Hawao se aage - 12 in Hindi Fiction Stories by Rajani Morwal books and stories PDF | हवाओं से आगे - 12

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हवाओं से आगे - 12

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

***

दीपमालिका

दरवाजे पर रंगोली सजाती मालिका गहरी उदासी में डूबी थी, रंग साँचे के भीतर समा ही नहीं रहे थे, पिछली कई दिवालियाँ उसकी इसी ऊहापोह में बीत गयी थी बच्चों का इंतज़ार करते | उस घर को सजाए या यूं ही माँ लक्ष्मी के समक्ष हाथ जोड़कर उठ खड़ी हो | कितने प्रकार के फल-फ्रूट, मिठाइयाँ और मेवे उस घर में आते थे जब यह घर सही मायनों में एक घर था | एक भरापूरा घर जिसमें बच्चों की किलकारियों के साथ-साथ उसके पति आकाश की चहकती हँसी गूँजा करती थी | अब तो यह घर उसे घर कम मकान अधिक लगने लगा था जिसमें सुबह-शाम अब उसकी आती-जाती साँसों के अलावा और कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती |

एक रोज़ सुबह की सैर से आए पति आकाश की उखड़ती साँसों को संभालने में मालिका की हिम्मत हार गयी थी, एंबुलेंस मँगवाने तक की मोहलत नहीं मिली थी | पाँच बरस का बेटा और तीन बरस की बेटी बारह दिनों तक मालिका के पल्लू से चिपके घर में रिश्तेदारों के जमावड़े को चुपचाप ताकते रहे थे, उन्हें तो मालिका के रोने का मतलब तक ज्ञात नहीं था |

मालिका ने न सफ़ेद साड़ी पहनना शुरू किया न बिंदी ही हटाई, उसने अपने-आपको उसी रूप में ताउम्र रखने का निश्चय किया जिस रूप में वह स्वयं को देखना चाहती थी, वह जानती थी कि अगर आकाश होते तब वह भी उसे हमेशा उसी रूप में देखना चाहते | जीवन से हारते हुए या प्रकृति के विभिन्न रंगों के प्रति उदासीन होते हुए देखना उन्हें जरूर अखरता | रिश्तेदारों ने दबी जुबान में बातें बनाई थी किन्तु मालिका के अडिग फैसले के आगे किसी की नहीं चली थी,

“ये मेरी अपनी ज़िंदगी है, इसका फैसला मुझे स्वयं करना है”

“पर समाज क्या कहेगा ?” सास ने बुलंद आवाज़ में घर भर को सुनाते हुए कहा था,

“समाज तो आप लोगों से है ...आप सभी इस समाज के सदस्य हैं व इस हिसाब से अब मेरा परिवार आपकी ज़िम्मेदारी हुई, तो मैं आपसे पूछना चाहुंगी कि आकाश के जाने के पश्चात आपमें से कौन-कौन और कितना रुपया प्रतिमाह मेरे परिवार के आर्थिक सहयोग के लिए भेजेगा ?”

“ये क्या बात हुई भला ? आकाश ने छोड़ा ही होगा रुपया-पैसा और जब तुम समाज को ठेंगे पर रखती हो तो फिर किसी की आर्थिक मदद लेने की भी क्या ज़रूरत है तुम्हें ?” बड़ी जिठानी ने अपना सामान बांधते हुए धीमे से कहा था |

अगली शाम तक मालिका अपने बच्चों के साथ उस सूने घर में अकेली रह गई थी, उसने अपनी साड़ी का पल्लू कमर में खोंसा फिर पूरे घर की धुलाई-सफ़ाई में जुट गयी | बच्चों को नहला-धुलाकर उसने खिचड़ी खिलाई और पुचकारकर सुला दिया व छत पर चली आई | ढलती रात के पहलू में चाँद के पास जब एक सितारे ने टिमटिमाकर उसे देखा तो मालिका अपनी रुलाई रोक न पाई, वह पास ही पड़ी कुर्सी पर ढह गयी, देर तक रोते-रोते उसकी आंखे मूँद चुकी थी | पो फटने पर सूरज की किरणें जब उसके मुरझाए चेहरे पर पड़ी तो एक ऊष्मा उसके भीतर संचारित हुई, बिखरे बालों को जूड़े में लपेटकर वह सीढ़ियों से उतरती हुई सीधे रसोई में जा पहुंची |

