Thug Life - 16 in Hindi Fiction Stories by Pritpal Kaur books and stories PDF | ठग लाइफ - 16

Featured Books
Categories
Share

ठग लाइफ - 16

ठग लाइफ

प्रितपाल कौर

अंतिम झटका

सविता उस रात सड़कों पर घूमती रही. गाडी में पेट्रोल फुल था. मन में अशांति असीम थी. हाथों में स्टीयरिंग था. हर मर्ज़ की दवा का इलाज. जिस सड़क पर जहाँ दिल करता मुड़ जाती.

भूख लगी तो एक सड़क के किनारे गाड़ी रोक कर चाय्नीस ठेले वाले से नूडल्स बनवा कर खा लिए. एक कोक की बोतले खरीद ली और उसे पीते-पीते दिल्ली की तरफ निकल गयी. सेंट्रल दिल्ली की सड़कों की ख़ाक छानी. जब थक गयी और दिल ने भी उदासी से घबरा कर हाथ जोड़े कि बस अब रात पर रहम करो तो धुला कुआं होती हुयी एन.एच. आठ की तरफ निकल आयी. सौ की रफ़्तार से गाडी दौडाते हुए सविता कुछ मिनटों के लिए भूल गए कि उसकी दुनिया में कोई गम नाम की चीज़ भी है.

जब बिल्डिंग के सामने गेट पर उसने गाडी रोकी उस वक़्त कंसोल की घड़ी बारह बज कर चलीस मिनट दिखा रही थी. ऊंघते हुए गार्ड ने सलाम ठोकते हुए गेट खोला. अंदर आयी. गाड़ी पार्क की और बैग उठा कर लिफ्ट की तरफ चल दी.

मेन फ़ोयर वाला गार्ड भागा-भागा आया. लग रहा था वह अपनी ड्यूटी मुस्तैदी से बजा रहा था. उसके यहाँ सुस्ती कत्तई नज़र नहीं आ रही थी.

"मैडम, बड़ी वाली लिफ्ट कुछ गड़बड़ है. आप छोटी वाली ही लेना."

गार्ड नया था मगर चुस्त लगा. जानता है सब कुछ और स्मार्ट भी है. सविता ने तारीफ भरी नज़रों से उसे देखा और कहा, "अच्छा"

वैसे उसके कहने की ज़रुरत ही नहीं थी. बड़ी लिफ्ट का पैनल अचानक ब्लेंक हो गया था. छोटी लिफ्ट का दरवाजा खुला और सविता उसमें दाखिल हो गयी.

अन्दर आ कर उसने कोई बटन दबाया भी नहीं था कि दरवाज़ा बंद हुया और लिफ्ट तेज़ी से ऊपर की तरफ चल पडी. उसे कुछ अजीब तो लगा लेकिन उसने नौवीं मंजिल का बटन दबा दिया. लेकिन वह नहीं दबा. सारे बटन उसी तरह ब्लेंक ही बने रहे. काले-काले खांचे उसे घूरते हुए.

घबरा कर सविता ने एक-एक कर कई बटन दबाये कि शायद उसकी मंजिल का बटन खराब हो लेकिन कुछ नहीं हुया. लिफ्ट तेज़ी से ऊपर जा रही थी.

सविता बुरी तरह घबरा गयी. कुछ देर पहले का चैन फाख्ता हो गया. उसके दिन अच्छे नहीं चल रहे और अब ये नयन संकट!

सविता ने लिफ्ट का साईरन बजाना चाहा. वो नहीं बजा. उसने उस पर हाथ दबाये रखा वो नहीं बजा.

तब तक लिफ्ट आखिरी मंजिल पर पहुँच कर एक बड़े से झटके के साथ रुक गयी थी. यूँ लगा कि जैसे लिफ्ट की छत किसी चीज़ से टकराई हो. सविता ने किनारे लगी रॉड पकड़ रखी थी, वर्ना गिर गयी होती. अब तक उसे समझ आ गया था कि वह खराब लिफ्ट में फँस चुकी है. अलबत्ता लिफ्ट के रुकने पर उसे कुछ राहत महसूस हुयी.

