Hanuva ki Patni - 4 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | हनुवा की पत्नी - 4

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हनुवा की पत्नी - 4

हनुवा की पत्नी

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 4

‘वही जो अब मैं हूं। थर्ड जेंडर। उस समय तो यह शब्द सुना भी नहीं था। तब के शब्द में हिजड़ा। उसी समय से मेरी आवाज़ के साथ-साथ अब शरीर भी लड़कियों सी स्थिति में आने लगा। मेरे लड़कियों से कट्स बनने लगे। कमर, हिप, थाई लड़कियों सी कर्वी शेप लेने लगे। ग्यारह होते-होते निपुल लड़कियों की तरह बड़े-बड़े इतने उभर आए कि मोटी बनियान, शर्ट पहनने पर भी साफ उभार दिखाई देता। मां मेरी बनियान को पीछे से सिलकर खूब टाइट कर देती। मगर सारी कोशिश बेकार। स्कूल में साथी अब आवाज़ के साथ-साथ इसको भी लेकर चिढ़ाने लगे।

कुछ तो खींचतान, नोच-खसोट करते, इस पर मैं मार-पीट करती। मैं स्कूल से आने के बाद घर से बाहर निकलना तो दो साल पहले ही बंद कर चुकी थी। एक दिन मोहल्ले के एक लड़के ने मेरी पैंट खोल कर बदतमीजी करने की कोशिश की। उस दिन फिर उसके हमारे घरवालों के बीच खूब मारपीट हुई। बिहार के दरभंगा जिले के उस छोटे से कस्बे में इससे ज्यादा अच्छी स्थिति की उम्मीद नहीं कर सकती थी। उस दिन से मेरा स्कूल जाना भी बंद कर दिया गया। उस दिन शाम को घर में चूल्हा भी नहीं जला। मां-बाप दोनों को ही मार-पीट में कई जगह चोटें लगी थीं। डॉक्टर के यहां मरहम-पट्टी करवानी पड़ी थी।’

‘ओफ्फो इतना सब होता रहा तुम्हारी एक इस हालत के कारण। वाकई तुमने और तुम्हारे घरवालों ने भी बड़ी मुश्किलें झेलीं हैं।’

‘सांभवी ये तो कुछ भी नहीं है। आगे मैंने जो-जो अपमान यातनाएं भोगी हैं उनके अनगिनत घाव मुझे आज भी वैसे ही तड़पा रहे हैं। जैसे तब तड़पाते थे। एक-एक घटना गर्म आयरन रॉड की तरह आज भी मेरे शरीर से चिपकी मुझे भयानक पीड़ा दे रही हैं। मेरी मुश्किलें इतनी बड़ी हैं कि उनका मैं आज तक ओर-छोर ही नहीं ढूंढ पायी हूं।’‘अभी तक जो बताया वो मुश्किलें ही इतनी बड़ी हैं, इतनी पेनफुल हैं तो और ना जाने क्या-क्या झेला होगा। जब स्कूल बंद हो गया तो पढ़ाई कैसे हुई ?’ ‘हुआ यह कि उसी दिन रात को मेरी एक हनुवा वाली मौसी आ गईं। मौसा जी उनके बच्चे भी साथ थे।’हनुवा वाली मौसी सुनकर सांभवी चौंकी । बीच में ही बोली ‘हनुवा वाली मौसी! तुम्हारा नाम और।’

‘हां अजीब बात है ना। बिल्कुल मेरे नाम की तरह। हुआ यह कि जब मैं तीन साल की थी तब भी यह मौसी आयी थीं कुछ समय के लिए। उस वक्त ये मुझे इतना प्यार करती थीं कि जब ये आठ दस दिन बाद जाने लगीं तो मैं मौसी-मौसी कह कर रोने लगी। लोगों ने सोचा उनके जाने के बाद चुप हो जाऊंगी। लेकिन मैं घंटों रोती रही। तो मां और सबने कहा ‘‘मौसी हनुवा गईं।’’ असल में चित्रकूट जिले के पास हनुवा नाम का एक गांव है। मौसी वहीं रहती हैं। तो सबने कहा हनुवा गईं। यह सुन कर मैं कहना चाहती थी कि मैं भी हनुवा जाऊंगी। लेकिन पूरा सेंटेंस बोलने के बजाय मैं आधा बोलती हनुवा, हनुवा। अगले दिन उठी तो भी मैं हनुवा-हनुवा कर रोने लगी। ऐसा कई दिन चला तो घर भर मुझे बाद में भी हनुवा कहने लगा। और फिर यही मेरा नाम हो गया। आगे चल कर मेरे साथ यह नाम ऐसा चिपका कि अब खुद भी इससे छुटकारा नहीं चाहती।’

‘जिस चीज या बात से बहुत दिन जुड़ाव बना रहता है उसके साथ इमोशनली अटैचमेंट हो ही जाता है। तो उस दिन तुम्हारी हनुवा मौसी ने क्या किया? सबको इंजर्ड देखकर तो घबरा गई होंगी।’ ‘हां दरवाजे पर जब नॉक किया तो पापा सशंकित हुए कि झगड़ा करने के लिए विरोधी गुट फिर तो नहीं आ गया। यह सोच कर उन्होंने घर में एक कांता रखा हुआ था उसे ही हाथ में लेकर दरवाजा खोला। उनके ठीक पीछे अम्मा भी डंडा लिए खड़ी थीं। एक हाथ में लालटेन लिए हुए। बाहर तो अंधेरा ही अंधेरा था। सामने मौसा को देख कर पापा-अम्मा के जान में जान आई। अम्मा चहकती हुई बोलीं ‘अरे सुमन तू...।’ पापा ने भी बढ़कर मौसा जी को नमस्ते किया और अंदर ले आए सबको।

