संवेदनाओं के स्वरः एक दृष्टि
(2)
जब-जब श्रद्धा विश्वासों पर .....
जब - जब श्रद्धा विश्वासों पर,
अपनों ने प्रतिघात किया ।
तब - तब कोमल मन यह मेरा,
आहत हो बेजार हुआ ।
मैं तो प्रतिक्षण चिंतित रहता,
सुख- सुविधा की छाँव दिलाने ।
मनुहारों की थपकी देकर,
अनुरागों के गीत सुनाने ।
जब -जब नेह भरी सरगम में,
चाहा हिल-मिल राग अलापें ।
तब -तब मेरे मीत रूठ कर,
मेरे दुख में खुशियाँ मापें ।
समझौतों की दीवारों से,
कितने मकां बनाये हमने ।
पल दो पल की खुशियाँ देकर,
लगे वही सब हमको ठगने ।
हर आशा परछाँई बनकर,
खूब दिलासा मुझे दे गई ।
विश्वासों पर चोट लगाकर,
पग-पग आहत मुझे कर गई ।
***
जीवन सूक्तियाँ
जीवन की है चासनी, प्रेम, सत्य व्यवहार ।
पका सको जितना इसे, लूटोगे संसार ।।
हम चाहें सब खुश रहें, चाहत से क्या होय ।
खुशियाँ तो मन में रमे, अन्तर मन खुश होय ।।
धर्म धुरंधर बन गये, चादर ओढ़ी नाम ।
घड़ी - परीक्षा की खड़ी, हो गए गिरगिट राम ।।
ईश, खुदा, भगवान सब, एक सत्य हैं जान ।
समझ न पाये बात जो, वह बिल्कुल अनजान ।।
पंडित, मुल्ला, पादरी, बैठे खोल दुकान ।
सब रोगों की मुक्ति का, इनके पास निदान ।।
अब प्रवचन उपदेश सब, हर मुख से मिल जाँय ।
परहित के अवसर यही, यहाँ - वहाँ छिप जाँय ।।
धर्म वही धारण करें, जो मानव हित होय ।
सधे देश का हित जहाँ, सबकी उन्नति होय ।।
रख ईश्वर में आस्था, कर्मो में विश्वास ।
जीवन में हर पल सखे, छाएगा उल्लास ।।
मन को ऐसा साधिये, बनो ना उसके दास ।
जीवन में कोई नहीं, होगा कभी उदास ।।
जीवन का मकसद नहीं, पी लो जी भर यार ।
जीवन ऐसा ना जियो, तन होवे लाचार ।।
मन को ऐसा राखिए, जीवन सुखमय होय ।
बरखा हो नित खुशी की, तन-मन सभी भिगोय ।।
हास और परिहास भी, हैं जीने के रंग ।
इनको भी अपनाइए, हैं जीवन के अंग ।।
मानवता कहती यही, उन्नति सबकी होय ।
भूखे नंगे ना रहें, मानव सुखमय होय ।।
बीते पल को भूल जा, कल के पल की सोच ।
क्या जाने कल ना मिले, इस पल की तू सोच ।।
रातों में सपने दिखें, बन गये बड़े अमीर ।
टूटें सपने जिस घड़ी, फिर हो गये फकीर ।।
***
आत्मानुभूतियाँ
ऊॅंचाई की चाह में, हुये घरों से दूर ।
मन का पंछी अब कहे, हैं खट्टे अंगूर ।।
ईश्वर ऐसा ना करे, मात - पिता से दूर ।
हम तो इस परदेश में, हो गये सच बेनूर ।।
करना है आराधना, इसका मुझे न ज्ञान ।
प्रभु के निकट न जा सका, मैं बिल्कुल अज्ञान ।।
तुम सोचो हम - गुरू हैं, धुर बाकी के लोग ।
समझो उस दिन से लगा, तुम्हें अहं का रोग ।।
पाप - पुण्य उनके लिये, जो करते बस पाप ।