उसे लगा कि अब लिफ्ट खुल जायेगी. वह जल्दी से कांपती हुयी टांगों से लिफ्ट के दरवाज़े तक चली आयी. फिर ख्याल आया कि उसे रेचल को फ़ोन करना चाहिए. इस वक़्त ये ख्याल उसके मन से निकल चुका था कि रात का एक बजने वाला हैं. इस वक़्त उसे सिर्फ अपनी जान की चिंता थी.

अब तक पूरी तरह समझ आ गया था कि प्राण संकट में है.

फ़ोन निकलने के लिए बैग को खोलना चाहा तो याद आया फ़ोन तो गाडी में चार्ज पर लगाया था लेकिन लेना भूल गयी. ऐसा उसके साथ अक्सर होता है. अगले दिन सुबह गार्ड को गाड़ी की चाभी दे कर फ़ोन मंगवा लेती है.

यह सब कुछ ही सेकंड में हो गया. परेशान हाल बेहद डरी हुयी सविता अपना सर पीट लेना चाहती थी कि अचानक एक तेज़ झटके के साथ लिफ्ट नीचे की तरफ चल पड़ी. दरवाज़ा नहीं खुला था और लिफ्ट के साथ लिफ्ट में क़ैद सविता लगातार बहुत तेज़ी से नीचे गिर रही थी.

लिफ्ट फ्री फॉल में थी.

कुछ ही सेकंड के बाद एक बहुत तेज़ आवाज़ दूर-दूर तक गूँज गयी. स्टील के कंक्रीट से टकराने की और शीशे के बम जैसे तेज़ धमाके के साथ टूटने की. और एक तीखी चीख की.

रात ठिठक कर तारों को आसमान में ही छोड़ कर सिसकने के लिए नीचे उतर आयी.

गेट पर के गार्ड, फोइर वाला गार्ड, बिल्डिंग में जहाँ तहां तैनात गार्ड फ़ौरन आवाज़ की तरफ लपके. रात के वक़्त और कोई भी बाहर नहीं था. सभी शोर मचा रहे थे. एक दूसरे से पूछ रहे थी कि क्या हुआ.

इस शोर के बीच फोयर के गार्ड ने चीखती हुयी आवाज़ में कहा,"लिफ्ट गिर गयी है."

सब उस तरफ लपके.जो गार्ड दूर थे उन्हें आवाज़ दे कर चिल्ला चिल्ला कर दूसरे गार्ड इधर बुला रहे थे. फ़ोयर वाला वो गार्ड जो सविता के जाने और आने के वक़्त तैनात था, इस वक़्त गेट से बाहर निकल रहा था.

चारों तरफ फैली अफरा तफरी में किसी ने उसे जाते हुए नहीं देखा. उसने बाहर निकल कर एक शख्स के हाथ से कुछ लिया और वे दोनों अलग-अलग दिशाओं में अँधेरे में गुम हो गए. ये भी किसी ने नहीं देखा.

सब लोग लिफ्ट के बंद दरवाजे की तरफ आँखें फाड़े देख रहे थे. हल्की सी खुली झिर्री में से खून की मोटी सी धार बह कर बाहर आ रही थी. कोई आवाज़ नहीं थी. एक गार्ड ने हिम्मत कर के दरवाजे के पास मुंह लगा कर पूछा, "सर. आप ठीक हो?"

अन्दर से कोई आवाज़ नहीं आयी. सब दम साधे किसी आवाज़ का इंतज़ार कर रहे थे.

फ़ोयर वाला एक गार्ड लिफ्ट की चाबी ले कर आ चुका था. हडबडाते हुए दो तीन लोगों ने मिल कर दरवाज़ा खोला तो खोलने वालों की भी चीख निकल गयी.

