Him Sparsh - 71 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | हिम स्पर्श - 71

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हिम स्पर्श - 71

71

ललाट की उस बिंदी ने वफ़ाई के अंदर नया उन्माद जगा दिया। वफ़ाई विचलित हो गई, चंचल हो गई। जीत ने वफ़ाई के उन्माद को, उस क्षण के उन्माद को परख लिया. उसने वफ़ाई को अपने आलिंगन में ले लिया। वफ़ाई ने दोनों हाथों से जीत को कसा। जीत ने भी वही किया। दोनों के बीच कोई अंतर नहीं रहा। दोनों इतने समीप थे कि हवा भी बीच में आने का साहस न कर पाई।

दोनों ने एक दूसरे की आँखों में देखा। आँखों ने आँखों से कुछ बात कही, आँखों ने आँखों की बात सुनी, समजी और अधरों ने अधरों से मिलन कर दिया। दोनों का अस्तित्व एक दूसरे में विलीन हो गया। दूर गगन से चंद्र निर्लज्ज हो कर सब कुछ देखता रहा।

रात्रि भर चंद्रमा जीत और वफ़ाई को देखते देखते थक गया, अस्त हो गया। भोर ने जब जगाया तो जीत ने स्वयं को झूले पर पाया। वफ़ाई झूले पर नहीं थी।

जीत कक्ष के अंदर गया। वफ़ाई वहाँ सो रही थी। वफ़ाई के ललाट की लाल बिंदी अभी भी वहीं थी। वफ़ाई को वह और शृंगारित कर रही थी। वफ़ाई के मुख पर शांति थी, परम शांति थी। कोई पीड़ा, कोई उन्माद वहाँ नहीं था।

क्या यह शांति ही शाश्वत है? जीत ने स्वयं से प्रश्न किया।

वफ़ाई को वहीं छोड़ कर जीत चल पड़ा मरुभूमि की तरफ, बिना किसी कारण के, बिना किसी उद्देश्य के। जीत रेत पर चलता रहा। उसे यह रेत अपरिचित सी लगी, मानो वह यहाँ पहली बार आया हो। कुछ साय तक वह चलता रहा, फिर अचानक घर को लौट आया। झूले पर जाकर बैठ गया। एक ठंडी हवा उसे स्पर्श कर निकल गई।

मैं कई महीनो से रेत पर चल रहा था और वफ़ाई के आते ही रेत का वह मार्ग कहीं पीछे छुट गया हो, जैसे मैं जीवन के मार्ग पर लौट आया। वफ़ाई का मिलना, वफ़ाई का होना ही जैसे जीवन हो।

“वफ़ाई। ओह वफ़ाई। कहाँ हो तुम?” जीत झूले से उठा और कक्ष के अंदर गया।

“वफ़ाई, कहाँ हो?” कक्ष के अंदर द्रष्टि करते ही जीत के शब्द अटक गए। वह चौंक गया। वफ़ाई ने कुछ सामान बांध दिया था और कक्ष के एक कोने में रख दिया था।

“वफ़ाई, कहाँ हो? और यह क्या? फिर कहीं जाने की तैयारी कर रही हो?”

“हाँ, अवश्य। तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं?” वफ़ाई ने बड़े ही मधुर भाव से पूछा।

“मुझे क्यूँ आपत्ति होगी?“ जीत को कुछ समझ नहीं आ रहा था।

“?”

“हाँ, हाँ। कहा ना मुझे क्यूँ होनी है आपत्ति? मुझे क्या, तुम कहीं भी जाओ। मैं तो जानता ही था कि अतिथि को एक ना एक दिवस जाना ही होता है।”

“तो इतने उखड़े उखड़े से क्यूँ हो?” वफ़ाई ने जीत को छेडा। जीत ने कोई उत्तर नहीं दिया।

“चलो छोड़ो भी न। मेरी तरफ देखो। मेरी बात ध्यान से सुनो।“ वफ़ाई जीत के समीप गई और जीत का हाथ पकड़ लिया। दोनों की आँखें मिली। वफ़ाई ने पलकें झुकाई, उठाई और जीत को स्मित दिया।

“कहो, क्या कहना चाहती हो?”

