Nek karmon ki fihrisht in Hindi Short Stories by Bhupendra kumar Dave books and stories PDF | नेक कर्मों की फिहरिश्त (A tribute to mother’s love)

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नेक कर्मों की फिहरिश्त (A tribute to mother’s love)

नेक कर्मों की फिहरिश्त

(A tribute to mother’s love)

..... भूपेन्द्र कुमार दवे

जिन्दगी पहले अपना अर्थ बताती है और फिर अपना मकसद जताने का प्रयास करती है। हम जैसे जैसे जिन्दगी का अर्थ समझने लगते हैं तो वह अच्छी लगने लगती है। हर पल मस्ती भरा होने लगता है। चहुँओर से प्यार की बारिश में उठती महक का सोंधापन उल्लास और उमंग भरने लगता है। हर दिन चौबीसों घंटे खिलखिलाहट मन को गुदगुदाने लगती है। नादान मन खुश हो झूमने लगता है। जिन्दगी अपनी पट्टी पर सुनहरे अक्षरों से लिख जाती है एक छोटा-सा अक्षर --- बचपन --- मासूमियत से भरा हुआ --- मस्ती में छलकता हुआ --- जिन्दगी की नवअंकुरित टहनियों पर चहकता हुआ --- खिले फूलों की महक में मदमस्त फुदकता हुआ।

डालियाँ हिलती हैं --- फूल झरने लगते हैं --- हरे-भरे पत्ते पीले पड़ने लगते हैं --- जिन्दगी की सूखी डाली पर बैठा नहीं जाता --- शुष्क डाली हरवक्त चरमराये जाने का संकेत देने लगती है। जिन्दगी इक नवजात परिंदे की तरह उस पर बैठी दिखती है --- वह परिंदा जो अभी ठीक से पंख फैलाना भी नहीं सीख पाया था, बेचारा उड़ान कैसे भरता? उसकी धीमी चीं चीं की आवाज शून्य के बिंदु में सिमट कर रह जाती है। वह आकाश की ओर निहारता है। उसे शून्य की विशालता का आभास होता है और उसकी आँखों में उभर आता है सूनेपन का भयावह स्वरूप। जिन्दगी के इस अर्थ की कल्पना तक मैंने नहीं की थी।

जिन्दगी का साया बचपन की देहरी नाप भी न पाया था कि बचपना यकायक दफन कर दिया गया था। पिताजी गुजर गये थे और उनका स्थान माँ के आँचल ने विस्तृत होकर ले लिया था। पर इसके हटते ही जिन्दगी के पर टूट-टूटकर बिखरने लगे। गर्म हवा के थपेड़े सहता बालमन बिचारा क्या करता! माँ के बाद माँ की यादें ही सहारा बनकर उभर आती हैं। ये यादें वो इबारत हैं जिन्हें माँ खुद बच्चे के लिये लिख जाती है। इसमें वो सब बातें लिखी होती हैं जो माँ ने बच्चे में देखी होती हैं --- बच्चे की आदतें --- उसकी आवश्यकताऐं --- उसकी इच्छायें --- उसकी भावनायें और वो संस्कार की बातें जो माँ अपने बच्चे को सिखाना चाहती रही है ताकि इन्हें पढ़कर ईश्वर स्वयं माँ बनकर अवतरित हो सके।

माँ की याद करते ही मेरे कानों में वो सारी पुरानी बातें गूँजने लगती हैं जो स्वच्छ झरने की जलधारा-सी फुहारें पैदा करती थी। मेरा स्कूल से आना माँ में यकायक फूर्ती भर जाता था --- वह अपने को एकदम तरोताजा महसूस करने लगती थी। वह मेरे हाथ-पैर धुलाकर खाना परोसकर पास बैठ जाती थी। एक कौर मेरे मुँह में रखकर कहती, ‘बेटा, पढ़-लिखकर खूब तरक्की करना।’ दूसरा कौर देकर कहती, ‘बेटा, जिन्दगी में दूसरों की सेवा, खुश होकर करते रहना।’ तीसरे कौर के साथ सलाह देती, ‘बेटा, हर रोज कम से कम एक नेक काम करना। इनकी फिहरिस्त बनाकर रखना। जिस दिन मौका न मिले तो अगले दिन उसकी भरपाई करना।’ चौथा कौर खिलाकर कहती, ‘ये नेक काम उस पूँजी की तरह हैं जो कभी खत्म नहीं होती। इनसे तू कभी जिन्दगी में निराश नहीं होगा।’

