Hawao se aage - 10 in Hindi Fiction Stories by Rajani Morwal books and stories PDF | हवाओं से आगे - 10

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हवाओं से आगे - 10

हवाओं से आगे

(कहानी-संग्रह)

रजनी मोरवाल

***

चप्पा

(भाग 1)

उसने नीचे झुककर जूतों में पैर डालने की कोशिश की, एड़ी ऊपर करके पंजे को जूते के सोल के साथ-साथ भीतर सरकाने की बेतरह कोशिश की, आड़ा-तिरछा किया मगर पंजा था कि हमेशा की मानिंद ज़िद्दी बना रहा था । उसने दाहिने कुल्हे पर बनी पॉकिट में हाथ डालकर कुछ टटोला फिर स्टील का चप्पा निकालकर बारी-बारी से दोनों पंजों को जूते के भीतर सरका लिया । लेस वह खोलता ही नहीं सो बाँधने का झंझट ही नहीं । बचपन में उसे बड़े चाचा ने सिखाया था एक बार-

“देख ये जो ऊपर वाला छिद्र है न ? इसमें से लेस को गायब रखो, इस छिद्र को छोड़कर नीचे सभी में लेस को पिरोकर परमानेंट गाँठ बाँध देनी चाहिए फिर बार-बार की दिक्कत ही ख़त्म ।”

“जूता ढीला होकर पंजे पर हिलता रहेगा तो ?”

“अरे नहीं जाहिल ! तू आराम देख जूता कहीं नहीं जाएगा ।”

“जाहिल क्या होता है ?”

“अबे... जो तू है ।” और रामभरोसे कभी नहीं समझ पाया कि जाहिल क्या होता है । उम्र बीती पर न उसने कभी कोई शब्दकोश ढूँढा न सोचा-विचारी की, बस मान लिया कि वह जाहिल है और मानते-मानते इस उम्र तक वह कई-कई प्रकार से अपने-आपको जाहिल मान चुका था ।

जब दसवीं में पहली बार फ़ेल हुआ तो उसका विश्वास और गहरा हो गया की सब सही कहते हैं की वह पढ़-लिख नहीं पाएगा । परिवार वालों ने जबरन दुबारा इम्तेहान दिलवाया तो वह थर्ड ग्रेड से मैथ्स में ग्रेस मार्क्स के साथ घिसटते हुए पास हो गया था । चाचा ने रेल्वे में नौकरी लगवा दी तो बिना माँ-बाप का वह बच्चा बड़ी उलझन में था । चाचा ने लुहार से तेल के पीपे को कटवाकर उसी के पतरे से ढक्कन बनवा दिया था । छोटी सी कुंडी भी जुड़वा दी थी जिसमें एक छोटा ताला लगाने जितनी मजबूती तो थी किन्तु जड़ समेत कोई कुंडी ही उखाड़ ले तो कोई गारंटी न थी । रामभरोसे उस कुंडी को बड़ी देर तक घूरता रहा था । कुंडी के औचित्य व विश्वसनीयता पर सवाल करना उसके बूते न था क्योंकि चाचा पलटवार में उसे जाहिल के अलावा कोई उत्तर देने वाले नहीं थे । चाचा ने टीन के डिब्बे में एक स्टोव, दियासलाई, देशी घी का डिब्बा और दलिए की पोटली रखकर ताला लगा दिया गया था । दो जोड़ी कपड़े लेकर रामभरोसे सहमा-सकुचाते हुए निकल पड़ा था एक अंजान शहर की ओर । हाँ, पुराने जूतों के भीतर चाचा के उतरे जुराबों की जोड़ी पहने हुए भी वह जेब में चप्पा रखकर लाना नहीं भूला था ।

चप्पा न जाने कबसे उसकी सहूलियतों में शामिल हुआ ये उसे याद भी नहीं । कोई चार-पाँच बरस का रहा होगा जब चाचा ने अपने लिए जूतों की नई जोड़ी खरीदी थी । जूते तो उन्होने निकाल लिए थे पर खाली डिब्बा उसे पकड़ा दिया था खेलने के लिए । रामभरोसे ने उसी डिब्बे में वह चप्पा पाया था, उसे लगा था जैसे किसी खजाने में से एक सिक्का उसकी झोली में आ पड़ा था, बस तभी से वह चप्पा रामभरोसे का साथी बन गया था । उसका उपयोग तो उसने बहुत बाद में जाना था ।

