I am still waiting for you, Shachi - 10 in Hindi Fiction Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 10

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आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची - 10

आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची

रश्मि रविजा

भाग - 10

(अभिषेक, एक कस्बे में शची जैसी आवाज़ सुन पुरानी यादों में खो जाता है. शची नयी नयी कॉलेज में आई थी. शुरू में तो शची उसे अपनी विरोधी जान पड़ी थी पर धीरे धीरे वह उसकी तरफ आकर्षित हुआ. पर शची की उपेक्षा ही मिली पर फिर वे करीब आ गए. पर उनका प्यार अभी परवान चढ़ा भी नहीं था कि एक दिन बताया कि उसे रुमैटिक हार्ट डिज़ीज़ है, इसलिए वह उस से दूर चली जाना चाहती है, और शची ने उसे सब बताया कि उसने कितनी कोशिश कि उससे खुद को दूर रखने की, पर मजबूर हो गयी )

गतांक से आगे

शची के इस नए व्यवहार ने तो और भी उलझन में डाल दिया. पहले हर पल अपनी भावनाओं को यूँ छुपाते फिरने की इल्लत तो ना थी, उसके पल्ले. हर पल अभिनय की मजबूरी भी नहीं थी. किन्तु शची थी कि किसी को कोई भनक नहीं पड़ने दे रही थी. पहले की तरह ही उस से व्यवहार करती. खुद तो चहकती ही रहती थी, उसे भी बातों में शामिल होने को मजबूर कर देती. खुद तो दो रूपों में जीने की आदी थी ही. उसे भी दो रूपों में ढाल दिया था. शायद इसीलिए वह जब भी साथ चलने को कहता, तैय्यार हो जाती. हर बार वह नए तरीके से शची को समझाने के प्लान बनाता. पर शची अपनी पुरानी बातों पर ही अड़ी रहती. लेकिन पहले भी शची की बेरुखी के बीच भी, उसने स्टेज पर अपनी तरफ, एक पल के लिए उठती आँखों में जो पढ़ लिया था..... उसे उस पर भरोसा था और वह सही निकला... ऐसे ही आज भी, शची जुबान से भले ही कितनी समझदारी और व्यावहारिकता वाली बातें करें.... पर उसकी आँखों से झांकती गहरी उदासी, तड़प और विछोह की पीड़ा कुछ और ही कहानी कहते. और उसका दिल दर्द से भर जाता और वह फिर से प्रण ले लेता, उन आँखों की उदासी दूर करने का.

एक दिन तीन पीरीयड ऑफ थे. उसने बिना किसी भूमिका के प्रस्ताव रखा, "मेरे साथ चलना पसंद करोगी?"

शची बिना कुछ पूछे, साथ चली आई. पर जब शहर की चहल-पहल पीछे छूटने लगी तो घबरा उठी, शची. बार बार व्यग्र हो, उसकी तरफ देखती पर वह सामने नज़र किए, दत्तचित्त हो, गाड़ी चलाता रहा.

बड़े बड़े बंगलों का इलाका शुरू हो गया था. चारो तरफ वीरानी छाई थी. बस हवा में भारी भारी परदे, लहरा रहे थे. चिड़ियों की चहक तक नहीं सुनायी दे रही थी. कोई पंछी आता भी तो शायद, इस सन्नाटे से घबराकर तुरंत उड़ जाता. एक विशाल बंगले के पोर्टिको में गाड़ी खड़ी की तो शची सहमी सहमी नज़रों से चारो तरफ देखती, वैसे ही बैठी रही. उतर कर उसकी तरफ का दरवाजा खोला. शची एक पैर नीचे रख भयभीत नज़रों से उसे देखने लगी. कांपती आवाज़ में पूछा, "कहाँ लिए जा रहें हो मुझे ?"

दया आ गयी उसे, मुस्कुरा कर आश्वस्त किया, "डोंट बी अफ्रेड यू विल बी सेफ... आओ मेरे साथ " जाने कैसे नरमी घुल आई शब्दों में.... ध्यान पड़ते ही तटस्थ भाव ओढ़ लिया, कडवे शब्दों में बोला, "जहन्नम में नहीं ले जा रहा हूँ "

शची रुक कर नेमप्लेट देखने लगी. प्रसिद्ध कार्डियोलोजिस्ट 'के. एल. भार्गव' का बंगला था. अभिषेक के डैडी के अच्छे मित्र थे. इस मीटिंग को कॉन्फीडेशियल रखने का वायदा ले, समय ले रखा था, उसने. इंतज़ार में ही थे. देखते ही आत्मीयता से बोले... "आओ आओ बेटे "

" नमस्ते अंकल... इन्हीं का जिक्र किया था मैंने "

"अच्छा अच्छा बैठो तो सही, पहले इंट्रोड्यूस तो हो लें.... योर गुड़ नेम प्लीज़" वे शची की तरफ मुखातिब हुए.

"जी नमस्ते... शची शिवालिका "

"अच्छा. ".... कुछ सोचते रहें फिर पूछा, "श.. ची शिवा.. लि.. का... इस नाम से एक कॉलम आता है, 'सुबह सवेरा' में... कहीं... आ.. प ही तो " वे अटकते हुए से बोल रहें थे

"हाँ... वो मैं ही लिखती हूँ... "

"अरे!!.. ओह... ओह्हो... वेरी वेरी ग्लैड टु मीट यू.. मैंने बहुत सारे आर्टिकल पढ़े हैं आपके.... या यूँ कहिये नियमित ही पढ़ा है.... बहुत प्रभावित हूँ, आपके विचारों से... मैं तो.... मैंने तो.. सोचा था कोई उम्रदराज़ महिला होंगी... इतनी कम उम्र में लेखन पर इतना अच्छा अधिकार देख, बड़ा सुखद आश्चर्य हो रहा है... पढ़ती हैं?"

