Dahleez Ke Paar - 1 in Hindi Fiction Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | दहलीज़ के पार - 1

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दहलीज़ के पार - 1

दहलीज़ के पार

डॉ. कविता त्यागी

(1)

उस दिन गरिमा अपने विद्यालय से लौटकर घर पहुँची, तो उसकी माँ एक पड़ोसिन महिला के साथ दरवाजे पर खड़ी हुई बाते कर रही थी। गरिमा जानती थी कि वह महिला, जो उसकी माँ के साथ बाते कर रही थी, कभी किसी पड़ोसी के घर आती—जाती नही है। प्रायः सभी पड़ोसी इस बात को जानते थे कि उस महिला के पति को अपने घर मे किसी महिला या पुरुष का व्यर्थ मे आना—जाना पसन्द नही है। अतः कभी किसी प्रकार की आवश्यकता पड़ने पर भी लोग उस घर मे जाने से बचते थे। गरिमा को कभी यह नही समझाया गया था कि उस महिला के घर जाना वर्जित है, परन्तु वह कभी उनके घर जाने का साहस नही जुटा पायी थी। यद्यपि उस महिला की एक बेटी गरिमा की सहपाठी थी। गरिमा के साथ विद्यालय मे प्रायः उसकी बातचीत भी होती थी, परन्तु यह सम्बन्ध केवल विद्यालय तक ही सीमित था। घर लौटने पर वे दोनो पूर्णतः अपरिचित—सी रहती थी। यदाकदा वह महिला रास्ते मे खड़ी होकर दो—चार मिनट के लिए गरिमा की माँ से बाते करती थी, गरिमा ने यह अनेक बार देखा था। इसीलिए आज उन्हे बाते करते हुए देखकर उसको किसी प्रकार का आश्चर्य नही हुआ था, न ही किसी प्रकार की जिज्ञासा उसके मन मे उत्पन्न हुई। अतः वह निस्पृह भाव से उन दोनो से नमस्ते करके आगे बढ़ गयी। अपनी साईकिल उसने घर के अन्दर खड़ी कर दी और बड़ी बहिन की सहायता से नाश्ता लेकर अपनी भूख तृप्त कर ली। नाश्ता करके गरिमा अपना गृहकार्य करने के लिए बैठी, तो उसके पैन की स्याही समाप्त हो चुकी थी। बहिन से पैसे लेकर वह दूसरा पैन खरीदने के लिए बाहर आयी, तो माँ ने टोका— कहाँ जा रही हो गरिमा ?

मेरे पैन की स्याही समाप्त हो गयी है, दूसरा पैन लेने जा रही हूँ ! दीदी ने पैसे दिये है !

माँ की बात का उत्तर देते—देते गरिमा के चित्त्‌ को अचानक एक झटका—सा लगा। वह बाहर जाते—जाते रुकी और पीछे मुड़कर

मूक वाणी मे स्वय से प्रश्न करने लगी— चिकी की माँ आज इतने समय तक मेरी माँ से बाते कर रही है ? यह तो आश्चर्य का विषय है! आखिर क्या बाते कर रही है? अवश्य ही, आज चिकी के पिताजी घर पर नही है ? अपने प्रश्नो का समाधान खोजने के उद्‌देश्य से गरिमा ने सोचा कि गृहकार्य थोड़ा विलम्ब से हो जायेगा, अब कुछ समय बातो का रस लिया जाए।

अपने निश्चय के अनुसार गरिमा अपनी माँ तथा चिकी की माँ के बीच मे होने वाली बातो को ध्यानपूर्वक सुनने लगी। गरिमा ने देखा कि चिकी की माँ बाते कम कर रही थी, सकेत द्वारा ही वे अपनी अधिकाश बाते समझा रही थी। गरिमा उन सकेतो से कुछ न समझ पायी, परन्तु तभी चिकी की माँ ने थोड़ा—सा घर के अन्दर प्रवेश किया

और दरवाजे की ओट लेकर अपनी कमर तथा टाँगो पर से अपना पहना हुआ वस्त्र हटाकर दिखाने लगी और फुसफुसाहट के साथ कुछ सकेत भी कर रही थी।

