ठग लाइफ
प्रितपाल कौर
झटका पंद्रह
रेचल शाम तक ऑफिस में बिजी रही. पहला दिन था. कितने ही लोगों से पहली मुलाकात. अपना काम समझना. नयी जगह को समझना. खुद को सही तरीके से प्रेजेंट करना. शाम को थकी हारी घर आयी तो इतनी हिम्मत नहीं हुयी कि सविता के बारे में कुछ सोच सके. एक मिस्ड कॉल ज़रूर देखी उसने सविता की. सोचा इत्मीनान से बात करेगी. हो सकता है डिनर के बाद. सोमवार की शाम. हफ्ते का पहला दिन. माँ बेटी दोनों के लिए ही बेहद व्यस्त.
हेलेन ने पूछा भी अगर वो चाहे तो सविता को बुला सकती है डिनर पर. लेकिन रेचल का मन सविता को लेकर अच्छे-खासे संशय में पड़ा हुया है. उसने इनकार कर दिया. सब कुछ एक बार फिर सोच लेने पर रेचल को लग रहा था कि सविता कई मोर्चों पर झूठ बोल रही है. जिस राह पर उसके कदम थे वह किसी भी वक़्त बड़ी मुसीबत में फँस सकती थी.
रेचल किसी और के फटे में पैर डालने को कत्तई तैयार नहीं थी. ख़ास तौर पर तब जब कि वह कई बार सविता को खतरों के बारे में आगाह कर चुकी हो. इसके अलावा इतनी परिपक्व उम्र की स्त्री होने के बावजूद क्यों सविता ये सब नहीं समझ पा रही थी ये रेचल की समझ से बहार था.
माँ से ये सब नहीं कह सकती थी. हेलेन समझती ज़रूर उसकी बात. मगर हो सकता है की माँ होने के नाते इस दोस्ती में शुरू से ही लापरवाही बरतने के लिए उसे डांट भी पिला देतीं. एक चुप के हज़ार सुख सोच कर वह खामोश ही रही.
माँ बेटी ने रात का खाना खाया. और अपने अपने कमरों में सोने के लिए चली गयीं.
उधर सविता ने रमणीक के जाने के बाद फ्रिज में रखा मटर पनीर निकला, रोटी के डब्बे में सुबह की बनी हुयी तीन रोटियाँ बची थीं. सारा खाना माइक्रो वेव से गर्म किया और खाने बैठ गयी.
खाते-खाते वो आज की शाम के बारे में सोचती रही. रमणीक के बर्ताव में आज उसे एक अलग तरह की कठोरता लगी. अब तक वो जब भी मिलता था अपनी ज़िंदगी की छोटी-छोटी बातें करता था. दुःख की सुख की. रेखा की ज्यादतियों की. बेटे और बेटी की पढ़ाई की, शरारतों की. अपनी दफ्तर की पॉलिटिक्स की. कई बार उससे सलाह भी लेता था. हालाँकि उसकी सलाह को कितना मानता था ये वो नहीं जानती. लेकिन वो खुद पूरी बात गम्भीरता से समझ कर अपनी पूरी अक्ल के साथ उसको सलाह देती थी.
लेकिन आज वह आया. दोनों में क्या बात हुयी सविता को कुछ याद नहीं पड़ता. एक घंटे के करीब वह उसके साथ रहा मगर इस दौरान दोनों के जिस्मों से अलग कोई और बात हुयी हो सविता को याद नहीं पड़ता.
यहाँ तक कि जब वह रोती हुयी सविता को संभाल रहा था तब भी उसके शब्दों में प्यार की जगह सविता को जिस्मानी आतुरता ही ज्यादा लग रही थी. वो खुद इसके लिए आतुर थी तो उसे बुरा नहीं लगा.
लेकिन अब सोच रही है तो लग रहा है कि शायद वह भी पिछले दो दिन से हो रही बदमज़गी से घबराया हुया था और तनाव से राहत के लिए ही उसके पास आया था. ये जान कर समझ कर सविता को और भी अच्छा लगा. उसे लगा कि अगर वह रमणीक को मुश्किल वक़्त से राहत दिलाने में कामयाब होती है तो उनका रिश्ता लम्बा चल सकता है और जो लाभ उसे हो सकते हैं रमणीक से, वह उनको उठा पायेगी.
