I am still waiting for you, Shachi - 13 in Hindi Fiction Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 13

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आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 13

आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची

रश्मि रविजा

भाग - 13

सुबह थोड़ी देर से ही आँख खुली, चाय लेकर आने वाले लड़के ने बताया कि कोई उसका नीचे हॉल में इंतज़ार कर रहा है. बहुत आश्चर्य हुआ उसे. गेस्ट हाउस के मैनेजर को छोड़कर, उसके यहाँ आने की खबर तो किसी को नहीं थी. और उसे भी सख्त ताकीद कर दी गयी थी कि कहीं चर्चा ना करें. पर ये तीव्र संचार माध्यम जो ना कराएं, पता नहीं कहाँ से खबर लग गयी. उसे चाय नीचे हॉल में ही लाने को कह तैयार होने चला गया. एक गोल-मटोल हंसमुख से सज्जन को इंतज़ार करते पाया. थोड़ी ही देर में अपने आचरण से मन मोह लिया उन्होंने. पता चला, जिस संस्था के बारे में जानकारी इकट्ठी करने वह आया है. उसी संस्था से जुड़े हैं और उसके वार्षिक कार्यक्रम में उसे आमंत्रित करने आए हैं.

बड़े राज़ भरे अंदाज़ में उन्होंने पूछा, "पता है आप यहाँ क्यूँ आए हैं?"

"अपनी समझ से तो जानता ही हूँ, आप कुछ और समझते हैं तो बता दीजिये"... ये पहेली उसके बिलकुल पल्ले नहीं पड़ी.

"सिर्फ हमारी खातिर... वरना किसी और संपादक को क्यूँ नहीं आया यह ख़याल... हम परेशान थे किसे आमंत्रित करें, मुख्य अतिथि के रूप में... और भगवान ने आपको भेज दिया. " और वे हो हो कर हंस पड़े फिर संजीदगी से पूछा, "तो मंजूर है, ना हमारा आमंत्रण?"

'अब जब भगवान ने ही मुझे इसके लिए भेज दिया है तो मेरी क्या बिसात जो मना करूँ... कितने बजे है प्रोग्राम ?.. आप समय बता दीजिये, पहुँच जाऊंगा "... उसने भी हँसते हुए कहा.

"अरे नहीं साहब कैसी बात करते हैं.... हम खुद आएंगे आपको लेने... ग्यारह बजे का समय ठीक रहेंगा?"

"हाँ हाँ ठीक है ". उसके कहते ही, वे झुक कर नमस्कार करते हुए चले गए और वह सोचने लगा, कितना शिष्टाचार निभाते हैं लोग, इन छोटी जगहों में. वह तो यह सब भूल ही गया है. किसी को लेने जाना.. छोड़ने जाना. यहाँ किसी से बात करता है और वह बंदा सड़क तक छोड़ने चला आता है. ओह, कितना समय है लोगों के पास. सर झटकता वह ऊपर चला गया. अभी ऑफिस से कॉल का सिलसिला शुरू हो जायेगा.

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वादे के अनुसार वे उसे लेने आए, एक हॉल में छोटी सी गोष्ठी थी. सबसे उसका परिचय करवाने लगे और उनका चेहरा थोड़ा दर्प से चमकता भी जाता कि उसका आना उनके प्रयासों का नतीजा है. कुछ महिलायें भी थीं वहाँ. सबसे किनारे वाली कुर्सी पर एक महिला पीछे मुड कर किसी से बातें कर रही थीं. मिस्टर पटनायक ने उनके पास जाकर जोर से कहा, "मैडम के. एस.... इनसे मिलिए... "

वह अपनी बात पूरी कर पाते इसके पहले ही वे जोर से ये कहतीं "फिर आपने मुझे के. एस. कहा?" सामने पलटीं.

और बस एक पल को सृष्टि थम गयी. सारी चीज़ें स्थिर हो गयीं. सामने शची थी. शची का भी मुहँ खुला का खुला रह गया और आश्चर्य से उसे देखती रह गयी. उसके चेहरे का वह लुक वह कैमरे से तो नहीं खींच पाया, काश चित्रकार होता तो कैनवास पर उतार पाता. पर एक पल को पलटती हुई उसके चेहरे पर जमीं उसकी नज़रें तो हमेशा के लिए ही अंकित हो गयीं उसके मानसपटल पर.

शची की नज़रें स्थिर थी और उसे सारी चीज़ें घूमतीं हुई सी लगने लगीं. लगा जैसे भूचाल आ गया है. मेज, कुर्सियां सब आँखों के आगे तेजी से, चक्कर काटने लगे. इतने सालों बाद यूँ अचानक मुलाक़ात हो जाएगी. आँखें देखकर भी विश्वास करने से इनकार कर रही थीं. किन्तु क्षणों में संभाल लिया खुद को.. यही तो अंतर आया है पहले वाले अभिषेक और अब वाले अभिषेक में. पहले लाख कोशिश करे, मन की भावनाएं नहीं छुपा पाता था. चेहरे पर अपनी छाप छोड़ ही जाती थीं. किन्तु अब भावनाएं छुपाना दैनिक आदतों में शुमार हो गया है. बड़ी कुशलता से जब आत्मा रोती है तो वह ठहाके लगाता है और जब दिल ख़ुशी से लबालब भरा रहता है तो रुआंसा चेहरा लिए किसी के दुख में शामिल होने का ढोंग करता है.