शची को यूँ अपने सामने देख, जैसे ख़ुशी समा नहीं पा रही थी, उनमे. अब रियलाईज़ किया, बहुत गलत जगह चला आया वह. अब तो अगर ये शुरू हो गए, दीन-दुनिया की कोई खबर नहीं रहेगी. अपनी दमित इच्छा को जब जब यूँ उभारने का मौका मिलता है. भरपूर फायदा उठाते हैं. रूचि थी, साहित्य में, इच्छा थी उसी क्षेत्र में कुछ करें. पर माँ-बाप की आकांक्षा को इज्जत देते हुए अपना लिया चिकित्सा-क्षेत्र. माता-पिता के सपने तो साकार कर दिए. पर उनके अपने सपने झुलस कर राख हो गए. फिर भी राख के नीचे दबी-दबी सी चिंगारी सुलगती रही. जब जब उसे जरा सी हवा मिलती है., अपनी चमक दिखा ही जाती है

समयाभाव के कारण साहित्य साधना भले ही ना कर पायें. पर इस ओर झुकाव हमेशा बना रहा. दो पत्रिकाओं और एक अखबार में मुफ्त डॉक्टरी सलाह भी दिया करते थे.. यदा-कदा चिकित्सा विज्ञान पर भी हिंदी में लेख लिख कर जनमानस तक पहुंचाने की कोशिश बरकरार रखते. संयोग से उनकी सलाह भी उसी अखबार में प्रकाशित होती थी, जिसमे शची लिखती थी.

बस, अब तो हो गयी छुट्टी. झुंझला गया वह. उस से तो एक बात नहीं पूछी, बस शची ही महत्वपूर्ण हो उठी है उनके लिए. शची ने कनखियों से उसकी झुंझलाहट भांप ली. और उसे भी बातों में शामिल करने के प्रयास से बोली, "अभिषेक के साथ ही हूँ "

"अच्छा अच्छा.. पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही हैं.... ' उन्हें जैसे अभिषेक की उपस्थिति का भान ही नहीं था. "लिटरेचर में ही कर रही होंगी... आपका दहेज़ पर लिखा लेख, पढ़ा था मैंने.. बहुत सही लिखा था आपने.. 'आखिर लडकियां किस चीज़ में कम हैं जो उसकी कीमत चुकाएं " वाज़ रियली इम्प्रेस्ड... जब तक लडकियां आगे नहीं आयेंगी.. कुछ नहीं हो सकता... अच्छा कभी कभी पत्रिकाओं में छोटी छोटी कवितायें देखता हूँ... क्षणिकाएं जैसी... शची शिवालिका नाम से.. क्या आप ही?.. "

"हाँ वे मेरे ही होते हैं... कभी-कभार लिख लेती हूँ... ".. शची संकोच से धीरे धीरे बोल रही थी.

"ओह! एक तरफ इतनी व्यावहारिक भी और दूसरी तरफ इतनी संवेदनशील भी... सच.. बहुत बहुत अच्छा लग रहा है, आपसे मिल कर... "

शची अपनी प्रशंसा सुन सकुचाई जा रही थी. वह उपेक्षित सा बैठा था. अब डा. भार्गव हिंदी के नए उपन्यासों और कविता-संग्रहों की जानकारी ले रहें थे, बीच-बीच में अपनी पुरानी पढ़ी किताबों का जिक्र कर बैठते. शची भी पूरे मनोयोग से सुन रही थी और इधर की साहित्यिक गतिविधियों की जानकारी दे रही थी, उन्हें. वह बात-चीत में कोई हिस्सा नहीं ले पा रहा था. हिंदी साहित्य में उसकी जानकारी ना के बराबर थी. जो थी वह भी पाठ्य-पुस्तकों तक ही सीमित थी. जिसे छोड़े भी अब चार साल बीत चुके थे.

जब देखा, उनकी चर्चा के अंत का कोई आसार ही नज़र नहीं आ रहा तो बीच में ही बोल उठा, "अंकल इनका चेक-अप कीजिये ना "

दोनों ने इस तरह चौंक कर देखा, जैसे कोई बहुत ही अनैतिक प्रश्न पूछ बैठा हो वह. डा. भार्गव ने अपनी नज़रें लौटा कर शची पर टिका दीं. शची भी नाराज़ हो बोल उठी, "नहीं मुझे नहीं करवाना कोई चेक-अप... मेरे जीजाजी खुद डॉक्टर हैं "

मन हुआ कहे. कैसे डॉक्टर हैं, पता है उसे. साधारण ऑपरेशन करते तो हाथ कांपते हैं. सिर्फ हाइय्ली एंटीबायटिक लिख लूट रहें हैं, सबको. लेकिन इस वक़्त टार्गेट शची नहीं डा. भार्गव थे.

