मम्मी
नाम इस का मिसिज़ स्टेला जैक्सन था मगर सब उसे मम्मी कहते थे। दरमयाने क़द की अधेड़ उम्र की औरत थी। उस का ख़ाविंद जैक्सन पिछली से पिछली जंग-ए-अज़ीम में मारा गया था उस की पैंशन स्टेला को क़रीब क़रीब दस बरस से मिल रही थी।
वो पूना में कैसे आई। कब से वहां थी। इस के मुतअल्लिक़ मुझे कुछ मालूम नहीं। दरअसल मैंने उस के महल्ल-ए-वक़ूअ के मुतअल्लिक़ कभी जानने की कोशिश ही नहीं की थी। वो इतनी दिलचस्प औरत थी कि उस से मिल कर सिवाए उस की ज़ात से और किसी चीज़ से दिलचस्पी नहीं रहती थी। उस से कौन कौन वाबस्ता है। इस के बारे में कुछ जानने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती थी इस लिए कि वो पूना के हर ज़र्रे से वाबस्ता थी। हो सकता है ये एक हद तक मुबालग़ा हो। मगर पूना मेरे लिए वही पूना है और उस के वही ज़र्रे, उस के तमाम ज़र्रे हैं जिन के साथ मेरी चंद यादें मुंसलिक हैं..... और मम्मी की अजीब-ओ-ग़रीब शख़्सियत इन में से हर एक में मौजूद है।
इस से मेरी पहली मुलाक़ात पूने ही में हुई... में निहायत सुस्त-उल-वजूद इंसान हूँ। यूं तो सैर-ओ-सियाहत की बड़ी बड़ी उमंगें मेरे दिल में मौजूद हैं। आप मेरी बातें सुनें तो आप समझीएगा कि मैं अनक़रीब कंचन चंगा या हिमाला की इसी क़िस्म के नाम की किसी और चोटी को सर करने के लिए निकल जाने वाला हूँ। ऐसा हो सकता है मगर ये ज़्यादा अग़्लब है कि मैं ये चोटी सर करके वहीं का हो रहूं।
ख़ुदा मालूम कितने बरस से बंबई में था। आप इस से अंदाज़ा कर सकते हैं कि जब पूने गया तो बीवी मेरे साथ थी। एक लड़का हो कर उस को मरे क़रीब क़रीब चार बरस हो चुके थे। इस दौरान में.......ठहरिए मैं हिसाब लगालूं....... आप ये समझ लीजिए कि आठ बरस से बंबई में था। मगर इस दौरान में मुझे वहां का विकटोरीया गार्डन्ज़ और म्यूज़ीयम देखने की भी तौफ़ीक़ नहीं हुई थी। ये तो महज़ इत्तिफ़ाक़ था कि मैं एक दम पूना जाने के लिए तैय्यार होगया। जिस फ़िल्म कंपनी में मुलाज़िम था उस के मालिकों से एक निकम्मी सी बात पर दिल में नाराज़ी पैदा हुई और मैंने सोचा कि ये तकद्दुर दूर करने के लिए पूना हो आऊं। वो भी इस लिए कि पास था और वहां मेरे चंद दोस्त रहते थे।
मुझे प्रभात नगर जाना था। जहां मेरा फिल्मों का एक पुराना साथी रहता था। स्टेशन के बाहर मालूम हुआ कि ये जगह काफ़ी दूर है। मगर उस वक़्त हम तांगा ले चुके थे। सुस्त रो चीज़ों से मेरी तबीयत सख़्त घबराती है। मगर मैं अपने दिल से कदूरत दूर करने के लिए आया था इस लिए मुझे प्रभात नगर पहुंचने में कोई उजलत नहीं थी।
ताँगा बहुत वाहीयात क़िस्म का था। अलीगढ़ के यक्कों से भी ज़्यादा वाहीयात। हर वक़्त गिरने का ख़तरा रहता है। घोड़ा आगे चलता है और सवारियां पीछे। एक दो गर्द से अटे हुए बाज़ार उफ़्तां-ओ-ख़ीज़ां तय हुए तो मेरी तबीयत घबरा गई। मैंने अपनी बीवी से मश्वरा किया और पूछा कि “ऐसी सूरत में क्या करना चाहिए।” उस ने कहा कि “धूप तेज़ है।” मैंने जो और तांगे देखे हैं वो भी इसी क़िस्म के हैं। अगर उसे छोड़ दिया तो पैदल चलना होगा, जो ज़ाहिर है कि इस सवारी से ज़्यादा तकलीफ़देह है। मैंने उस से इख़्तिलाफ़ मुनासिब न समझा....... धूप वाक़ई तेज़ थी।
घोड़ा एक फर्लांग आगे बढ़ा होगा कि पास से इसी होनक़ टाइप का एक ताँगा गुज़रा। मैंने सरसरी तौर पर देखा। एक दम कोई चीख़ा “ओए मंटो घोड़े!”
