I am still waiting for you, Shachi - 12 in Hindi Fiction Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 12

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आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 12

आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची

रश्मि रविजा

भाग - 12

अभिषेक, किताबों में डूबने की पुरजोर कोशिश करता पर कहाँ मिल पाती कामयाबी? मन भटकता रहता और वह किताबें छोड़ कोई रेकॉर्ड लगाने लगता. दो मिनट भी नहीं सुनता कि खीझ होने लगती. सोचता छत पर टहलना ठीक रहेगा. पर वहाँ मन इतना बेचैन और परेशान हो जाता कि वापस कमरे में आ किताबें उठा लेता और जोर जोर से बोल बोल कर पढना शुरू कर देता. यह भी ज्यादा देर नहीं चल पाता और पढ़ते पढ़ते किताब एक तरफ फेंक देता मानो खुद से लड़ते लड़ते हार गया हो जैसे और फिर जाने कब तक उसके चेहरे को धोती बूँदें, फर्श भिगोती रहतीं.

खुद पर ही तरस हो आया... हे प्रभो! ये कैसी ज़िन्दगी दे दी है, तुमने. ना तो ठीक से जी पाता हूँ, ना इतना खुशकिस्मत हूँ कि मर ही जाऊं. किसी से बात करने का भी मन नहीं होता. बस गंभीर बना स्कॉलर का लबादा ओढ़े रहता है. और ये माँ क्यूँ आजकल यूँ अक्सर अपलक देखा करती हैं उसे? वह पढता रहें, बैठा रहें या नाश्ते-खाने के समय ही उनकी आँखें अपने चेहरे पर महसूस करता रहता है.. आखिरकार उसे अपने नज़रें उठानी ही पड़ती हैं, तभी उनकी निगाहें हटती हैं उसके चेहरे से. मन की भावनाएं पढने की कोशिश तो नहीं कर रहीं ? पर अब बचा क्या हैं मन में सिवाय राख के एक ढेर के.

डर लगा, माँ की नज़रों से मन की हालत अब ज्यादा दिन नहीं छुप पायेगी. और उसने लाइब्रेरी का रुख कर लिया. क्लास में जाने की और दोस्तों से फिर से पहले जैसी हंसी मजाक की हिम्मत नहीं होती. उसकी इतनी लगन देख प्रोफ. वत्स बहुत खुश हुए और अक्सर किसी ना किसी बहाने उसे अपने क्वार्टर में बुला लेते. अविवाहित प्रोफ. वत्स की दुनिया किताबों से शुरू और किताबों पर ही ख़त्म होती थी.

उसके दिन अब लाइब्रेरी में और शामें प्रोफ़ेसर वत्स के छोटे से स्टाफ क्वार्टर में बीतने लगी थीं. प्रोफ. वत्स एक छोटी सी कविता पर भी चार घंटे बोले सकते थे. वर्डस्वर्थ, कीट्स, शेली, शेक्सपियर, थॉमस हार्डी, हेमिंग्वे की किताबों पर चर्चा छेड़ देते और इस साहित्य चर्चा में कब रात के दस बज जाते दोनों में से किसी को भान भी नहीं होता. कोई हो ना हो, प्रोफ वत्स उसमें आए इस परिवर्तन से बहुत खुश थे. उसके भविष्य की पूरी रूपरेखा भी तैयार कर ली थी. इसके बाद ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से वह डाक्टरेट करेगा और फिर इसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर बन कर अंग्रेजी साहित्य पढाता रहेगा. रोज ही इस बात की चर्चा एक बार जरूर कर देते और वहाँ एडमिशन लेने की सारी औपचारिकताओं, नियमों की जानकारी भी बिला नागा देते रहते. शायद इन शामों का उन्हें ज्यादा ही मोह हो गया था और ताजिंदगी ऐसी शामों का सपना वे बुन रहें थे.