गरिमा उन सकेतो को नही समझ सकी, न फुसफुसाहट की ध्वनि से वह कोई अर्थ निकाल पायी थी। परन्तु उसकी आँखो के आँसू और रुँधे गले से गरिमा उसके हृदय की पीड़ा का अनुभव कर रही थी। उसकी पीड़ा ने गरिमा को सवेदना के सागर मे डुबा दिया था। गरिमा का सवेदनशील हृदय रो रहा था और उसका मस्तिष्क सामथर्यानुसार अनुमान कर रहा था कि अवश्य ही इस प्रकार की दारुण — यातनाएँ चिकी की माँ को चिकी के पिता ने दी होगी। वह अपने पास—पड़ोस मे बच्चो के साथ कई बार सुन चुकी थी — चिकी के पिताजी राक्षस है ! उनके घर पर गेद चली गयी, तो बहुत मारेगे!

और गेद ? गेद एक बार गयी, सो गयी! वहाँ से गेद के बदले मार मिलेगी और घर वाले गुस्सा करेगे, वह अलग।

अपनी वयः के बच्चो के मुख से ऐसी टिप्पणियाँ सुनकर गरिमा के मनोमस्तिष्क मे चिकी के पिता को लेकर एक भय व्याप्त था, जिसे उसने कभी किसी के समक्ष प्रकट नही किया था। आज वह चिकी की माँ की त्वचा पर चोट से बने नीले—काले चिह्नो के आधार पर उसके पिता के राक्षसी—रूप को अपनी कल्पना मे ढालने का प्रयास करने लगी थी। सुकुमार कोमल कल्पना शक्ति से वह ऐसी भयावह मानव—मूर्ति बनाने का प्रयत्न कर रही थी, जो देखने मे मनुष्य था, परन्तु उसके अन्दर की प्रवृतियाँ पाश्विक थी तथा तदनुरूप उसका व्यवहार भी था। वह विचार कर रही थी कि यह नर—राक्षस कभी मानव हित मे न सोच सकता है, न कुछ कर सकता है। तभी उसके कानो मे माँ स्वर सुनाई पड़ा—

कल ऊषा कैसे आयी थी ? तपती दुपहरी मे आयी थी और दो घन्टे बाद ही चली गयी! सब कुछ ठीक तो है ?

ठीक है, बस, भगवान का ही भरोसा है ! वह कब ठीक करेगा और कब गलत से छुटकारा दिलवायेगा, वही जाने ! हमारा बुरा समय चल रहा है, तो उसमे हम कर ही क्या सकते है ? चिकी की माँ ने एक उदासीन स्वर मे कहा और एक लम्बी साँस ली।

एकाध दिन के लिए तो रोक ही लेती ! जब से विवाह हुआ है, ससुराल मे ऐसा मन रमा ऊषा का कि कभी दो—चार दिन रहने के लिए आयी ही नही है। वैसे तो सभी का यही हाल है। एक बार विवाह हो जाता है, तो ससुराल वाले ही मालिक बन जाते है। बेटी का कितना ही मन करे अपने पिता के घर आने के लिए और रहने के लिए, पर ससुराल वाले भेजने के लिए तैयार ही नही होते है। जैसे, बहू ना हुई, उनकी सम्पत्ति हो गयी ! गरिमा की माँ बेटी को ससुराल भेजकर उसके वियोग मे तड़पती हुई माँओ का प्रतिनिधत्व करते हुए कह रही थी और चिकी की माँ किसी अज्ञात—अनुबूझ पीड़ा का पान करती हुई चुप खड़ी थी।

पर, ऊषा की माँ! तुम्हारी तो जानी—पहचानी रिश्तेदारी है। ऊषा की बुआ उसकी जेठानी है, तुम आग्रह करोगी, तो वे ऊषा को हफ्ता—दस दिन के लिए तो भेज सकते है। मैने तो सुना है कि उस घर मे तुम्हारी ननद की खूब चलती है ! कभी बुआ मिल जाया करे, कभी भतीजी मिल जाये ! साँप भी मर जाये और लाठी भी ना टूटे

!कल भी ऊषा को उसकी बुआ ही लेकर आयी थी शायद ? जब जा रही थी, तब पीछे से देखा था ! नाराजगी मे गयी थी क्या ? कोई बालक भी उनके साथ नही था ! घर से भी दोनो अकेली ही निकली थी !