यहाँ भी पलों में संभाल लिया खुद को, आँखें धुंधली हो आई थीं पर एक औपचारिक मुस्कराहट बिछा ली चेहरे पर. शची की सोए कमल सी आँखों में भी कुछ तैर गया था, यह उसका भ्रम था या उसके आँखों के धुंधलेपन से कुछ साफ़ नज़र नहीं आ रहा था. पर उन आँखों में उपजे अजनबियत का भाव देखकर एक बार सहम गया. फिर से सबकुछ अस्त व्यस्त नज़र आने लगा. ज़िन्दगी बेकार गयी उसकी. अपमान से शरीर सुलग उठा. जिसकी तस्वीर ताजिंदगी ह्रदय के एक कोने में सुरक्षित रही. जिसकी छवि सदा आँखों में बसी रही. आज उसी की आँखें उसे पहचानने से इनकार कर रही हैं या पहचानूँ या ना पहचानूँ, शायद इसका फैसला कर रही हैं. लेकिन नहीं दस-बीस-तीस-चालीस सेकेण्ड और शची ने पहचान लिया उसे. चेहरे पर वही निर्दोष हंसी और चांदी की घंटियों सी खिलखिलाहट उभरी, "मिस्टर पटनायक... आपका इंट्रोडकशन बेकार गया. हमलोग तो बरसों पहले इंट्रोड्यूस हो चुके हैं. वी वर क्लासमेट्स " और उसे अपनी तरफ यूँ एकटक देखता पा जैसे तन्द्रा से जगाने को उसके सामने हाथ हिलाकर कहा, "मुझे पहचाना अभिषेक... मैं शची.. " ओह उसकी अंगुलियाँ तो अब भी वैसी ही लम्बी पतली और नाजुक थीं बस नाखून अब लम्बे नहीं थे और उनपर नेलपौलिश नहीं लगा था. पहले वह हमेशा उसे टोक देता, 'तुम्हारे नाखून यूँ ही कितने लम्बे और पिंक हैं क्यूँ नकली रंग लगा इन्हें बिगाड़ती हो?' और शची हंस पड़ती, 'जलते हो कि तुम लड़के ये सब नहीं कर सकते ?'

जैसे नींद से जगा और कुछ झेंपते हुए सा बोला, 'हाँ हाँ पहचाना क्यूँ नहीं... बस खुद को श्योर कर रहा था... कैसी हो?" वाह क्या कमाल का प्रेजेंस ऑफ माइंड पाया है, दाद दी मन ने.

"कितने वर्ष भी तो बीत गए ना.... दस या शायद बारह "

" ग्यारह " कुछ इतने निश्चित स्वर में कहा, उसने कि शची सकपका गयी शायद, कहीं वह महीने और दिन भी ना बता दे. जल्दी से मिस्टर पटनायक की तरफ मुड कर बोली, "पता है पटनायक साहब हम दोनों ने एक साथ ही एम. ए. किया है.. सॉरी किया नहीं.. सिर्फ पढ़ा है"

पर मिस्टर पटनायक अपनी धुन में थे, "अरे! जरूर किया होगा जरूर किया होगा... हमें भी जरा नाम बताइए उस यूनिवर्सिटी का. हम भी मत्था टेक दें जरा कि हे! विश्व के विद्यालय तुमने समाज -सेवा और साहित्य-सेवा में दो दो दिग्गज इस देश को दिए, शत शत नमन है तुम्हे इसके लिए " उन्होंने नाटकीय ढंग से कहा तो शची हंसी से दोहरी हो गयी और वह निर्निमेष देखता रहा उसकी वह चपल आकृति. हल्का सा परिवर्तन आया तो था. चेहरे की तीखी रेखाएं पिघल कर एक स्निग्ध तरलता में बदल गयी थीं. कमर तक लम्बे बाल अब कंधे तक रह गए थे. पर वे शरारती लटें अब भी चहरे पर अठखेलियाँ कर रही थीं, जिन्हें परेशान हो वह पहले की तरह ही बार बार पीछे कर देती. लेमन कलर की साड़ी बड़ी कॉन्फीडेनटली बाँध रखी थी. वरना कॉलेज के दिनों में जब जब कॉलेज फंक्शन्स में साड़ी पहने देखा है, बुरी तरह कॉन्शस पाता था उसे. बड़ी तीव्र इच्छा जगी, खुद को भी जाकर एक बार शीशे में निहार ले क्या क्या बदलाव आए हैं उसमे, क्या शची भी नोट कर रही होगी? मिस्टर पटनायक शची का परिचय करवा रहें थे... "ये हमारी संस्था की केन्द्रीय शक्ति हैं.. इसीलिए मैडम के. एस. कहता हूँ. इनके बल-बूते पर ही चल रही है यह संस्था... वगैरह वगैरह"... पर उनकी बातें सुनने को होश किसे था?. जब उसे बीच की कुर्सी पर बैठने का संकेत किया, तब वह चौंका. शची किनारे ही बैठी रही. वह तो सब भूल गया क्या क्या सोच कर आया था कहने के लिए. अब बोलेगा क्या ?