रेल्वे में खलासी बनकर वह फर्श घिसता तो कभी इंजिन की सफाई करता और नहीं तो साहब लोगों के बच्चों को स्कूल छोड़ने-लेने चला जाता । मेम साहबों के घरेलू काम निबटा दिया करता । कपूर साहब की मैडम ने तो उसकी भलमानसाहत इतनी भा गयी कि साहब से कहकर उन्होने रामभरोसे को घरेलू काम-काज के लिए ही फ्री करवा लिया । अब वह ऑफिस न जाकर सीधा कपूर साहब के घर ही चला आता था । मेमसाहब उसे चाय-नाश्ता करवाती और फिर वह घर की साफ-सफ़ाई में लग जाता । सब्ज़ी लाना, गेंहू पिसाना या फिर अन्य छोटे-बड़े काम । साहब की बेबी कॉलेज कार से आती-जाती थी, कभी-कभार मेमसाहब बेबी के लिए गरमा-गरम खाना लेकर रामभरोसे को ही कॉलेज भेज दिया करती थी । धीरे-धीरे रामभरोसे ने बेबी का भी विश्वास जीत लिया था । अब कॉलेज जाती बेबी कभी कोई कॉपी-किताब भूल जाती या ज़रूरत का सामान बाद में याद आए तो वह मम्मी के बजाय सीधे रामभरोसे को फोन करके ही वह वस्तु मँगवा लिया करती थी । घर में सबका विश्वास पात्र और सच्चा सेवक बन गया था । उसका घर में होना अब ज़रूरी हो गया था उसकी अहमियत इतनी बड़ गयी थी की सभी की जुबान पर उसी का नाम होता था ।

“रामभरोसे ! जूते की पॉलिश हुई ?”

साहब पूछते तो मेमसाहब किचन से चिल्लाती -

“रामभरोसे ! साहब का और बेबी का टिफिन पैक किया ?”

“रामभरोसे ! बाबा की मोटर साइकिल पोंछ दी ?”

“रामभरोसे... तुमने मेरी बेल बॉटम की चैन सुधारवा दी थी ?” बेबी की गुहार पर वह सारे काम छोड़कर सबसे पहले वहीं दौड़ पड़ता था । उसका मन करता था वह बस पूरे दिन बेबी के ही काम करता रहे, बेबी जब उसे इठलाकर अलग ही अदा से ‘थैं... क यू !’ कहती थी तो रामभरोसे का संसार झूमने लगता था । उस बँगले में एक सिर्फ बेबी ही थी जो उसे काम के बदले थैंक यू कहा करती थी बाक़ी तो उससे अधिकार पूर्वक काम करवाते थे जबकि वह चाहता था वह सिर्फ़ और सिर्फ़ बेबी के अधिकार क्षेत्र की धुरी में ही बंधकर घूमता रहे । एक मर्तबा जब बेबी ने उससे ब्लाउज़ के पीछे हुक लगवाए थे, कसम से पूरी रात वह सो नहीं पाया था, देह में ऐसा रोमांच थरथराया था की पूरी रात बेबी की गोरी पीठ पर अपनी हथेलियाँ महसूस की थी उसने ।

मेमसाहब की किटी पार्टी होती तो रामभरोसे किचन से ऐसे-ऐसे पकवान परोसता था की मेमसाहब की सहेलियाँ अपनी अंगूठियाँ चढ़ी मोटी-मोटी अंगुलियाँ चाटती रह जाती थी-

“भई तुम्हारा तो कर्णधार है रामभरोसे !” किस्मत वाली हो, पटा के रखना, आजकल के नए खलासियों से दूर रखना, मुए बड़े नकचड़े आ रहे हैं अब नौकरियों में ।