माँ से ये अच्छी बातें सुनने की चाह में मैं जरुरत से ज्यादा ही खा लेता था। खाना खिलाकर माँ मेरा मुँह धोती और कहती, ‘अब कुठिया भर गई। जा, बाहर जाकर खेल।’

एक दिन मैं बाहर खेलने दौड़ पड़ा और लौटकर देखा कि माँ अपना खेल पूरा कर चुकी थी। माँ के गुजर जाने के बाद जिस छोटी-सी कोठरी या आऊटहॉऊस कहिये मुझे खाली करना पड़ा। लोगों से सहानुभूति कुछ दिन ही मिल पाती है, उन बादलों की तरह होती है जो छुट-पुट बारिश कर फसल को अपने भाग्य पर छोड़ जाते हैं। फसलें मनुष्य तो नहीं होती जो अपना भाग्य खुद बना सकें। अभी अभी अंकुरित बालक भी असहाय होता है। मैं सड़क पर आ गया। कपड़े और छुट-पुट सामान एक गठरी में बाँध अपने अलग-अलग मित्रों के घर में रख दिये। कुछ दिन सड़क के किनारे रात बिताई। कुछ रातें बाग की बेंच में लेटकर गुजारी। एक मित्र मिला और उसके यहाँ नहाने-धोने का इंतजाम कुछ दिन ही कर पाया। वहाँ कुछ खाना भी मिल जाया करता था। पर यह सिलसिला ज्यादा दिन न टिक सका। मित्र के घरवालों को यह पसंद नहीं आया। अनाथ बच्चे का घर पर बिनबुलाये मेहमान बन रोज-रोज आना किसे सुहाता है। फलतः वहाँ इज्जत मिलना बंद हो गई।

मैं पुनः सड़क पर आ गया। फुटपाथ पर सोना याने कूड़े-करकट में लेटना। भीख की जगह दुतकारें मिलना आत्मा को कुरेदता रहा। पर गरीबों में आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं होता। गरीब भूखा रहता है तो व्यथित शरीर होता है। आँखें रोना विस्मृत कर जाती है, साँसें नाकारने लगती हैं, हाथ-पैर सुन्न पड़ जाते हैं, पुकार निःशब्द हो जाती है और तब आत्मा के न होने का दर्द न तो भुलाया जाता और न ही प्रार्थना में व्यक्त किया जा सकता है। मन काठ के टुकड़े की तरह निर्जीव हो जाता है।

माँ के बचाये हुए कुछ पैसे थे। उन्हें मैं बचाये रखना चाहता था। माँ ने कहा था खूब पढ़-लिख लेना। सुना था कि फरिश्ते शिक्षकों के दिल में बसते हैं। मैंने अपने पढ़ने की चाह उनके सामने रखी। मैं पढ़ाई में तेज था। सहानुभूति तो खूब मिली पर मदद की उम्मीद ना के बराबर रही। जिन्दगी अब उबकाई से भरने लगी। चार दिन कुछ भी खाने नहीं मिला। पानी पीकर भूख शांत नहीं की जा सकती। हर पल नकारात्मकता भरने लगे। मन खिन्न रहने लगा। डिप्ररेशन एक खतरनाक मानसिक बीमारी होती है --- इसे सोच का केंसर कहा जाता है --- जीने की इच्छा शनैः शनैः मरती जाती है। मैंने सोचा डूबकर मर जाऊँ। मैंने तालाब तरफ रुख किया। एक पैर पानी में डालते ही ठंड़ लगी और हिम्मत ने जवाब दे दिया। फिर सोचा कि रेल पटरी पर लेट जाऊँ। पर फिर हिम्मत न कर सका। दिमाग ने कहा, ‘ए मूर्ख, यदि प्राण न निकले तो अपंग जिन्दगी कैसे जियोगे?’