अभिषेक कभी भी ज्यादा महत्वाकांक्षी नहीं रहा. जबतक कोई सिचुएशन खुद सामने आकर फैसला लेने का आग्रह नहीं करती. वह निश्चिन्त ही रहता. कभी अपने भविष्य के बारे में सोचा नहीं. बस समय के बहाव के साथ बहता जा रहा था. हाँ, उस बहाव में डूबने-उतराने के बजाय तैरते हुए सबसे आगे निकल जाने की आकांक्षा कहाँ से मनो-मस्तिष्क पर कब्ज़ा कर लेती. इस से वह अनभिज्ञ था. प्रोफ. वत्स की बातें सुन लेता था पर उसके अंदर कोई बलवती इच्छा नहीं थी, कि विदेश जाकर अध्ययन करे. इन दिनों तो बस मन की शांति ढूंढ रहा था इन किताबों में.

क्लास नहीं अटेंड करने से मनीष से भी उसकी मुलाक़ात नहीं हो पाती. कभी कभी जबरदस्ती, मनीष, विंशी के साथ उसके घर धमक जाता और प्रोफ. वत्स के घर जाना कैंसल करवा देता. विंशी भी अब उसकी अच्छी दोस्त हो गयी थी. विंशी को मनीष की गर्लफ्रेंड के रूप में स्वीकार करने में उसे काफी समय लगा था. विंशी से मनीष की दोस्ती को भी उसने मनीष के अन्य अफेयर्स की तरह ही माना था, जिनकी अवधि मुश्किल से दो से तीन महीने होती थी. पर जब विंशी को ले मनीष सीरियस हो गया. तो उसे नागवार गुजरने लगा क्यूंकि उसके साथ बिताए जाने वाले समय पर अब विंशी का कब्ज़ा हो गया था. मनीष अब मूवी, कॉफ़ी हाउस विंशी के साथ जाने लगा था. कई बार खुद को अकेला पाता वह और उसे विंशी पर रोष हो आता. विंशी को भी आभास हो गया था उसकी नापसंदगी का इसलिए वह भी दूरी बनाए रखती. पर उस दिन कलकत्ता ट्रिप के दौरान विंशी ने जब मनीष और शची के सामने उसकी जोरदार वकालत की तब से उसे लगने लगा, मनीष से भी ज्यादा अच्छी तरह, विंशी उसे समझती है.

उन दोनों के आते ही वह अत्यधिक चपल हो उठता. कभी उन्हें नए रेकॉर्ड्स दिखाता, कभी पढ़ाई की बातें बताता कभी. प्रोफ. वत्स के छोटे से किचेन में अपने चाय और कॉफ़ी बनाने के अनुभव बयान करता कि कैसे घर में वह एक ग्लास पानी भी खुद से नहीं लेता है पर प्रोफ. वत्स के छोटे से किचेन में चाय के बर्तन और कप साफ़ करने पड़ते हैं क्यूंकि उनके पास एक ही चाय का सौसपेन था और सुबह नौकर के आने के पहले वे खुद अपने लिए चाय बनाया करते थे.

बोला, "यार कितनी बार मन होता है एक और सौसपेन खरीद कर लाकर रख दूँ. पर फिर वे बुरा मान जाएंगे. "

"आइडिया... उनके अगले जन्मदिन पर एक टीसेट और सौसपेन गिफ्ट कर देते हैं" मनीष ने जुगत भिड़ाई

"यार अभी अभी तो बीता है उनका जन्मदिन मुझे कहाँ मालूम था कि बुड्ढा मुझसे बर्तन घिसवाएगा वरना यही दे देते. ".. और एकदम से उदास हो गया वह, कहाँ मालूम था कि उसकी शामें उन प्रोफ़ेसर के क्वार्टर में गुजरा करेंगी.

जैसे उसका मन पढ़ लिया दोनों ने और विंशी बोल उठी, " अरे रेकॉर्ड्स सिर्फ दिखा कर रख दिया, जरा सुनाओ भी तो.. "

"हाँ... हाँ अभी लो.... ".. और फिर से उसका अनवरत बोलना शुरू हो गया, किसी ना किसी विषय पर.

जब दोनों जाने लगे तब मनीष थोड़ी दूर जाकर पलटा. और करीब आ, स्नेह से उसके कंधे पर हाथ रख के बोला, "तू इतना डरता क्यूँ है.... हम शची की कोई बात नहीं करेंगे... जब तक तू खुद नहीं चाहेगा... खुद नहीं शुरू करेगा, शची की कोई चर्चा नहीं करेंगे, तेरे सामने... तेरी तकलीफ समझता हूँ, दोस्त.. रिलैक्स " और एक आवेग के साथ क्षण भर को उसे गले से लगा लिया.