में चौंक पड़ा। चड्डा था। एक घिसी हुई मेम के साथ। दोनों साथ साथ जुड़ के बैठे थे। मेरा पहला रद्द-ए-अमल इंतिहाई अफ़सोस का था कि चड्डे की जमालियाती हिस कहाँ गई जो ऐसी लाल लगामी के साथ बैठा है। उम्र का ठीक अंदाज़ा तो मैंने उस वक़्त नहीं किया था मगर उस औरत की झुरयां पाउडर और रोज की तहों में से भी साफ़ नज़र आरही थी। इतना शोख़ मेकअप था कि बसारत को सख़्त कोफ़्त होती थी।
चड्डे को एक अर्से के बाद मैंने देखा था। वो मेरा बेतकल्लुफ़ दोस्त था। “ओए मंटो घोड़े” के जवाब में यक़ीनन मैंने भी कुछ इसी क़िस्म का नारा बुलंद किया था, मगर उस औरत को उस के साथ देख कर मेरी सारी बेतकल्लुफ़ी झुर्रियां झुर्रियां होगई।
मैंने अपना ताँगा रुकवा लिया। चड्डे ने भी अपने कोचवान से कहा कि ठहर जाये फिर उस ने उस औरत से मुख़ातब हो कर अंग्रेज़ी में कहा “मी जस्ट ए मिनट।” तांगे से कूद कर वो मेरी तरफ़ अपना हाथ बढ़ाते हुए चीख़ा “तुम?.......तुम यहां कैसे आए हो।” फिर अपना बढ़ा हुआ हाथ बड़े बेतकल्लुफ़ी से मेरी पुरतकलफ़ बीवी से मिलाते हुए कहा। “भाबी जान.......आप ने कमाल कर दिया....... इस गुल मुहम्मद को आख़िर आप खींच कर यहां ले ही आईं।”
मैंने उस से पूछा। “तुम जा कहाँ रहे हो?”
चड्डे ने ऊंचे सुरों में कहा। “एक काम से जा रहा हूँ....... तुम ऐसा करो सीधे....... ” वो एक दम पलट कर मेरे तांगे वाले से मुख़ातब हुआ “देखो साहब को हमारे घर ले जाओ....... किराया विराया मत लेना इन से।” उधर से फ़ौरन ही फ़ारिग़ हो कर उस ने निबटने के अंदाज़ में मुझ से कहा। “तुम जाओ। नौकर वहां होगा.......बाक़ी तुम देख लेना।”
और वो फ़ुदक कर अपने तांगे में उस बूढ़ी मेम के साथ बैठ गया जिस को उस ने मम्मी कहा था। उस से मुझे एक गूना तसकीन हुई थी बल्कि यूं कहिए कि वो बोझ जो एक दम दोनों को साथ साथ देख कर मेरे सीने पर आ पड़ा था काफ़ी हद तक हल्का हो गया था।
उस का ताँगा चल पड़ा। मैंने अपने तांगे वाले से कुछ न कहा। तीन या चार फर्लांग चल कर वो एक डाक बंगला नुमा क़िस्म की इमारत के पास रुका और नीचे उतर गया “चलिए साहब।”
मैंने पूछा “कहाँ?”
उस ने जवाब दिया “चड्डा साहब का मकान यही है।”
“ओह” मैंने सवालिया नज़रों से अपनी बीवी की तरफ़ देखा। उस के तेवरों ने मुझे बताया कि वो चड्डे के मकान के हक़ में नहीं थी। सच्च पूछिए तो वो पूना ही के हक़ में नहीं थी। उस को यक़ीन था कि मुझे वहां पीने पिलाने वाले दोस्त मिल जाऐंगे। तकद्दुर दूर करने का बहाना पहले ही से मौजूद था, इस लिए दिन रात उड़ेगी....... मैं तांगे से उतर गया। छोटा सा अटैची केस था, वो मैंने उठाया और अपनी बीवी से कहा “चलो!”