मैं स्टेशन लौट आया और प्लेटफार्म में घूमने लगा। भूक अब असह्य हो गई थी। मैंने देखा कि कुली सामान उठाते हैं तो थोड़े बहुत पैसे मिल जाते हैं। मैंने कोशिश की लेकिन मेरी उम्र का लिहाजकर और रुग्ण-सा शरीर देख किसी ने भी सामान छूने नहीं दिया। ऐसे समय दया भी व्यापार करने लगती है। मैं रुआँसा हो उठा। एक रहमदिल ने मुझे बैग उठाने दिया और मुझे इतने पैसे मिल सके कि चार बिस्किट का छोटा पैकेट और एक मग चाय ले सका। कुछ चेहरा खिल उठा तो एक मुसाफिर ने सामान रेलगाड़ी पर चढ़ाने दे दिया। उस दिन मुझे वड़ा खाने मिल गया।

एक दिन एक बूढ़ा कुली दिखा जो सिर पर और बगल में दोनों ओर बड़े-बड़े सूटकेस लिये बमुशकिल लड़खड़ाते पैर रख चल रहा था। मैंने आगे बढ़ एक सूटकेस ले लिया। गाड़ी पर सामान चढ़ाकर मैं चुपचाप जाने लगा तो उस कुली ने आवाज लगाई, ‘बेटा, तुमने मेरी मदद की है तो कुछ पैसे तुम्हारे हिस्से आना चाहिये।’

मैं चुप रह उसके चेहरे को देखने लगा। वह मेरे सामने उखडूँ बैठ गया। उसकी आँखों में आँसू लरज रहे थे। वह रो रहा था। ‘बेटा, दिखता है तू अनाथ है। अनाथ नादान भी होते हैं। तुम जिस स्थिति में हो उसी स्थिति में मैं कभी रहा था।’ वह मेरा हाथ पकड़ किनारे ले गया और बोला, ‘तुझे भूख लग रही है, है ना ऽऽ।’ यह सुन मैं अचानक रो पड़ा। मासूम बड़े जल्दी रो पड़ते हैं।

बूढ़े कुली ने अपनी पोटली खोली और एक सूखी रोटी मेरी ओर बढ़ा दी। मैं रोटी हाथ में रख सिसक पड़ा --- रोटी खाने की हिम्मत न कर सका।

‘बेटा, हाथ में जब रोटी हो तो आँखों में आँसू लाना शुभ नहीं माना जाता’, कुली ने मेरे आँसू अपने गमछे से पोंछते हुए कहा।

‘ बापू, मैं कैसे कहूँ कि ये आँसू खुशी के हैं --- कितने दिनों के बाद मुझे रोटी को छूने का भाग्य मिला है ’, और मैं जी भरकर रो पड़ा।

मुझे कुली के गमछे का स्पर्श माँ के आँचल का सा लगा --- उतना ही कोमल --- उतना ही प्यार भरा --- उतना ही अपनत्व को लिया हुआ। कुली के इस अपनत्व ने जैसे मेरे जीवन को पुनः खुशी से सँवार दिया था। उसे स्टेशन में देखकर मैं दौड़ता और उससे लिपट जाया करता था। लेकिन गरीबों को ईश्वर का सानिध्य क्षणिक ही मिल पाता है। कुली चल बसा और मैं फिर एक बार दुख के अपार सागर में ढकेल दिया गया। अब की बार पीड़ा की लहरें कुछ ज्यादा ही थपेड़े देनेवाली लगी। मैं हर रोज सुबह एक बार स्टेशन अवश्य जाता, उस वृद्ध को अपनी नम आँखें से नमन करने।

एक दिन स्टेशन में मुझे टोहे मास्टर दिखे। मैं दौड़ पड़ा उनके पैर छूने। वे आश्चर्य से मुझे देखने लगे, शायद तुरंत पहचान न पाये। ‘मैं बंटी हूँ,’ मैंने पुरानी यादों को अपने आँसुओं में भरकर कहा।