क्या बताऊँ, बहिन जी ! मेरा जीवन नरक है ! मौत भी तो नही आती मुझे ! मौत आ जाए, तो सारे कष्टो से मुक्ति मिल जाए !

ये सब तो ठीक है, पर फिर भी ऐसी अशुभ बात नही बोलनी चाहिए। तुम्हारे बच्चो को तुम्हारी जरुरत है ! बेचारी चिकी तो अभी बच्ची ही है, तुम्हे कुछ हो गया तो उसके बारे मे सोचा है कभी! उसके बारे मे ही तो सोचकर जिन्दा हूँ, वरना अब तक जहर खाकर मर गयी होती मै ! अब मै चलती हूँ ! बहुत देर हो गयी है खड़े—खड़े ! आपके पास खड़े होकर समय का पता ही नही चला! यह कहकर चिकी की माँ चल पड़ी। चलते—चलते वह बड़़बड़़ायी— किसी मर्द की आग कब कितनी भड़क जाए और उस आग से कौन—कौन जल जाएँ कुछ पता नही ! भड़की हुई आग जब तक बुझ ना जाए, तब तक चैन भी तो नही पड़ता बहशी दरिदे को ! चिकी की माँ बड़बड़ाती हुई चली गयी। अपनी माँ से कही गयी उन सब बातो का अर्थ गरिमा ने अपने अनुमान से लगा लिया था, जो चिकी की माँ ने खड़ी होकर कही थी और जिसका सार यह था कि चिकी की माँ अपने बच्चो की खातिर एक निर्दयी पुरुष के साथ नरक से भी बदतर जीवन जीने के लिए विवश है। अन्तिम शब्दो का अर्थ—बोध गरिमा लिए कठिन था। उसने अपनी माँ से पूछा— माँ! कही आग लग गयी थी ? चिकी की माँ किसके जलने की बात कर रही थी ?

मैने तो किसी आग—वाग की बात नही सुनी ! त्झे आग की बात कैसे सुनायी पड़ी ? हर समय तेरे कान बजते रहते है ! गरिमा की माँ ने उपेक्षा से बात को टालते हुए कहा— और सुन! अपने से बड़ो की बातो मे ज्यादा रस लेना बन्द करके अपनी पुस्तको मे ध्यान लगाया कर! समझ गयी ना?

हाँ, मै समझ गयी ! पर आज मेरे कान नही बज रहे थे! चिकी की माँ जाते—जाते आग की और किसी के जलने की बात कह रही थी !

गरिमा ने अपना पक्ष इस प्रकार दृढ़ता से प्रस्तुत किया कि वह जानती है कि माँ उसके प्रश्न को गम्भीरतापूर्वक नही ले रही है, इसलिए उसका उत्तर नही दे रही है, जबकि उन्होने भी आग वाली बात सुनी थी। अपना पक्ष प्रस्तुत करके गरिमा रूठने का उपक्रम करती हुई वहाँ से चली गयी और गृहकार्य मे लग गयी। गृहकार्य करने के लिए बैठी तो उसको याद आया कि पैन की स्याही समाप्त हो चुकी है। वह उठी और माँ से अपनी अप्रसन्नता को निरन्तर बनाये रखते हुए कहा— मै पैन लेने के लिए जा रही हूँ ! घर से लगभग सौ मीटर की दूरी पर दुकान थी, जिस पर प्रायः सभी आवश्यक वस्तुएँ मिल जाती थी— रसोईघर की भी, स्टेश्नरी की भी तथा घर मे उपयोगी अन्य वस्तुएँ भी। अतः पैन लाने के लिए जाने गरिमा को किसी प्रकार की बाधा का सामना नही करना पड़ा। फिर भी, गरिमा की माँ ने पीछे से ऊँची आवाज मे पुकारते हुए कहा— जल्दी लौट आना! वहाँ पर किसी की बाते सुनने मे मग्न मत हो जाना !