लेकिन सज्जन पुण्य कर, हो जाते निष्पाप ।।
सच्चा सुख है शांति से, जीवन जीना यार ।
किच-किच में है जो जिया, वह जीवन बेकार ।।
न्य़ाय और अन्याय पर, चर्चा सबकी नेक ।
विपदा आती स्वयं पर, होते फेल अनेक ।।
पढ़ने - लिखने से सदा, मन तेजस्वी होय ।
अनपढ़ होकर जो जिये, सारा जीवन रोय ।।
तन - मन रोगों से घिरे, जो सोये दिन - रात ।
कर्म - क्षेत्र में जो रमे, वे होते विख्यात ।।
सपनों में जो जिये तो, खुद जीवन उलझाय ।
जीने के सपने बुने, तो जीवन मुसकाय ।।
सब कृतघ्न होते नहीं, दुनियाँ में इंसान ।
जो कृतज्ञ होते वही, पाते हैं सम्मान ।।
माँ ममता की मूर्ति है, पिता ज्ञान की खान ।
इसमें जो होकर तपे, बनते वही महान ।।
***
राजनीति के दोहे
राजनीति में छा गये, चतुर गिद्ध और बाज ।
जनता का हक छीन कर, खा जाते हैं आज ।।
नेता की चमड़ी हुई, मोटी और कठोर ।
वोटों का व्यापार कर, धन को रहे बटोर ।।
घूस, दलाली, दलबदल, खनिज सम्पदा लूट ।
सत्ता में नेताओं को, मिलती इसकी छूट ।।
राजनीति अब हो गयी, एक नया व्यापार ।
घर उनके भरते वहाँ, कष्टों का अम्बार ।।
जनता को उलझा रखो, रोटी और मकान ।
सत्ता में फिर बैठ कर, खोलो नई दुकान ।।
जंगल में हाथी नहीं, मिलते कभी सफेद ।
हैं सत्ता में अनगिनत, बगुले भगत सफेद ।।
सत्ता की माया अजब, कब छिन जाये ताज ।
माया में भरमा गई, मायावती भी आज ।।
दलितों के उत्थान की, लम्बी - चौड़ी बात ।
सत्ता पाकर दलित ही, भूल गये हर बात ।।
पिछड़ों के उत्थान का, नारा दिया गुँजाय ।
सत्ता मिलते ही सभी, उनको रहे भुलाय ।।
जाति – पाँत में बाँट कर, सत्ता ली हथियाय ।
अन्दर खाते साथ में, मुख से कुछ बतियाँय ।।
बुत बैठे यह सोचते, अमर हमारा नाम ।
आँधी चलती वक्त की, सब होते गुमनाम ।।
सभी प्रवक्ता हो गए, दोंदा और लबार ।
इनको सुन सोचें सभी, हैं सब गधे सवार ।।
***
नेता दल - दल में फँसे, अंट - संट बक जाँय ।
बनें प्रवक्ता ढाल तब, शकुनी -चरित दिखाँय ।।
टैक्स वसूली कर रहे, जनता हुई अनाथ ।
गड्ढा कर -कर भर रहे, मंत्री - तंत्री साथ ।।
निज हित का कानून गढ़, नेता हैं आबाद ।
मॅंहगाई की मार से, जनता हैं बरबाद ।।
रखवाले कानून के, बैठे आँखें ढाँप ।
बने डराने के लिए, नेता तक्षक साँप ।।
राजनीति में आयु का, नहीं तनिक भी ठौर ।
जितना भी तुम जी सको, मिले तरक्की और ।।
नेता सच्चा वही जो, हरता सब की पीर ।
दीन - दुखी को देख कर, होता सदा अधीर ।।
नेता ऐसा चाहिए, दिशा दिखाये नेक ।
साथ सभी को ले चले, दिल से जुड़ें अनेक ।।
***
बन्धु मेरे जा रहा मैं .....