टोहे मास्टर स्कूल में मुझे पढ़ाते थे और मुझे खूब चाहते थे। आज भी मैंने उनकी आँखों से प्यार की वही किरणों को देखा।

सच, जिस हृदय में प्यार होता है, वहाँ दया भी लबालब भरी रहती है। मेरी रामकहानी शायद उतनी ही दुख भरी थी, जितनी तुलसीदास को वनवासी राम को स्मरण कर रुला गई थी। टोहे मास्टर मुझसे लिपट गये और उनके गर्म आँसू मेरे आसुओं को गोद में ले पुचकारने लगे।

टोहे मास्टर मुझे अपने घर ले गये और मेरे लिये वहीं परछी में रहने-सोने की जगह बना दी। उन्होंने मेरा स्कूल में दाखिला भी करा दिया। मुझे अपनी जिन्दगी पटरी पर लौटती नजर आने लगी।

मैंने वहीं रहकर स्कूल की पढ़ाई पूरी की। उसी दिन टोहे मास्टर मेरे लिये एक डायरी ले आये। उन्होंने यह भेंट देते समय कुछ नहीं कहा।

पर एक छोटी-सी चिरैया बनकर माँ की याद मेरे करीब आकर फुदकने लगी, ‘बेटा,’ वह कह रही थी, ‘तुम्हें नेक काम की फिहरिश्त बनाने यह डायरी मिल गई है। याद है ना।’

‘हाँ माँ,’ यह आवाज मेरे अंतः से निकल पड़ी, इसलिये वह एकदम स्फटिक की तरह रोशन होती हुई मुझे जाग्रत कर गई।

‘माँ, तुम मुझे दिखती क्यों नहीं?’ यह मूक प्रश्न मेरी आँखों के सामने उभर आया। मैंने देखा कि एक वृद्धा लाठी टेकती सड़क पार जाने का प्रयास कर रही थी। दोनों ओर तेज रफ्तार में वाहन चल रहे थे। मैं उस वृद्धा की ओर झपटकर पहुँच गया और उसका छुर्रियों भरा हाथ थाम लिया। उसने मेरी ओर जी भरकर देखना चाहा। उनकी आँखों में आँसू दमक रहे थे।

‘बेटा, आज तूने एक नेक काम कर लिया है,’ वह बोली। मैंने ‘माँ’ कहना चाहा, पर यकायक घिग्गी बंद हो गई। प्यार जब अचानक उमड़ता है तो वह दरवाजे बंदकर उसके पीछे जी भर रोने को उतावला हो जाता है।

माँ को याद करते हुए मैंने उस दिन इस घटना को अपनी डायरी में लिख लिया। उस दिन से मैं डायरी हर रोज लिखने लगा। मैंने देखा कि इस संसार में नेक कर्म करने का उपहार हर रोज मिलता है। ईश्वर ही ऐसा माहौल पैदा करता है और देखना चाहता है कि कितने इस नेक काम को करके खुशियाँ बटोरने उत्साहित होते हैं। सच, एक तरह से मेरी माँ ने मुझे ईश्वर को खोज निकालने का अद्भुत तरीका सिखा दिया था।

एक घटना जिसका मैंने डायरी में उल्लेख किया था, वह एक नन्हीं बच्ची का था। बच्ची अपनी माँ की छिंगरी पकड़ सड़क पर जा रही थी। सामने गुब्बारे लिये एक बच्चा खड़ा था। इतने सारे गुब्बारे एक साथ देख वह बच्ची अपनी जगह खड़ी हो कूदने लगी। तभी हवा का एक झोंका आया। गुब्बारे बाँस में बँधे फड़फड़ाने लगे। एक गुब्बारा छूटकर सड़क की तरफ उड़ चला। बच्ची माँ से हाथ छुड़ा गुब्बारे के पीछे दौड़ पड़ी। उसका ध्यान गुब्बारे की तरफ था, सड़क पर चलती तेज गाड़ियों की तरफ नहीं। मैं अद्भुत फूर्ती से दौड़ पड़ा और बच्ची को उठाने में सफल हो गया। गुब्बारा गाड़ी के चके के नीचे आकर फूट गया। बच्ची रो पड़ी। उस दिन मुझे स्टेशन में सामान उठाने के पाँच रुपये मिले थे। उन रुपयों से मैंने एक फुग्गा लिया और बच्ची को उसकी माँ के पास ले गया।