गरिमा शीघ्र लौटकर आने की माँ की चेतावनी को सुनकर चली गयी। रास्ते मे चलते—चलते वह सकल्प कर रही थी कि भविष्य मे कभी माँ की बाते नही सुनेगी। अपने सकल्प को उसने शब्दो का बाना पहनाकर मन ही मन कहा— आखिर समझते क्या है ये बड़े लोग स्वय को ? पहले कहते है कि बड़ो की बाते मत सुनो ! यदि बच्चे ने कोई बात सुन ली, तो उसको समझाने की जगह कहते है कि मेरे कान बजते है ! आज के बाद मै कभी किसी की बाते नही सुनूँगी ! मै ज्यादा—ज्यादा खाना खाकर और दूध पीकर जल्दी बड़ी होऊँगी, तब देखूँगी मुझे कौन रोकेगा !

अपने सकल्प—विकल्प मे गरिमा को पता ही नही चला कि वह धीमी गति से चलकर भी इतनी शीघ्र दुकान पर पहुँच गयी। दुकान का सचालन एक महिला करती थी। गरिमा ने देखा कि दुकानदारिन के अतिरिक्त दो अन्य महिलाएँ भी वहाँ बैठी हुई थी और तीनो महिलाएँ कुछ इस प्रकार बाते कर रही थी, जैसी समाज मे एक धारणा बनी हुई है कि दो औरते यदि एक स्थान पर खड़ी होती है, तो वे सदैव तीसरी की निन्दा करके आनन्द रस का भोग किया करती है।

गरिमा ने दुकानदारिन से पैन माँगा और निश्चय किया कि पैन खरीदने से पहले दस—पाँच मिनट तक अनेक पैन बार—बार देखती रहेगी, ताकि वह उनकी बाते सुन सके और यह ज्ञात कर सके कि वे किसकी निन्दा कर रही है और क्यो ? अपने निश्चय के अनुरूप गरिमा एक कागज पर लिख—लिखकर एक के बाद एक पैन देखती रही। दुकानदारिन भी बातो मे इतनी रसलीन थी कि ग्राहक को शीघ्र सतुष्ट करना अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण नही समझ रही थी। उसकी ऐसी मानसिकता से गरिमा का उत्साहवर्द्धन हो रहा था। वह उनकी बातो को और ध्यान से सुनने लगी। गरिमा की तो जैसे मन की मुराद पूरी हो गयी थी। वह माँ की चेतावनी को भूल गयी। और उन महिलाओ की बाते सुनने मे तल्लीन हो गयी —

हे भगवान ! कैसा कलयुग आ गया है ! बेटी अपने घर के अन्दर अपने बाप के साथ भी सुरक्षित नही है, तो फिर कहाँ सुरक्षित होगी ? राम—राम—राम—राम घोर कलयुग आ गया। एक महिला ने बहुत ही खेद के साथ कहा। दूसरी महिला ने रहस्योद्‌घाटन करने की मुद्रा बनाते हुए कहा—

बेटी के जाने के बाद माँ ने कुछ कहा होगा, तो उसे जानवरो की तरह मारा था रात मे ! मैने सुबह देखा था, सारे शरीर पर सूजन आयी पड़ी है बेचारी के ! नरक मे जायेगा दरिदा ! देखना, कीड़े पड़ेगे उसके ! लकवा पड़ेगा और कोई पानी भी नही देगा ! नरक तो बेचारी माँ—बेटी भोग रही है ! इस बार दुकानदारिन ने कहा। दुकानदारिन की बात कर समर्थन करने के लिए पहली महिला बोलने को उद्यत हुई, तो दूसरी महिला ने उसे बीच मे ही रोकते हुए पुनः रहस्योद्‌घाटन करने की मुद्रा बनायी और कहना आरम्भ किया—