वो ग़ालिबन मेरे तेवरों से पहचान गई थी कि उसे हर हालत में मेरा फ़ैसला क़बूल करना होगा। चुनांचे उस ने हील-ओ-हुज्जत न की और ख़ामोश मेरे साथ चल पड़ी।
बहुत मामूली क़िस्म का मकान था। ऐसा मालूम होता था कि मिल्ट्री वालों ने आरज़ी तौर पर एक छोटा सा बंगला बनाया था। थोड़ी देर उसे इस्तिमाल किया और चलते बने। चूने और गच का काम बड़ा कच्चा था। जगह जगह से पलस्तर उखड़ा हुआ था। और घर का अंदरूनी हिस्सा वैसा ही था जैसा कि एक बेपर्वा कुंवारे का हो सकता है, जो फिल्मों का हीरो हो, और ऐसी कंपनी में मुलाज़िम हो जहां माहाना तनख़्वाह हर तीसरे महीने मिलती है और वो भी क़िस्तों में।
मुझे इस का पूरा एहसास था कि वो औरत जो बीवी हो, ऐसे गंदे माहौल में यक़ीनन परेशानी और घुटन महसूस करेगी, मगर मैंने ये सोचा था कि चड्डा आजाए तो उस के साथ ही प्रभात नगर चलेंगे। वहां जो मेरा फिल्मों का पुराना साथी रहता था, उस की बीवी और बाल बच्चे भी थे। वहां के माहौल में मेरी बीवी क़हर दरवेश बरजान दरवेश दो तीन दिन गुज़ार सकती थी।
नौकर भी अजीब ला-उबाली आदमी था। जब हम घर में दाख़िल हुए तो सब दरवाज़े खुले थे, मगर वो मौजूद नहीं था। जब आया तो उस ने हमारी मौजूदगी का कोई नोटिस न लिया। जैसे हम सालहा साल से वहीं बैठे थे और इसी तरह बैठे रहने का इरादा रखते थे।
जब वो कमरे में दाख़िल हो कर हमें देखे बग़ैर पास से गुज़र गया तो मैं समझा कि शायद कोई मामूली ऐक्टर है जो चड्डा के साथ रहता है। पर जब मैंने उस से नौकर के बारे में इस्तिफ़सार किया तो मालूम हुआ कि वही ज़ात-ए-शरीफ़ चड्डा साहब के चहेते मुलाज़िम थे।
मुझे और मेरी बीवी दोनों को प्यास लग रही थी। उस से पानी लाने को कहा तो वो गिलास ढ़ूढ़ने लगा। बड़ी देर के बाद उस ने एक टूटा हुआ मग अलमारी के नीचे से निकाला और बड़बड़ाया “रात एक दर्जन गिलास साहब ने मंगवाए थे। मालूम नहीं किधर गए।”
मैंने उस के हाथ में पकड़े हुए शिकस्ता मग की तरफ़ इशारा किया। क्या आप इस में तेल लेने जा रहे हैं।
तेल लेने जाना, बंबई का एक ख़ास मुहावरा है। मेरी बीवी इस का मतलब न समझी, मगर हंस पड़ी। नौकर किसी क़दर बोझला गया। “नहीं साहब....... मैं....... तलास कर रहा था कि गिलास कहाँ हैं।”
मेरी बीवी ने उस को पानी लाने से मना कर दिया। उस ने वो टूटा हुआ मग वापस अलमारी के नीचे इस अंदाज़ से रखा कि जैसे वही उस की जगह थी। अगर उसे कहीं और रख दिया जाता तो यक़ीनन घर का सारा निज़ाम दरहम बरहम हो जाता। इस के बाद वो यूं कमरे से बाहर निकला जैसे उस को मालूम था कि हमारे मुँह में कितने दाँत हैं।
मैं पलंग पर बैठा था जो ग़ालिबन चड्डे का था। इस से कुछ दूर हट कर दो आराम कुर्सियां थीं। इन में से एक पर मेरी बीवी बैठी पहलू बदल रही थी। काफ़ी देर तक हम दोनों ख़ामोश रहे। इतने में चड्डा आगया। वो अकेला था। उस को इस बात का क़तअन एहसास नहीं था कि हम उस के मेहमान हैं। और इस लिहाज़ से हमारी ख़ातिरदारी उस पर लाज़िम थी। कमरे के अंदर दाख़िल होते ही उस ने मुझ से कहा “वेट इज़ वेट.......तो तुम आगए ओलड ब्वॉय....... चलो ज़रा स्टूडीयो तक हो आएं। तुम साथ होगे तो ऐडवान्स मिलने में आसानी हो जाएगी.......आज शाम को....... ” मेरी बीवी पर उस की नज़र पड़ी तो वो रुक गया और खिलखिला कर हँसने लगा। “भाबी जान, कहीं आप ने इसे मौलवी तो नहीं बना दिया” फिर और ज़ोर से हंसा। “मौलवियों की ऐसी तैसी, उठो मंटो। भाबी जान यहां बैठी हैं। हम अभी आजाऐंगे!”