‘बेटा, तुम सच में आज भगवान बनकर आ गये,’ उसने पर्स से निकालकर एक बड़ा-सा नोट मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा।

मेरी आँखों में आँसू छलक आये। ‘माँ, तुमने मुझे एक साथ भगवान और अपना बैटा बना दिया है। मेरे लिये यह उपहार बेशकीमती है। बक्शीश देकर मुझसे इसे मत छीनो।’

‘बैटा, तुम्हारी फटी कमीच देखकर मुझे लगा कि तुम बहुत गरीब हो। मैं तुम्हारे विशाल हृदय को देख न पाई। मुझे माफ करना।’

मुझे अपने पर हँसी आयी। सोचने लगा कि क्या हृदय विशाल होकर कमीच चीर डालता है।

खैर, अब तो दूसरों की मदद करना की एक आदत सी बन गई थी। ये एक नशा था जो शिवजी के कंठ में भरे हलाहल का सा आर्कषक लगने लगा था। मदद करने के बदले सामनेवाले से आभार के दो शब्द मिलना और उसके चेहरे पर आनंद की रेख खिंचती देखना मुझमें ऊर्जा का संचार कर जाता था। मैं अपनी गरीबी भूल जाता और गरीबी से मिली पीड़ा को भी विस्मृत कर जाता था। दिव्यागों की मदद से खुशी का आदान-प्रदान होना तो और भी मनमोहक होता है। उससे जो मानसिक आत्मसंतोष मिलता है, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। असहाय व अपाहिजों की मदद करने से जो सुकून मिलता था, उससे जुनून सा मन-मस्तिष्क पर सवार हो जाता था और मेरी डायरी इन सुखद वर्णन से भरने लगी थी। नेक इरादा से नेकी करने को अपने-आप प्रोत्साहन मिलता है। मदद करने की चाह प्रेम से उत्पन्न होती है और इसके मूल-चरित्र में मन की शांति, विनम्रता व करुणा का निवास होता है।

यह सब कुछ अपने-आप होता है। इसे हम ईशकृपा कह सकते हैं। पर वास्तव में सृष्टि की शक्तियों की मदद नेक काम करते समय खुद-ब-खुद अंतः में जाग्रत हो जाती हैं।

टोहे मास्टर ने एक दिन मेरी डायरी पढ़ी। पढ़ते-पढ़ते उनकी आँखें नम हो उठीं। इन लरजते अश्कों से खुशी झाँक रही थी। उन्होंने कहा, ‘बेटा, ये सीधी-सा सरल सोच हमारे मुल्क को विश्व के ‘सबसे दयालू देश’ बना सकती है। जिसका कोई नहीं है, वही सबका होने को कितना लालायित है, यह आज मैंने जाना है।’

मैं एकटक उन्हें देखता रहा। मेरा मन कह उठा, ‘आपने मेरी मदद की। आप ही तो मेरे प्रेरणास्त्रोत हैं।’

मन जब सोचने लगता है तो चहुँओर खामोशी की परत-सी जमने लगती है। इस परत के नीचे शायद हम दोनों की सोच विचार-विनिमय कर रही थी --- एक मौन साधना की तरह जिसमें आत्मा परमात्मा से बातें करती हैं। ऐसे समय चेतना सर्वोच्च शिखर पर आसीन होती है। विचारों को सर्वोच्च शिखर पर ले जाना ही तो साधना है।