तो, दोनों समझ गए थे कि उसका यूँ लगातार बोलना, किसी ना किसी बात में उलझे रहना इसी डर से है कि कहीं शची का जिक्र ना छिड़ जाए और उसकी दर्द की सीवन फिर से ना उधड़ जाए.

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फॉर्म भरे गए, परीक्षाएं करीब आ गयीं. एक क्षीण आशा थी शायद शची फॉर्म भरने और परीक्षा देने तो आयेगी. पर मनीष ने फिर से उसके मन की बात पढ़, खुद ही बता दिया कि शची ने एम. ए. का ख़याल ही छोड़ दिया है और लिखने में ही ज्यादा व्यस्त हो गयी है. जैसे तैसे परीक्षाएं ख़त्म हुईं. और उसने जर्मन लैंग्वेज का कोर्स ज्वाइन कर लिया. बस एक पल भी खाली नहीं रखना था खुद को. इधर प्रोफ. वत्स भी अपनी कार्यवाही में लगे हुए थे और उनका मन रखने को उसने अप्लाई भी कर दिया था. इंतज़ार था अपने रिजल्ट का.

जब रिज़ल्ट आया तो, अथाह आश्चर्य हुआ उसे. कॉलेज से लेकर घर तक बधाइयों का तांता लगा रहता और वह झेंप कर विमूढ़ सा सब स्वीकारता जाता. यह कैसे हो गया? फर्स्ट क्लास फर्स्ट वह कैसे आ गया, भला? अब घर मे वही पुरानी खुशियाँ लौट आई थीं. डैडी का भी सुप्त प्यार पूरे आवेग से उमड़ पड़ा था. उसके पास होने की ख़ुशी में, बड़ी सी पार्टी दी थी उन्होंने. दोस्तों के बीच सिगार दबाये गदगद हो बोल रहें थे., "सोचता हूँ मैं तो गरीबी झेल कर यहाँ तक पहुंचा हूँ. दौलत की चमक-दमक से बड़े यत्न से खुद को दूर रख पाया हूँ. पिछले अनुभव मुझे हमेशा सजग रखते. लेकिन इन बच्चों ने तो यह सब कुछ नहीं जाना. लखपति की औलाद ही मानते रहें खुद को. कहीं पढ़ाई से मुहँ मोड़ मुझे मेरी ही आँखों में शर्मिंदा ना कर दें... बट एम प्राउड ऑफ माई चिल्ड्रेन... दोनों ने मेरा सर हमेशा ऊँचा किया है. "

लेकिन वह रह रह कर खुद से पूछता, क्या वह सचमुच इस फर्स्ट पोजीशन का हकदार है ? शायद हाँ.. शायद नहीं. टर्मिनल के रिजल्ट याद हैं उसे. हर पेपर में हाईयेस्ट और सेकेण्ड हाईयेस्ट उसके और शची के बीच बँटे हुए थे. टोटल में भी कुल तीन नंबर अधिक थे उसके, शची से. शची यूँ ड्रॉप ना कर देती तो क्या वह पूर्ण आश्वस्त हो पाता अपनी कामयाबी के प्रति. इस ख़याल ने सच्चे मन से यह ख़ुशी स्वीकारने नहीं दी.

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पार्टी ख़त्म हो गयी थी. माँ कपड़े बदल, थक कर सोफे पर बैठी थीं. डैडी ने थोड़ा सा समय पाकर इतनी रात गए भी अपनी फाइलें निकाल ली थीं. शायद उनमे ही खोये थे क्यूंकि मनीष, विंशी को सड़क तक छोड़ कर आ ही रहा था कि माँ का तेज स्वर सुन बाहर ही रुक गया, " आपको कभी फुर्सत भी मिलेगी इन फाइलों से... बच्चों की ओर ध्यान देने की कोई जरूरत ही नहीं. "