लेकिन अंदर आते ही उन लोगों ने पहला क्योश्चन किया। ‘अरे ये सब क्या हुआ? ये चोटें, कांता, लाठी।’ तो पापा-अम्मा ने फीकी हंसी हंसते हुए कहा ‘कुछ नहीं भाई साहब, कभी-कभी लड़ाई झगड़े में भी हाथ साफ कर लेना चाहिए। पता नहीं कब जरूरत पड़ जाए।’ इसके बाद चाय-नाश्ता, खाना-पीना सब रात एक बजे तक चला और बातें भी। मां-पापा जानते थे कि कुछ भी छिपाना संभव नहीं है। तो सारी बातें साफ-साफ बता दीं। उनसे सलाह भी मांगी कि क्या करें? बाकी बच्चों का भी भविष्य देखना है। हम बच्चे तो सो गए। लेकिन बड़े लोगों की बातें और देर तक चलीं।

अगले दिन भी विचार-विमर्श चलता ही रहा। मौसा ने यह कह कर और डरा दिया कि हिजड़ों तक यह बात पहुंचने में देर नहीं लगेगी। पता चलते ही वह सब इसको जबरदस्ती अपने साथ ले जाएंगे। फिर तो और ज़्यादा बदनामी होगी। समस्या के एक से एक हल ढूंढ़ें जाने लगे। यह हल सुनकर शायद तुम आज भी सहम उठो कि मेरे ब्रेस्ट को सर्जरी कराकर पूरी तरह खत्म कर देने की भी बात हो गई। मगर यह समाधान बेकार हुआ। क्यों कि मां ने बड़ी दूरदर्शिता दिखाते हुए कहा कि ‘छाती तो सपाट हो जाएगी लेकिन इसकी जांघों, कूल्हों, कमर का क्या करेंगे? अभी से सोलह-सत्तरह साल की लड़कियों सी गदराई हुई हो रही है।’ मां की इस बात ने बात जहां शुरू हुई थी वहीं पहुंचा दी।’

‘हे भगवान मां-बाप, मौसा-मौसी इस तरह भी सोच सकते हैं। मेरे तो सुनकर ही रोंगटे खड़े हो गए हैं। तुम पर क्या बीती होगी?’

‘बीती क्या? ग्यारह-बारह की तो हो ही रही थी। बहुत डीपली तो नहीं लेकिन काफी हद तक चीजों को समझने लगी थी। बल्कि अपनी एज से कुछ ज़्यादा। लेकिन मैं बहुत ज्यादा डरी सहमी थी। मेरे सारे भाई-बहन मौसी के बच्चे सब आपस में घुलमिल कर खेल रहे थे। मैं गुमसुम घर का कोई कोना ढूंढ़ती और वहीं छिपी रहने की कोशिश करती। उस दिन दोपहर होते-होते मौसा ने समस्या से निपटने की जो योजना सामने रखी। पापा-अम्मा को वह समझ में आ गई।

मौसा ने साफ कहा ‘‘चुपचाप यहां मकान, खेत सब बेच-बाच कर कहीं दूर जा के बसो। वहीं कोई काम धंधा जमाओ। और वहां मुझे लड़का बनाए रखने की कोशिश ना करके जैसी दिखने लगी हूं वही यानी लड़की बना के रखो। इससे कोई समस्या नहीं होगी।’’ सब को यही सही लगा और फिर मौसा जी जो दो चार दिन के लिए आए थे। वह उसी दिन शाम को अकेले हनुवा गए। काम भर के पैसे का इंतजाम कर हफ्ते भर बाद लौटे। इसके बाद मन मुताबिक जगह की खोज में बड़ौत आ गए। और यहीं मेरी ज़िन्दगी बदल गई।

मौसी ने ही मेरा नाम सुशील से सुमिता कर दिया। अब पैंट-शर्ट की जगह सलवार सूट मेरी ड्रेस हो गई। यही मुझे पसंद भी थी। मौसी ही मेरे लिए चार सेट कपड़े भी पहले र्ले आइं। सब बच्चों को भी उन्होंने ना जाने क्या-क्या समझाया कि सब मिल-जुल गईं। वास्तव में अब मैं वह बन गई थी जो मैं फील करती थी। यहां कोई दूर-दूर तक हम लोगों को जानने वाला नहीं था। वैसे भी हम लोगों का परिवार छोटा, अंतरमुखी है। मौसा के अलावा किसी से कोई संपर्क नहीं। दोस्त वगैरह भी नहीं।

मौसा ने जो पैसा दिया था वह जब खेत, मकान, बिका दरभंगा का तो वापस किया गया। जो बचा वह बिज़नेस में लगा दिया गया। संयोग से बिजनेस चल पड़ा। और फिर दो तीन साल बीतते-बीतते जिस मकान में किराए पर रहते थे उसी से कुछ किलोमीटर आगे पापा ने एक पुराना मकान खरीद लिया। उसी में आज भी सब रहते हैं। मकान काफी पुराना था। तो पापा बाद में धीरे-धीरे उसे तुड़वा कर नया बनवाते गए। बाद के दिनों में मैं समझ पाई कि अगर यहां आकर पापा का काम धंधा ना चल गया होता तो मुझ पर मनहूस होने के और आरोप लगते, मेरी मुश्किलें और बढ़तीं। लेकिन मुझे नहीं मालूम था कि अभी तो सबसे बड़ा घाव, सबसे बड़ी पीड़ा मिलनी बाकी है।’