जैसे तैसे सभा समाप्त हुई. शची तेजी से उसके पास आई और बड़ी जल्दबाजी में उस से पूछा, "कितने दिन हो यहाँ?"

"दो दिन"

"घर पर आओ ना फिर "

"मैं तो अभी ही चलने को तैयार हूँ " मुस्कुराते हुए कहा, उसने तो शची जोरों से हंस पड़ी जैसे बहुत बड़ा कोई मजाक कर दिया हो उसने, "ना अभी तो संभव नहीं.. मैं जरा डॉक्टर जोशी के साथ जा रही हूँ. यहाँ कुछ इलाकों में महामारी फैली हुई है. स्टाफ की इतनी कमी है, कुछ मदद करनी ही पड़ती है. " और उसने इशारा किया डॉक्टर जोशी को.. 'बस अभी आती हूँ'. फिर उस से बोली.. "अपना नंबर दो, ना... वहाँ से फ्री होते ही फोन करती हूँ तुम्हे. " उसने नंबर दिया. तब तक डॉक्टर जोशी भी आ गए. उस से गर्मजोशी से हाथ मिलाया, विदा कहा. शची ने भी हलके से हाथ हिलाया और किसी शंकर की बीमारी की तफसील बताती उनके साथ ही बाहर निकल गयी. वह शची से उसका नंबर तक नहीं ले सका ना ही उसे कह सका कि एक मिस्ड कॉल ही दे दे वह सेव कर लेगा.

विमूढ़ सा खड़ा रह गया चुपचाप. ऐसा लगा जैसे बड़ी मुश्किल से झुकी फूलों की कोई डाली, एक झटके से हाथ से छूट फिर अपनी उंचाई तक पहुँच गयी है. अभी अभी क्या गुजरा है, शची सचमुच उस से मिली है. ?सचमुच उस से बातें की हैं या यह सब बस निरी कल्पना है? ऐसा भी भला संभव है, बरसों बाद मिले दोनों और एक दूसरे की आँखों में झांकते जड़वत रह जाने के सिवा इस तरह अपरिचितों जैसे मिलें और सहज रूप से दो बातें कर साफ़-पाक ढंग से अलग हो जाएँ? अपनी कल्पनाओं में तो ना जाने कितनी बार मिला है शची से, अनजाने ही यह विश्वास गहरी जड़ें जमा चुका था, कभी ना कभी शची से मुलाक़ात होनी ही है. पर इस मुलाक़ात का ये रूप होगा? ऐसा ख़याल तो सपने में भी नहीं आया. क्या वह सचमुच शची ही थी. ?

जी में आया, सब कुछ तहस-नहस कर डाले. लोगों को धक्के दे गिराता, कुचलता, दौड़ता हुआ दूर निकल जाए. लेकिन कहाँ? और ये विचार किसी सोलह वर्षीय दिमाग में नहीं बल्कि चौंतीस वर्षीय दिमाग में आ रहें थे. इसलिए चेहरे पर मुस्कान चिपकाए सबसे विदा ले खरामा खरामा बाहर निकल गया.

000
एक दो लोगों से मिलना था. ऑफिस में कुछ जरूरी कॉल्स करने थे पर उसकी नज़र एकटक मोबाईल पे थी. कब शची का कॉल आ जाए. जल्दी से बात ख़त्म कर देता क्या, पता शची कॉल करे और उसे वेटिंग मिले और वह नंबर ना पहचान पाए. सारा समय मोबाईल के स्क्रीन पे टाइम के बदलते डिजिट देखता रहा और शची का नंबर फ्लैश होने का वेट करता रहा.

आखिर चार बजे के करीब, अनजाना नंबर फ्लैश होता देख दिल की धड़कन कई गुना बढ़ गयी, और इतने बड़े पत्रकार... अपने सवालों से लोगों के छक्के छुड़ा देने वाले की आवाज़ काँप गयी 'हेलो' बोलते.

उधर भी कुछ क्षण का मौन था फिर सुना, 'अभिषेक' और दिल में कुछ ऐंठ गया... गले से फंसती हुई सी बस एक 'हूँ' निकली.

"फ्री हो"

एक और' हूँ '

"घर आ सकते हो?.. चाय पीते हैं साथ "

"हूँ"... ये शची तो शायद गूंगा ही समझेगी उसे. पर कुछ सूझ ही नहीं रहा था, क्या बोले.