"क्या कह रही हो.. मेरा क्या सबका ध्यान अपने बच्चों की तरफ ही है. रियली एम प्राउड ऑफ माई चिल्ड्रेन "

"तंग आ चुकी हूँ सुनते सुनते एक ही जुमला, सिर्फ उनपर प्राउड ही कीजियेगा या कुछ उनके सुख दुख की भी परवाह है "

इस बार डैडी चौंके. (चौंका तो वह भी... क्या मतलब है माँ का) किसी तरह फ़ाइल से सर उठा, बोले, "जो कहना है साफ़ साफ़ कहो... ये तुम्हारी पहेलियों वाली बातें मेरी समझ में नहीं आ रही हैं "

माँ ने भी साफ़ साफ़ कह दिया, "मैं शादी-ब्याह के विषय में बात कर रही हूँ ?"

"ठीक है.. ठीक है... ऋचा को ग्रेजुएशन तो कर लेने दो.. " और डैडी फिर फ़ाइल पे झुक गए.

"मैं ऋचा की नहीं, अभिषेक की बात कर रही हूँ "

"अभिsssषेक... " कुछ देर सोचमग्न हो पेन से दांत ठकठकाते रहें... फिर बोले, " हाँ! सुनो मैं भी कुछ कहना चाहता था ( उसकी सांस रुक गयी, कौन सा राज़ खोलने जा रहें हैं, डैडी... कहीं, उन्हें सब पता तो नहीं चल गया लेकिन दूसरे ही पल मुसीबत ऊपर ही ऊपर टल गयी ) मैंने तुम्हारे लाडले से बिजनेस ज्वाइन करने को कहा... पर जनाब फरमाते हैं, उन्हें इस विषय में कोई तजुर्बा नहीं... तजुर्बा क्या कोई चल कर आता है? कितनी बार कहा था, कॉमर्स ले लो... ना हो इकॉनोमिक्स ही रख लो... लेकिन नहीं बरखुदार लिटरेचर पढेंगे. अरे शेक्सपियर को पढ़कर भी किसी ने बिजनेस संभाला है, आजतक? खैर जो मर्जी.. नौकरी करनी हो तो करो नौकरी, कुछ दिनों में ही आटे-दाल का भाव ना मालूम हो जाए तब कहना. कहाँ वो बंधी बंधाई रकम.. और कहाँ बिजनेस की आजादी... पर लेने दो उसका भी मजा, अफ़सोस क्यूँ रहें... अभी तो मैं अकेले ही काफी हूँ.. अच्छा हो गया ना... अब मुझे काम करने दो "

"क्या हो गया... यही सब पुराण सुनने को मैंने बात शुरू की थी. आज पार्टी में फिर से मिस्टर मेहरा ने कविता की बात की आप. भी वहीँ... "

"कविता!!!... वो खड़ूस कविता लिखने लगा.. हा हा हा.. कब से.. ?" डैडी बात काटते हुए जोरों से हंस पड़े.

माँ ने फ़ाइल बंद कर दी और व्यंगात्मक स्वर में बोलीं,.. "या तो पूरी बात सुन लीजिये या फिर साफ़ साफ़ कह दीजिये... कोई मुझसे.. कुछ ना कहे. "

डैडी ने जुआ पटक दिया, " ओके बाबा... खाकसार हाज़िर है.... जो हुक्म हो, सर माथे "

"मिसेज़ मेहरा ने पहले भी इशारों में कहा था और आज पार्टी में तो मिस्टर मेहरा ने कविता को लोगों को नाश्ता सर्व करते देख साफ़ साफ़ ही कह दिया... कि कविता तो बिलकुल इस घर की ही लग रही है.... क्या ख़याल है भाभी जी?".... आपकी तरफ भी देख रहें थे पर आप तो आधी बात सुनते ही नहीं.. "

"ओह!.. पर... इतनी जल्दी??... डोंट थिंक ही इज रेडी येट... बोथ आर टू यंग... "

"नहीं उनलोगों को जल्दी नहीं..... पर आश्वस्त हो जाना चाहते हैं.. बेटी के बाप हैं... दस जगह देखना भालना होता है.... देखा-सुना घर हो तो निश्चिन्त हो जाते हैं, माँ-बाप"

"अब ये सब अपने लाडले से पूछो... शादी उसे करनी है... मैं अपना काम शुरू करूँ??".. और डैडी ने फ़ाइल की तरफ फिर हाथ बढ़ा दी..