लेकिन अगले ही पल उसे रेखा और आशीष के फ़ोन, धमकियां और गालियाँ याद आ गयीं. वो घबरा गई. जानती है वे लोग वाकई बेहद शक्तिशाली हैं. उनसे लोहा लेना सविता के बस की बात नहीं.
रमणीक से मिलना तो दबे छिपे हो सकता है लेकिन उसके कॉन्टेक्ट्स से फायदा लेने पर बात रेखा पर खुल सकती है और यही बात सविता के लिए खतरनाक हो सकती है.
खाना ख़त्म हो चुका था. मटर पनीर की सब्जी उसने सर्विंग बाउल से ही पूरी खा ली थी. रोटियाँ भी तीनों खा ली थी लेकिन भूख अभी बाकी थी. रसोई में जा कर उसने झूठे बर्तन रखे और बिस्कुट के डब्बे में से चार कोकोनट कूकीज निकाल कर टेलीविज़न ऑन करके उसके सामने बैठ गयी.
अब जब तक नींद नहीं आ जाती विभिन्न चैनल सर्फ करती रहेगी. थक कर बेडरूम में जा कर सो जायेगी. उसी बिस्तर पर जहाँ थोड़ी देर पहले रमणीक के साथ हम-बिस्तर हुयी थी. ये पहली बार नहीं था. मन भीग-भीग गया. रमणीक पर एक बार फिर ढेर सारा प्यार उमड़ आया. दिल किया उसे फ़ोन करे. मगर वो कह कर गया है वही फ़ोन करेगा. मन मसोस कर रह गयी.
सुबह उठी तो मन में हलचल थी. कल शाम का रमणीक के साथ का नशा उतर चुका था. अकेलेपन की उदासी फिर से उस पर तारी हो गयी थी. वैसे उसे अकेले रहने की आदत है. खुद में ही लगे रहने की. अपने आप को खुश रखने की. लेकिन अब काफी अरसे से उसके पास कोई नौकरी नहीं है तो पैसे की तंगी तो सताती ही है साथ ही हर रोज़ सुबह उठ कर तैयार हो कर जाने में जो एक खास तरह की व्यस्तता रहती थी, उसे सविता बहुत मिस करती है.
अब सुबह उठाती है तो चाय पीने से लेकर नाश्ता बना कर खाने और फिर नहा-धो कर दिन के लिए तैयार होने के बाद एक ख़ास तरह की उदासी घेर लेती है. वैसे हफ्ते में एकाध बार रमणीक के साथ कोई न कोई प्रोग्राम बन ही जाता है. फिर रेचल है. लेकिन ये सब काफी नहीं हैं सविता के लिए. उसे हर रोज़ की कोई ठोस व्यस्तता चाहिए. इसीलिये रमणीक उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण है. उसकी मज़बूत स्थिति किसी दिन सविता को कोई अच्छी नौकरी या कारोबार ज़रूर करवायेगी ऐसा भरोसा है उसे.
वैसे अब तो ये छोटी छोटी व्यस्तताएं भी कम होने वाली हैं. कल शाम कैसे तो रमणीक आ गया एक घंटे के लिए. अब खुले आम नहीं मिल पायेगी वो रमणीक से. किसी के भी देख लेने पर खबर रेखा तक पहुँचने में देर नहीं लगेगी ये वो जानती है. रेखा के मित्रों की तादाद बहुत ज़्यादा है. उधर रेचल तो अपने नए जॉब में बिजी हो जायेगी. अब उसे वीकेंड पर ही वक़्त मिलेगा सविता के साथ बैठक का.
एक बार फिर मैसेंजर खोल कर देखा. जसमीत का कोई अता-पता नहीं था. उसने अभी तक मेसेज नहीं पढ़ा था. अब सविता कुछ परेशान हो चली थी. आखिर लडकी भारत में है तो है कहाँ? ऐसी कौन सी जगह पर है जहाँ इन्टरनेट नहीं है. ऐसी तो कोई जगह नहीं पता सविता को. हाँ, पहाड़ों में ऊपर ऐसे पैचेज हैं जहाँ नेटवर्क बिलकुल भी नहीं होता. या गोवा में ऐसे सुदूर इलाके हैं, ये सोच कर थोड़ी तसल्ली हुयी उसे. हो सकता है वहीं घूम रही हो.