टोहे मास्टर ने मेरी ओर देखा। उनकी पलकें नम हो चली थी। वे कहने लगे, ‘बेटा, मैं अपने आप को असहाय महसूस कर रहा हूँ। तुमने कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी कर ली। मैंने नहीं सोचा था कि तुम बेरोजगारी के फंदे में जकड़ जावोगे। आज जब मैं तुम्हारे अंतः में झाँककर देखता हूँ तो पाता हूँ कि तुमने मात्र परीक्षा पास कर डिग्री ही नहीं ली है, तुमने सच्चा ज्ञान प्राप्त किया है। तुम्हें वह जगह नहीं मिली जहाँ तुम्हें होना चाहिये था।’

‘सर, ऐसा मत सोचिये,’ मैंने बीच में उन्हें टोक दिया, ‘आपने मुझे इस काबिल तो बना दिया है कि मैं ट्यूशन का काम करने लायक हो चुका हूँ। इक्तीफॉक से यह मेरे खाने-पीने का सहारा तो बन सका है। मैं संतुष्ट हूँ।’

‘हाँ, संतुष्ट होना जीवन का अंतिम लक्ष्य होता है और इसे पाना भी दुर्लभ है। लेकिन यह उम्र इस पड़ाव पर जाकर रुक जाने की नहीं है। इस उम्र में सपनों की अर्थी का बोझ बहुत असहनीय होता है,’ उनके इन शब्दों में पीड़ा थी।

सच कहूँ तो तो मेरा भी एक सपना था। मैं कुछ ऐसा हासिल करना चाहता था जिससे टोहे मास्टर को भी संतोष होता। मैं उनकी छत्रछाया से कभी वंचित नहीं होना चाहता था। परमात्मा को इतना नजदीक पाकर, कौन उनसे दूर होना चाहता है?

पर ईश्वर स्थायी (static) भी है और चलायमान (dynanic) भी है। वह हृदय में बस जाता है और हरकहीं दूर-दूर तक दिखने भी लगता है। आत्मा उसके साथ भ्रमण करती संपूर्ण सृष्टि को आत्मसात करने की इच्छुक होती है।

परन्तु होनी को कौन टाल सकता है। टोहे मास्टर गुजर गये। उस दिन मैं खूब रोता रहा और अपनी माँ के उन शब्दों को याद करता रहा जब छोटी-छोटी बात पर मैं रो पड़ता था। माँ कहती थी, ‘आँसू अनमोल होते हैं --- उन्हें मोती कहा जाता है। उन्हें यूँ ही बहने मत दिया करो। आँसू जब अंदर से उमड़ते हैं तो उन्हें रोकना बहुत कठिन होता है। उस समय तो भगवान भी रो पड़ते हैं। बेटा, मैं चाहती हूँ कि तुम कभी इतना दुखी न हो कि भगवान भी रो पड़े।’

सोचता हूँ कि सच है जब मैं रोता तो माँ भी रोने लगती थी और मैं अपने नन्हें हाथों से उनके आँसू पोंछता हुआ कहता था, ‘माँ रो मत।’

माँ झट से बोल पड़ती, ‘मैं खुद कहाँ रो रही हूँ। ये तो तू है जो मुझे रुला देता है।’

माँ के इन शब्दों को याद कर मैं अपने आँसू पोंछ लेता हूँ और आकाश की तरफ देखकर कह उठता हूँ, ‘देख माँ, मैं रो नहीं रहा हूँ। मैं तो ईश्वर की सिसकियाँ सुन मात्र विचलित हो उठता हूँ।’

टोहे मास्टर के गुजर जाते ही मेरी गरीबी ने दरिद्रता की ओर मुख कर लिया। ट्यूशन कभी कुछ पैसे दिला देती तो ढाबे में जाकर वड़ा खाना नसीब हो जाता। स्टेशन पर सामान उठाकर ढोने से कभी कभी मनमाफिक परोसी थाली मिल जाती रही। रेंगती जिन्दगी अपनी टेढ़ी-तिरछी चाल से मुझे विचलित करती रही। मुझे हिम्मत देने ना तो माँ थी और न ही टोहे मास्टर की छत्रछाया। सपनों का खुला आसमान ना तो घनघोर बारिश और न ही तपती धूप से बचाने के काबिल हो पाता।