‘क्या! इसके बाद भी अभी कुछ और होना बाकी है।’‘हां अभी तो बहुत कुछ बाकी है। ऐसा नहीं है कि प्लेस और मेरा परिचय बदलते ही सब कुछ बढ़िया हो गया। शुरू में तो कई महिने लगे नए स्थान पर खुद को एडजस्ट करने में। पापा के बिजनेस को रफ्तार पकड़ने में। मैं अपने बदले रूप से कुछ ही राहत महसूस कर रही थी। लेकिन समस्या कोई खत्म तो हुई नहीं थी। मौसा के जिन मित्र के जरिए मकान वगैरह आसानी से मिल पाया था उन्हीं के प्रयासों से ही हम तीनों बहनों का घर से थोड़ी दूर पर एक इंटर कॉलेज में एडमिशन हो गया। भाई का दूसरे स्कूल में। शिफ्टिंग के कारण हम भाई-बहनों की पढ़ाई काफी दिन बर्बाद हुई थी। किसी अच्छे स्कूल में एडमिशन नहीं हुआ। मैं जिस कॉलेज में थी वह बस कस्बों में जैसे होते हैं वैसा ही था।

मैं अपने भीतर शुरू से ही यह मान कर चल रही थी कि मेरी पढ़ाई अन्य सभी से ज्यादा इंपॉर्टेंट है। मुझे सेल्फ डिपेंड बनना है। मुझे मेरी स्थिति ने समय से पहले बहुत कुछ सिखा समझा दिया था। मेरे साथ घर में जो व्यवहार होता था वह भी मुझे बहुत कुछ सिखाता, समझाता था। मां-बाप ही नहीं भाई-बहन भी ज़्यादा से ज़्यादा काम मुझ पर ही डालते थे। मगर फिर भी अपनी पढ़ाई के लिए समय निकाल ही लेती थी।

इसीलिए पढ़ाई पिछड़ने के बाद भी मैंने जूनियर हाईस्कूल में अपनी क्लास में टॉप किया। पूरे स्कूल में मेरी दूसरी पोजीशन थी। स्कूल में मैं एक दम से सभी टीचर, सभी स्टूडेंट के बीच फेमस हो गई। मेरी क्लास टीचर नाएला ने तो मुझे सिर आंखों पर बिठा लिया। क्यों कि उनकी भी खूब चर्चा हुई। मैं आज भी मानती हूं कि वो एक इंटेलिजेंट टीचर हैं। वो अपने स्टूडेंट पर जितना ध्यान देती थीं उसका आधा भी और देती रहतीं तो हर साल उनकी कम से कम तीन-चार स्टूडेंट टॉप टेन में ज़रूर रहतीं।’

‘वो लापरवाह किस्म की थीं क्या?’‘नहीं लापरवाह तो नहीं कह सकती। एक्चुअली उनकी पर्सनल लाइफ बहुत डिस्टर्ब थी। उनके हसबैंड वाराणसी में डी. एल. डब्ल्यू. हॉस्पिटल में सर्विस करते थे। वो चाहते थे कि मिसेज या तो नौकरी छोड़ दें। या वाराणसी ही ट्रांसफर करा लें। नाएला जी ने बहुत कोशिश की मगर हो नहीं पा रहा था। बाद के दिनों में यह भी सुनने को मिला कि नाएला जी नौकरी करें वो यही नहीं चाहते थे। दोनों के बीच संबंध बहुत कटु थे। उनके तीन लड़के एक लड़की थी। नाएला चाहती थीं कि कम से कम लड़की को उनके ही पास रहने दे। लेकिन हसबैंड कहते एक कस्बे में रख कर बच्चों का कॅरियर बर्बाद नहीं करना।

बच्चे वाराणसी में ही अपनी दादी पापा के पास रहते। नाएला जी हर सैटरडे को अपने बच्चों के पास जातीं, और मनडे को लौट आतीं। घर से जब भी लौटतीं तो एक दो दिन उनका मूड बहुत खराब रहता। क्योंकि हर बार पति से जमकर झगड़ा होता था। पति बार-बार उन्हें तलाक देने की भी धमकी देते थे। एक बार जब वह ईद मनाकर लौटीं तो साथ की टीचरों ने अमूमन जैसा होता है ऐसे मौकों पर सिंवई वगैरह की बात कर दी। पहले तो वह बड़ी फीकी सी हंसी के साथ सबको टालती रहीं। लेकिन अचानक ही उनकी आंखों से झरझर आंसू बहने लगे।

इससे सभी सकते में आ गए। सभी टीचरों ने सॉरी बोल कर उन्हें चुप कराया। उस दिन क्या फिर वह उस पूरे हफ्ते कोई क्लास ठीक से नहीं ले र्पाइं। और सैटरडे को हसबैंड के पास गईं भी नहीं। एक बार एक टीचर ने उन्हें सलाह दी कि ‘‘जब हसबैंड नहीं चाहते तो छोड़ दीजिए नौकरी। इतने टेंशन के साथ जीने का क्या फायदा।’’