"उसके मन का तो पता है मुझे.. आजकल बहुत परेशान रहता है वो... " माँ जैसे खुद से बोल रही थीं.. "वैसे ये सब इसलिए आपको बताया ताकि कभी मिस्टर मेहरा जिक्र छेड़ें तो ऐसा ना हो आपकी कुछ समझ में ही ना आए " और उठ कर वे दूसरे कमरे में चली गयीं.

स्तब्ध रह गया वह. तो ये बात है. चुपके से जाल फैलाया जा रहा है. मुट्ठियाँ भींच गयीं उसकी. मन में ऐसा ख़याल लाने के पहले उस से तो पूछना था?. हाँ, पूछेंगे पर इस विश्वास के साथ कि उसके ना करने का प्रश्न ही नहीं. इस युग में आज्ञाकारी बेटा, सच्चरित्र युवक होना ही नहीं चाहिए. बेजा फायदा उठाते हैं लोग. लेकिन अब वह क्या करे? इस बंधन में बंधना तो नामुमकिन है उसके लिए. कुछ सोचना पड़ेगा और वह लॉन में पड़े झूले पर जा बैठा. थोड़ी देर बाद रामेसर आया और गेट तक जाकर लौट आया, शायद उसे ढूंढ रहा है. पर मूड नहीं उसका अंदर जाने का. और भविष्य की तस्वीर भी बनानी है.

ओह.. आजतक तो कभी इस तरह सोचना नहीं पड़ा... जो सामने आता गया, उसे अपनाता गया. पहली बार सामने आए सिचुएशन से भागना है. कुछ सोचना तो पड़ेगा. सामने पसरे अन्धकार की तरह ही उसके मन में भी गहन अँधेरा छाया था. आशा, आकांक्षा की कोई लौ कहीं नहीं जल रही थी. फिर तो रौशनी उधार मांगनी पड़ेगी कहीं से. और प्रोफ़ेसर वत्स का सुझाया विचार एक बिजली की तरह कौंध गया, मन में. हाँ, अब इसकी क्षणिक रोशनी में ही अपने भविष्य की राह ढूंढनी पड़ेगी. यहाँ रहेगा ही नहीं तो फिर मिलाते रहें लोग जमीन आसमान के कुलाबे. कल ही जाकर प्रोफ. वत्स से आगे की कार्यवाही के बारे में जानकारी लेता है. बहुत कुछ तो उन्होंने अपनी तरफ से करके ही रखा है.

सन्नाटा छाया था, आकाश तारों से भरा था.. पर वह तो बहुत दूर था, यहाँ धरा पर तो सारे फूल कुम्हलाये से निद्रा में लीन थे. मानो दिन भर मुस्कुराते और लोगों का जी बहलाते थक गए हों. हरी दूब पर ओसकण की चमक आँखों को शीतलता प्रदान कर रही थी. उसने चप्पलें खोल दीं और जैसे अश्रुसिक्त दूब उसके तलवों को सहला उसे आश्वस्त करने लगी, 'सब ठीक होगा, तुम चिंता मत करो. ' वैसे भी अब तक तो कमरे और किताबों में खुद को क़ैद कर रखा था वरना शहर के कोने कोने में शची की यादों ने डेरा बसाया हुआ था. जहाँ भी कदम रखता उन यादों की जकड़न में क़ैद होने के अंदेशे से डर जाता. शहर की मिटटी में रची-बसी शची की गंध से छुटकारा पाना नामुमकिन लग रहा था. पर शची की याद से छुटकारा पाना तो शायद अब पूरे देश में ही मुमकिन नहीं था. किसी भी बुकस्टाल पर 'सुबह-सवेरा' अखबार बड़े शान से पड़ा रहता और अनायास ही उसके हाथ जेब में चले जाते और आँखें ठहर जातीं तीसरे पन्ने पर जहाँ बड़े ही कलात्मक ढंग से लिखा होता, "शची शिवालिका'