उसने बेटे के स्कूल का वक़्त था, उसने टिफिन तैयार किया और उसकी यूनिफ़ोर्म इस्त्री करके सहेज दी | दोनों बच्चों के लिए दूध गरम करके वह अपने लिए चाय का कप लेकर ड्राइंग रूम में लगे अपने पसंदीदा झूले पर आ बैठी | वहीं बैठे-बैठे आकाश की यादों के बीच उसने डायरी में हक़ीक़त से जूझती कुछ पंक्तियाँ उकेर दी,

“जीवन कब थमता तेरे बिन

होली पर भी रंग उड़ेंगे दीवाली पर दीप जलेंगे

जीवन खाली एक कुआ-सा, दिल को देगा कौन दिलासा

अपने बूते पेट भरेंगे”

एक गहरी सांस लेकर वह बच्चों को जगाने चल दी, बेटे को स्कूल छोड़कर उसे अपने लिए कोई नौकरी का प्रबंध भी तो करना था, यूँ तो उसने नर्स की ट्रेनिंग ले रखी थी | पाँच सालों के भीतर ही एक बेटे के बाद दूसरी बिटिया की ज़िम्मेदारी ने उसे घर-परिवार की देखरेख में व्यस्त कर दिया था | आकाश की कमाई से परिवार को तमाम सुविधाएं मयस्सर भी थी सो उसने भी अपने-आपको बच्चों की परवरिश में लगा दिया था | वैसे भी मालिका का विश्वास था की सबसे पहले परिवार सुख बाक़ी सुख बेगाने हैं, खुशी मिले तो बाँटने के लिए जबतक परिवार का साथ न हो ऐसा सुख भी किस काम का सो वह अपने परिवार के साथ बेहद खुश थी |

उसे क्या मालूम था कि सिर्फ पाँच बरसों में ही उसे जीवन की इन कठोर कठिनाइयों से गुजरना पड़ेगा | मालिका ने हिम्मत बटोरी और हक़ीक़त का सामना करने के लिए अपने आँसुओं को सख़्त बना लिया था | शिक्षा और संस्कार कभी व्यर्थ नहीं जाते, वह जानती थी कि उसे नौकरी तो शहर के किसी भी निजी अस्पताल में मिल जाएगी किन्तु बच्चों के पिता की कमी को पूरी करने के एवज़ में उन्हें ममता की कमी महसूस न हो | वह अपने बेटी को छोड़कर नौकरी नहीं करना चाहती थी, बेटा तो फिर भी आधे दिन स्कूल में गुज़ार आता था | जहां चाह होती है वहाँ राह होती है, ज़िंदगी की गहनतम मुश्किलों में ही इंसान अपने वास्ते सरलतम हल ढूँढ लेता है तभी तो संसार में होने वाले महान आविष्कारों की खोज बड़े ही सहज रूप से होती रहीं हैं | एक हफ्ते के भीतर ही मालिका को घर के पास ही एक निजी अस्पताल में नौकरी मिल गयी थी साथ ही अस्पताल ने कामकाज़ी माओं की सुविधा के लिए एक चाइल्ड केयर भी खोल रहा था |

दोनों बच्चे इंजीनियर बनके विदेशों में नौकरी कर रहे थे, उनकी शादियों के बाद मालिका एकाकी हो गयी थी, बच्चे अपने मनचाहे भविष्य की राह में विदेश जा बसे, मालिका ने जीवन में सबको इतनी स्वतंत्रता दी थी कि वे अपना निर्णय स्वयं ले सकें तो फिर दुख कैसा | छुट्टियों में बच्चे अपनी सुविधानुसार भारत आते हैं तो घर और ज़िंदगी गुलज़ार हो उठती है, नाती-नातिन और पोते-पोतियों से घर चहकने लगता है | विदा के वक़्त मालिकाउदास नहीं होती क्योंकि वह जानती है भविष्य की राहों को आँसुओं की बेड़ियाँ कसने लगती है फिर न कदम रुकते हैं न राहे थमती है बस मंज़िल तक पहुंचाना अवश्य कठिन हो जाता है |