तब नाएला जी ने जवाब दिया कि ‘‘अगर जॉब छोड़ने से टेंशन खत्म होती तो मैं यह भी सोचती। मगर मैं जानती हूं तब मेरी तकलीफें और बढ़ेंगी। मुझे वो जीवन भर एक-एक पैसे, एक-एक चीज के लिए तरसा देंगे। मुझे वो घर में कैद एक नौकरानी बना कर रखना चाहते हैं। बल्कि यह कहें कि नौकरानी से भी बद्तर एक ऐसी मशीन एक ऐसी गुलाम चाहते हैं जिसमें कोई इमोशंस, फीलिंग्स ही ना रहे। जो घर, बच्चे उनकी मां को देखे, ए टू जे़ड काम करे। और वो जब जैसे चाहें वैसे अपनी सेक्सुअल डिजायर पूरी करें।

मैंने बार-बार समझाया आखिर कमाती तो हूं सबके लिए ही ना। ज़्यादा पैसा होगा तो बच्चों की परवरिश पढ़ाई-लिखाई सब कुछ ज़्यादा अच्छी हो सकेगी। लेकिन मेरी बातें उनकी समझ में ही नहीं आतीं। और सास वह जब तक जागती हैं तब तक बारूद के पलीते में आग ही लगाती रहती हैं। एक बुजुर्ग, उससे पहले एक महिला के नाते वह झगड़ा खत्म कराने की कोशिश करेंगी ऐसा सोचना सबसे बड़ी मूर्खता करने जैसा है।’’ नाएला जी ने आखिर में बड़े फायरी अंदाज में कहा था कि ‘‘मैंने इनसे, इनके सारे घर वालों से निकाह से पहले ही क्लीयर कह दिया था कि मैं नौकरी नहीं छोड़ूंगी। मेरे पैरेंट्स ने भी क्लीयर कर दिया था कि सरकारी नौकरी है ,बड़ी मुश्किल से मिली है। नाएला की सारी काबिलियत के बावजूद लाखों रुपए रिश्वत, और सालों रात-दिन दौड़ धूप के बाद मिली। तब इन लोगों ने कहा नहीं नौकरी से कोई दिक्कत नहीं है। आजकल तो इसी का दौर चल रहा है।

मगर निकाह के बमुश्किल छः सात महिने बीते होंगे कि नौकरी से लेकर खाने-पीने, पहनने सभी चीजों पर सभी अपने हुकुम चलाने लगे।’ नायला जी इन सबकी रिंग लीडर अपनी सास को अपनी खुशियों में आग लगाने वाली मानती हैं। मगर इन्हीं नाएला जी को इस बात का शायद ही अहसास हो, शायद ही उन्होंने कभी फील किया हो कि उन्होंने कैसे मेरी लाइफ में आग लगाई। ऐसी आग कि मैं चाहे जितनी बड़ी एचीवमेंट पा लूं मगर मेरे हृदय पर जो आग जलाई है वह इस जीवन में नहीं बुझेगी।’

तभी बाहर कहीं करीब ही किसी ने बहुत तेज़ आवाज़ का पटाखा दगाया। जिस की भयानक आवाज़ से दोनों चौंक उठीं। रात बारह बज रहे थे लेकिन सारे क़ानून को धता बताते हुए प्रतिबंधित आतिशबाजी अभी भी रह-रह कर चल रही थी। हनुवा की बातें भी सांभवी के मन में आतिशबाजी ही कर रही थीं। बाहर हुए धमाके से चौंकने के बाद उसने सेकेंड भर में ही संभलते हुए पूछा ‘हनुवा क्या कह रही हो? तुम्हारी टीचर ऐसा क्या कर देंगी?’‘सांभवी मैंने कहा ना कि मेरे साथ जो हुआ है अभी तक उसे किसी को बताओ तो वो शॉक्ड हुए बिना नहीं रह सकेगा। नाएला ने भी जो किया वो सुनकर तुम वैसे ही चौंकोगी जैसे अभी बाहर हुए धमाके से चौंकी थी।’‘अरे ऐसा भी क्या?’‘हां सांभवी,नाएला जी ने बरसों-बरस मेरा सेक्सुअल हैरेसमेंट किया।’

‘क्या ?????’ कहते हुए सांभवी अपने बेड पर पूरी तरह उठ कर बैठ गई। वह अब तक तकिया मोड़ कर उसे ऊंचा किए उसी पर सिर टिकाए अध-लेटी सी बातें सुन रही थी।

‘मैंने कहा था ना सांभवी ऐसी बात है जिसे सुनकर कोई चौंकेगा ही नहीं उसके रोंगटे खड़े हो जाएंगे। नाएला जी ही हैं जिन्होंने मेरा सेक्सुअल हैरेसमेंट किया।’

‘हां, मैं तो विलीव ही नहीं कर पा रही हूं। तुम्हारा सेक्सुअल हैरेसमेंट वो भी एक लेडी, तुम्हारी ही क्लास टीचर करेगी।’