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प्रोफ. वत्स ने तो करीब करीब सब कुछ तय ही कर रखा था. बस कुछ जरूरी कागज़ात तैयार करने में थोड़ा वक़्त लगा और वह तैयार हो गया जलावतन के लिए. डैडी तो खुश ही हुए, उन्होंने कभी कोई ऐतराज नहीं जताया था, उसके किसी भी फैसले पर. मनीष और माँ कुछ गुन रहें थे कि वह क्यूँ भागना चाह रहा है, मनीष को तो वजह पता थी और माँ के दिल ने अंदाजा लगा लिया था. कुछ बोलीं नहीं. पर ऋचा को संभालना मुश्किल हो रहा था. माता- पिता से ज्यादा उसे अपने बड़े भाई के छत्र छाया का भरोसा था. उसके हर मर्ज़ की दवा भैया था. उसका भी दिल टूटा जा रहा था. पर मन को कड़ा कर लिया था, वैसे भी कुछ सालों बाद तो ऋचा से विदा लेना ही है. लेकी वहाँ स्थिति अलग थी.. एक समर्थ हाथों में सौंपने के बाद, ऋचा से अलग होना था अभी तो उसे यूँ ही अकेला छोड़े जा रहा है. मनीष की वजह से थोड़ा निश्चिन्त हुआ. दोनों की इमोशनल जरूरतों का भार मनीष के कंधे पर डाल कुछ चिंतामुक्त होने की कोशिश की. माँ, ऋचा दोनों ही उसके काफी करीब थीं.

लन्दन का नया परिवेश, नयी संस्कृति, नए लोग पर कुछ भी अनजाना सा नहीं लगा, किताबों में इतना पढ़ चुका था कि हर गली, हर सड़क जानी=पहचानी सी लगती. लेकिन जिस सपने के सहारे आगे बढ़ा था उस सपने को बीच में ही अलविदा कह दिया. लिखने में कुछ ऐसी रूचि जाग गयी थी कि जर्नलिज्म के कोर्स में एडमिशन ले लिया. पढ़ते हुए ही कई अखबारों, पत्रिकाओं में लिखता रहा. और बाद में तो एक प्रतिष्ठित पत्रिका से जुड़ गया. ये यायावर सी ज़िन्दगी उसे रास भी आने लगी थी. घूमने का शौक़ीन तो था ही और अब तो यह उसके काम के अंतर्गत आता था. एक कंधे पर बैग टांग निकल पड़ता. कभी कभी उसे महसूस भी होता, ये कहीं खुद से भागने की कोशिश तो नहीं. कहीं डरता तो नहीं, एक जगह रुकेगा और पुरानी यादें सर उठाने लगेंगी. पर ये यादें तो अंदर बसी थीं, हमेशा उस से दो कदम आगे ही चलतीं वरना मनीष से यूँ दूरी बना बैठेगा... सोचा था कभी ? पूरे प्रवास में एक मनीष के ही फोन और पत्र नियमित आते रहें. वह अपने वायदे पर कायम था. कभी शची का नाम नहीं लेता पर वह जैसे ही जबाब देने की सोचता, शची का ख़याल मनीष से पहले आ जाता. कुछ पूछने को उद्धत होता और आँखों के सामने नीली दीवारों और सफ़ेद पोशाकों से घिरा शची का निस्तेज चेहरा आँखों के सामने आ जाता या फिर फूलों से घिरा उसका शांत मुखड़ा और वह काँप कर कलम रख देता.