मै तो उस समय घर के दरवाजे पर ही खड़ी थी, जब ऊषा और उसकी बुआ आयी थी। बुआ—भतीजी दोनो मेरे आँगन मे खेलकर बड़ी हुई थी, इसलिए मै बिना किसी भेद—भाव के ऐसे ही आगे बढ़ गयी, जैसे मेरी अपनी बेटियाँ आयी हो, पर उन दोनो मे से न तो किसी ने राम—रहीम की, न मेरी ओर आँखे उठाकर देखा। मै बाँहे फैलाये खड़ी रही और वे चुप निकल गयी, कुछ बोले बिना ही। मै तो तभी समझ गयी थी कि दाल मे कुछ काला है ! लगभग दो—ढाई घटे के बाद मैने देखा कि दोनो वापिस जा रही है। मै जल्दी से बाहर निकलकर आयी और उनसे पूछा— अभी आयी हो और अभी तुरन्त वापिस चल दी, कुछ समस्या है क्या ?

कुछ बोली ? बताया तुम्हे कुछ ? दुकानदारिन ने पूछा। हाँ ! ऊषा तो चुप रही, वह तो बेचारी रो रही थी। जब आयी थी, तब भी उसकी आँखो मे आँसू टपक रहे थे और जब गयी

थी, तब भी टप—टप आँसू टपक रहे थे। बुआ बहुत क्रोध मे थी। मेरे पूछने पर बोली— अभी इसके ब्याह को चार महीने भी पूरे नही हुए है, आठ महीने का पाप पेट मे लेकर घूम रही है ! मेरे लिए इससे बड़ी समस्या और क्या हो सकती है ? मै इसको अपने देवर से ब्याह कर ले गयी थी, तो ससुराल वाले तो मेरे मुहँ पर थूकते है। इसका क्या है ! जिसका मान ही नही है, उसका अपमान ही क्या होगा ?

पूछा नही इससे किसका पाप पेट मे लेकर घूम रही है ? पूछा क्यो नही, पूछा है !

फिर ?

कहती है कि बाप का है ! इसीलिए आज इसे यहाँ लेकर आयी थी।

बाप ने क्या कह दिया ?

बाप कुछ कहने लायक ही कहाँ है ! वह वहशी दरिदा, नीच और कमीना है। बाते शुरु होते ही वह घर से निकल गया था। मैने रुकने के लिए और मेरे प्रश्नो का उत्तर देने के लिए कहा, तो मुझे भी आँख दिखा रहा था, पर मै कब उससे डरने वाली हूँ ! मै यहाँ इसको इसलिए लेकर आयी थी, क्योकि मुझे लगता था कि यह झूठ बोल रही है। पर अब मुझे पता चला है कि इस बेचारी का दोष नही है। यह तो बाप की हवश का शिकार हुई है। अब जीवन—भर मै तो इस देहलीज पर आऊँगी नही ! और न ही ऊषा को आने दूँगी ! यह सुनकर ऊषा के आँसू पहले से अधिक बहने लगे और बुआ का चेहरा अपनी बात कहते—कहते क्रोध से तमतमाने लगा। दुकान पर बैठी हुई दूसरी महिला ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा।

घोर कलयुग आ गया है ! शरीर की आग जब इन्सान को जानवर से भी बदतर बना दे ; जब बाप इतना गिर जाए कि बाप—बेटी के रिश्ते को ही कलकित कर दे, तो बताओ, इससे बुरा समय कब आएगा ? मै तो समझती हूँ कि इससे बुरा समय तो कोई हो ही नही सकता !दुकान पर बैठी हुई पहली महिला ने कहा।

गरिमा को उनकी बाते सुनते—सुनते पर्याप्त समय बीत चुका था। उसको अपनी माँ की चेतावनी का स्मरण हुआ, तो वह पैन लेकर घर की ओर दौड़ पड़ी। अपने घर की ओर लौटते हुए वह सोच रही थी कि बड़ो की बाते न सुनने का सकल्प तो टूट गया है और लौटने मे विलम्ब होने के कारण माँ की डाँट भी पड़ेगी, पर कोई बात नही! बाते सुनने मे समय तो बर्बाद होता ही है ! अपने समय का अपव्यय तथा सकल्प पूरा न हो पाने का खेद और माँ की डाँट आदि के विषय मे सोचकर गरिमा मन ही मन मुस्कराने लगी—

कुछ पाने के लिए कुछ कष्ट सहने ही पड़ते है !