‘ये शॉकिंग है। लेकिन सांभवी पूरी तरह सच है। ये आजकल गवर्नमेंट ने जो स्वच्छता अभियान चलाया है ना, कि हर घर में टॉयलेट हो, कोई बाहर नहीं जाए। आज़़ादी के बाद पहले मुख्य कामों में यह भी होता तो अब तक सत्तर सालों तक, टॉयलेट ना होने के कारण बाहर जाने पर लाखों महिलाओं-लड़कियों की इज्जत ना लुटी होती। उनकी हत्याएं नहीं हुईं होतीं। यह तब की सरकारों का फैल्योर है। जिसे खत्म करने की अब सोची गई। और देखते-देखते बहुत काम हो गया। टॉयलेट की प्रॉब्लम न होती तो मेरे साथ जो हुआ वह नहीं होता और नाएला जैसी इंटेलीजेंट लेडी मेरी घृणा का शिकार नहीं होती।

वह टीचर जिसने मुझेे उस रास्ते पर आगे बढ़ाया, मेरी बराबर हेल्प की जिसके कारण मैं पैरेंट्स के इंट्रेस्टेड न होने के बावजूद भी बी-टेक कर पाई। इंजीनियर बन पाई। और तीन बार सरकारी नौकरी में सेलेक्ट हुई। लेकिन वो नौकरियां सिक्योरिटी फोर्सेस की थीं। वहां फिज़िकल टेस्ट में मेरी प्राइवेसी खत्म हो जाती। इसलिए मैंने क़दम वापस खींच लिए। इसके बाद किसी सरकारी नौकरी में सेलेक्शन हुआ ही नहीं। ना जाने कितने एक्जाम दिए। अब तो याद भी नहीं कि किस-किस के रिजल्ट आए किसके नहीं।’

‘हनुवा शॉकिंग ये नहीं कि तुम्हारा सेक्सुअल हैरेसमेंट हुआ। दुनिया में सेक्सुअल हैरेसमेंट के केस होते रहते हैं। मेरे लिए शॉकिंग यह है कि तुम्हारा हुआ। कई बच्चों की मां तुम्हारी लेडी टीचर ने किया। वो भी सालों साल। और तुम्हें बराबर आगे भी बढ़ाती रहीं। तुम्हारा उन्होंने कॅरियर भी बनाया। वो तो मुझे हॉलीवुड की किसी साइकिक मूवी की मेन कैरेक्टर सी लग रही हैं, कि तुम टॉयलेट के लिए बाहर जाती थी और वो तुम्हें पकड़ लेती थीं।

‘शायद तुम सही कह रही हो। वो कोई मनोरोगी भी हो सकती हैं। उनकी पर्सनल लाइफ ने हो सकता है उन्हें साइकिक बना दिया हो।’ लेकिन टॉयलेट वाली बात तुम समझ नहीं पाई। हुआ यह कि जिस कॉलेज में थी वह कस्बे का एक सरकारी कॉलेज था। जिसकी खस्ताहाल बिल्डिंग थी। स्टूडेंट और स्टॉफ के लिए दो टॉयलेट थे। उसमें स्टूडेंट वाला तो यूज के लायक ही नहीं बना था। स्टॉफ वाले में ही हम स्टूडेंट भी जाते थे। दरवाजे, उनकी कुंडियां ऐसी थीं कि उन्हें बंद करने का कोई फायदा नहीं था। हल्का सा खींचते ही खुल जाते थे। उस दिन मेरे साथ भी यही हुआ।

मैंने भरसक दरवाजा बंद किया था। मैं उठकर खड़ी ही हो रही थी कि नाएला जी आईं और एकदम से दरवाजा खींच कर खोल दिया। मैं एक घुटी हुई चीख सी निकालते हुए तड़पी। कपड़े बेहद टाइट होने के कारण मैं हड़बड़ाहट में उन्हें एकदम ऊपर खींच ही नहीं पाई, और मेरी प्राइवेसी नाएला के सामने पूरी तरह तार-तार हो गयी। कुछ भी छिपाने को नहीं रह गया था। नाएला जी भी मुझे एकदम आवाक स्टेच्यू बनीं देखती रह गईं। उस हड़बड़ाहट में भी मैं उनके चेहरे पर बार-बार भाव बदलते जा रहे हैं यह समझ रही थी। मैं कपड़ों को ऊपर कर बांधते हुए बुरी तरह रोए जा रही थी। तब उन्होंने कहा। ‘‘चुप हो जाओ मैं किसी को कुछ नहीं बताऊंगी। डरने की जरूरत नहीं है। लेकिन तुम्हारे मां-बाप को झूठ नहीं बोलना चाहिए था।’’

उनकी इस बात में गुस्सा साफ झलक रहा था। मैं बाहर निकल पाती कि तभी वह बोलीं ‘‘छुट्टी में जाने से पहले मुझसे मिलकर जाना।’’ मैं निकल ही रही थी कि तभी दो टीचर और आ गईं। मुझे रोता देख उन दोनों ने एक साथ पूछा ‘‘अरे इसे क्या हुआ?’’ मैं डरी कि नाएला जी अब इन दोनों को भी सब बता देंगी। लेकिन उन्होंने बड़ी सफाई से कहा ‘‘कुछ नहीं? मैं जरा जल्दी में थी, ध्यान दिया नहीं, दरवाजा खोल दिया। इसी लिए रो रही है।’’ ये सुनते ही मेरे जान मैं जान आ गई। उनमें से एक तुरंत बोली ‘‘इसमें इतना रोने की क्या बात है? यह भी लेडी हैं, जेंट्स तो नहीं। चलो जाओ क्लास में।’’ मैं आंसू पोंछते हुए क्लास में पहुंच गई।