शुरू शुरू में तो घर जाने को तड़पता, रहता पर वहाँ जाते ही लड़कियों के फोटो दिखाने और उनसे मिलवाने की जो कवायद शुरू होती कि वापस आने के दिन गिनने शुरू कर देता. अब इस षडयंत्र में ऋचा और मनीष भी शामिल हो गए थे. भारत आने के बस दो ही आकर्षण रह गए थे. ऋचा और मनीष से मिलना. अब दोनों उस शहर में नहीं रहते. ऋचा शादी करके और मनीष नौकरी की वजह से दूसरे शहरों में बस गए थे और इस बात का उसे बहुत सुकून था. घर आते ही उनके शहर जाने की तैयारी शुरू कर देता. माँ की बहू लाने की बेचैनी वह समझता था पर हर बार उनका दिल तोड़ने के अपराध बोध से भर उठता. इसलिए दूर रहना ही रुचता उसे. मनीष और विंशी की शादी हो गयी थी और एक प्यारी सी गुड़िया भी आ चुकी थी उनके जीवन में. कभी कभी मनीष उसका दिल टटोलने को बोल उठता, "शची की दीदी को फ़ोन करूँ, कुछ उसका हाल-चाल तो पता चले. एकदम से गायब ही हो गयी है. यहाँ तो उस अखबार का सर्कुलेशन भी नहीं कि कुछ उसका हाल ही मिले. और अब तक वह उस अखबार से जुड़ी होगी ये किसे पता. " वह बिलकुल नज़रंदाज़ कर देता ये बातें. दर्द की उन्हीं अनचिन्हीं गलियों से फिर से गुजरने की उसकी हिम्मत नहीं होती. और फिर जाने क्या खबर मिल जाए ये डर तो रहता ही हमेशा.

धीरे धीरे अपने वतन जाना भी कम होने लगा. उसका काम ही ऐसा था और यहाँ की व्यस्त दिनचर्या भी उसे इजाज़त नहीं देती कि रुक कर अतीत के पल दुहराए या फिर भविष्य की ही कोई रूपरेखा बनाए. और उसे चाहिए भी यही था. कि खुद को भुला दे. अभिषेक ना रह कर एक लेखक,, पत्रकार और बी. बी. सी. का एक वार्त्ताकार मात्र रह जाए. एक सीमा तक सफल भी रहा पर बीच बीच में ये कैसी कसक उठती, कैसा शूल चुभता ह्रदय में कि वह सबकुछ भुला, एकबारगी ही अभिषेक बन जाता.

ऐसा नहीं था कि इन ग्यारह सालों में उसका कहीं मन नहीं बंधा. एक नहीं तीन तीन लड़कियों के करीब आया पर जहाँ रिश्ते गंभीर होने लगते एक छटपटाहट सी भर जाती मन में. लगता कहीं कुछ बहुत गलत हो रहा है. किसी के प्रति अन्याय कर रहा है और वह रिश्ता तोड़ बैठता. धनश्री से तो बात एंगेजमेंट तक पहुँच गयी थी. यूँ तो माँ - डैडी ने किसी भी देश-परिवेश की लड़की के लिए इजाज़त दे रखी थी. किसी तरह उसका घर बस जाए बस यही एक चिंता थी, उनकी. लेकिन धनश्री अलग बोली, अलग प्रांत की होते हुए भी बस इस देश की थी, यही सुकून काफी था, उनके लिए. माँ तो जैसे तुरंत आ कर सब निपटाने को तैयार पर उसने समझाया यह तो एक औपचारिकता है, शादी भारत में ही होगी. लेकिन फिर वही, एंगेजमेंट के बाद ही बेचैन हो उठा. लन्दन की सर्द रात में भी सिकुड़ा हुआ वह घंटों सड़कें नापता रहा. इतनी भीषण ठंढ भी उसके दिल में लगी बेचैनी की आग नहीं बुझा सकी और आखिरकार उसने फोन उठा धनश्री से माफ़ी मांगी. अंगूठी उतार मेज पर रखी और मेज की दराज से उन पीले पड़े पन्नों को निकाल लिया. उन्हें हाथों में थाम ही एक सुकून सा मिलाता. और जैसे हल्का हो उठता वह. उस कलकत्ता ट्रिप के गेस्ट हाउस में शची से आखिरी बातचीत के बाद जो कुछ भी लिखा था. अब स्लीपिंग पिल्स का काम करता उसके लिए. उसे थामते ही सारे तनाव जाने कहाँ विलीन हो जाते. पढने की तो कभी जरूरत पड़ती ही नहीं. आँखें सतरों पर दौड़ती रहतीं और दिमाग में शब्दों की श्रृंखला खुलती चली जाती. जानता था इसमें हलका सा भी परिवर्तन कर इसे कहानी का रूप दे दे या मूल भावों को पकड़ एक कविता रच दे तो उसकी फैन मेल दुगुनी हो जाएगी. लेकिन नहीं कभी कैश नहीं करेगा इसे. पन्ने पीले और भुरभुरे हो आए थे, स्याही धुंधली पड़ती जा रही थी. फिर भी कभी रीन्यू करने की हिम्मत नहीं पड़ी. इन पीले पन्नों और धुंधली सी स्याही में एक आत्मीय स्पर्श था जिसे रिन्यू करते ही खो बैठता वह.