मेरी बीवी जल कर पहले कोयला थी तो अब बिलकुल राख होगई थी। मैं उठा और चड्डा के साथ होलिया। मुझे मालूम था कि थोड़ी देर पेच-ओ-ताप खा कर वो सो जाएगी, चुनांचे यही हुआ। स्टूडीयो पास ही था। अफ़रा-तफ़री में मेहता जी के सर चढ़ के चड्डे ने मुबलग़ दो सौ रुपय वसूल किए। और हम पौन घंटे में जब वापिस आए तो देखा कि वो आराम कुर्सी पर बड़े आराम से सो रही थी। हम ने उसे बे आराम करना मुनासिब न समझा और दूसरे कमरे में चले गए जो कबाड़ ख़ाने से मिलता जुलता था। इस में जो चीज़ थी हैरत अंगेज़ तरीक़े पर टूटी हुई थी कि सब मिल कर एक सालिमगी इख़्तियार करगई थीं।
हर शैय गर्द आलूद थी, और इस आलूदगी में एक ज़रूरी पन था। जैसे उस की मौजूदगी इस कमरे की बोहीमी फ़िज़ा की तकमील के लिए लाज़मी थी। चड्डे ने फ़ौरन ही अपने नौकर को ढूंढ निकाला और उसे सौ रुपय का नोट दे कर कहा। “चीन के शहज़ादे.......दो बोतलें थर्ड क्लास रम की ले आओ....... मेरा मतलब है थ्री ऐक्स रम की और निस्फ़ दर्जन गिलास।”
मुझे बाद में मालूम हुआ कि उस का नौकर सिर्फ़ चीन ही का नहीं। दुनिया के हर बड़े मुल्क का शहज़ादा था। चड्डे की ज़बान पर जिस का नाम आजाता, वो उसी का शहज़ादा बन जाता था.......उस वक़्त का चीन का शहज़ादा सौ का नोट उंगलीयों से खड़खड़ाता चला गया।
चड्डे ने टूटे हुए स्प्रिंगों वाले पलंग पर बैठ कर अपने होंट थ्री ऐक्स रम के इस्तिक़बाल में चटख़ारते हुए कहा “डेट अज़ डेट.......तो आफ़टर ऑल तुम इधर आ ही निकले....... ” लेकिन एक दम मुतफ़क्किर होगया। “यार, भाभी का क्या हुआ.......वो तो घबरा जाएगी।”
चड्डा बग़ैर बीवी के था, मगर उस को दूसरों की बीवियों का बहुत ख़याल रहता था। वो इस का इस क़दर एहतिराम करता था कि सारी उम्र कुँवारा रहना चाहता था, वो कहा करता था। “ये एहसास-ए-कमतरी है जिस ने मुझे अभी तक इस नेअमत से महरूम रखा है। जब शादी का सवाल आता तो फ़ौरन तैय्यार हो जाता हूँ। लेकिन बाद में ये सोच कर कि मैं बीवी के क़ाबिल नहीं हूँ सारी तैय्यारी कोल्ड स्टोरेज में डाल देता हूँ।”
रम फ़ौरन ही आगई। और गिलास भी। चड्डे ने छः मंगवाए थे। और चीन का शहज़ादा तीन लाया था। बक़ाया तीन रास्ते में टूट गए थे। चड्डे ने उन की कोई पर्वा न की, और ख़ुदा का शुक्र किया कि बोतलें सलामत रहीं। एक बोतल जल्दी जल्दी खोल कर इस ने कुंवारे गिलासों में रम डाली और कहा “तुम्हारे पूने आने की ख़ुशी में।”
हम दोनों ने लंबे लंबे घूँट भरे और गिलास ख़ाली कर दिए।
दूसरा दौर शुरू कर के चड्डा उठा और दूसरे कमरे में देख कर आया कि मेरी बीवी अभी तक सो रही है। उस को बहुत तरस आया और कहने लगा। “मैं शोर करता हूँ उन की नींद खुल जाएगी.......फिर ऐसा करेंगे....... ठहरो....... पहले में चाय मंगवाता हूँ।” ये कह कर इस ने रम का एक छोटा सा घूँट लिया और नौकर को आवाज़ दी जमैका के शहज़ादे।
जमैका का शहज़ादा फ़ौरन ही आगया। चड्डे ने इस से कहा। “देखो, मम्मी से कहो, एक दम फस्ट क्लास चाय तैय्यार करके भेज दे....... एक दम!”