एक बार दिल किया निहाल सिंह का फ़ोन नंबर हासिल कर के उससे पूछे. लेकिन उसको किया गया एक भी फ़ोन निहाल सिंह का वकील अदालत में पेश कर सकता था. और उसका केस कमज़ोर पड़ सकता था. सो इस ख्याल को दिल से निकाल दिया. लडकी चाहती है माँ से मिलना तो ज़रूर आयेगी. यही सोच कर दिल को दिलासा दी.
एक लम्बी सांस भर कर सविता बिस्तर से उतरी. दिन की शुरुआत आज कुछ अच्छी नही रही थी.
सुबह के सारे काम निपटा कर वह बालकनी में आ कर बैठ गयी. मेड अंदर सफाई वगैरह कर रही थी. बालकनी में सफाई करने आयी तो उसने सविता से खाने के बारे में पूछा. सविता का मन नहीं था लेकिन उसने खाना बनवा लिया. ज़ाहिर है आज किसके साथ बाहर जायेगी? घर पर ही रहना होगा और यही सब खाना होगा.
दो घंटे बाद जब मेड सारा काम कर के जा रही थी तब भी सविता वहीं बालकनी में बैठी अखबार के साथ खिलवाड़ कर रही थी. पढ़ने लायक सब ख़बरें वो उसमें पढ़ चुकी थी. किताबें पढ़ने का शौक उसे कभी रहा नहीं. हां फ़िल्में ज़रूर देखती है. अब भी यही सोचा और उठ कर अन्दर आ गयी. टेलीविज़न खोला और तलाश करने लगी कि कोई अच्छी सी फिल्म देखने को मिल जाए.
इस बीच तीन बार फ़ोन की घंटी बजी तो अनजान नंबर देख कर उत्साह से कॉल ली. इस वक़्त उसे दो लोगों के फ़ोन का बेसब्री से इंतज़ार था. और दोनों ही अनजान नम्बरों से उसे फ़ोन करने वाले थे. एक तो बेटी जसमीत, अपने ही पेट से जाई इस बेटी के बारे में कुछ भी तो नहीं जानती थी सविता. और दुसरा रमणीक. बॉयफ्रेंड? प्रेमी? नहीं दोस्त. यही कहना ठीक लगा उसे.
लेकिन ये सभी जंक कॉल्स निकले. झुंझला कर तीनों बार फ़ोन बीच में ही काट दिए. इगनोर भी नहीं कर सकती. कौनसा फ़ोन काम का हो नहीं पता. ज़िन्दगी कैसी अजीब है, सविता सोच रही है. उसकी ज़िंदगी में से ड्रामा और हलचल कभी थमने के नाम ही नहीं लेते.
राज कपूर की 'मेरा नाम जोकर' चल रही थी. हालाँकि बहुत ज्यादा पसंद नहीं है उसे ये फिल्म लेकिन राज कपूर पसंद है. सोफे पर जम कर बैठ गयी और देखने लगी. आधा घंटा ही देखी थी कि भूख लग आयी. रसोई में जा कर प्लेट में खाना निकाला. आलू गोभी की सब्ज़ी, दही, अचार, रोटी, खीरा और टमाटर. फिल्म देखते-देखते खा लिया. प्लेट वापिस रसोई में रखी. बचा हुआ खाना फ्रिज में रखा और सोफे पर लेट कर फिल्म देखने लगी.
कब आँख लग गयी कुछ पता नहीं लगा. जब आँख खुली तो कानों में गीत गूँज उठा, "मोरे अंग लग जा बालमा..."
और इत्तेफाक ऐसा कि फ़ोन की घंटी बज रही थी. रमणीक के नए नंबर से कॉल थी. तीन दिन पहले की दहशत अभी बाकी थी. कॉल लेते हुए एक बार फिर दिल कांपा. उधर रमणीक ही था.