लिफ्ट का फर्श खून से तर था. सविता की गर्दन बेहद खतरनाक ढंग से मुडी हुयी लिफ्ट की दीवार से टिकी हुयी थी. उसका चेहरा और छाती भी खून में डूबे हुए थे. उसका एक हाथ लिफ्ट की रॉड में अटका हुया था. और देखने से साफ़ ज़ाहिर था कि उसकी बांह कंधे से अलग हो चुकी थी. जीवन का कोई लक्षण वहां नज़र नहीं आ रहा था.

घबराए हुए गार्ड में से कोई बोला, "सेक्रेटरी साब को बुलाओ."

एक दुसरे ने कहा,"पुलिस को बुलाओ. एम्बुलेंस को फ़ोन करो."

कोई फ़ोन की तरफ भागा तो कोई तेज़ी से सीडियां चढ़ने लगा सोसाइटी के सेक्रेटरी और आर.डब्लू.ए. के दूसरे पदाधिकारिओं को बुलाने के लिए. कुछ वहीं खड़े रहे.

किसी ने आगे बढ़ने की कोशिश की तो उनमें से एक समझदार ने कहा,"जे तो भोत बड़ा एक्सीडेंट का मामला है. पुलिस दस सवाल करेगी. दूर रहो. मैडम तो मुझे लगे है बची न हैं. फिर भी देख लो कोई जना. "

उनमें से एक जो फ़ौज में रह चुका था आगे बढ़ा और खून से पैर बचा कर किसी तरह सविता के पास तक पहुंचा और उसकी नाक के आगे हाथ रख कर समझने की कोशिश की और फिर सर हिलाता हुया पीछे हट गया.

सब चुपचाप खड़े थे. ग़मगीन. सोच में डूबे हुए.

एक बोला, "बड़ी अच्छी मैडम थी. इतनी रात को कहाँ से आवे थी भला? ये लिफ्ट तो कभी खराब न हुयी ऐसी."

हैरत तो सभी को थी. लिफ्ट का इस कदर खराब होना कि वह गिर जाए और इस कदर तेज़ी से गिरे कि उसमें मौजूद इंसान की मौत ही हो जाये, ये कोई साधारण बात नहीं थी.

कुछ ही मिनट में बिल्डिंग के ज़िम्मेदार लोग वहां पहुँच गए. फिर पुलिस और एम्बुलेंस भी आ गयी.

***

प्रश्नों का अम्बार

सविता को जब हस्पताल ले जाया गया तो उसके साथ बिल्डिंग से अभिषेक शर्मा और जसविंदर सिंह गए. वहां उसे मृत घोषित कर दिया गया. लाश को पोस्ट- मोर्तेम के लिए रख लिया गया. कागजी कार्यवाही पूरी कर के जब तक ये लोग पुलिस के साथ ही वापिस लौटे सुबह हो चुकी थी.

पुलिस ने सविता के घर और कार की तलाशी ली. फ़ोन में उसके पिता का नंबर देख कर उन्हें सूचना दी गयी.

सुबह जब सपना ने घर में दाखिल होते ही रेचल को इस घटना की जानकारी दी तो रेचल को तो सांप सूंघ गया. एक ही पल में वो समझ गयी कि ये दुर्घटना नहीं थी. लेकिन किससे कहती और क्या कहती?

चुपचाप अपने कमरे में आ कर इस खबर को समझने और आत्मसात करके इस झटके से उबरने की कोशिश में लग गयी. शायद सपना ने खबर हेलेन को भी सुना दी थी. वे तेज़ी से रेचल के कमरे में दाखिल हुयी और रेचल को गले से लगा लिया. रेचल की रुलाई छूट पडी.

काफी देर जब रेचल रो ली तो उसका जी हल्का हुया. माँ बेटी चुपचाप इस खबर को झेल रही थी. बोलने के लिए किसी के पास कुछ नहीं था.

आखिर हेलेन ने कहा," मैं आज छुट्टी ले लेती हूँ."

" नहीं माँ. आप जाओ. मैं भी ऑफिस जाऊंगी. कल ही तो ज्वाइन किया है. ऐसे कैसे छुट्टी ले लूं.?"