नौकर चला गया। चड्डे ने अपना गिलास ख़ाली किया और शरीफ़ाना पैग डाल कर कहा। “मैं फ़िलहाल ज़्यादा नहीं पियूंगा। पहले चार पैग मुझे बहुत जज़बाती बना देते हैं। मुझे भाभी को छोड़ने तुम्हारे साथ प्रभात नगर जाना है।
आधे घंटे के बाद चाय आगई। बहुत साफ़ बर्तन थे और बड़े सलीक़े से ट्रे में चुने हुए थे। चड्डे ने टी कोज़ी उठा कर चाय की ख़ुशबू सूंघी और मुसर्रत का इज़हार किया। “मी अज़ ए जीवल.......!” उस ने एथोपीया के शहज़ादे पर बरसना शुरू कर दिया। इतना शोर मचाया कि मेरे कान बिलबिला उठे। इस के बाद इस ने ट्रे उठाई और मुझ से कहा। “आओ।”
मेरी बीवी जाग रही थी। चड्डे ने ट्रे बड़ी सफ़ाई से शिकस्ता तिपाई पर रखी और मोअद्दबाना कहा। “हाज़िर है बेगम साहब!”
मेरी बीवी को ये मज़ाक पसंद न आया, लेकिन चाय का सामान चूँकि साफ़ सुथरा था इस लिए उस ने इनकार न किया और दो प्यालियां पी लीं। इन से उस को कुछ फ़र्हत पहुंची और उस ने हम दोनों से मुख़ातब हो कर मानी ख़ेज़ लहजे में कहा। “आप अपनी चाय तो पहले ही पी चुके हैं!”
मैंने जवाब न दिया मगर चड्डे ने झुक कर बड़े ईमानदाराना तौर पर कहा। “जी हाँ, ये ग़लती हम से सरज़द हो चुकी है, लेकिन हमें यक़ीन था कि आप ज़रूर माफ़ करदेंगी।”
मेरी बीवी मुस्कुराई तो वो खिलखिला के हंसा। “हम दोनों बहुत ऊंची नसल के सुअर हैं....... जिन पर हर हराम शैय हलाल है!....... चलिए, अब हम आप को मस्जिद तक छोड़ आएं!”
मेरी बीवी को फिर चड्डे का ये मज़ाक पसंद न आया। दरअसल उस को चड्डे ही से नफ़रत थी, बल्कि यूं कहिए कि मेरे हर दोस्त से नफ़रत थी। और चड्डा बिलख़ुसूस उसे बहुत खलता था, इस लिए कि वो बाअज़ औक़ात बेतकल्लुफ़ी की हदूद भी फांद जाता था, मगर चड्डे को उस की कोई परवाह नहीं थी। मेरा ख़याल है उस ने कभी इस के बारे में सोचा ही नहीं था। वो ऐसी फ़ुज़ूल बातों में दिमाग़ ख़र्च करना एक ऐसी इंडोर गेम समझता था जो लोडो से कई गुना लायानी है। उस ने मेरी बीवी के जले भुने तेवरों को बड़ी हश्शाश बश्शाश आँखों से देखा और नौकर को आवाज़ दी। “क़बाबिस्तान के शहज़ादे.......एक अदद तांगा लाओ। रोल्ज़ राईस क़िस्म का।”
क़बाबिस्तान का शहज़ादा चला गया और साथ ही चड्डा। वो ग़ालिबन दूसरे कमरे में गया था। तख़लिया मिला तो मैंने अपनी बीवी को समझाया कि कबाब होने की कोई ज़रूरत नहीं। इंसान की ज़िंदगी में ऐसे लमहात आही जाया करते हैं जो वहम-ओ-गुमान में भी नहीं होते। उन को बसर करने के लिए सब से अच्छा तरीक़ा यही है कि उन को गुज़र जाने दिया जाये। लेकिन हसब-ए-मामूल उस ने मेरी इस कनफ़ियूशसाना नसीहत को पल्ले ना बांधा और बड़बड़ाती रही। इतने में क़बाबिस्तान का शहज़ादा रोल्ज़ राईस क़िस्म का तांगा लेकर आगया। हम प्रभात नगर रवाना होगए।
बहुत ही अच्छा हुआ कि मेरा फिल्मों का पुराना साथी घर में मौजूद नहीं था। उस की बीवी थी, चड्डे ने मेरी बीवी इस के सपुर्द की और कहा “ख़रबूज़ा, ख़रबूज़े को देख कर रंग पकड़ता है। बीवी, बीवी को देख कर रंग पकड़ती है, ये हम अभी हाज़िर हो के देखेंगे।” फिर वो मुझ से मुख़ातब हुआ। “चलो मंटो, स्टूडीयो में तुम्हारे दोस्त को पकड़ें।”
चड्डा कुछ ऐसी अफ़रातफ़री मचा दिया करता था कि मुख़ालिफ़ कुव्वतों को समझने सोचने का बहुत कम मौक़ा मिलता था। उस ने मेरा बाज़ू पकड़ा और बाहर ले गया और मेरी बीवी सोचती ही रह गई। तांगे में सवार हो कर चड्डे ने अब कुछ सोचने के अंदाज़ में कहा। “ये तो हो गया.......अब क्या प्रोग्राम है।” फिर खिलखिला कर हंसा। “मम्मी....... ग्रेट मम्मी!”