“पहले थोड़ा स्मित करो, बाद में हम बात करते हैं।“ जीत ने स्मित किया पर वह स्वाभाविक स्मित ना था।

“सुनो, यह सामान मेरी अकेली का नहीं है, तुम भी चल रहे हो मेरे साथ। हम दोनों जा रहे हैं।”

“हम दोनों? कहाँ? कब? कयूं? कैसे?” जीत ने एक साथ अनेक प्रश्न पुछ डाले।

“आओ कक्ष से बाहर चलते हैं। वहीं झूले पर बैठ कर बातें करते हैं। मैं सब कुछ बताती हूँ।“ वफ़ाई झूले पर बैठ गई।

“अब बैठ भी जाओ, जी....त...।” वफ़ाई ने जीत को खींचा, जीत झूले पर बैठ गया।

“हम दोनों जा रहे हैं। इस मरुभूमि से कहीं दूर, किसी पहाड़ पर जा रहें हैं। और हाँ, वह पहाड़ हिमाछादित भी है। आज ही थोड़ी ही देर में हमें जाना होगा।“ वफ़ाई रुकी।

“अभी भी मेरे दो प्रश्नों के उत्तर नहीं दिये तुमने, वफ़ाई।“

“कौन से दो प्रश्न?”

“हम क्यूँ जा रहे हैं और कैसे जा रहे हैं?” जीत ने झट से बताया।

“मृत्यु से पहले हम जीना चाहते हैं। वही हिम से भरे पहाड़ पर तुम जाना चाहते हो न जहां से तुम्हें यह रोग लगा है? हम वहीं जा रहे हैं।“

“क्या? तुम सत्य कह रही हो?” जीत ने विस्मय से वफ़ाई को देखा।

“सोला आने सच। तुम्हारी सौगंध जीत।“ वफ़ाई ने जीत के माथे पर हाथ रख दिया।

“ओह वफ़ाई, तुमने मेरी बुझ रही पाति में प्रकाश के कुछ क्षण डाल दिये। यह बताओ कि कैसे जाएंगे वहाँ तक?” जीत उत्साह से भर गया। जीत के सारे शरीर में एक नई ऊर्जा प्रवाहित हो गई।

“वाह, क्या बात है; जीत। जरा दर्पण में अपने आप को देखो तो सही। बड़े सुंदर लग रहे हो।“

“दर्पण तक कौन जाए, बस तुम ही बता दो मैं कैसा लग रहा हूँ।“

“तुम चाहो तो मेरी आँखों में स्वयं के प्रतिबिंब को देख सकते हो।“ वफ़ाई हंस पड़ी, जीत भी।

अचानक जीत गंभीर हो गया।

“क्या हुआ? तुम कुछ चिंतित हो क्या?” वफ़ाई ने जीत के कंधे पर हाथ रख दिया।

“हाँ, दो तीन बातें हैं।”

“जीत, तुम सोचते अधिक हो, जीते कम हो। इतना सोचना भी ठीक नहीं। खुल कर जिया करो। चलो कहो क्या चिंता है?“

“वफ़ाई, तुम अपना काम अधूरा छोड़ कर जा रही हो। इतने दिवस तक प्रतीक्षा की है और अब कुछ ही दिवस पश्चात पुर्णिमा का दिवस, अरे रात आयेगी। वह काम पूरा कर लो।“

“मैं तब तक नहीं रुक सकती।“

“तुमने लंबी प्रतीक्षा की है, एक तपस्या की है और जब तुम्हारा काम पूरा होने में चार पाँच दिवस ही बचे हैं तो ...।”