"एड्रेस नोट कर लो... मुश्किल नहीं है आसानी से पहुँच जाओगे, "

अब जैसे तत्परता आई उसमे, फटाफट एड्रेस नोट किया फिर शची ने ही कहा "मिलते है फिर"

"ठीक है' बस इतना ही कह पाया और फोन कट गया

थोड़ी देर, वह फोन हाथों में लिए खड़ा रहा. इसी में से आवाज़ आ रही थी शची की? कुछ देर देखता रहा फिर एकदम से खुद में लौटा, अरे तैयार भी होना है. पर पहनेगा क्या? ओह इतना समय था उसके पास. उसी में डीसाईड कर लेता. पर उसने तो सारा समय मोबाईल को घूरने में जाया कर दिया. पर अब जरा भी टाईम वेस्ट नहीं करना. जब कुछ नहीं सोच पाता तो सदाबहार ब्लैक टीशर्ट हमेशा उसके बचाव के लिए आ जाता है. उसे पता है ब्लैक टी शर्ट तो उसके ऊपर फबता ही है. ओह, एक आदमकद शीशा भी नहीं इस गेस्ट हाउस में. खुद को पूरा देख भी नहीं सकता. छोटे से आईने में बस उसका चेहरा और कंधे ही नज़र आ रहें थे. हेयर लाइन थोड़ी रीसीड हो गयी है, बाकी तो सबकुछ वैसा ही है. पर फिर उसे ध्यान आया खुद को तो वह रोज़ ही देखता है कैसे पकड़ पायेगा अपने में आया हुआ बदलाव. ? नहीं.. नहीं पर जब से भारत लौटा है सारे मिलने वाले भी तो यही कहते हैं कि जरा भी नहीं बदला वह. क्या पता उसका मन रखने को कह देते हों, सबको तो ऐसा सुनना ही अच्छा लगता है. पर इतन नर्वस क्यूँ हो रहा है. और आईने में खुद को देख कर बोल उठा 'बी कॉन्फिडेंट अभिषेक " और फिर खुद ही हंस पड़ा. आज तक इतने दिग्गज लोगों के इंटरव्यू के लिए जाते समय खुद को नहीं निहारा. यहाँ तक कि हॉलीवुड के हिरोइन्स के इंटरव्यू, लेते वक़्त भी और आज क्या हो गया.... डैम इट.... पता नहीं क्या क्या सोच रहा है. हाथ में डियो लिए खड़ा था, दोनों ही डर था कहीं ज्यादा ना लगा ले और शची समझे नहा कर आया है और कहीं इतना कम भी ना कि लगे लगाया ही नहीं. फिर से नर्वस... और खुद पर ही हँसते डियो बिस्तर पर फेंक दिया पर्स जेब के हवाले किया और मोबाईल उठा, धड़ाम से दरवाजा खींच तेजी से सीढियां उतर गया.

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घर ढूँढने में जरा भी परेशानी नहीं हुई. शची ने सच ही कहा था एकदम सीधा रास्ता था. महानगरों के हिसाब से एक बंग्लानुमा घर था. वरना प्राइवेट मकान ही कहा जायेगा. खुद ही गेट खोलकर अंदर दाखिल हुआ. गेट खड़कने की आवाज़ से शची ने एक पिलर के पीछे से झाँका. और एक औपचारिक मुस्कान चस्पा हो गयी चेहरे पर. फिर एक औपचारिक प्रश्न, "घर ढूँढने में परेशानी तो नहीं हुई?"

एक औपचारिक मुस्कान के साथ औपचारिक उत्तर... "ना बिलकुल नहीं"

डर लगा उसे, ये मुलाकात कहीं एक औपचारिक मुलाक़ात होकर तो नहीं रह जाएगी?

शची, पिलर से लिपटे मनीप्लांट के सूखे पत्ते निकाल रही थी. उसे बैठने का इशारा किया और थोड़ी देर उसी में लगी रही. एक पल को ख्याल आया वो, सचमुच मनीप्लांट के सूखे पत्ते निकाल रही है या खुद को व्यवस्थित करने के लिए थोड़ा वक़्त ले रही है. पर उसके लिए भी अच्छा है. बेझिझक थोड़ी देर उसे यूँ देख सकता है. शची ने नहा कर सलवार कुरता बदल लिया था और फिर से काफी छोटी लगने लगी थी. गीले गीले बाल पीठ पर छितराए थे, जहाँ बैठा था वहाँ से, उसकी साईड प्रोफाइल नज़र आ रही थी.. बालों ने झुक कर आधा चेहरा घेर रखा था. काले बालों के बीच ताज़ा धुला चेहरा ओस नहाये फूल सा ताज़ा दिख रहा था. कुछ बूँदें भी चमक रही थीं, ये पसीने की थीं या पानी की.... पता नहीं. इतने साल गुजर गए. और शची सचमुच नहीं बदली है या वो जो देखना चाह रहा है बस वही उसे दिख रहा है. जो भी हो पर जैसा अपने ख्यालों में देखता था उसे वैसा ही पाया. इन्हीं ख्यालों में गुम था कि शची आ गयी और बोली, "चलो अंदर बैठते हैं "

और अंदर जाकर तो शची का जो टेप स्टार्ट हुआ, बिना कहीं ब्रेक के अनवरत चलता ही रहा. अभी भी यहाँ पर सुविधाओं की कितनी कमी है... क्या क्या कठिनाइयां हैं... किस प्रकार के लोग हैं... स्कूलों अस्पतालों को कितनी कठनाइयों का सामना करना पड़ रहा है... स्टाफ की कितनी कमी है.. पहले यह जगह कैसी थी.. अब भी कितना कुछ करना बाकी है.... शची लगातार बोलती जा रही थी. बिना उस से कुछ भी बोलने का मौका दिए. अपनी प्रतिक्रिया तो क्या देता, ठीक से हूँ-हाँ भी नहीं कर पाया.