शाम को छुट्टी से एक पीरियड पहले ही नाएला जी ने मुझे अपने पास बुला लिया। मुझसे पूछताछ शुरू की तो मैंने सारी बात बता दी। पहले मारपीट, यहां शिफ्ट करने सुशील से सुमिता बनने तक की सारी कहानी। मैं बार-बार रो पड़ती। तो उन्होंने उस दिन बहुत समझाया। यह विश्वास दिलाया कि कभी किसी से कुछ नहीं कहेंगी। अब मेरा कॅरियर बनाना उनकी ज़िम्मेदारी है। उन्होंने कहा ‘‘मैं तुम्हें इतना पढ़ा-लिखा दूंगी कि तुम नौकरी में अच्छी पोस्ट पर काम कर सकोगी। जब तुम्हारे पास पैसा होगा, पावर होगी तो सभी तुम्हारे पीछे चलेंगे। तुम्हारे घर वाले भी तुम्हें अपने साथ बुला-बुला कर रखेंगे। तब तुम्हें किसी से छिपने या डरने की जरूरत नहीं होगी। तुम ओपेनली बाकी लोगों की तरह खुल कर जी सकोगी। जो चाहोगी वह कर सकोगी।’’ फिर उन्होंने कई ऐसी थर्ड जेंडर के बारे में बताया जो एक सक्सेजफुल लाइफ पूरी इज्जत के साथ जी रहीं हैं। उन्होंने मुझे उस वक्त इतना प्रोत्साहित किया, इतना समझाया कि मैं....मैं सारी टेंशन ही भूल गई।

मुझे लगा ही नहीं कि अभी कुछ देर पहले तक मैं बहुत डरी हुई परेशान थी। आखिर में बोलीं ‘‘ठीक है घर जाओ।’’ मैं उठ कर उन्हें नमस्ते कर चलने लगी तो उन्होंने अचानक दोनों हाथों से मेरे चेहरे को पकड़ा और जल्दी-जल्दी मेरे गालों पर किस कर लिया। मैं उनके इस स्नेह प्यार से इतनी खुश हो गई कि बता नहीं सकती। उन्हें देखती खड़ी रह गई, तो मुस्कुराती हुई बोलीं ‘‘जाओ।’’ चलने को मुड़ी तो मेरी पीठ और हिप पर भी हल्की-हल्की धौल जमा दी।

अपनी टीचर के इस प्यार से मेरे क़दम हवा में पड़ रहे थे। तब मुझे इस बात का अहसास ही नहीं था कि इसी प्यार के पीछे वह डंक है जो बस कुछ ही दिनों में मुझे लगने वाला है। यह प्यार वह जाल है, वह क्षद्मावरण है जो शिकारी अपने शिकार को फंसाने के लिए फैला रहा है।’‘ये डंक तुम्हें कितने समय बाद लगा ?’

सांभवी का क्योश्चन सुन कर हनुवा ने कहा ‘तुम्हें नींद नहीं आ रही क्या?’

‘नींद आती कहां है? मैं यहां हूं तो मन कभी घर, तो, कभी अगले महिने की सात तारीख पर चला जा रहा है। इस बार अच्छी एम. एन. सी. में जॉब मिली है। ऑफर लेटर मिल चुका है। सैलरी पैकेज जो मिला है वह मेरी उम्मीद से कहीं बेहतर है। मैं इतनी एक्साइटेड हूं इस जॉब को लेकर कि एक-एक घंटे का इंतजार लगता है जैसे कई सालों का है। और इन सबसे बड़ी चीज ये कि तुम्हारी लाइफ हिस्ट्री सुन कर मैं इतना शॉक्ड हूं कि सारी बातें सेकेंड भर में जान लेना चाहती हूं।

इतने तरह के प्रेशर के बाद कहीं नींद आती है क्या ? वैसे भी जब से हम लोग जॉब के लिए यहां आए हैं तब से खाने-पीने, सोने जागने की कोई टाइमिंग रह गई है क्या? पर्सनल लाइफ क्या होती है यह सब तो भूल ही गई हूं। कभी-कभी लगता है कि हम लोगों से अच्छी तो वो लड़कियां हैं जो जहां तक हुआ पढ़ी-लिखीं। पैरेंट्स ने शादी कर दी, अपने हसबैंड बच्चों के साथ जी रहीं है। बेवजह सेल्फ डिपेंड होने का नशा पाल लिया। जब देखो तब नौकरी की चिंता, आज है कल रहेगी इसका पता नहीं। और सरकारी नौकरी सपने से कम नहीं। उसका तो सपना देखना भी पाप है।’

सांभवी ने बेड पर पहलू बदलते हुए अपनी बात कही। उसकी बातों में, आवाज़ में उसकी तकलीफ छलछला पड़ी थी। जिसे हनुवा ने बड़ी गहराई से फील किया। कुछ देर तक चुप उसे देखती रही। फिर कहा ‘सांभवी तुमने सेल्फ डिपेंड होने का जो डिसीजन लिया वह बिल्कुल ठीक है। हम लोग जैसी दुनिया में जी रहे हैं उसमें तो लड़कियों का सेल्फ डिपेंड होना बहुत ही जरूरी है। पैरेंट्स सभी के जल्दी से जल्दी लड़कियों की शादी कर देना चाहते हैं। मगर डॉवरी की आंधी में लड़की, पैरेंट्स दोनों की सारी इच्छाएं उड़ जाती हैं।

