शकबू द्वारा अचानक ही उसका देवर कहे जाने से मैं स्वयं भी अजीब सी स्थिति में पड़ गया था। कि यह मेरी लड़की सी है। मेरी लड़की से कम उमर होगी इसकी। और मैं इसे भाभी कहूं। लेकिन दूसरी तरफ मेरे बचपन का यार, मेरा हमदम मेरा दोस्त था। जिसने उसके साथ रिश्ते की डोर बांध दी थी। क्योंकि उसे अटूट विश्वास था कि मैं रिश्ते को निभाना जानता हूं। दोस्त के लिए आया था तो दोस्ती निभानी ही थी। फिर अगले कुछ घंटों में निकाह पढ़वा दिया गया।
साथ ही यह भी तय हुआ कि अगले हफ़्ते ही निकाह को रजिस्टर भी कराया जाएगा। इसके बाद समस्या आई कि मेरा यार अपनी दूसरे निकाह की सुहागरात पहली रात कहां मनाए? मैंने सलाह दी किसी होटल में इंतजाम किया जाए। लेकिन कुछ देर सोचने के बाद शकबू ने मना कर दिया। उसकी बातों से इतना ही संकेत मिला कि वह बेमेल निकाह के कारण ऐसा नहीं करना चाहता। फिर मैंने कहा ‘चाहो तो मैं अपने घर में व्यवस्था कर दूं।’ इस पर वह बोला ‘देखो तुम कह जरूर रहे हो। मैं भाभी को भी अच्छी तरह जानता हूं। व्यवस्था वो भी कर देंगी। लेकिन तुम्हारे बेटों-बहुओं को भी जानता हूं। मैं अपनी खुशी के लिए तुम्हारे परिवार में कोई खटास नहीं पैदा करना चाहता।’ कोई रास्ता ना देख कर आखिर हमेशा अपने मन की करने वाले शकबू ने एक दम फैसला सुनाते हुए कहा।
‘यार घर मेरा है। मैं किसी पर डिपेंड नहीं हूं। तौफीक का परिवार है नहीं। शाजिया को भी बताना ही है। इसलिए अपनी नई बेगम को भी अपने ही घर ले जाऊंगा। देखता हूं जिन घर वालों की खुशी के लिए मैंने पूरा जीवन एक कर दिया वह मेरी खुशी के लिए क्या करते हैं।’
शकबू का यह फैसला मुझे अटपटा लगा। इस उम्र में पत्नी के रहते इस तरह अचानक दूसरी पत्नी को लेकर पहुंच जाना मुझे स्थिति को विस्फोटक बनाने जैसा लगा। मैं अंदर-अंदर डर गया। शाहीन का भी यही हाल था। अपना संदेह मैंने जाहिर भी किया। कहा ‘दो चार दिन किसी होटल में बिताओ। फिर कहीं अलग मकान लेकर रहो। धीरे-धीरे चीजों को सामने आने दो। एक दम से पहुंचना अच्छा नहीं है।’
मगर मेरा दोस्त जिद्दी शकबू नहीं माना। नई बेगम शाहीन का हुस्न उसे अंधा किए जा रहा था। वह उसे लेकर चला गया। आखिर जो आशंका थी वही हुआ। पहली बेगम इस अचानक घटनाक्रम को बर्दाश्त नहीं कर पाई। मौत के मुंह में पहुंच गई। मगर इन सबसे अनजान शकबू रात भर अपनी सुहाग रात में खोए रहे। इस बात से अनजान की सुबह इतनी काली होगी कि उसके सारे जीवन को स्याह बना देगी। मगर शकबू की किस्मत ने उसे थोड़ी राहत दी।
शाजिया की मृत्यु के बाद घर में जो कोहराम मचा था। वह दो-तीन दिन में रिश्तेदारों-नातेदारों के जाने के बाद गहन सन्नाटे में तब्दील हो गया। हां सारी महिलाओं ने शाहीन पर विष भरे बाण छोड़ने में कोई कोरकसर बाकी नहीं रखी। तौफीक ने सबके जाने के बाद खुद को अपने कमरे में बंद कर लिया। या बाहर जाता या अपने कमरे बंद रहता। वह अब्बा के साए से भी दूर रहता। शाहीन ने खाना-पीना देने के बहाने संवाद कायम करना चाहा, लेकिन वह आंखों-चेहरे पर क्रोध के भाव लाकर उसे अपने पास फटकने ना देता।
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