हालांकि ये सारी जानकारी उसके लेख के लिए अति- महत्वपूर्ण थी. और उसे अपना सौभाग्य समझना चाहिए था कि एक साथ इतनी विस्तृत जानकारी मिल रही थी. विस्तृत और यथार्थ. लेकिन उसे यह सब सुनना बिलकुल भी गवारा नहीं हो रहा था, शायद मनोयोग से सुन भी नहीं रहा था. क्या यह कल्पना के परे नहीं कि बरसों बाद दो गहरे दोस्त मिलें और बढती कीमतों की चर्चा करने बैठ जाएँ.

शची चाय बनाने को उठकर गयी तो उसे थोड़ी राहत मिली. बिखरे सूत्र अपने-आप जुड़ने लगे. अच्छा इस बार वह आएगी तो वह खुद ही शुरू हो जायेगा और कॉलेज के दिनों की चर्चा छेड़ देगा. कॉलेज के दिनों की बात आते ही सबकुछ खुद स्पष्ट हो जायेगा. और फिर ढेर सारी बातें पूछेगा. इतने दिन कहाँ रही?... कैसे रही?.. सुनेगा भी और सुनाएगा भी.. कैसे तिलतिल कर काटे हैं उसने ये दिन.

ट्रे में ढेर सारी चीज़ें सजाए शची आई तो बातों की डोर अपने हाथों में लेने को उसने लगभग गोली सी ही दाग दी, "आजकल क्या पढ़ रही हो... 'काईट रनर' पढ़ी क्या..... "

शची बड़े जोरों से हंस पड़ी. लगा शायद बहुत हड़बड़ी में पूछ बैठा. झेंप गया.

शची हंसती रही, हंसी थमी तो बोली, "किताबों की बात मुझसे करते हो... नर्सरी राईम्स या कॉमिक्स की बात करो तो बात समझ में भी आए"

बौखला गया वह. सरासर मजाक बना रही है, उसका. पर यही सही. इस नीरस बातचीत में कुछ तो सरसता आई, "क्यूँ बेवकूफ बना रही हो... जैसे मुझे तुम्हारे शौक नहीं मालूम. किताबों के बगैर तो मैं तुम्हारे अस्तित्व की कल्पना भी नहीं कर सकता. उनके बिना जी भी कैसे पोगी तुम?"

"देख ही रहें हो जी रही हूँ... और मुझे लगता है यही जीना सार्थक है. मन को इतनी शान्ति मिलती है यहाँ. कभी नहीं मिली मुझे. साहित्य कोई सुख.. कोई संतोष नहीं देता, अभिषेक. बस एक बेचैनी, एक छटपटाहट मिलती है उस से. कुछ कर पाने की बेकरारी महसूस होती है. लेकिन कर नहीं पाता कोई कुछ... अपनी असमर्थता का अहसास और भी सालने लगता है, तब. जबकि समाज सेवा में एक सुकून मिलता है... बहुत शांति मिलती है... गंभीर हो आई थी, शची.. पर फिर हंस पड़ी.. "खैर छोडो.. किताबों का भी अपना चार्म है. पर हम जैसों के पास वक़्त कहाँ है, पढने का.... और यहाँ मिलनी भी मुश्किल. "

यह वही शची बोल रही थी जो कभी लाइब्रेरी में नयी किताब के आते ही. लड़ झगड़ कर सबसे पहले खुद इशु करवाती. ये क्या शॉक पे शॉक दे रही है वह. अचानक उसे खयाल आया और पूछ बैठा, "तो क्या लिखना भी छोड़ दिया?"

"लिखना.... क्या लिखा. छोड़ दिया?"

"अरे! वो पेपर्स... मैगजींस वगैरह में लिखा करती थी, ना.. "

"वो सब तो कितनी पुरानी बातें हैं... याद भी नहीं अब... और ऐसा कुछ ख़ास नहीं लिखा करती थी... उम्र का एक दौर आता है... जब हर किसी को लिखने का शौक चढ़ जाता है बस... ये नमकीन लो.. ".. प्लेट बढ़ा दिया उसकी तरफ.

बस बहुत हुआ. अब तो उसे डर लगने लगा, ये शची ही है या कोई और? ये.. ये सब क्या सुन रहा है वह... तो क्या शची उसके बारे में पहले से कुछ नहीं जानती थी कि वो इतना बड़ा पत्रकार है.. इतनी प्रतिष्ठित पत्रिका का संपादक... क्या पता पूछे कि, तुम्हे क्या लगता था... मैं क्या करता होऊंगा"

तो सहज भाव से कह देगी,.. 'बिजनेस'.