मैं उस से पूछने ही वाला था, ये मम्मी किस तूतन्ख आमून की औलाद है, कि चड्डे ने बातों का कुछ ऐसा सिलसिला शुरू कर दिया कि मेरा इस्तिफ़सार ग़ैर तिब्बी मौत मर गया।
ताँगा वापस उस डाक बंगला नुमा कोठी पर पहुंचा जिस का नाम सईदा काटेज था, मगर चड्डा उस को कबीदा काटेज कहता था। इस लिए कि इस में रहने वाले सब के सब कबीदा ख़ातिर रहते हैं। हालाँकि ये ग़लत था जैसे कि मुझे बाद में मालूम हुआ।
इस काटेज में काफ़ी आदमी रहते थे हालाँकि बादियुन्नज़र में ये जगह बिलकुल ग़ैर आबाद मालूम होती थी। सब के सब इसी फ़िल्म कंपनियों में मुलाज़िम जो महीने की तनख़्वाह हर सहि माही के बाद देती थी और वो भी कई क़िस्तों में। एक एक करके जब उस के साकिनों से मेरा तआरुफ़ हुआ तो पता चला कि सब असिस्टैंट डायरेक्टर थे। कोई चीफ़ असिस्टैंट डायरेक्टर, कोई उस का नायब, कोई नायब दर नायब। हर दूसरा, किसी पहले का असिस्टैंट था और अपनी ज़ाती फ़िल्म कंपनी की बुनियादें उस्तवार करने के लिए सरमाया फ़राहम कर रहा था। पोशिश और वज़ा क़ता के एतबार से हर एक हीरो मालूम होता था कंट्रोल का ज़माना था। मगर किसी के पास राशन कार्ड नहीं था। वो चीज़ें भी जो थोड़ी सी तकलीफ़ के बाद आसानी से कम क़ीमत पर दस्तयाब हो सकती थी। ये लोग ब्लैक मार्कीट से खरीदते थे। पिक्चर ज़रूर देखते थे। रेस का मौसम हो तो रेस खेलते थे वर्ना सट्टा। जीतते शाज़-ओ-नादिर थे, मगर हारते हर रोज़ थे।
सईदा काटेज की आबादी बहुत ग़नजान थी। चूँकि जगह कम थी इस लिए मोटर गिर्राज भी रिहाइश के लिए इस्तिमाल होता था। इस में एक फ़ैमिली रहती थी। शीरीं नाम की एक औरत थी जिस का ख़ाविंद शायद, महज़ यकसानियत तोड़ने के लिए असिस्टैंट डायरेक्टर नहीं था। वो इसी फ़िल्म कंपनी में मुलाज़िम था मगर मोटर ड्राईवर था। मालूम नहीं, वो कब आता था....... और कब जाता था, क्योंकि मैंने इस शरीफ़ आदमी को वहां कभी नहीं देखा था। शीरीं के बतन से एक छोटा सा लड़का था जिस को सईदा काटेज के तमाम साकिन फ़ुर्सत के औक़ात में प्यार करते। शीरीं जो क़बूलसूरत थी अपना बेशतर वक़्त गिर्राज के अंदर गुज़ारती थी।
काटेज का मुअज़्ज़ज़ हिस्सा चड्डे और उस के दो साथीयों के पास था। ये दोनों भी ऐक्टर थे, मगर हीरो नहीं थे। एक सईद था जिस का फ़िल्मी नाम रणजीत कुमार था। चड्डा कहा करता था। “सईदा काटेज इस ख़रज़ात के नाम की रियायत से मशहूर है वर्ना इस का नाम कबीदा काटेज ही था।” ख़ुश शक्ल था और बहुत कमगो। चड्डा कभी कभी उसे कछवा कहा करता था, इस लिए कि वो हर काम बहुत आहिस्ता आहिस्ता करता था।