"हेल्लो. घर पर हो?'
"हाँ. आ रहे हो?" उसकी आवाज़ सुन कर दिल खुश हुया था.
"नहीं. अभी कुछ दिन नहीं मिल पाऊँगा. आज सुबह ही प्रोग्राम बना है. मैं और रेखा एक हफ्ते के लिए फूकेट जा रहे हैं."
"फुकेट. अचानक? क्या हो गया?"
"नहीं, अचानक तो नहीं. कई दिनों से सोच रहे थे. अगले महीने जाना था. लेकिन रेखा अपसेट है तो कहने लगी कि अभी चला जाए. मैंने एजेंट से बात की तो उसने सारा इंतजाम कर दिया. एअरपोर्ट के लिए निकला रहे हैं."
"ओह."
जानती है रेखा क्यों अपसेट है. लेकिन अपसेट तो वो भी है. मगर वो पत्नी नहीं है. ना ही अमीर बाप की एकलौती लाडली बेटी है. अपनी औकात में तो रहना ही होगा उसको.
"आर यू आल राईट?" रमणीक की आवाज़ में कुछ फ़िक्र जैसा था. जानता तो है. अपसेट तो वो भी है. क्या करे?
"हाँ, मैं ठीक हूँ. डोंट वरी. एन्जॉय योर हॉलिडे. वापिस कब आओगे?"
सविता कुछ हैरान भी है. मन में सोचा. 'वाह! ये हैं जलवे मालदार ससुराल होने के.' मगर चुप रही.
"वो अभी तय नहीं. इसीलिये तुम्हें फ़ोन किया. अब वापिस आ कर ही फ़ोन करूंगा. वहां तो पूरा वक़्त रेखा साथ ही रहेगी. और फ़ोन भी उसके पास ही रहेगा. ये फ़ोन मैं यहीं छोड़ कर जाऊँगा. ये सिर्फ तुमसे बात करने के लिए है. ऑफ रहेगा. ओके?"
"ओके. जल्दी आना. " सविता का दिल बैठा जा रहा था. तीन दिन पहले रमणीक को पूरी तरह खो देने की आशंका के बाद कल शाम वो मिला था और अब वो विदेश जा रहा था. खैर! यहाँ रहते हुए भी तो कौनसा रोज़ मिलने वाला था?
"ओके डार्लिंग. दस बारह दिनों में आ जाऊंगा. फिर मिलते हैं. आते ही तुम्हें फ़ोन करूंगा. ओके? बाय."
"बाय. आते ही फ़ोन करना."
"हाँ ज़रूर."
और फ़ोन कट गया था.
शाम और भी उदास हो कर खिड़की से सीधे सविता के दिल में उतर आयी. सविता ने उसे थपथपाया और आंसुओं से भरी भीगी आँखों से छुआ कर अपनी बगल में बिठा लिया. दोनों एक दूसरी से लगी एक दूसरे का हाथ पकडे रात के गहराने तक उदासी को कम्बल की तरह ओढ़े बैठी रहीं.
उस शाम सविता ने चाय नहीं पी. वो शाम सविता की गहनतम उदासियों की गवाह बनी उसे देखती रही. दोनों में से कोई भी खुश नहीं होना चाहता था. ना शाम ना सविता.
सविता की ज़िंदगी एक फिल्म की तरह उसकी आँखों के सामने से गुज़रती रही. शाम सविता के आँखों से उसके जीवन की उस फिल्म को देखती मन ही मन सोचती रही कि कौन कब कहाँ चूका? कौन किसका गुनाहगार हुआ?
सविता ने देखा खुद को एक नन्ही बच्ची के तौर पर, रिश्तेदारों के घरों में कभी ट्रेन से, कभी कार से तो कभी बस से आते-जाते. कहीं दुलार पाते कहीं तीखी अनचाही नज़रों का सामना करते.
नानी की याद आयी जो हर बार उतने ही प्यार से गले लगाती रही जितने प्यार से बिना गले लगाए ज़िंदगी के जंग हार कर उसे नितांत तनहा छोड़ कर इस दुनिया से कूच कर गयी थी.