एक बार ट्यूशन से लौटते समय मुझे एक मकान के सामने डाक्टर की कार दिखी। मैंने देखा कि डाक्टर साहब घबराये हुए बाहर बरामदे में घूम रहे थे। मैं समझ गया कि वे किसी परेशानी में हैं। झट फाटक खोल मैं अंदर गया। डाक्टर साहब ने बिना कुछ पूछपाछ किये एक परची मुझे दी और कहा, ‘ये दवा तुरंत ले आवो। हालत बहुत नाजुक है।’

मैं आनन-फानन बाजार की तरफ दौड़ पड़ा। तभी मुझे याद आया कि दवाई के लिये मेरे पास पैसे नहीं हैं। नाजुक स्थिति में बुद्धि कुंद हो जाती है --- पाप भी पुण्य-सा लगने लगता है। बाजार की भीड़ में मुझे जो सामने दिखा, उसी का पर्स छीन लिया। मेरा दुर्भाग्य यहीं तक सीमित नहीं रहा। मैंने जिसका पर्स छीना था वह पुलिस अफसर था। तुरंत पुलिस ने मुझे घेर लिया और पकड़कर थाने में ले आयी।

थाने में मुझे बोलने का मौका ही नहीं दिया गया और सिपाही मुझ पर टूट पड़े। मैं तड़पता जमीन पर गिर पड़ा। मुझे खून की उल्टी होने लगी।

वह पुलिस अफसर कुछ नरम हो गया। मैं अगर गँवार-उचक्का होता तो मुझसे और सख्ती न की जाती। लेकिन जैसे ही पता चला कि मैं पढ़ा-लिखा नौजवान पाकिटमार बना हूँ तो वह अफसर भड़क उठा, ‘नालायक कहीं का!’ वह झल्ला उठा, ‘बिना मेहनत के पैसा कमाता है। पढ़-लिखकर नौकरी करना नहीं चाहता। पढ़ाई-लिखाई में माँ-बाप की खून-पसीने की कमाई की इज्जत करना नहीं जानता।’

‘बस, अब और समय बर्बाद मत कीजिये,’ मैंने कहा, ‘मेरी बात तो सुन लीजिये।’

तभी एक झन्नाटेदार तमाचा पड़ा। एक सिपाही ने तेज-तर्राट घूँसा पेट पर जड़ दिया। मुँह से खून का एक फव्वारा छूट पड़ा। मैंने जैसे-तैसे हिम्मत बटोरकर कहा, ‘ईश्वर के लिये एक बार तो सुन लीजिये।’

अब उस अफसर ने सिपाहियों को इशारा किया, ‘हाँ, बोलो।’

‘हजूर,’ मैंने डाक्टर का पुर्जा आगे करते हुए कहा, ‘एक घबराये हुए डाक्टर ने मुझे ये दवा तुरंत लाने कहा था। किसके लिये, क्यूँकर मैंने कुछ नहीं पूछा और दौड़ पड़ा। तभी याद आया कि मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है और आपका पर्स छीनना चाहा। पहले यह दवा पहुँचा दीजिये। पता नहीं डाक्टर किसकी जिन्दगी बचाना चाह रहे थे।’

अफसर ने उस परची को देखा और मोबाइल पर कॉल लगाया। मोबाइल का स्पीकर ऑन था। डाक्टर कह रहे थे, ‘हाँ, यहाँ के पड़ोसी का फोन आने पर मैं तुरंत आ गया था। एक वृद्धा की हालत नाजुक थी। तभी एक लड़का आया और मैंने उसे आनन-फानन दवाई लाने भेज दिया। पर अब तो बहुत देर हो चुकी है।’

‘कौन पड़ोसी?’ अफसर ने पूछा।

......

‘O! I have lost my mother’ उनने कहा और मोबाइल उनके हाथ से छूटकर गिर पड़ा।

थाने में सन्नाटा छा गया।

अफसर लड़खड़ाते कुर्सी से उठे और मुझसे लिपटकर रोने लगे।

......

अफसोस कि मैं इस घटना को अपनी डायरी में ‘नेक कर्मों की फिहरिश्त’ में जोड़ा न सका।

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