लड़कियों को आगे बढ़ाने, सेल्फ डिपेंड बनाने की जो मेंटेलिटी डेवलप हुई अपने कंट्री में, मेरा मानना है वह ओनली-डॉवरी के ही कारण हुई। जिस तरह से लड़कियों को जलाया जाता है, उनका गला घोंटा जाता है, हाथ-पैर तोड़ा जाता है, जहर दिया जाता है, इसके बाद तो लोगों के सामने यही एक सॉल्यूशन बचा है। क्यों कि डॉवरी की डिमांड इतनी ज़्यादा है कि उसे अरेंज करने में ही पैरेंट्स दिवालिया हो जाते हैं। किसी तरह एक बार अरेंज कर शादी कर भी दी, तो भी उसके बाद बराबर डिमांड बनी ही रहती है। पैरेंट्स,लड़की सभी की सारी खुशियां इसी में तबाह हो जाती हैं।’

‘तुम सही कह रही हो हनुवा, मेरे पैरेंट्स हम सभी भाई-बहनों की पढ़ाई-लिखाई कराते-कराते फिनांशियली इतना वीक हो गए हैं कि क्या बताऊं। हालत यह है कि कभी बिजली का बिल नहीं जमा होता, तो कभी हाउस, वॅाटर टैक्स। कहीं घूमना-फिरना तो जैसे हम लोग जानते ही नहीं। पहले जब डॉवरी वगैरह की प्रॉब्लम नहीं समझती थी तो यही सपने देखती थी कि पढ़ाई-वढ़ाई में समय बरबाद नहीं करूंगी। जल्दी से शादी करूंगी, तीन चार बच्चे पैदा करूंगी। उन्हें लेकर लाइफ को एंज्वाय करूंगी। तब ऐसे सपने मैं और ज़्यादा देखने लगी थी जब अपनी कॉलोनी ही की एक लड़की की खूब धूमधाम से शादी फिर उसके बच्चे आदमी को मायके आने पर देखती। वह परी सी दिखती थी। वह बड़ी रिच फैमिली में गई थी।

जब अपनी बड़ी सी कार से आती, तो उसे देखने के बाद मैं कई-कई दिनों तक वैसी ही लाइफ के सपने देखती। लेकिन जैसे-जैसे बड़ी हुई। अपने पैरेंट्स की फिनांशियल हैसियत और डॉवरी के अभिशाप को जाना, वैसे-वैसे सारे सपने मिट्टी में मिला दिए। भूला दिया ऐसे सपनों को। समझ गई कि अपनी लाइफ सिक्योर्ड करनी है, सेल्फ डिपेंड बनना है, तो पढ़ना है, कॅरियर बनाना है। हम सारे भाई-बहनों ने यही किया। पैरेंट्स इसी चिंता में घुले जा रहे हैं कि लड़कियों की शादी कहां से करूं। हम सारे भाई-बहन नौकरी कर रहे हैं। प्राइवेट ही सही, लेकिन बात वही है कि किसी की शादी के लिए लाखों रुपए दो-चार साल में तो इकट्ठा नहीं हो जाएंगे।

पैरेंट्स हम सब की कुल इंकम का फिफ़्टी परसेंट जमा कर रहें हैं। लेकिन मुझे लगता है कि अपनी फ़ैमिली के स्टैंडर्ड की शादी के लिए जितना चाहिए उतना इकट्ठा करते-करते तो दस-पंद्रह साल निकल जाएंगे। तब तक तो हम बहनें पैंतीस-चालीस की हो जाएंगे। इस उम्र में शादी और काहे की शादी। कुल मिला कर यह कि हम बहनों का शादी के बारे में सोचना ही मूर्खता है, तो कम से कम मैंने तोे सोचना बंद कर दिया। भाई जब से नौकरी में लगा है तब से उसकी शादी के लिए लोग आ रहे हैं। मगर वो मूर्ख मानता ही नहीं। कहता है कि ‘‘बड़ी बहनों के रहते मैं कैसे कर सकता हूं?’’

पहले पैरेंट्स नहीं तैयार हो रहे थे। हम बहनों ने उनको किसी तरह तैयार किया कि हम बहनों के चक्कर में भाई की ज़िदगी तबाह करना कहां की समझदारी है? तब वो तैयार हुए। मगर मेरा भाई इमोशनली बहुत वीक है। तैयार नहीं होता। कहता है कि ‘‘मान लो कोई ऐसी लड़की आ गई जो कहे कि तुम्हारे परिवार के साथ नहीं रह सकते। सबको बाहर करो। रोज झगड़ा करने लगे। तब तो और बड़ी प्रॉब्लम खड़ी हो जाएगी। कहां जाओगी तुम सब?’’ उस मूर्ख को हम बहनें समझाते हैं कि अगर ऐसा हुआ तो कोई बात नहीं। हम अब इतना कमाते हैं कि अलग किराए पर मकान लेकर रह लेंगे।

आगे पैसे इकट्ठा कर के कोई दूसरा मकान रहने भर का बनवा लेंगे। मगर जितना हम लोग उसको समझाते हैं, पलटकर उसका दुगुना वह हम सबको समझाने लगता है। अब तो ऐसे विहैव करता है जैसे घर का सबसे बड़ा वही है। इधर साल भर से पापा-अम्मा से रोज बहस, झगड़ा करता है कि मकान बेच कर बहनों की शादी कर दो। दुनिया में बहुत लोग किराए पर रहते हैं। हम लोग भी रह लेंगे। वो लोग नहीं माने तो उनकी इंसर्ट करने लगा। कि ‘‘आप लोगों को अपनी लड़कियों के फ्यूचर से ज़्यादा अपनी प्रॉपर्टी प्यारी है।’’ इस पर भी पैरेंट्स नहीं माने तो घर छोड़ कर भाग जाने की धमकी देने लगा।