ना इस शची से कोई परिचय नहीं उसका. इस से बातें कर तो उसके ह्रदय में सुरक्षित शची की अपनी मूर्ति भी खंडित होने लगी है. अब चलना चाहिए उसे. वह मूर्ति खंड खंड हो बिखर ही ना जाए कहीं. इस से अच्छा तो शची मिलती ही नहीं. सारी बातें भूल चुकी है, शची. ना अब और इसकी बातें नहीं झेल पायेगा. चुपचाप प्लेट पर अपना ध्यान केन्द्रित किया. शची भी चुप हो आई.... और बस यहीं उसकी अपनी शची लगने लगी. वही झुकी झुकी पलकें, वही चुप रहने पर भी मुस्कराहट से उद्भासित चेहरा. आँखों के किनारे से शची के चहरे के भाव भांपने की कोशिश करने लगा, क्या शची सबकुछ भूल चुकी है या किसी भी दूसरी स्थिति का सामना करने से बचने के लिए मात्र ऐसा अभिनय कर रही है. दूसरे विषयों में उलझे रहने को लगातार बातें कर रही है कि कहीं चुप होते ही, अंतर्मन ना मुखर हो उठे.

यही सब सोचते धीरे धीरे चाय सिप कर रहा था कि एक चार, पांच वर्ष की बच्ची रोती हुई हाथों में एक नोटबुक और पेन्सिल लिए हुए आई. शची के करीब पहुँच, हिचकियाँ लेती हुई बोली, "मम्मी.. मम्मी... "

उसके हाथों से कप गिरते गिरते बचा... चाय छलक ही आई पैंट पर... शुक्र है, शची बच्ची की तरफ मुखातिब थी. ओह!! कानों पर विश्वास ना हुआ. कुछ खोजती निगाहें कभी, शची के चेहरे पर टिकतीं कभी, बच्ची के चेहरे पर. दोनों में कोई साम्य नज़र तो नहीं आ रहा था. बच्ची का गोल चेहरा और ढलते सूरज के रंग के जैसे बाल शची से कहीं मेल नहीं खा रहें थे... पर ये मम्मी का संबोधन? बच्ची के फूले फूले गालों पर बड़ी बड़ी बूँदें गिर रही थीं और शची उसके बाल सहलाती पूछ रही थी. पर वह सुबकती हुई सी सिर्फ.. "मम्मी.. मम्मी.. भैया... भैया ना... " इतना ही कह पा रही थी. शची ने कुछ समझकर आवाज़ दी... "नलिsss न"... आठ-नौ साल का एक स्मार्ट सा लड़का दौड़ता हुआ आया.

वही बहन की आकृति, गोरा रंग, भूरी आँखें और सुनहरे बाल. उसे देख शिष्टता से नमस्ते की और भरा हुआ सा शची के पास चला गया.

"तुमने क्यूँ मारा, इसे... कितनी बार मना किया है.... " शची के स्वर में कठोरता थी.

"मम्मी मैंने इसे मारा कहाँ है... " बीच में ही बोल उठा वह.

"तो रो क्यूँ रही है?"

"मैंने तो बस कान खींचे थे.. अपराधी सा बोला वह और झपटकर बहन के हाथ से नोटबुक छीन शची को दिखाने लगा... "ये.. ये देखो... 6 के बाद 9 आता है... और मम्मी नीतू को D लिखना तो कभी आयेगा ही नहीं.... हमेशा C की तरह लिख कर एक लाईन खींच देती है. देखो कैसे लिखा है.. ?"

शची के चेहरे पर मुस्कराहट छा गयी.. "इसे पढाने के लिए किसने कहा तुम्हे?"

"खुद ही बोली... कि होमवर्क दो.. मैं तो ड्राइंग बना रहा था... मुझे बनाने भी नहीं दी... हमेशा मेरी कॉपी करती है... होमवर्क करना है... जब मिलेगा स्कूल में होमवर्क तब पता चलेगा... कॉपी कैट "

"यू कॉपी कैट... " नीतू कब चुप रहने वाली थी पर शची ने आँखें दिखाईं और पूछा, "बोली थी नीतू?"

अब नीतू ने सर झुका गर्दन हिला दी.

शची नलिन कि तरफ मुड़ी, " ठीक है तुम जाओ... पर तुम ड्राइंग क्यूँ बना रहें थे... मैंने सम्स दिए थे, ना.. वो पूरा ख़त्म करो पहले"

फिर शची, बच्ची को लिख कर बताने लगी.. D ऐसे नहीं.. ऐसे लिखा जाता है... और 6 के बाद 7, 8, तब 9... "

वह चुपचाप यह अदालती कार्यवाई देख रहा था. मन में हज़ार हज़ार प्रश्न घुमड़ रहें थे. शची का यह सर्वथा नया रूप था, उसके समक्ष और उसकी कल्पना के समक्ष भी.

"अब ठीक है... जाओ खेलो.. " और शची ने बच्ची के गाल थपथपा दिए. बच्ची उसकी तरफ देख, एक शर्मीली मुस्कराहट बिखेर चली गयी. उसका ह्रदय भी जाने कैसा कैसा हो आया, बच्ची की उस निर्मल मुस्कराहट पर.