“चार पाँच दिन भी अधिक होते हैं। तब तक हम रुक गए तो विलंब हो जाएगा।“

“अर्थात तुम्हें कुछ बात की शीघ्रता है।“

“देखो जीत, समय रहा तो कभी भी इस श्वेत सफ़ेद मरुभूमि के चंद्रमा को केमेरे में कैद कर लूँगी किन्तु अभी तो हमें उस जीवन को जी लेना है जो हम जीना चाहते हैं। हमारे पास अब समय...।” वफ़ाई ने शब्दों को रोक दिये।

“तो तुम भी मेरे साथ साथ मेरी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही हो।” जीत भावुक हो गया।

“नहीं। मैं भी तुम्हार्रे साथ जीवन जी लेना चाहती हूँ, जो मैंने आज तक नहीं जिया।“

“मेरे पर इतनी कृपा क्यूँ वफ़ाई जी?”

“मैं आप पर कोई कृपा नहीं कर रही श्रीमान जी। इस में मेरा ही स्वार्थ निहित है।“

“वह कैसे?’

“जीत, तुम से मिलने से पहले मैं कई लड़कों से और अनेक पुरुषों से मिली हूँ। हर कोई व्यक्ति की आँखों में मैंने मेरे लिए एक वासना देखि है। उन आँखों में मैंने एक कुरुपता देखि है मेरे सौन्दर्य के प्रति। जैसे मैं कोई शिकार हूँ और वह शिकारी। मेरे मन में पुरुषों के प्रति धृणा घर कर गई थी। मैं मानने लगी थी कि पुरुष के साथ जीवन के क्षण आनंदमय कभी नहीं होते। इसी कारण मैं सभी पुरुषों से अंतर बनाए रखती थी। इसी धारणा के कारण मैं भी तो मेरा जीवन जीना भूल गई थी।“ वफ़ाई रुकी,“किन्तु तुम से मिलने के बाद मुझे लगा कि प्रत्येक पुरुष एक सा नहीं होता। तुम उन सब से भिन्न हो। मैंने सदैव तुम्हारी आँखों में मेरे प्रति सन्मान देखा है।“

“बस, इतनी सी बात? यह तो कोई कारण नहीं ही।“

“बस इतनी सी ही बात है।“

“वफ़ाई, कोई व्यक्ति इसी कारण से छोड़े हुए व्यक्ति के पास नहीं लौट आती।“

“तुम मुझे छोड़ कर भाग चुकी थी। तो लौट क्यूँ आई? कुछ तो है जो तुम मुझ से छुपा रही हो।“

“जीत, तुम अभी भी उसी बात पर अटके हो? वह तो...।“ वफ़ाई मौन हो गई।

वफ़ाई ने गहरी सांस ली। गगन को देखा, द्रष्टि झुका ली और आँखें बंध कर ली।

जीत उसे देखता रहा। वफ़ाई जैसे किसी बीते हुए पलों में चली गई हो। उस की बंध आँखों के अंदर कुछ चल रहा हो, कुछ टूट रहा हो, कुछ बिखर रहा हो। और वफ़ाई इस सब को समेटना चाहती हो, संभालना चाहती हो। जैसे वह किसी यूध्ध को अपने अंदर लड़ रही हो। कुछ क्षण बीत गए। वफ़ाई का यूध्ध समाप्त हो गया। सब कुछ जैसे शांत हो गया।

“जीत, चलें?”