किन्तु डा. भार्गव तो यह सुनहरा मौका छोड़ने को तैया रही नहीं. पूछ रहें थे शची से, " अपने कॉलम में उस किताब की आपने बड़ी तारीफ़ की थी. संपादक के दबाव में या किताब के लेखक से जान-पहचान की वजह से लिखी थी या सचमुच वह किताब इतनी अच्छी है "

"नहीं... सचमुच मुझे बहुत पसंद आई थी... और वैसे भी मैं किसी का नहीं सुनती.. अपने मन का ही करती हूँ "

अभिषेक ने मन ही मन कहा, 'हाँ इसे मुझसे अच्छी तरह और कौन जानता है? ' लेकिन वह बातचीत का रुख फिर से किताबों की तरफ मुड़ता देख झल्लाया था ही. गुस्से से तमतमाता चेहरा लिए उठ खड़ा हुआ ". सॉरी अंकल, आपका बहुत समय ले लिया.... पर मैं यहाँ किसी गोष्ठी में शामिल होने नहीं आया था... चलो शची "

"अभिषेs s क... "शची ने कुछ जोर से कहा.

पर उसने ध्यान नहीं दिया.. "लेट्स गो.. "

शची असमंजस में बैठी रही.. कभी डा. भार्गव की तरफ देखती, कभी अभिषेक की तरफ.

"अरे अरे बैठो बेटा.. बस अभी देखता हूँ... "

"नो सॉरी अंकल... हम जा रहें हैं.. ". और शची की बांह पकडे लगभग खींचता हुआ बाहर ले आया. शची हतप्रभ सी साथ चली आई.

एक प्रकार से शची को कार में धकेल ही उसने गाड़ी स्टार्ट कर दी. खुद ही क्षोभ से बडबडाता रहा. सारी दुनिया मेरे ही पीछे पड़ी है. दिन भर तो किताबों में डूबे रहते हैं. डॉक्टरी क्या ख़ाक करेंगे. इतना ही साहित्य से प्यार था तो घसीटते रहते कहीं कलम... यूँ लोगों का समय तो बर्बाद नहीं करते.. " और भी जाने क्या क्या बोलता रहा खुद से. धीरे धीरे आवाज़ धीमी पड़ती हुई खो गयी. थोड़ी देर बाद कार ने टर्न ली तो इस क्रम में शची पर जो नज़र गयी तो चौंक उठा. ये क्या.. शची की आँखों से गले तक एक लकीर बनी हुई थी. और शची दृढ़ता से होठ कसे, सामने देख रही थी. जैसे इन आंसुओं के प्रति ही रोष था. जो बाहरी दुनिया देखने को आतुर थे और वह उनकी उपेक्षा कर उनसे बदला ले रही हो.

"श s s ची.. "... वह वैसे ही सामने देखती रही.

धीमे से उसकी अंगुलियाँ मुठियों में भर झिंझोड़ दीं... "श s s ची.. प्लीज़.. "

शची ने ना हाथ खींचा, ना हलके से भी कांपी उसकी अंगुलियाँ. कोई स्पंदन नहीं. हाथ वैसा ही ठंढा, बेजान पड़ा रहा.

"शची प्लीज़.. इस तरह तो... " किनारे कर गाड़ी खड़ी कर दी उसने. इस बार भी शची ने ना गर्दन झुकाई, ना ही उन बार बार ताजी होती लकीरों को पोंछने की जरूरत ही समझी. ऐसा लग रहा था, पत्थर की बनी ज्योतिहीन आँखें हों वो. मन भीग गया उसका. अपने साथ साथ इस लड़की को भी किस कदर परेशान कर रखा है उसने. उस से ज्यादा तकलीफ तो शची को होनी चाहिए पर वह सबकुछ भूल उसे सामान्य बनाने के प्रयास में जुटी रहती है. और वह है कि ना खुद संभल रहा है ना ही शची की पूरी कोशिशों के बावजूद उसे ही संभलने दे रहा है. शची के चेहरे पर छाई दुख की बदली से वह अनभिज्ञ है क्या? शची उसे मुस्कराहट रुपी हवाओं से उडाना भी चाहती है तो वह उसकी इस कोशिश को नाकाम कर उन्हें बरसने के मौके तलाश देता है.

फिर से एक बार झकझोरा उसे, " क्या हो गया है तुम्हे... कुछ तो बोलो"

और बिजली की सी तेज़ी से हाथ खींच लिया, शची ने... उसी तेजी से आंसू पोंछ, सामने हाथ बाँध लिए और नज़रें सामने टिका दीं. कठोर, आवेगहीन स्वर में बोली, " चलो.. किसी भी हालत में मेरी क्लास नहीं छूटनी चाहिए, तुम बड़े घर के बेटे हो, लाखों की दौलत के वारिस. मुझे अपने पैरों पर ही खड़ा होना है. शौकिया नहीं पढ़ती मैं कि इस तरह क्लास छोड़ घूमती फिरूँ. "

लगा भरे समाज में किसी ने तमाचा मार दिया हो.. अभी अभी कितना द्रवित हो, वह सोच रहा था शची के बारे में. पर उसने ऐसे झटके से हाथ खींचा जैसे कूड़े के ड्रम में पड़ा हो.