सुना है अब रेल्वे में आई टी आई की दो साल की ट्रेनिंग किए हुए ही खलासी का फॉर्म भर सकते है ?” तो कोई कहती-

“हुम्म...जितनी ज़्यादा पढ़ाई उतनी ज़्यादा दिमाग चढ़ गया है इन लोगों का ।”

रामभरोसे सब सुनकर भी अनसुना कर देता था, कम-अज-कम डीजल शेड में फर्श घिसने या कालुष भरे इंजिन को साफ करने से बेहतर तो बंगले में काम करना उचित लगता था उसे ।

कभी-कभी देर-सवेर हो जाने पर मेमसाहब उसे आउट-हाऊस में ही ठहरा दिया करती थी । वह रात रामभरोसे की सबसे हसीन रात हुआ करती थी । देर रात वह बेबी के कमरे की खिड़की से लगा भीतर झाँका करता था । बेबी लेसदार गाउन पहने इधर से उधर टहलती हुई दिखाई देती, किताब उनके हाथों में होती किन्तु होंठों पर फिल्मी गानों की धुन । रामभरोसे को यूं छुप-छुप के देखना ग्लानि देता था किंतु उसे बेबी किसी अन्य लोक से उतरी देवकन्या-सी प्रतीत होती थी, जिसे देखने का लोभ संवरण करना उसे बड़ी मशक्कत का काम लगता था ।

रविवार को उसकी छुट्टी रहा करती थी किन्तु इधर मेमसाहब को धुन चढ़ी है कि बेबी को रसोई के काम-काज में भी हाथ बटाना चाहिए सो उनके इसरार पर वह रविवार को कभी-कभी बेबी को कुछ व्यंजन सिखाने आ ही जाता था । बेबी और बाबा दोनों उसके हम उम्र ही थे सो कभी-कभार बाबा के रूम में छुपकर सुट्टेबाज़ी करने में भी रामभरोसे उसका हमनवाँ बनता था । बाबा से वह नानुकुर करता तो वह क़हता-

“अरे भरोसे... तू समझा कर यार अकेले सुट्टा लगाने में स्वाद नहीं आता, यार वह मज़ा ही क्या जो अकेले-अकेले चखा जाए ।”

“साहब देख लेंगे तो मुझे नौकरी से निकाल देंगे ।”

“अरे हटाओ... उन्हें न तुम बताओ न मैं ।” हाहाहा... करते हुए बाबा की बदमाशी उसे रुचती ।

हद तो बेबी ने कर दी थी एक मर्तबा, कान में हेडफोन पर गाने सुनते-सुनते ही वह घिया-कोफ्ते की रेसेपी सीखने चली आई थी । रामभरोसे को उन्हें खाना बनाना सिखाते वक़्त चिल्ला-चिल्लाकर कई-कई मर्तबा समझाना पड़ रहा था । बीच-बीच में बेबी ज़ोर-ज़ोर से गाने भी लगती थी तो कभी ठुमके लगाने लगती थी । मेमसाहब हँस-हँसकर दोहरी हुई जाती थीं तो सकुचाता हुआ धीमे-धीमे मुसकुराता जा रहा था । मेमसाहब कॉफी के दो कप लेकर साहब के साथ गार्डेन में जा बैठी थीं । रामभरोसे बेबी को करी के उबाल आने तक की विधि समझा चुका था । बेबी कितना समझी ये तो पता नहीं पर बेबी के नृत्य को देखकर रामभरोसे की देह में ज़रूर उबाल आने लगा था । अचानक ई... यु... कहते हुए बेबी ने बाहें फैलाई और रामरोसे को कमर से पकड़कर अँग्रेजी नृत्य करने लगी । वह कुछ समझ पाता तब तक बेबी उसे लेकर रसोई भर में गोल-गोल घुमाने लगी थी । उसे चक्कर आने लगा था किन्तु बेबी की मस्ती थी कि खत्म ही नहीं हो रही थी । उसे भी इस सब झमेले में आनंद आने लगा था, उसने अपने-आपको बेबी की मर्ज़ी पर छोड़ दिया था ।