उस दिन जो कलम थामा तो अब लगता है चिता पर भी वो कलम लेकर ही चढ़ेगा. सच कितना नशा है लेखन में. अब तो उसका जीवन ही बन गया है. पर अब एक ठहराव सा आ गया था. पूरी दुनिया की परिक्रमा करते थक गया था. और काम भी अब दुहराव से लगने लगे थे. चैलेंजिंग नहीं लगता कुछ. ऐसे में भारत के एक नामी गिरामी प्रकाशक लन्दन आए और उसे लंच पर बुला. यहाँ की एक प्रतिष्ठित पत्रिका में सम्पादक की पोस्ट ऑफर की तो उसने ज्यादा नहीं सोचा और एक नए चैलेंज के तहत दोनों हाथों से लपक लिया.

आते ही उसने इस सर्वथा नए कार्य को कुछ इस कुशलता से संभाला कि कुछ ही अरसे में पत्रिका का सर्कुलेशन काफी बढ़ गया. उसने एक नया कॉलम शुरू किया था जिसके तहत अनसंग हीरो के तर्ज़ पर अनसंग इंस्टीच्युशन के ऊपर लिखता था. देश के सुदूर कोने में दुबकी जो संस्थाएं प्रचार प्रसार से दूर वहाँ के लोगों के उत्थान में लगी थीं. उनके विषय में खुद जाकर दूसरे सूत्रों से पता कर एक अलग दृष्टिकोण से लिखता. उसका यह कॉलम बहुत पसंद किया जा रहा था क्यूंकि चीज़ों को देखने की उसकी दृष्टि बिलकुल अलग थी. इसी सिलसिले में इस कस्बे में आया जो कि पहले एक आदिम बस्ती थी. पर अब वहाँ स्कूल, कॉलेज, बैंक, अस्पताल सब थे और यह सब कुछ यहाँ के कुछ नागरिकों की निस्स्वार्थ सेवा से संभव हुआ था.

अचानक खटखट की तेज ध्वनि सुन सर्वांग सिहर उठा वह. पीछे मुड़ने की भी हिम्मत नहीं हुई. इस उंघते से कस्बे में उसने शची की आवाज़ सुनी और अब क्या अनहोनी देखने जा रहा है? लेकिन जो आकृति अवतरित हुई, उसका शची से कोसों दूर का नाता नहीं था. छः फुट लम्बा... आबनूस सा रंग.. बेयरों का लिबास पहने एक व्यक्ति उसके पास आ रुक गया. झुक कर आदाब बजाया और बड़ी नम्रता से क्षमा मंगाते हुए कहा, "स्साब ! अब बहुत रात हो गयी है, वैसे तो मुझे ख़ास हिदायत दी गयी थी कि आपको कभी डिस्टर्ब ना किया जाए. आप शायद किताबें लिखते हैं साब.... पर माफ़ कीजियेगा साब.. आपने खाना भी नहीं खाया.. मैं तीन घंटे से इंतज़ार कर रहा हूँ लेकिन आपका ध्यान नहीं टूटा.. वेरी सॉरी सर. " और उसने झुक कर एक बार फिर हाथ माथे से लगाया और फिर तन कर खड़ा हो गया.

"अरे... ओह.. नहीं.. नहीं.. सॉरी तो मुझे कहना चाहिए... तुम्हे इतनी देर तक जगाये रखा... मुझे खाना नहीं खाना... जाओ तुम सो जाओ अब " घड़ी रात के एक बजा रही थी... बिना कपड़े बदले ही वह बिस्तर पर ढेर हो गया.

(क्रमशः)