शची ने एक बार फिर उसे तीव्र गुस्सैल दृष्टि से घूरा और आँखें घुमा लीं, "एक बार फिर कह दे रही हूँ. इस तरह तमाशा मत बनाया करो, मेरा. तुम्हें अच्छी नहीं लगती दया-दृष्टि तो मैं भी उसकी आदी नहीं हूँ. इतने दयावान हो तो हज़ारों हैं दुनिया में जिन्हें दो पैसे की दवा भी मयस्सर नहीं. मुझे बख्शो... और फिर एक निश्चयात्मक स्वर में बोली, "किसी की दया की भीख लेने से पहले मर जाना मैं ज्यादा पसंद करुँगी. "

हक्का बक्का रह गया वह. वह तो सोच बैठा था, शची द्रवित हो उठेगी कि अभिषेक को इतना ख्याल है उसका. लेकिन ये तो इसके विपरीत दया की भीख बता रही है इसे. आहत स्वर में पूछ लिया, "ये 'किसी की' किसे कह रही हो, शची.... मैं भी आम लोगों की कैटेगरी में ही आता हूँ. ?"

किन्तु शची का रोष जैसे दब नहीं रहा था, "तुमसे तो लाख दर्जे बेहतर हैं बाकी सब... इस तरह मेरा जीना तो हकलान नहीं किए रहते... कम व्यस्त नहीं रहती मैं... डेड लाईन पास आ रही है... और मैंने अब तक एक शब्द नहीं लिखा. कम काम का बोझ नहीं रहता मेरे ऊपर. अब एक बोझ और बढ़ गया है, तुम्हे सारी अटकलों से बचाते रहने का. इस तरह पारदर्शी होना अच्छा लगता है क्या... कि हर कोई मन में झाँक कर देख ले 'क्या बीत रही है उस पे' दुनिया भर से अपने दिल का हाल कहते रहना तुम्हे पसंद होगा, मुझे नहीं. क्या समझते हो कोई सच्ची सहानुभूति दिखायेगा. हुँह मजाक उड़ायेंगे सब और एक अदद बेचारा विशेषण लगा देंगे, तुम्हारे नाम के आगे.. " आवाज़ कुछ शिथिल पड़ी, एक पल को रुक कर बोली, "जानती हूँ, बर्दाश्त तुम्हे वह भी नहीं होगा... और बौखला कर कुछ और ही कर बैठोगे.. तुम कुछ समझते तो हो नहीं, अभिषेक... "

शची के जरा सा नरम पड़ते ही उबल पड़ा वह... "बस बहुत हुआ... नाउ विल यू प्लीज़ कीप क्वायट.. "बर्दाश्त से बाहर हो चला था, यूँ शची का उसके स्वभाव की शल्य-चिकित्सा करना. झटके से गाड़ी स्टार्ट कर दी, "बहुत सुन चुका, समझते तो नहीं... समझते तो नहीं... समझने की अक्कल एक भगवान ने तुम्हे ही नहीं दी है. जो भी कहती हो तुम, वही संसार का अंतिम सत्य नहीं है. कोई बच्चा नहीं हूँ मैं कि इस तरह पग पग पर नसीहतें देती चलो... कृतज्ञता की भावना तो है नहीं, उलटे उपदेश दिए जा रहें हैं... जैसे कोई महिमामयी टीचर हो तुम और मैं हूँ, पहली क्लास का छात्र."

कॉलेज गेट आ गया. शची को गेट पर छोड़ा और गाड़ी घुमा ली. वह शची कि तरह हिप्पोक्रेट नहीं कि इस मनःस्थिति में भी क्लास अटेंड करता रहें.

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पढने का चार्म तो ख़त्म हो ही चुका था. कॉलेज जाने की इच्छा भी मर चुकी थी. लेकिन 'क्यूँ' 'किसलिए' से भरे हज़ारों सवालों के जबाब देने से तो बेहतर था, पहले की तरह ही क्लास अटेंड करता रहें और किसी को कुछ पूछ छिन्न-भिन्न ह्रदय पर और आघात करने का अवसर ही ना दे.

दूसरे दिन कॉलेज गया तो खुद को किसी अप्रत्याशित करने का सामना करने को तैयार कर के ही गया था. देखना है, शची का व्यवहार कौन सा रूख अख्तियार करता है. दस मिनट लेट से पहुंचा. क्लास से शोर शराबे की आवाज़ आ रही थी. शुक्र है, अभी सर नहीं आए थे.

अंदर कदम रखा ही था कि बातें करती शची पलटी और उसे देखते ही जोर से बोली, "लो आ गए इंजन ड्राइवर" साथ ही एक खिलखिलाहट जिसमे सब शामिल हो गए. तेज़ तेज़ कदम बढ़ता अपनी सीट कि ओर बढ़ा तो डरने का अभिनय करती बोल दी, "अरे बाप रे! एक्सप्रेस है " दुबारा ठहाका लगा. पलट कर उसने गुस्से से देखा, पर शची पूर्ववत हंसती रही.

बल्कि उसके यूँ ठंढे व्यवहार पर ही सब आश्चर्यित हुए. पहले की बात होती तो वह भी यथासंभव शामिल होने की कोशिश करता. किन्तु अब कोई अभिनय नहीं करेगा. कोई कुछ सोचे तो उसकी बला से. जो सच है वह कभी ना कभी तो सबके सामने आएगा ही. शची इन सबको दूसरे नज़र से देखती है तो देखा करे. वह अपने क्रिया कलापों पर किसी के विचार यूँ हावी नहीं होने देगा.