मालिका वर्तमान में लौट आती है, अब रिटायरमेंट के बाद मालिका गुजरे वक़्त को याद करती है तो उसे अपनी जीजीविषा की कर्मठता एक सपना-सा प्रतीत होती है | अपने एकाकी सफर की अकेली हमसफर मालिका ने इस मर्तबा दीवाली पर घर को नीले रंग से पैंट करवाया था, जब सब रहते थे तो उसने हमेशा सबकी पसंद को तवज्जोह दी किन्तु अब वह अपने लिए जीना चाहती थी, मालिका अपनी कांपती अंगुलियों से रंगोली को पूर्ण करने ही वाली थी तभी फूलवाली बंधरवार लेकर चली आई, मालिका ने मुस्कुराकर उसे पैसे दिये और फूलों में गूँथे आसोपल्लव के पत्तों को सहलाया | आकाश को हरा रंग बहुत पसंद था | संध्या ढलने पर घर के चारों तरफ़ जब छोटे-छोटे रंगीन जगमाते बल्बों की लड़ियाँ जब मुस्कुराई तो मालिका को लगा कि उसका थमा हुआ वक़्त पुनः मुस्कुरा उठा है |

ज़िंदगी भर मालिका यही मानती आई थी कि जीवन में यदि उत्सवधर्मिता हो तो सुख और दुख के मायने बदल जाते हैं, सकारात्मकता व्यक्ति को सुखों की और ले जाती है और यही सुख फिर से सकारात्मकता उत्पन्न करते हैं | दीवाली की शाम उसकी रसोई विभिन्न पकवानों से महक उठी थी, हंसी-ठहाकों के बीच भजन संध्या के साथ नृत्य हो रहा था, नृत्य के दीवानेपन में कोई सूफी बना हुआ था तो कोई फकीर, कोई दरवेश था कोई कबीर | न किसी को चाह थी न कोई राह थी, वहाँ अगर कुछ बह रहा था तो वह आनंद ही आनंद था जिसमें डूबकर सब प्रेममयी हुए जा रहे थे, जीवन की मोह-माया से परे परमात्मा से एकतात्म स्थापित हो रहा था | दरअसल मालिका ने एक एन.जी.ओ के मार्फत एक वृद्धाश्रम के सदस्यों को अपने घर दीवाली मनाने के लिए आमंत्रित किया था |

पूजा के पश्चात सब मिलकर आँगन में दीपमालिका सजा रहे थे, मिट्टी के ढेरों दीपकों की पंक्तियाँ जगमगाने लगी थी | वही दीपक जो उन्होने अपने एन.जी.ओ. में बनाए थे, अपने हाथों रंग-बिरंगे रंगों से सजाए थे | अचानक दो टैक्सियाँ गेट पर आकर रुकी थीं, जिसमें से मालिका के बच्चे और उनका परिवार उतरा था, वे जगमगाते घर को देखकर हैरान थे,

“माँ ने घर बेच दिया क्या ?” बेटे ने अपनी बहन की तरफ़ देखकर पूछा था,

“दरवाज़े पर मम्मी-पापा के नाम की तख्ती भी नहीं, नया ही पेंट किया है, बहू ने नई तख्ती को करीब से छूकर कहा था,

“ये देखो यहाँ तो लिखा है ‘दीपमालिका’ ये किसका घर है” बिटिया ने अचरज से इधर-उधर ताका था, तभी हैप्पी दीवाली कहते हुए घर में मौजूद तमाम लोगों ने उनका आरती से स्वागत किया, फूल-मालाएँ पहनाई थी | भीतर से मिठाई की थाली लेकर आती मालिका ने कहा था “दीपमालिका में स्वागत है मेरे बच्चों, यह हम सबका घर है” बच्चे माँ से लिपट गए थे, वे जानते थे उनकी माँ ने जीवन अपनी शर्तों पर और कर्मठता से जिया है |

रात को सोने से पहले दोनों बच्चो ने माँ की गलबहियाँ डालकर कहा था,

“माँ इस बार हम सोचकर आए थे, आप हमारे साथ चलोगी”

“जरूर चलूँगी पर वादा करो कि हर दीवाली हम सब इस घर “दीपमालिका” में इन्हीं लोगों के साथ मनाएंगे” “मंजूर है माँ, आपके साथ हम सबको इस “दीपमालिका” की बधाई ” मालिका के लिए वह रात एक नया उजास लाई थी जिसमें उसके संस्कारों की रोशनी जगमगा रही थी |

***