परन्तु अगले ही क्षण गरिमा के मस्तिष्क मे चिकी की बहन और बुआ की छवि उभरने लगी। वह दुकान पर बैठकर बाते कर रही महिलाओ के द्वारा कहे गये अधिकाश शब्दो का अर्थ नही समझ पायी थी। वह सोचने लगी कि चिकी की बुआ और बड़ी बहन के साथ उसके पिता ने किस प्रकार का अकरणीय आचरण किया था, जिससे उन्हे आने के दो घटे बाद ही लौट जाना पड़ा। उसकी आँखो मे चिकी की माँ की छवि नृत्य करने लगी, जब वे अपनी मोटी—मोटी आँखो मे आँसू भरकर पति की मार से श्रीर पर पड़े हुए काले—नीले धब्बे उसकी माँ को कुछ ही समय पूर्व दिखा रही थी। उसे याद आया कि दुकान वाली महिला भी कह रही थी कि चिकी की माँ को उसके पिता ने बहुत अधिक मारा था, जब वह अपनी बेटी के पक्ष मे कुछ कह रही थी।

उसी समय गरिमा के कानो मे दुकान पर बैठी महिला के स्वर गूँजने लगे— ‘आग इसान को जानवर से भी बदतर बना देती है।' गरिमा इन शब्दो को चिकी की माँ के उन शब्दो से मिलाकर उनका परस्पर सम्बन्ध खोजने का प्रयास करने लगी, जो उसकी माँ से कहे गये थे कि मर्द की आग कब भड़क जाये पता नही ! गरिमा की माँ ने कहा था कि उसके कान बज रहे थे, परन्तु अब उसे पूर्ण विश्वास हो गया था कि चिकी की माँ ने वही शब्द कहे थे जो गरिमा ने सुने थे। गरिमा इन शब्दो का अर्थ समझने के लिए कई दिन तक अपने मस्तिष्क की कसरत करती रही, परन्तु उसको कुछ समझ मे नही आया। वह अपने घर मे इन बातो का अर्थ नही पूछ सकती थी, क्योकि ऐसे विषयो पर बात करना उसके लिए वर्जित था, जो उसकी अध्ययन साम्रगी से इतर हो अथवा उसकी आयु के अनुरूप न हो।

एक दिन उसने देखा कि उसकी बड़ी बहिन, भाभी तथा माँ तीनो परस्पर बाते कर रही थी। उनकी बातो का विषय भी चिकी की माँ, बहन से सम्बन्धित था। उचित अवसर देखकर गरिमा भी उनके पास जाकर उनकी बाते सुनना चाहती थी, किन्तु वह वहाँ पर जाकर खड़ी हुई ही थी कि तुरन्त माँ ने उसे देख लिया और पढ़ने का निर्देश देते हुए उसे वहाँ से भेज दिया। यह अवसर भी उसके हाथो से निकल गया था, वह इस विषय मे सोच—सोचकर व्याकुल हो रही थी। अपनी जिज्ञासा शान्त न होने के कारण गरिमा का चित्‌ न पढ़ने मे लग रहा था, न ही खाने—पीने मे लग रहा था। तभी उसके मस्तिष्क मे अपनी समस्या का समाधान करने का एक युक्ति आयी। वह सोचने लगी कि क्यो न वह अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए इन शब्दो को चिकी के समक्ष प्रस्तुत करे ? चिकी अवश्य ही इन शब्दो का अर्थ जानती होगी, क्योकि वह आयु मे और शरीर मे अपेक्षाकृत बड़ी है।