धीरे धीरे शची ने भी उसका मनोभाव जान दूसरी राह ही अपना ली. उस से सीधे सीधे तो कुछ नहीं बोलती. पर पीठ-पीछे सुनासुनाकर छींटाकशी करती रहती. सब यही समझते कि वह किसी बात पर रूठ गया है. शची का व्यवहार भी यही दर्शाता था कि जैसी आम खटपट होती है, वैसी ही इन दोनों के बीच भी है. एक दिन डा. देशपांडे ने असाईनमेंट पेपर्स शची को दिए बांटने के लिए. बाकी सबको तो उसने पास जा जा कर दीं पर उसकी तरफ दूर से ही फेंक कर चली गयी. वह गंभीर बना नोटबुक में नज़रें गडाए रहा. बड़ी उलझन हो रही थी इस व्यवहार से, आखिर पूरी तरह खुद को काट ही क्यूँ नहीं लेती. पर स्वभाव से ही लडकियां भीरु होती हैं. हर चीज़ हजम करते रहना. कोई सीक्रेट ना जान पाए उनका. पर वह अब किसी भ्रमजाल में नहीं पड़ने वाला. अपने मनोनुकूल ही अपन व्यवहार रखेगा. जिसे जो समझना है, समझा करे. शची से तो अब सम्बन्ध इतने तनावपूर्ण हो गए थे कि सारे संवाद ही शेष हो गए थे. उस दिन डा. भार्गव से मिल कर आने के बाद कोई बातचीत नहीं हुई.

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उस दिन कॉलेज में कोई मूवी दिखाई जा रही थी. उसे कॉलेज में मूवी देखना सजा से कम नहीं महसूस होता. बैठने की जगह तो नहीं ही मिलती. पैर टिकाने में भी मुश्किलों का सामना करना पड़ता. आधी से अधिक मूवी ख़त्म हो गयी थी. बहुत बोर हो रहा था. मनीष, रितेश, विजय कोई नहीं दिख रहा था. सोचा, चलो कुछ तो समय कटेगा. दरवाजे के समीप ही थोड़ी सी जगह मिली. तभी शायद उसके हाथों से ही लग कर किसी की किताबें गिर गयीं. बिचारी झुक भी नहीं पा रही थी. उसने उठा कर दे दीं. थैंक्स का स्वर सुन जो सर घुमाया तो नज़रें मिल गयीं. शची ही थी. तुरंत आँखें घुमा परदे पर टिका दीं. पर दिमाग में दूसरी ही रील चलनी आरम्भ हो गयी. और मानसपटल पर अनेकानेक दृश्य उभरने और मिटने लगे. फिल्म के शोर के मध्य भी कान कुछ सुनने को आतुर थे. किन्तु शची भी तनी खड़ी रही. फिर करीब आधे घंटे तक खड़े रहें दोनों पर एक बोल नहीं फूटा किसी के मुख से.

बेहद लस्त हो, एक खाली क्लास ढूंढ डेस्क पर सर टिका, आँखें मूँद लीं. तभी बरामदे में कुछ आहट लगी. खीझ कर कलम उठा नोटबुक खोल लिया. मनीष था.

आते ही पूछा, "वाट्स रौंग विद यू... ऐसे अकेले क्यूँ बैठा है?"

उसने कलम छोड़ बिलकुल हाथ जोड़ लिए.. "प्लीज़ लिव मी अलोन फॉर समटाईम... कुछ मत पूछो इस वक्त, बहुत मूड ऑफ है मेरा. "

"मूड तो तेरा कुछ दिनों से ऑफ है.. " शरारत से मुस्कुरा दिया मनीष. "पहली बार झगडा हो ना, तो ऐसा ही लगता है.... सारी दुनिया वीरान नज़र आती है... सब कुछ बेरंग... ग़ालिब ने कहा भी है... "

"मनीsssष".. गुस्से में बीच में ही बोल उठा वह, "यही शेरो-शायरी सुनानी है ना, तो किसी और को पकड़ो.. मुझे बख्शो " और नोटबुक संभालता उठ खड़ा हुआ वह.

"बैठ बाबा बैठ... एन्जॉय कर अपनी ये उदासी... मैं चला... " और दो कदम बढ़कर अचानक पलटा, " और हाँ कोई ग़ज़ल-शज़ल... कविता-वविता लिखो तो मुझे दिखा देना... नए हो इस क्षेत्र में... मैं करेक्शन कर दूंगा "

उसने गुस्से में कलम फेंक कर मारी तो झुक कर उठा लिया और थैंक्यू कहता चलता बना.

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क्लास में जब पहुंचा तो पाया. सबके चेहरे चहक रहें हैं. आवाजें ख़ुशी से छलकी पड़ रही हैं. आँखों में उमंगों की मौजें हिलोरे ले रही हैं. पता चला, स्टडी टूर पर हफ्ते भर के लिए कलकत्ता ट्रिप पर जाने का प्लान है. और आज प्रो. वत्स इसी विषय पर डिस्कस करेंगे. सोच में पड़ गया, क्या करे. क्या हमेशा की तरह वो भी चला जाए. परन्तु कॉलेज का वातावरण उसे रास नहीं आ रहा था उसपे चौबीसों घंटे इन्हीं क्लासमेट का साथ उसे सह्य होगा? शची ना जाए तो शायद वह अपना सहजरूप कायम रख सकता है पर शची नहीं जाएगी तब तो पूरा क्लास ही धरने पर बैठ जायेगा. आजकल सबकी जुबान पर शची का ही नाम सुनता था. उसने तो खुद ही किनारा कर खुद को अलग थलग कर लिया था. शची की उपस्थिति में वह दूसरों से भी सहरूप से बातचीत नहीं कर पाता था.