दूसरे ऐक्टर का नाम मालूम नहीं किया था मगर सब उसे ग़रीब-नवाज़ कहते थे। हैदराबाद के एक मुतमव्विल घराने से तअल्लुक़ रखता था। ऐक्टिंग के शौक़ में यहां चला आया। तनख़्वाह ढाई सौ रुपय माहवार मुक़र्रर थी। एक बरस हो गया था मुलाज़िम हुए मगर इस दौरान में उस ने सिर्फ़ एक दफ़ा ढाई सौ रुपय बतौर ऐडवान्स लिए थे, वो भी चड्डे के लिए, कि इस पर एक बड़े ख़ूँख़वाह पठान के क़र्ज़ की अदायगी लाज़िम होगई थी। अदब-ए-लतीफ़, क़िस्म की इमारत में फ़िल्मी कहानियां लिखना उस का शग़ल था। कभी कभी शेअर भी मौज़ूं कर लेता था। काटेज का हर शख़्स उस का मक़रूज़ था।
शकील और अक़ील दो भाई थे। दोनों किसी असिस्टैंट डायरेक्टर के असिस्टैंट थे और बरअक्स नाम-ए-नहनद नाम-ए-ज़ंगी बा काफ़ूर की ज़र्बुलमिसाल के इबताल की कोशिश में हमा-तन मसरूफ़ रहते थे।
बड़े तीन, यानी चड्डा, सईद और ग़रीब-नवाज़ शीरीं का बहुत ख़याल रखते थे लेकिन तीनों इकट्ठे गिर्राज में नहीं जाते थे। मिज़ाजपुर्सी का कोई वक़्त भी मुक़र्रर नहीं था। तीनों जब काटेज के बड़े कमरे में जमा होते तो इन में से एक उठ कर गिर्राज में चला जाता और कुछ देर वहां बैठ कर शीरीं से घरेलू मुआमलात पर बातचीत करता रहता। बाक़ी दो अपने अश्ग़ाल में मसरूफ़ रहते।
जो असिस्टैंट क़िस्म के लोग थे, वो शीरीं का हाथ बटाया करते थे। कभी बाज़ार से उस को सौदा सलफ़ ला दिया। कभी लांड्री में उस के कपड़े धुलने दे आए और कभी उस के रोते बच्चे को बहला दिया।
इन में से कबीदाख़ातिर कोई भी न था। सब के सब मसरूर थे, शायद अपनी कबीदगी पर, वो अपने हालात की ना-मुसाअत का ज़िक्र भी करते थे तो बड़े शादां-ओ-फ़रहां अंदाज़ में। इस में कोई शक नहीं कि उस की ज़िंदगी बहुत दिलचस्प थी।
हम काटेज के गेट में दाख़िल होने वाले थे कि ग़रीब-नवाज़ साहब बाहर आरहे थे। चड्डे ने उन की तरफ़ ग़ौर से देखा और अपनी जेब में हाथ डाल कर नोट निकाले। बग़ैर गिने उस ने कुछ ग़रीबनवाज़ को दिए और कहा चार बोतलें स्काच की चाहिऐं। कमी आप पूरी करदीजिएगा। बेशी हो तो वो मुझे वापस मिल जाये।
ग़रीबनवाज़ के हैदराबादी होंटों पर गहरी सांवली मुस्कुराहट नमूदार हुई। चड्डा खिलखिला कर हंसा और मेरी तरफ़ देख कर उस ने ग़रीबनवाज़ से कहा। “ये मिस्टर वन टू हैं.......लेकिन इन से मुफ़स्सल मुलाक़ात की इजाज़त इस वक़्त नहीं मिल सकती। ये रम पिए हैं। शाम को स्काच आजाए तो.......लेकिन आप जाईए।”
ग़रीबनवाज़ चला गया। हम अंदर दाख़िल हुए। चड्डे ने एक ज़ोर की जमाई ली और रम की बोतल उठाई जो निस्फ़ से ज़्यादा ख़ाली थी। उस ने रौशनी में मिक़दार का सरसरी अंदाज़ा किया और नौकर को आवाज़ दी। “क़ज़क़िस्तान के शहज़ादे।” जब वो नुमूदार ना हुआ तो उस ने अपने गिलास में एक बड़ा पैग डालते हुए कहा। “ज़्यादा पी गया है कमबख़्त!”