“चलना तो है ही हमें। वफ़ाई, यदि चलने से पहले तुम उस रहस्य को प्रकट कर सको तो...।”

“वैसे तो ऐसी कोई बात नहीं है।“ वफ़ाई के शब्दों में कोई वेदना थी जिसे जीत ने पढ़ लिया।

“यदि तुम्हें उसे बताने में कष्ट हो रहा हो, पीड़ा हो रही हो तो मैं उस बात को यहीं छोड़ देता हूँ।“ जीत ने वफ़ाई को आश्वस्त किया। “स्त्रीयों को समजना अत्यंत जटिल है।“ जीत बड़बड़ाया।

“जीत, स्त्रीको समजना जितना जटिल होता है, उतना ही सरल उसका स्नेह होता है। मेरा स्नेह भी सरल है। उसके पीछे रही जटिलता समय आने पर बता दूँगी।“

वफ़ाई के अधरों पर हवा की भांति स्मित लहराया, और उसने आँखें खोली। जीत अभी भी पूरे धैर्य के साथ वफ़ाई को ही देख रहा था। जीत ने भी वफ़ाई को स्मित दिया।

“चलो अब और कोई प्रश्न नहीं, जाने की तैयारी कर लो। शाम चार बजे भुज से हमारी हवाई यात्रा प्रारंभ होगी।“ वफ़ाई ने जीत का हाथ पकड़ लिया। हाथों में हाथ डाले दोनों घर के अंदर गए।

जब घर से बाहर निकले तो साथ में सामान था।

“वफ़ाई, हम इस घर में कभी लौट कर आएंगे क्या?”

“कदाचित।“ वफ़ाई के इस शब्द ने अनेक संभावनाओं को जन्म दे दिया।

“अर्थात, यदि हम इस घर पर लौटे तो तुम भी मेरे साथ होंगी।“

वफ़ाई घर को ताला लगाने लगी।

”इस घर को खुला ही रहने दो। इस घर में ऐसा कुछ भी कीमती नहीं जो चोरी हो सके। और हाँ, कब और कहाँ से फिर कोई वफ़ाई आ जाए तो....।“

वफ़ाई ने ताला लगा दिया और मुड़कर बोली,” वफ़ाई तो सदा आती रहेगी किन्तु वहाँ अगर कोई जीत नहीं मिला तो वफ़ाई अकेली क्या करेगी? और हाँ, इस घर में मेरी सबसे कीमती वस्तु कैद है, जिसे चोरी होने से बचाना है।“

“वह क्या?”

“तुम्हारे साथ व्यतीत किए क्षणों का स्मरण।“

“वह तो कोई तुमसे चुरा नहीं सकता कारण कि स्मरण घर में नहीं ह्रदय में बसते है।“

वफ़ाई ने ताला लगाकर घर की चाबी अपनी पास रख ली। जीत को वफ़ाई का इस तरह घर पर अधिकार व्यक्त करना पसंद आया।

“जाने से पहले कुछ क्षण यहाँ बैठो।“ वफ़ाई जीत को झूले तक खींच लाई। दोनों झूले पर समीप बैठ गए, एक दूसरे का हाथ हाथ में लिए धीरे धीरे झूलने लगे। कोई कुछ नहीं बोला। झूला चलता रहा, मंद मंद पवन बहता रहा। मौन बोलता रहा। समय बीतता रहा।

“वफ़ाई, काश यह समय इसी तरह यहाँ स्थिर हो जाय, रुक जाय, और हम दोनों झूलते रहें!”

“रुकने का नाम नहीं है जीवन। जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह शाम...।” वफ़ाई ने झूला रोक दिया, खड़ी हो गई।

“अब तो मुझे भी चलना ही पड़ेगा।“ जीत हंस पड़ा। दोनों चल पड़े।

जीप चालू करने से पहले वफ़ाई नीचे उतरी, घर की तरफ गई। उस घर की रेत को झुक कर नमन किया, झुले के पास गई और उसे लिपट गयी, चूम लिया और लौट आई।

जीत ने उसे रोका। जीत ने वफ़ाई को आलिंगन दिया। उत्कट आलिंगन के माध्यम से दोनों ने अपनी अपनी ऊर्जा प्रवाहित की।

नई ऊर्जा समेटे हुए दोनों चल पड़े भुज की तरफ, जहां एक विमान उसकी प्रतीक्षा में था।

* *