अपनी नयी युक्ति द्वारा भी गरिमा अपनी जिज्ञासा शान्त न कर सकी। वह प्रतिदिन विद्यालय मे चिकी की प्रतीक्षा करती थी। उसकी आँखे प्रतिक्षण विद्यालय मे चिकी को तलाशती थी, परन्तु उस दिन के बाद चिकी कभी विद्यालय मे नही आयी। कक्षा तीन की अपनी पढ़ाई छोड़कर चिकी ने विद्यालय मे जाना बन्द कर दिया था। गरिमा ने अपने घर मे माता—पिता, तथा भाई—बहिन को बताया कि जिस दिन से चिकी की बड़ी बहिन यहाँ पर आकर वापिस गयी है, उस दिन से चिकी विद्यालय मे नही गयी है। उसको लगता था कि उसके घर वाले उसकी बात को सुनकर गम्भीरतापूर्वक उसकी जिज्ञासा शान्त करेगे, परन्तु ऐसा कुछ नही हुआ। उन्होने गरिमा की बात को बहुत ही हल्के अन्दाज मे सुना और सभी ने एक ही उत्तर दिया— इनके घर मे लड़कियो को पढ़ाने की परम्परा नही है। चिकी को कम से कम स्कूल तो भेज दिया और तीसरी कक्षा तक पढ़ा भी दिया, इससे पहले इस घर की कोई लड़की स्कूल ही नही गयी। बेटी की ज्यादा कीमत...! गरिमा को चिकी के विद्यालय न जाने का कारण बताकर अन्तिम वाक्य गरिमा की माँ ने उससे दृष्टि छिपाकर घर के अन्य सदस्यो को सुनाते हुए कहा—

बेटी की ज्यादा कीमत ? दृष्टि फेरकर तथा धीमे स्वर मे कही गयी माँ की बात गरिमा के कानो मे पड़ गयी थी, इसलिए उसने अपना प्रश्न किया। माँ नही चाहती थी कि गरिमा उन बातो पर अधिक ध्यान दे। माँ ने कठोर दृष्टि से गरिमा की ओर देखा, तो गरिमा वहाँ से चुपचाप खिसक ली और आकर अपनी पुस्तको उलट—फेर करने लगी।

गरिमा का ध्यान पुस्तको मे रमने वाला नही था। अभी तक उसके चित्‌ मे दो प्रश्नो के उत्तर पाने की आतुरता थी— आग भड़कने से चिकी की बहिन का क्या सम्बन्ध है, कि वह अपनी माँ के घर आयी और अगले ही दो घटो मे वापिस लौट गयी ? दूसरी जिज्ञासा यह थी कि चिकी ने अचानक विद्यालय जाना क्यो छोड़ दिया है ? जबकि चिकी की कक्षा तीन की पढ़ाई भी पूरी नही हो पायी है ! अपने दूसरे प्रश्न का उत्तर परिवार वालो से पाकर भी गरिमा की जिज्ञासा शान्त नही हुई थी, अपितु एक नयी जिज्ञासा माँ के शब्दो ने उत्पन्न कर दी थी कि बेटी की कीमत कौन, क्यो और कैसे लेता है? अब तक उसने टेलीविजन पर फिल्म मे देखा था कि पुराने समय मे दास—प्रथा का प्रचलन था। उस समय मनुष्यो को पशुओ के समान बेचा जाता था और आजकल कई ऐसे अन्तरराश्ट्रीय गिरोह है, जो बच्चो का अपहरण करके अरब देशो मे बेच देते है। परन्तु चिकी के परिवार के विषय मे आज जो बात उसने माँ से सुनी थी, उस बात ने गरिमा के चित्‌ मे एक और नयी जिज्ञासा उत्पन्न कर दी। परन्तु, इनमे से किसी भी जिज्ञासा को शान्त करने का कोई मार्ग गरिमा को नही सूझ रहा था। उसके विचार मे एकमात्र चिकी ही उसकी जिज्ञासा को किसी सीमा तक शान्त कर सकती था, पर उससे भेट कर पाना सम्भव नही था।

चिकी के विकल्प के रूप मे गरिमा को पुष्पा का स्मरण हो आया। उसने निश्चय किया कि वह अपनी समस्या को पुश्पा के साथ अवश्य ही साझा करेगी। यह बात दूसरी थी कि गरिमा को पूर्ण विश्वास नही था कि पुष्पा उसकी जिज्ञासा को शान्त करने मे सक्षम हो सकती है। परन्तु उसको पुष्पा से यह आशा थी कि वह उसकी बात को ध्यानपूर्वक सुनकर समस्या के समाधान का प्रयास अवश्य ही करेगी।

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