बन्धु मेरे जा रहा मैं, आज सब कुछ छोड़ कर,
अब बिदा कर दो मुझे, तुम नेह नाते तोड़कर ।
जो सँवारा औ बनाया, कर्म की इस भूमि पर,
त्याग कर सब जा रहा मैं, अब कफन को ओढ़ कर ।
जन्म देकर गर्भ से, माँ ने खिलाया गोद में,
औ पिता की बाँह थामे, चल पड़ा इस दौड़ में ।
बन्धु- बांधव, धाम - धन के, अनगिनत रिश्ते गढ़े,
जिन्दगी जीने की खातिर, कितनी हम मंजिल चढ़े ।
मूर्ति में अभिमान की ढल, कितने तो अकड़े रहे,
मान और अपमान की, जंजीरों में जकड़े रहे ।
कुछ ने जीने की कला को, ज्ञानी बन कर जी लिया,
उनने जीवन पर विजय पा, जिंदगी को जी लिया ।
अब नहीं श्रँगार की, दर्पण की अभिलाषा मुझे,
ना किसी के नेह की, ना प्रेम की आशा मुझे ।
पत्नी का क्रन्दन मुझे, किंचित डिगा न पाएगा,
पुत्र वधुओं का न आग्रह, अब मुझे छल पाएगा ।
अर्थी कैसी भी सजा लो, चलना है प्रस्थान पर,
यह तो तन निर्जीव है, बस ले चलो शमशान घर ।
मोह से अब क्या मिलेगा, यह ना चल फिर पाएगा,
एक दिन मुश्किल पड़ेगा, कल तलक गल जाएगा ।
रो लो जितना रो सको तुम, अब नहीं उठ पाउॅंगा,
आँसुओं की धार में भी, अब ना मैं बह पाउॅंगा ।
मेरे इस निष्प्राण तन से, चेतनाएँ लुप्त हैं,
द्वार सब संवेदना के, टूट कर परिलुप्त हैं ।
जन्म है तो मौत निश्चित, यह कथानक सत्य है,
युग - युगान्तर से चला आया, सनातन सत्य है ।
जिंदगी का खेल यह, सदियों से चलता आ रहा,
जो खेल बढ़िया खेलता, वह अमर होता जा रहा ।
जब तलक तन में हमारे, प्राण था – विश्वास था,
आप सबके प्यार व, अनुराग का संसार था ।
प्रेम का दीपक जलाकर, तिमिर को हरता रहा,
सपनों की मंदाकिनी में, नाव को खेता रहा ।
चक्र जीवन - मृत्यु का यह, है निरंतर चल रहा,
आज कोई जा रहा, तो कल है कोई आ रहा ।
आगमन - प्रस्थान ही, हर प्राणियों का लक्ष्य है,
गीता का संदेश ही, जीने का अंतिम सत्य है ।
***
नव सृजन की कल्पनायें.....
नव सृजन की कल्पनायें,
फिर विहॅंसती द्वार है ।
बाँह फैलाये जगत यह,
कर रहा मनुहार है ।
आ गया नव – वर्ष यह,
निर्माण के नव गीत गाने ।
साधना, संकल्प, दृढ़ता,
के नए स्वर गुनगुनाने ।
नव क्षितिज निर्माण के,
सब साज सारे हैं धरे ।
स्वर गुँजाने को ना जाने,
कबसे हैं आतुर पड़े ।
छेड़ दो बस उॅंगलियों से,
तार झंकृत हो उठेंगे ।
स्रष्टि - वातायन से सारे,
मुग्ध ईश्वर हो उठेंगे ।
भाव कलुषित अरू व्यथाएँ,
ना कभी जीवन में आएँ ।
नैराश्य शोषण की घटाएँ,
फिर ना बदली बन के छाएँ ।
निकलो अब सब ध्वस्त करने,
भेद भावों की जुबानें ।
चल पड़ो अब एकता के,
इस धरा में स्वर गुँजाने ।
झिलमिलाती उर उमंगें,
उल्लसित मन आज है ।
वर - वधू की कल्पनाओं,
सा लगे नव वर्ष है ।
आ गया नव – वर्ष यह,
निर्माण के नव गीत गाने ।
साधना, संकल्प, दृढ़ता,
के नए स्वर गुनगुनाने ।
***
किससे करें गुहार .....