दरअसल रेचल नहीं चाहती थी कि वह सविता की मृत देह को देखे. कहीं उसे खुद पर भी गुस्सा आ रहा था कि उसने डांट कर या किसी और तरीके से सविता को गलतियाँ करें से क्यों नहीं रोका?

एक बात उसके मन में बार बार आ रही थी कि शायद वो इस हादसे को होने से रोक सकती थी. लेकिन अब तो ये हादसा हो चुका था. और किसी भी हालत में वो इस हादसे को पलट नहीं सकती थी. कोई भी नहीं कर सकता था ये काम.

तो अब रेचल ने दिल कडा कर के ये फासिला किया कि उसका अब सविता से कोई नाता नहीं होगा. चूँकि सविता अब जिंदा भी नहीं है तो अब क्या नाता हो सकता है?

हेलेन ने एक नज़र भर के उसे देखा और उसका कन्धा थपथपा कर अपने कमरे में चली गयीं तैयार होने. रेचल ने बाथरूम में जा कर मुंह धोया और सविता के बारे में न सोचने की कोशिश में लग गयी. लेकिन हर एक पल के साथ ही उसे सविता की हर एक बाद याद आने लगी.

हर वो डिनर और लंच याद आने लगा जो उन दोनों ने साथ लिया था. हर वो कार राइड याद आयी जो सविता को वो अपनी कार में ले कर गयी थी.

नाश्ता करते वक़्त सविता उसके साथ थी. अभी परसों ही तो यहीं सामने बैठी फ्रेंच टोस्ट खा रही थी. ऑफिस में पूरा दिन सविता उसके साथ थी. गनीमत थी कि नयी जगह होने की वजह से उसकी ऐसी कोई दोस्ती नहीं थी जो उसके उखड़े मन की थाह पा सके. दो एक बार सविता की याद आने पर उसे रोना आया तो वह वाशरूम तक गयी और खुद को संभाल लिया.

एक नार जसमीत का ख्याल भी आया कि बेटी तो मिली ही नहीं माँ से. या हो सकता है कल मिली हो या बात हुयी हो. कहीं यही तो बताने के लिए सविता ने फ़ोन नहीं किया था?

अफ़सोस हुआ कि उसने पलट कर फ़ोन क्यों नहीं किया सविता को? लगा कि वो फ़ोन कर लेती तो शायद सविता उसके साथ होती और बच जाती. लेकिन अगले ही पल ये ख्याल आया कि अगर फ़ोन कर लेती और वो भी सविता के साथ होती लिफ्ट में तो? और सिहर उठी.

इसके बाद सोचना बंद करने की कोशिश में फिर-फिर सविता को यदा करती रही.

शाम को घर पहुँची तो थकी होने के बावजूद माँ हेलेन के कहने पर दोनों फिल्म देखने और उसके बाद डिनर बाहर ही कर के रात को देर से लौटे. हादसे वाली लिफ्ट पर पुलिस की सील लगी हुयी थी. दूसरी लिफ्ट से ही सब आ जा रहे थे. माहौल में ग़मगीन सन्नाटा था. बिल्डिंग के लोग सहमे हुए से फुसफुसा कर बात कर रहे थे. सभी की आँखों में डर और अविश्वास सा था.

महानगर खासियत है कि लोग दूसरों की ज़िन्दगी के बारे में ज्यादा नहीं जानते इसी के चलते शायद कोई भी सविता और रेचल की दोस्ती के बारे में ज्यादा नहीं जानता था. रेचल ने चैन की सांस ली. कम से कम उसे किसी और से तो इस बारे में बात नहीं करनी है.

उधर सविता के फ्लैट में उसके पिता आ चुके थे. पुलिस को सविता का पर्स तो लिफ्ट में ही मिल गया था. उसकी दूसरी निजी चीज़ें, ये पर्स और गाडी से बरामद हुआ फ़ोन उसके पिता के ने पुलिस स्टेशन से जाकर अपनी सुपुर्दगी में ले लिया था.