शची अब उसकी तरफ मुड़ी और बिलकुल गृहस्थन अंदाज़ में बोली, " मुझे तो पता ही नहीं चलता आखिर नलिन, बड़ा होकर बनेगा क्या?.. टीचिंग का इसे इतना शौक है.. जब देखो.. नीतू को पढ़ाने बैठ जाता है. एक दिन जब मैं बाहर से लौटी, देखा चार पांच बच्चे हाथों में किताब लिए बैठे हैं. नलिन कुर्सी पर विराजमान है और बाकायदा क्लास चल रही है... दस मिनट तक मैं चुपचाप देखती रही. इतनी गंभीरता से स्कूल की कार्यवाई चल रही थी कि समझ में ही नहीं आया ये लोग खेल रहें हैं या वाकई पढ़ रहें हैं.... कहीं नलिन टीचर बन कर ही ना रह जाए, इसकी माँ का सपना था... नलिन पायलट बने. "

"माँ का??"... वो जैस चीख ही पड़ा.

"हाँ कणिका का... "शची ने अविश्वास से कहा.. और फिर जोर से ओह!! कह कर एक हाथ से सर थाम लिया... फिर बोली... "ओह!! तो तुम समझ रहें हो.. कि मैं.... पर ठीक ही है अब तो माता-पिता जो भी हूँ, मैं ही हूँ... कणिका ने तो मुझे जीने का बहाना दे दिया है"

"शची, जरा साफ़ साफ बताओ.... मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा"... जैसे ही बोला ध्यान हो आया आज कितने बरसों बाद शची का नाम लिया है उसने.

उसकी उत्सुकता देख शची बताने लगी, " कणिका याद है, ना... कॉलेज की सबसे मॉडर्न और बोल्ड लड़की. और परिवार पैसे वाला था पर उतना ही कट्टरपंथी. सबका विरोध कर वह एयरहोस्टेस बनी. इसे तो उसके परिवार वालों ने जैसे तैसे सह लिया पर एक ऑस्ट्रलियन से शादी नहीं पचा पाए. साफ़ कह दिया, आज से कणिका मर गयी उनके लिए. कणिका को भी क्या परवाह थी. एयरहोस्टेस के लिए जब पिता ने ऐतराज जताया था तो उसने धमकी दे डाली थी, 'ज्यादा रोक लगायेंगे तो फिल्म लाइन ज्वाइन कर लूंगी'

शादी कर वह ऑस्ट्रेलिया चली गयी. पर निभ कहाँ पाता है? वही हुआ जो अक्सर होता है. कणिका तलाक ले देश लौट आई. नीतू तब साल भर की थी. स्वाभिमानी तो थी ही. घर से कोई सम्बन्ध नहीं रखा. और चाहती भी तो वहाँ था ही कौन. ? पिता स्वर्ग सिधार चुके थे और भाई अपनी गृहस्थी में मगन. कणिका के आने की खबर सुन भी मिलना जरूरी नहीं समझा. और माँ बिचारी तो भाई पर आश्रित. उनकी चलती कहाँ थी. मैं उन दिनों उसी शहर के कॉलेज में लेक्चरर थी. मैने सोशियोलौजी में एम. ए और फिर पी. एच. डी भी किया था. लिटरेचर से बिलकुल ही मन हट गया था... लिखना-पढना सब बंद.. मेरे साथी प्रोफ़ेसर के पड़ोस में रहने आई थी, कणिका. एक दिन उनके यहाँ पार्टी में मिले और कॉलेज में हम दोनों में कभी हलो-हाय भी नहीं था. पर जानते थे एक -दूसरे को. पहचान का इतना सा धागा कब मजबूत डोर में बदल गया पता ही नहीं चला. वो कॉलेज में जैसी थी वैसी ही थी, ज़िन्दगी से भरपूर. दो बच्चों की जिम्मेवारी ने भी उसे स्लो-डाउन नहीं किया था. एक अच्छी कम्पनी में जॉब मिल गयी थी. ज़िन्दगी अच्छी गुजर रही थी. हम दोनों हर जगह साथ होते. बच्चे भी मुझसे काफी हिल गए थे. और एक दिन, मुझे उसने फोन किया कि उसके घर जाकर बच्चों के पास रहूँ. उसे लौटने में देर होगी. आया थी पर शाम होते ही बच्चों को मम्मी चाहिए होती. और आई वह मनहूस खबर. वो बच्चों से मिलने को तेज गाड़ी चला रही थी या ट्रक वाले की गलती थी... अब क्या फायदा बहस कर के. पर कणिका फिर घर नहीं लौट पायी".... शची की आँखें छलछला आई थीं. उसका भी मन भर आया. इतनी मासूम उम्र में माँ का साया उठ गया इन बच्चों के सर से. पर कहीं संतोष भी था., शची की स्नेहिल छाया मिली है उन्हें, जो ज़िन्दगी की हर धूप से बचाएगी उन्हें... थोड़ी देर दोनों चुप बैठे रहें. वातावरण बेहद बोझिल हो उठा. ज़िन्दगी ऐसे खेल क्यूँ खेलती है... मन बहुत उदास हो आया उसका.