फिर याद आया मामा का घर. और वो शाम जिसने उसके जीवन की धार ही मोड़ दी थी. एकाएक उसकी योनी में, स्तनों में, बाजू में, वही दर्द उठ खडा हुया जो उस दिन कजिन के कमरे में उसके सविता पर टूट पड़ने से हुया था. मामी के करारे चांटे भी वैसे ही ताज़ा दम हो कर उसके जेहन में शूल की तरह उतर आये.
उस फूफा का उबकाई भरा आलिंगन याद आ गया जिसने अमरीका का वीसा दिलाने का झूठा वादा करके उसका कौमार्य भंग किया था.
निहाल सिंह का प्यार याद आ गया जिसने उसकी इज़्ज़त को अपनी इज़्ज़त समझा था. मगर वो घर भी उसका हो कर नहीं रह सका. निहाल की माँ भी बुरी नहीं थीं. मगर सविता की आग जैसी तेज़ी की ताब कहाँ से लातीं? लिहाज़ा निहाल कुछ भी निभा नहीं सका. न माँ को न पत्नी को.
सो भाग निकला. अब जाने बेटी को निभा रहा है या नहीं? ये तो बेटी मिलेगी तो ही पता लगेगा. बेटी ने लिखा है वो अमरीका में है. तो क्या निहाल भी अमरीका चला गया है? खैर! पता चल जाएगा.
फिल्म में अरुण की मेहरबानियाँ भी उतर आयीं. उसके लिए दिल में बहत आदर और प्यार है. मगर अब वो कहीं भी दिख जाए तो कन्नी काट लेता है.
और रमणीक! उसकी याद आयी तो होटों से लेकर आँखों तक में मुस्कान उभर आयी. फिर यकायक दिल उदास हो गया. दस बारह दिन? या फिर ज्यादा? कौन जाने?
तभी नज़र उठा कर देखा. तो शाम तो कब की उसका हाथ छोड़ कर और अपना हाथ छुड़ा कर अपना आँचल समेट कर जिस खिड़की से आयी थी उसी से खिसक ली थी. अच्छा ही हुआ. खिड़की से आ कर दरवाजे से जाती तो कहीं सविता की बदकिस्मती ना अपने साथ ले जाती.
शाम को तो किस्मत वाला ही होना चाहिए. कितनों की किस्मत संवारती है ये हर रोज़. सविता लालच नहीं करेगी. शाम की किस्मत नहीं छीनेगी.
उसने उठ कर खिड़की पर परदे लगाए. घर में बत्तियां ऑन कीं. तो उदास घर वैसी ही उदासी से जगमगा उठा, जैसी इस वक़्त सविता के मन में थी. रोशनी तो हो गयी मगर उदासी में कहीं कोई कमी नहीं आयी.
सविता बाथरूम गयी. लौटी तो फिल्म ख़त्म हो चुकी थी. उसने तो देखी ही नहीं थी और फिल्म ख़त्म हो गयी.
टेलीविज़न बंद किया. कुछ देर यूँ ही बैठी रही. रात के साढ़े आठ बज चुके थे. दिल बहुत उचाट था. आज उसका वो करने का दिल किया जो वो कभी-कभार किया करती थी.
बेडरूम में गयी. पर्स उठाया, घर की चाभी देखी पर्स में ही थी. पैसे देखे. गाडी की चाभी भी थी. ड्राइंग रूम में आ कर फ़ोन लिया और फ्लैट से बाहर निकल आयी. इस तरह अकेले वह बहुत कम जाती थी. लेकिन आज दिल बहुत ही उखडा हुया था. कोई साथ देने को भी नहीं था. तीन दिनों का सारा भारीपन और तनाव आज पारे की तरह सविता की रूह तक उतर आया था.
नीचे आयी. रोज़ वाला गार्ड आज नहीं था. एक नया ही आदमी था. उसने सविता को सलाम ठोका. सविता का दिल कुछ खुश हुया. वह बाहर आयी और सामने हे ओपन पार्किंग में खड़ी अपनी गाडी में बैठी और बिल्डिंग से बाहर निकल आयी. गेट वाले गार्ड ने भी हमेशा की तरह उसे सलाम ठोका था.
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