जन सेवा के नाम पर, नेतन की भइ भीर ।
जनता का चंदन घिसें, उनको करें फकीर ।।
अधिकारी नेता हुये, चक्की के दो पाट ।
जनता को मिल पीसते, खड़ी कर रहे खाट ।।
फौज पाल कर है रखी, हर ऑफिस में आज ।
काम काज कुछ ना करें, नेतागिरि का राज ।।
करें कमाई ऊपरी, घर में खुली दुकान ।
फन फैला कर हैं खड़े, डसने को श्री मान ।।
ऑफिस में ही बैठकर, नगर भ्रमण कर आँय ।
यहाँ -वहाँ की बतकही, करके समय बिताँय ।।
हाथ पैर सब टूटते, ऐसा किया विकास ।
अस्पताल निज लूटते, जनता हुई हतास ।।
जिस पत्तल में खा रहे, उसमें करते छेद ।
इस छोटी सी बात का, समझ सके ना भेद ।।
घाट - हाट स्टेंड लगा, लूट रहे घर द्वार ।
महॅंगाई की मार है, किससे करें गुहार ।।
***
नई सड़क थिगड़े लगें .....
नई सड़क थिगड़े लगें, तोड़ - फोड़ के काम ।
कागज में सब हो रहे, जन सेवा के काम ।।
ठेके पर देने लगे, अपने सारे काम ।
टेंडर अब खुलने लगे, नेताओं के नाम ।।
जमा हो रहा शहर से, आधा अब तक टैक्स ।
शेष सभी को छूट है, उन्हें करें न फैक्स ।।
जो कर भरते जा रहे, उनको रहे निचोर ।
आय बढ़ाने के लिये, टैक्स लगावें और ।।
टैक्स समय पर न दिया, तो कुड़की की धौंस ।
कुछ ऐसे भी क्षेत्र हैं, जहाँ न चलती धौंस ।।
फ्री में पानी लुट रहा, पाईपों में कर होल ।
नाली - सड़कों में बहे, कहते जल अनमोल ।।
नल का टैक्स बढ़ा रहे, अधिक खर्च बतलाँय ।
बॅूंद - बॅूंद पानी बचत, घर मीटर लगवाँय ।।
विद्युत मंडल लास में, राज - परिवहन हप्प ।
यही हाल इनका रहा, नगर निगम भी गप्प ।।
तंत्र सरकारी फेल हैं, बिगड़ रहे सब काज ।
उन पर अंकुश ना रहा, हुये निरंकुश आज ।।
***
बहुत हो गया बंद करो ये.....
बहुत हो गया बंद करो ये, अपना गोरख धंधा ।
राष्ट्रप्रेम का ढोंग रचाकर, डाल रहे क्यों फंदा ।।
जाति- पाँत की रेखा खींची, बिगुल बजाया भाषायी ।
बेशरमी की बाड़ लगा कर, कर ली खूब कमायी ।।
नेत्रहीन सिंहासन बैठे, आँखों को बनवास दिया ।
भारत को कुरूक्षेत्र बना के, योद्धाओं का नाश किया ।।
आरक्षण के चक्रव्यूह में, अभिमन्यु को फॅंसवाया ।
तुष्टिकरण की राजनीति से, इक दूजे को लड़वाया ।।
शकुनी की चालों में अब भी, पाँचो पाँडव फँसे हुये हैं ।
कौरव के इस सभा भवन में, वही द्रौपदी डरी हुयी है ।।
चीर हरण का द्रश्य सामने, लगता है फिर से होगा ।
कृष्ण नहीं दिखता है कोई, ना जाने अब क्या होगा ।।
जरासंध भी ताल ठोंक कर, युद्ध चुनौती देता है ।
दूर खड़ा दुर्योधन देखो, मन ही मन में हॅंसता है ।।
दफन करा दी मर्यादायें, राम राज्य के आँगन में ।
हरी - भरी तुलसी मुरझा दी, घर बाहर चौबारों में ।।
साहस, बल और बुद्धि-चेतना, आहत सी निर्जीव पड़ी है ।
अकर्मण्य, आलस्य, उदासी, सुरसा सी मॅुंह बाए खड़ी है ।।
ऐसे ही यदि देश चला तो, कब तक यह चल पायेगा ।
आशाओं का उगता सूरज, अस्ताचल को जायेगा ।।
***