अब वह कभी बेबी को नचा रहा था तो कभी बेबी उसे, करीबी इतनी की रामभरोसे ज़िंदगी में किसी स्त्री के इतना नजदीक नहीं आया था । कैसा तो मदमस्त करने वाला इत्र था जो बेबी के नाज़ुक बदन से उठकर रामभरोसे के इर्द-गिर्द फ़ैलने लगा था । बेबी उसके रोयेंदार सीने में नथुने गढ़ाए ज़ोर-ज़ोर से साँसे भरने लगी थी, उसके बदन में क्या होगा ? भला मेहनत का पसीना ही होगा और मजदूर का पसीना कब कहकता है ? किन्तु बेबी के बादलों जैसे स्याह बालों में से गजब की मदहोश कर देने वाली ख़ुशबू उठ रही थी की रामभरोसे का सब्र जवाब देने लगा था । बेबी ने उचककर रामभरोसे के पैरों पर अपने पैर रख लिए थे अब रामभरोसे के कदमों के साथ-साथ वे कदमताल कर रहे थे । नृत्य धीमा पड़ने लगा था तभी बेबी ने रामभरोसे के निचले होंठ को अपने होंठों में लेकर तनिक काट लिया था । ये सिलसिला तब तक चलता रहा था जब तक की घिया-कोफ़्ते की करी उफ़नकर रसोई के स्लेब से नीचे न बहने लगी थी । बेबी सब सीख चुकी थीं, उस रात जब सबने बेबी के बनाए डिनर की तारीफ़ की तो बेबी ने इठलाते हुए रामभरोसे को “थें... यू” कहा तो उनकी आँखों में उसके लिए एक इशारा और शामिल था जिसे समझकर रामभरोसे की हवाइयाँ उड़ने लगी थी ।

मेमसाहब और साहब उस रात बड़ी देर तक ‘फरीदा खानम’ का रेकॉर्ड प्ले कर-करके री-प्ले पर सुनने के मूड में थे “आज जाने की ज़िद न करो, यूं ही पहलू में बैठे रहो, हाय मर जाएँगे, हम तो लुट जाएँगे , ऐसी बातें किया न करो...” बार-बार सुनते रहे थे । साहब और मेमसाहब दोनों वाइन के ग्लासों में अपनी जवानी के किस्से तलाशते रहे थे । उधर बेबी की घूरती आंखे रामभरोसे को बारंबार धमकाए जा रही थी । देर रात जब वह बेबी के कमरे में गया तो उसे एहसास हुआ कि दरअसल वह उन दोनों का ही पहली-पहली बार था, झिझक के पुल जवानी की बाड़ कब तक सहते ? आखिर टूट गए...इस कदर दोनों रवां हुए की दौर तूफानों के चढ़-चढ़ के उतरते रहे और फिर-फिर से चढ़ते रहे थे । अलसुबह जब सूरज उगने से बहुत पहले रामभरोसे बाहर निकला तो वह अपने-आपको किसी राजकुँवर से कम नहीं समझ रहा था ।

उस रोज़ मेमसाहब ने उसकी खुशी का राज़ पूछा तो उसे बचपन में देखी प्रेमरोग फ़िल्म याद आ गयी । वह कुछ अधिक ही बेखौफ़ हो उठा था, उसकी बाछें खिल गई थीं, लगा कि अब वह साहब का दामाद बना दिया जाएगा । वह मुसकुराते हुए मेमसाहब के सामने ‘संतोष आनंद’ का लिखा गाना गुनगुनाने लगा “शाम तक था एक भँवरा फूल पर मंडरा रहा, रात होने पर भर कमल की पंखुड़ी में बंद था, कैद से छूटा सुबह तो हमने पूछा क्या हुआ... कुछ न बोला अपनी धुन में बस यही गाता रहा, मुहब्बत है क्या चीज़ हमको बताओ, ये किसने शुरू की हमें भी सुनाओ” मेमसाहब को माज़रा समझते देर न लगी, वे बेबी के कमरे में दौड़कर उसे संभाल आई थीं । उनकी पारखी निगाहों ने भाँप लिया था कि क्या कुछ पिछली रात वहाँ गुज़रा होगा ।

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