किन्तु आजकल वह घर पर भी तो अजूबा बना हुआ है. किसी भी बात पर झल्ला उठता है. सारे नौकर अब उस से भय खाने लगे हैं. छोटी सी छोटी नामालूम सी गलतियों पर भी इस कदर बिगड़ उठता है कि सारे घर में भूचाल आ जाता है. ऋचा भी सहमी सहमी सी रहती है. माँ भी हर वक़्त परेशान सी उसके आगे-पीछे घूमती रहती हैं. उसकी सारी जरूरतों का ख़याल अब वो ही रखने लगी हैं. इनलोगों की अत्यधिक सतर्कता उसे और भी परेशानी में डाल देती है. उसके कमरे के आस-पास भी सब दबे क़दमों से गुजरते हैं

कोफ़्त उसे इस सन्नाटे से भी होती है और कॉलेज में रचे-बसे उस शोर से भी. पर कॉलेज का शोर दिमाग को राहत देता है तो घर की ख़ामोशी दिल को सुकून देती है. अब दोनों ही अत्यधिक महत्वपूर्ण हो उठे हैं उसके लिए. एक से घबराकर दूसरे की शरण लेता है. हो सकता है इस टूर का नया वातावरण कुछ राहत दे. यह सोच भी एक आशा जगी मन में, शायद इस रोजमर्रा के माहौल से दूर जाकर दूरियां कुछ घटें. शची से बात चीत किए भी कितने दिन हो गए और ये दिन एक युग से प्रतीत हो रहें थे. शची भी तो हमेशा तनाव में रहती है. भले ही प्रसन्नता का दिखावा करे. लेकिन उसे यूं देख वह भी घुटती रहती है. यही सब सोच रहा था कि मनीष आ टपका, "ओ मिस्टर फिलौस्फ़र चिंतन करते करते कहीं स्टेशन पहुंचना ही ना भूल जाना. फ्राईडे को हमलोग चल रहें हैं."

"ओह! तो तू मेरा नाम दे आया है.... "

"हाँ जनाब और आज घर आ कर आंटी को भी कह आऊंगा तैयारी के लिए... तुझे कुछ याद कहाँ रहता है आजकल... ना जाने किस दुनिया में रहता है... और सुन वो डायरी पूरी भर गयी.. ?"

"कौन सी डायरी " वह अबूझ सा देखता रहा तो एक आँख दबा दी मनीष ने... "वही ग़ज़लों वाली... कितने दर्द भरे नगमे लिख डाले? "

उसने गुस्से से घूरा तो हँसता हुआ जैसे अचानक टपका था वैसे ही गायब हो गया. चलो जो हुआ, ठीक हुआ. इस ऊहापोह से मुक्ति तो मिली.

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दो दिन बाकी थे लौटने में. इस ट्रिप ने कोई अतिरिक्त ख़ुशी नहीं दी. मन में वही उदासी, वही फीकापन बरकरार रहा. पूरे उत्साह से वह खुद को शामिल भी नहीं कर पाया. अक्सर अलग-थलग ही बना रहा. शची से भी दूरी यथावत बनी रही. एकाध बार अकेले आमने-सामने पड़े भी पर सारे संवाद अब शेष हो गए थे उनके बीच. वह दीवार घूरता रह गया और शची जमीन देखती रही.

रात में डिनर के बाद, गेस्ट हाउस के हॉल में सब इकट्ठे हो भारत, इंग्लैण्ड के बीच टेस्ट मैच देखते. वह मैच का अंतिम दिन था और लाईट चली गयी. कलकत्ता की उमस भरी गर्मी से परेशान हो, सब बाहर लॉन में आ गए. स्ट्रीट लाईट से छन कर आती हुई रौशनी, लॉन को मनमोहक बना रही थी. और उस पर हवा में घुली रातरानी की भीनी भीनी खुशबू. इस गर्मी में सुकून दे रही थी. वह सीधा लेट गया उस ठंढी ठंढी घास पर. ऊपर तारों से आकाश जगमग कर रहा था. ना जाने कब देखा था, अंतिम बार ये तारे खचित आकाश, या महानगरों में पला बढ़ा, शायद कभी देखा ही नहीं.

मैच निर्णायक दौर में पहुँच गया था और सब बहुत परेशान हो रहें थे, स्कोर जानने को. तभी उस अँधेरे में पास ही मुहम्मद रफ़ी की सोज़ भरी आवाज़ गूंजी. और विजय और रितेश उस आवाज़ का पीछा करते गेस्ट हाउस के साइड में बने छोटे से झोपड़ीनुमा घर के पास ठिठक गए. पता चला, गेस्ट हाउस का कुक, ट्रांजिस्टर सुन रहा था. उसकी चिरौरी कर वे लोग ट्रांजिस्टर ले आए कमेंट्री सुनने को.

मेंडेट्री ओवर शुरू हो चुका था. तनाव बढ़ता जा रहा था. भारत के विकेट एक एक कर गिर रहें थे पर इन सबके बीच अज़हरुद्दीन डाटा हुआ था और अपना स्वाभाविक खेल खेल रहा था. और तभी जोरों का शोर हुआ और तालियों की गड़गडाहट सुनायी दी. विजय उछल पड़ा, "सिक्सर..... आखिर अज़हर ने दिखा ही दिया, इस पिच पर भी वह बॉलरों के छक्के छुड़ा सकता है " और उसने लॉन में ही अपने ब्रेक डांस के स्टेप शुरू कर दिए.