तभी अचानक शची को जैसे कुछ याद हो आया... "बच्चों के पिता तो अपनी नयी गृहस्थी सजा उसमे व्यस्त थे. वे क्या जिम्मेवारी लेते. उसका भाई तो किसी तरह बस फ्यूनरल में अपना चेहरा दिखा कर चला गया. और मेरे साथ भी मुश्किल थी. बच्चे सिर्फ मुझसे हिले हुए थे पर मैं भी बहुत डरी हुई थी. शायद तुम्हे याद ना हो... मुझे भी हार्ट डिज़ीज़ था... मेरा भी क्या भरोसा"

और बस इस वाक्य ने जैसे डाइनामाईट का काम किया. अब तक जितनी सहानुभूति, जितनी कोमलता घर कर रही थी. इस वाक्य ने एक झटके में सबकी धज्जियां उड़ा कर रख दीं. जी में आया चीख पड़े... "हाँ कहाँ याद है उसे?.. बरसों पहले शची के कहे इसी वाक्य ने उसकी ज़िन्दगी की धारा बदल कर रख दी. अब तक भटक रहा है वह, और इतनी मासूमियत से कह रही है वह, 'तुम्हे तो याद होगा नहीं' टेबल पर रखे पेपरवेट से खेल रही थी उसकी अंगुलियाँ. जी में आया दे मारे सामने खिड़की के शीशे पे. कैसे शची सब भूल गयी है? यह सब कह कह कर कौन सा बदला ले रही है उस से? उसे पहचानने से ही इनकार क्यूँ ना कर दिया... कोई गली-गली माइक ले वह चिल्लाता तो नहीं फिरता. इस तरह अजनबियत भरा व्यवहार... कितना यंत्रणादायक है. किसी तरह खुद पर नियंत्रण रखे, पेपरवेट पर गुस्सा उतारता रहा. इतनी जोर से भींचा पेपरवेट को कि अंगुलियाँ छिल गयीं उसकी.

लेकिन शची उसके मन में आते-जाते भावों से बेखबर, कुर्सी की पीठ से सर टिकाये अपनी ही रौ में कहे जा रही थी, "लेकिन जाने क्या चमत्कार हुआ... या मेडिकल साइंस की तरक्की ही कह लो. जिस ऑपरेशन को करने से डॉक्टर इतने दिन तक डरते रहें कुछ विदेशी डॉक्टर आए थे और उनके साथ मिलकर मेरा मेरे हार्ट का ऑपरेशन हुआ और मैं बिलकुल ठीक हो गयी. मुझे तो पूरा विश्वास है, इन मासूमों की देखरेख के लिए ही ईश्वर ने ज़िन्दगी बख्शी है. अब इस पर कोई हक़ नहीं मेरा और सोशल वर्क अपना लिया मैने. यहाँ आने के लिए सबने कितना मना किया. मेडिकल फैसिलिटीज़ नहीं है. पर मुझे विश्वास है, अब कुछ नहीं होगा मुझे. और यह ठीक ही साबित हुआ. मुझे बुखार तक नहीं आया, कभी. "

शची अपनी रौ में बोलती चली जा रही थी और नीतू पास आ खड़ी हो गयी और इंतज़ार करने लगी, मम्मी एक बार तो देखे उसकी तरफ. आखिरकार हारकर वह बगल से चुपचाप कुर्सी पर चढ़ने लगी. उस से नज़रें मिलीं तो एक शर्मीली मुस्कराहट उसके भोले चेहरे पर छा गयी. और अचानक अपनी बाहें उसने शची के गले में डाल दीं. शची बिलकुल चौंक गयी, "अरेssss... बदमाश तू "

बच्ची इस सारी मार्मिक बातचीत से अनभिज्ञ ठुनकती हुई बोली, "मम्मा चॉकलेट "

उसे लगा, शची झिड़क देगी, यूँ डिस्टर्ब करने के लिए. पर नहीं बच्चों से निबटने का अलग तरीका होता है, उसे यह सब क्या मालूम. शची ने झूठे गुस्से में मुहँ फेर लिया, "मम्मा नहीं बोलती तुझसे."

"क्यूँ मम्मा... " और नीतू अपने नन्हे नन्हे हाथों से उसका चेहरा अपनी तरफ मोड़ने की कोशिश करने लगी.

"तुमने अंकल को नमस्ते की ?"

नीतू पहले तो झेंप गयी फिर शची के गले में पड़ी पतली चेन से खेलते हुए बोली, "हम तो गुड़ मॉनिंग करेंगे "

"लेकिन पागल.. अभी तो शाम है... शची ने हंसते हुए कहा और खींच कर चूम लिया उसे.

एकबारगी ही जाने क्या चुभ गया ह्रदय में. देख नहीं सका ऐसा दृश्य. झटके से खड़ा हो गया. शायद शची को भी अपने जैसा इन अभावों से पीड़ित देखना चाहता था.

"शची.. चलूँ अब "

"क्यूँ... कोई काम है.. बैठो अभी... "शची नीतू को गोद में लिए ही उठ आई.

"नाss अब चलूँगा.... बहुत समय ले लिया तुम्हारा... पता नहीं तुम्हे ही किसी की हेल्प करने कहीं जाना हो"

शची कुछ बोली नहीं. उसने नीतू के गाल थपथपा दिए और बाहर निकल आया.

(क्रमशः)