सविता की मृत देह पोस्ट-मोर्तेम के बाद मोर्चुरी में रख दी गई थी. उसके पिता ने अगले दिन उसे वहां से ले जाकर अंतिम संस्कार की बात कही थी. लेकिन बिल्डिंग के ज़िम्मेदार लोगों ने मिल बैठ कर सलाह की और तय पाया कि लाश को फ्लैट पर लाया जाएगा और वहां से नहला कर अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जाएगा. इस सबकी तैयारी के लिए उसके पिता ने सहमति भी दे दी थी और पैसे भी.

जसविंदर सिंह ये सारा इंतजाम देख रहे थे. पुलिस स्टेशन से थके हारे लौटे सविता के पिता द्रविंग रूम के सोफे पर बैठे थे. सविता का समान प्लास्टिक की थैली में सामने मेज़ पर रखा था. एक मोटी सी सोने की चैन. कुछ हीरे की अंगूठियाँ, दो कड़े और एक घड़ी चमक रहे थे.

तभी थैली के पास रखा फ़ोन बज उठा. कोई अनजान नंबर था. मौजूद सभी लोग एक दुसरे का मुंह देखने लगे. जसविंदर सिंह ने फ़ोन उठा कर कॉल ली और सविता के पिता को फ़ोन दे दिया.

कुछ मिनट की झिझक के बाद वे बोले,"हेल्लो कौन है?"

अमरीकी लहजे में एक औरत की आवाज़ थी, "हाय. कैन आय स्पीक टू सविता? आय ऍम हर डॉटर जसमीत?"

फ़ोन उनके हाथ से गिरते गिरते बचा.

"हेल्लो, बेटा." इसके आगे वे कुछ नहीं बोल पाए.

"हेल्लो. हु इस दिस?"

वे कुछ नहीं बोल पाए. उन्होंने फ़ोन जसविंदर सिंह को दे दिया.

"जसविंदर सिंह ने कहा, " कौन बोल रहे हो जी?"

उधर से टूटी फूटी पंजाबी में आवाज़ आयी,"मैं उनकी बेटी. सविता नु गल करवा दो प्लीज. "

"सॉरी जी. शी इज नॉट एनीमोर?'

"व्हाट डू यू मीन? शी गेव मी दिस नम्बर टू कॉल."

"यस. शी हड एक्सीडेंट. शी डायड यस्टरडे."

उधर चुप्पी छा गयी. "डी ड यू से डायड ?'

"यस जी. उनका इंतकाल हो गया."

उधर चुप्पी छाई रही.

फिर एक क्षीण सी आवाज़ आयी, "हु इज़ दिस?"

"आय ऍम हर नेबर . योर नाना जी इज़ हियर. वांट टू टॉक?"

"नो. आय डोंट नो हिम. थैंक यू."

और फ़ोन काट दिया गया.

जसविंदर ने फ़ोन वापिस मेज़ पर रख दिया. सविता के पिता इस दूसरे सदमे में दबे चुपचाप सोफे की पीठ से सर टिकाये बैठे थे.

जसविंदर ने कहा,"सविता जी के बेटी थी. जी. मैं उसका नंबर सेव कर देता हूँ. आप बाद में फ़ोन कर लेना."

उन्होंने सहमती में सर हिला दिया और ऑंखें बंद कर लीं.

एक और बेटी अपनी माँ से हमेशा के लिए मरहूम हो गयी थी. इस बार तो किसी का भी दोष नहीं था. ऐसा सविता के पिता सोच रहे थे.

लेकिन कुछ ही दूर तीन मंजिल ऊपर अपने घर में बिस्टर पर नींद के इंतज़ार में लेटी रेचल सोच रही थी कि सविता ने कितनी बड़े गलती की. और जो सज़ा उसने पाई, वो क्या उतनी बड़ी थी?

क्या सारी गलती सविता की ही थी?

कुछ लोग सोच रहे थे कि कहीं वैसी दुर्घटना फिर तो नहीं हो जायेगी?

सिर्फ सवाल ही सवाल थे उस रात पूरी बिल्डिंग में, घरों में, कॉरिडोर में, लिफ्ट्स में; उमड़ते घुमड़ते हुए.

प्रितपाल कौर