ट्रांजिस्टर से कान चिपकाए, आश्विन चिल्लाया, "अबे चुप मिर्ची सालन ( विजय ने स्कूली शिक्षा हैदराबाद में ली थी और इतनी बार वहाँ के मिर्ची सालन का जिक्र करता कि उसका नाम ही मिर्ची सालन पड़ गया था ) तेरा हीरो आउट हो गया है. ये तालियाँ उसके सिक्सर पे नहीं आउट होने पर बज रही हैं "

सबके चेहरे पर मुर्दनी छा गयी थी. आवाजें उदासी में डूब रही थीं. 'अब भारत यह मैच नहीं बचा पायेगा, अजहर ही तो मेन थ्रेट था. ' जितने मुहँ, उतनी बातें बल्कि जितने मुहँ उसकी दस गुणी बातें. सब अपनी अपनी कह रहें थे. कमेंटेटर की आवाज़ कहीं दब सी गयी थी. वह लॉन पर ही बाहों का तकिया बनाए लेटा था और सबकी बहस सुन रहा था. मैच की रफ़्तार धीमी हो चली थी और बातचीत की रफ़्तार बढ़ने लगी. अब फिलर टोन और विज्ञापन सुनायी देने लगे. बूंदाबांदी शुरू हो गयी थी. मैच रोक देना पड़ा.

"चल यार अन्त्याक्षरी खेलते हैं.. " रीतेश बोल पड़ा.

"ना तुम लड़के लोग हमेशा चीटिंग करते हो... इतने थके हुए हैं हमलोग, आज झगड़ने का बिलकुल मूड नहीं. आज तो गाना सुनाओ एक एक.. " मीता बोली.

"शची से शुरुआत करते हैं... " विजय बोल उठा.

"मुझसे ही क्यूँ?"... शची ने तेज स्वर में आपति जताई.

"वो इसलिए कि आप हर बार बच जाती हैं... सबको आगे कर देती हैं और आपकी बारी आते-आते कुछ ना कुछ हो जाता है. आज कोई बहाना नहीं चलेगा. चलो शुरू करो " मनीष बोल उठा.

"कितना समय है मैच, ख़त्म होने... " विंशी बात पूरी भी नहीं कर पायी थी कि मनीष ने डपट दिया. " एक शब्द नहीं... खेल शुरू हो गया तो फिर मैडम बच जाएँगी.. हाँ शची शुरू करो.. " और ट्रांजिस्टर का नॉब घुमा दिया उसने.

वह उठकर अंदर जाने लगा तो मनीष ने हाथ पकड़ रोक लिया.. "अरे तू कहाँ जा रहा है... अँधेरे में क्या करेगा... बैठ ना "

शची ने एक पल को उसकी तरफ देखा, अच्छा तो समझ रही है उस से बच कर भाग रहा है. भारी स्वर में बोला, " मैं जा नहीं रहा हूँ... सर के नीचे कुछ रखने को लाने जा रहा हूँ. बाँह सुन्न पड़ गयी है लेटे लेटे. " और अंदर से एक बैग ला, उस पर सर रख आँखें मूँद, निश्चिन्त हो लेट गया.

इनलोगों की नोंक झोंक अभी तक जारी थी.

"अरे मैच शुरू हो गया तो पता कैसे चलेगा ?तुमने तो ट्रांजिस्टर ही बंद कर दिया " शची कह रही थी.

"अब तुम्हारे गाने के बाद ही ट्रांजिस्टर ऑन होगा " रितेश था

"और जो बीच में मैच शुरू हो गया ?"

"शुरू क्या ख़त्म भी हो जाए, तब भी ना ऑन करूँगा ना करने दूंगा "

"बाप रे... तब तो इतना बड़ा क्रिकेट का शैदाई, विजय कच्चा ही चबा जाएगा मुझे "

"हाँ सोच लो, तलने -भूनने का भी कष्ट नहीं करूँगा.. शुरू करो.. "

और सबकी हंसी के बीच शची ने तुरंत शुरू कर दिया, "जाईs s s ये आप कहाँ जायेंगे... ये नज़र लौट के फिर आएगी.. "

वह, इन सबसे असंपृक्त इस नोक-झोंक का मजा ले रहा था. लेकिन इस गाने ने तिलमिला दिया उसे. तो शची नहीं छोड़ेगी अपनी आदत. दूसरों के कमेन्ट तो कभी टाल कर, अनसुना कर सह लेता है. पर ये भी अब बिन्धेगी उसे. वह शांत रहता है तो इसका क्या जाता है. हमेशा बुलवाने के पीछे पड़ी रहती है. कोई उनके ब्रेक-अप के बारे में ना जान पाए. बस, सब अटकलें लगाते रहें कि कहाँ तक, क्या क्या हुआ है? जब उसका साथ, उसे नहीं चाहिए तो दुनिया को बताने से डरती क्यूँ है? जानता था, यह गाना बेहद पसंद है शची को. लेकिन उसने इसे ही क्यूँ चुना ? एक ख़याल आया, शायद कहीं अनजाने में. पर गुस्से ने तुरंत इस ख़याल को परे धकेल दिया. मेरी तो एक -एक हरकत पर नज़र रहती है और खुद क्या बोल रहें हैं, कुछ खबर ही नहीं. नहीं... नहीं.. उसने जानबूझकर ही चुना है, इस गाने को. ज्यूँ ज्यूँ गाना बढ़ता गया, उसका रोष उफनता गया.