आखिर रोज कहते-कहते मम्मी-पापा को मना ही लिया। अब मकान बेचने और हम बहनों की शादी ढूंढ़ने का काम एक साथ चल रहा है। हम बहनों की बात सुनी ही नहीं जा रही है।’ सांभवी की बातों को ध्यान से सुन रही हनुवा ने खुश होते हुए कहा ‘बहनों को तो खुश होना चाहिए, कि ऐसा भाई मिला है। नहीं तो आजकल कौन भाई बहनों के लिए इतना सोचता है। सब सेल्फ डिपेंड होते ही शादी-वादी कर अपनी दुनिया में खो जाते हैं। परिवार को पूछते ही नहीं।’

‘हां ये तो है। लेकिन ये भी तो सही नहीं कि हम बहनें ऐसे भाई, पैरेंट्स के लिए इतने सेल्फिस हो जाएं। मकान बेच कर जहां किसी तरह खींचतान कर हम तीनों की शादी हो जाएगी। वहीं परिवार के बाकी तीनों सदस्य तो परेशानी में आ जाएंगे ना। फिर जो माहौल चल रहा है उसे देखते हुए इस बात की क्या गारंटी कि शादी के बाद हम तीनों खुश ही रहेंगे।

और फिर भाई की सर्विस भी कोई सरकारी नहीं है। कोई सिक्योर्ड जॉब नहीं है। आज है, कल रहेगी इसकी कोई गारंटी नहीं। हमीं लोग कितनी जॉब छोड़ चुके हैं। जॉब शुरू करके साल-डेढ़ साल आगे बढ़ते हैं कि तभी अचानक ही नौकरी चली जाती है। हम विनिंग लाइन से सेकेंड भर में स्टार्टटिंग प्वाइंट पर पहुंच जाते हैं।

‘हां लेकिन फिर भी मुझे तुम्हारे भाई का सॉल्यूशन, उसका विज़़न ही सही लग रहा है। तीनों बहनों की शादी हो जाएगी। किराए पर रहते हुए भी उसकी शादी में अड़चन नहीं आएगी। और जो व्यक्ति इतना ब्रॉड माइंडेड होता है वो भविष्य बेहतर बनाने में भी सक्षम होता है। वह मकान वगैरह सब बना लेगा। ऐसे विज़नरी ब्रॉड माइंडेड, ब्रॉड हार्ट वाले लोग मिलते कहां हैं सांभवी? यहां अगर मैं ठीक होती ना तो तुमसे सिफारिश करती कि अपने भाई से मेरी शादी करा दो ’। इतना कह कर हनुवा खिलखिला कर हंस पड़ी।

सांभवी भी हंस दी। उसे हनुवा की बात से ज़्यादा आश्चर्य इस बात का था कि इतने दिनों में वह पहली बार हनुवा को ऐेसे खिलखिला कर हंसते देख रही थी। लेकिन यह सब बस कुछ ही सेकेंड का था। हनुवा की हंसी बादलों में क्षण भर को कौंधी बिजली की तरह गायब हो गई। फिर से पूरे चेहरे पर कसैलेपन की रेखाएं उभर्र आइं। सांभवी को उसकी हालत समझते देर नहीं लगी। मगर कहे क्या ? उसे कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। तभी हनुवा ही बोल पड़ी।

‘सांभवी, माफ करना हम जैसों को तो ऐसे सपने देखने का भी अधिकार नहीं है। हम ना किसी के हो सकते हैं, ना किसी को अपना सकते हैं। किसी के साथ अपने को मज़ाक में भी जोड़ना हमारे लिए पाप ही है।’

‘ओफ्फो हनुवा! तुम भी ना, कभी-कभी तुम्हारी बातों से लगता ही नहीं कि तुम इक्कीसवीं सदी की पढ़ी-लिखी पर्सन हो। कैसी-कैसी बातें दिमाग में भर रखी हैं। यार इतना टेक्निकल नहीं होना चाहिए।’

‘मैं टेक्निकल नहीं हूं। सांभवी देखो ना अभी तुम्हें सिर्फ़ एक सेंटेंस बोलने में कितनी मुश्किल हुई। तुम आसानी से यह भी नहीं बोल पाई कि मैं इक्कीसवीं सदी की एक पढ़ी-लिखी गर्ल हूं। बड़ी कोशिश करके तुमने एक रास्ता निकाला, मुझे पर्सन बोला। मेरा जेंडर तय नहीं कर पाई। सांभवी हम जैसों को तो नेचर ही ने इतना टेक्निकल बना दिया है कि हम और टेक्निकल होने की सोच ही नहीं सकते। हमारी टेक्निकल्टी इतनी ज़्यादा है कि हमारे यहां के कानूनविदों को पैंसठ साल लग गए फॉर्मों में हमारे लिए थर्ड जेंडर का तीसरा कॉलम बनाने में। अब तुम्हीं बताओ इस हालत में हम जैसे लोग सोच भी सकते है टेक्निकल होने की?’

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