गाना ख़त्म होते ही उसने आँखें खोलीं और शची की आँखों में सीधा देखता हुआ बोला, " शची, क्या अर्थ लूँ इस गाने से? "

शची एक पल अचम्भे से उसे देखती रही, फिर बोली, "जो जी चाहे " और अश्विन से बोली, "ऑन करो मैच शुरू हो गया होगा "

उत्तेजित हो उठ बैठा वह, " शची सब समझता हूँ, तुम्हारा छल, क्या है ये सब... ? क्यूँ सबको भुलावे में रखी हो. सब समझते हैं हम दोनों साथ है.. पर इनसे छुपाती क्यूँ हो.. कि अब तो हम दोस्त तक नहीं हैं. पर नहीं सब तुम्हे ख़ास समझें कि अभिषेक ने ही कुछ किया होगा, उसी की कोई गलती होगी. तुम तो बहुत महान हो ना, सबकी नज़रों में. सब समझते हैं इतनी टैलेंटेड होकर भी शची को घमंड नहीं... किस बात पे करोगी, घमंड. किसी भी असाध्य रोग से ग्रसित व्यक्ति को देख, तुम्हारी आँखें भर आती हैं, सब समझते हैं... बहुत सेंसेटिव है, शची. पर ये कौन जानता है कि वह भी इसी कैटेगरी की है"

शची की प्रतिक्रया देखने को एक पल रुका. पर वह वैसी ही शांत, अविचल बैठी रही. अपने पर टिकी उसकी जलती आँखों की परवाह किए बिना हलके से आँखों में ही मुस्काई, "कह लिया ना, जाओ अब सो जाओ... इस वक़्त होश में नहीं हो तुम "

चाहता था शची भी उसी तेजी से जबाब दे. पर उसके शांत स्वर ने उसके गुस्से की आग में घी का काम किया और एक एक शब्द चबाते हुए बोल उठा, "मैं होश में नहीं हूँ.. क्या हुआ है मुझे?.. मैंने क्या पी रखी है... यही कहना चाहती हो ना कि मैं जो भी कह रहा हूँ, झूठ है... पर अपनी आत्मा से पूछो... क्या झूठ है ये? क्या तुम्हे रुमैटिक हार्ट डिज़ीज़ नहीं है ??"

सबके चेहरे एकाएक फक पड़ गए. बिलकुल सन्नाटा छा गया. शची का चेहरा भी कठोर हो आया पर बगैर कटुता के परेशानी भरे स्वर में बोली, " कब कहती हूँ मैं कि मुझे हार्ट डिज़ीज़ नहीं है? पर क्या यह कोई छूत की बीमारी है जो सबसे कहती चलूँ.. और कहने से होगा क्या? "

"सच्चाई पता चल जायेगी सबको... सब यूँ अटकलें नहीं लगायेंगे कि आखिर हुआ क्या है दोनों के बीच... " वह आगे और कुछ बोलता कि मनीष ने उसका हाथ पकड़ कर खींचा.. "बहुत हो गया ये फ़िल्मी सीन.. चल अंदर चल.. "

उसने उसका हाथ जोरों से झटक दिया पर मनीष ने उतनी ही ताकत से दुबारा उसकी बाँह पकड़ ली... और बोला.. "चल मेरे साथ वरना धो दूंगा अभी जम के सबके सामने "

उसने मनीष का हाथ तो झटक दिया पर उसके साथ अंदर चला गया.

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कमरे में आ बिस्तर पर ढह गया. सर भारी हो गया था और शरीर बेजान. बस इस पल मृत्यु आ जाए तो सबसे उत्तम. कैसी हो गयी है ज़िन्दगी उसकी? कितना खुशहाल, हंसमुख था वह. अब लगता है सारी दुनिया के दुख का बोझ उसके सर ही है. चाह कर भी चेहरे पर हंसी नहीं ला पाता. ना किसी से मिलना जुलना, ना बातचीत. बस बंद कमरा, वह और उसके रेकॉर्ड्स. आखिर क्यूँ रहता है वह इतना उद्विग्न? सब उस से परेशान रहते हैं. और वह भी तो कम परेशान नहीं. किस कदर बर्बाद कर डाली है, उसने अपनी ज़िन्दगी. तभी बिजली आ गयी. वह वैसे ही पड़ा रहा. मनीष वापस कमरे में आया, उसका माथा छू कर देखा, तकिया ठीक किया और लाईट ऑफ कर दी. वह वैसे ही निश्चेष्ट पड़ा रहा. अँधेरा होते ही उसने आँखें खोलीं. खिड़की के पास एक छाया सी लगी. उसे पता था, मनीष जब बेहद अशांत रहता है तो यूँ खिड़की के बाहर जाने क्या देखा करता है. अपराध बोध से भर उठा वह. इस लड़के ने भी उसके सुख-दुख से किस कदर जोड़ लिया है, खुद को. और एक वह है कि उसका प्रतिदान देना तो दूर, अपनी तरफ से चिंतामुक्त तक नहीं रख पाया है.

(क्रमशः)