ये गिलास ख़त्म करके वो कुछ फ़िक्रमंद होगया। “यार, भाभी को तुम ख़्वाहमख़्वाह यहां लाए। ख़ुदा की क़सम मुझे अपने सीने पर एक बोझ सा महसूस हो रहा है।” फिर उस ने ख़ुद ही अपने को तसकीन दी। “लेकिन मेरा ख़याल है कि बोर नहीं होंगी वहां?”
मैंने कहा। “हाँ वहां रह कर वो मेरे क़त्ल का फ़ौरी इरादा नहीं कर सकती” और मैंने अपने गिलास में रम डाली जिस का ज़ायक़ा बुसे हुए गड़ की तरह था
जिस कबाड़ ख़ाने में हम बैठे थे इस में सलाख़ों वाली दो खिड़कियां थीं जिस से बाहर का ख़ैर आबाद हिस्सा नज़र आता था। उधर से किसी ने बा-आवाज़-ए-बुलंद चड्डा का नाम लेकर पुकारा। मैं चौंक पड़ा। देखा कि म्यूज़िक डायरेक्टर वन कुतरे है। कुछ समझ में नहीं आता था कि वो किस नसल का है। मंगोली है, हब्शी है, आर्या है, या क्या बला है। कभी कभी उस के किसी ख़द्द-ओ-ख़ाल को देख कर आदमी किसी नतीजे पर पहुंचने ही वाला होता था कि उस के तक़ाबुल में कोई ऐसा नक़्श नज़र आजाता कि फ़ौरन ही नए सिरे से ग़ौर करना पड़ जाता था। वैसे वो मरहट्टा था, मगर शिवाजी की तीखी नाक की बजाय उस के चेहरे पर बड़े हैरतनाक तरीक़े पर मुड़ी हुई चपटी नाक थी जो उस के ख़याल के मुताबिक़ उन सरों के लिए बहुत ज़रूरी थी। जिन का तअल्लुक़ बराह-ए-रास्त नाक से होता है। उस ने मुझे देखा तो चिल्लाया “मंटो.......मंटो सेठ?”
चड्डे ने उस से ज़्यादा ऊंची आवाज़ में कहा। “सेठ की ऐसी तैसी.......चल अंदर आ”
वो फ़ौरन अन्दर आगया। अपनी जेब से उस ने हंसते हुए रम की एक बोतल निकाली और तिपाई पर रख दी। “मैं साला उधर मम्मी के पास गया। वो बोला। तुम्हारे फ्रैंड आए ला....... मैं बोला साला ये फ्रैंड कौन होने को सकता है.......साला मालूम ना था मंटो है।”
चड्डे ने वन कुतरे के कद्दू ऐसे सर पर एक धूल जमाई। “अब चेक कर साले के.......तू रम ले आया.......बस ठीक है।” वन क़ुतरे ने अपना सर सहलाया और मेरा ख़ाली गिलास उठा कर अपने लिए पैग तैय्यार किया। “मंटो.......ये साला आज मिलते ही कहने लगा। आज पीने को जी चाहता है....... मैं एक दम कड़का.......सोचा क्या करूं....... ”
चड्डे ने एक और धप्पा उस के सर पर जमाया। “बैठ बे, जैसे तू ने कुछ सोचा ही होगा।”
“सोचा नहीं तो साला ये इतनी बड़ी बाटली कहाँ से आया....... तेरे बाप ने दिया मुझ को।” वन क़ुतरे ने एक ही जर्रे में रम ख़त्म करदी। चड्डे ने उस की बात सुनी-अन-सुनी करदी और उस से पूछा। “तू ये तो बता कि मम्मी क्या बोली?.......बोली थी?.......मोज़ील कब आएगी?....... अरे हाँ....... वो प्लैटिनम बलोनड!”
वन क़ुतरे ने जवाब में कुछ कहना चाहा मगर चड्डे ने मेरा बाज़ू पकड़ कर कहना शुरू कर दिया। “मंटो .......ख़ुदा की क़सम क्या चीज़ है.......सुना करते थे कि अक्षय प्लैटिनम बलोनड भी होती है। मगर देखने का इत्तिफ़ाक़ कल हुआ....... बाल हैं, जैसे चांदी के महीन महीन तार.......ग्रेट.......ख़ुदा की क़सम मंटो बहुत ग्रेट....... मम्मी ज़िंदाबाद!” फिर उस ने क़हर आलूद निगाहों से वन क़ुतरे की तरफ़ देखा और कड़क कर कहा। “वन क़ुतरे के बच्चे....... नारा क्यों नहीं लगाता.......मम्मी ज़िंदाबाद!”
चड्डे और वन क़ुतरे दोनों ने मिल कर मम्मी ज़िंदाबाद के कई नारे लगाए। इस के बाद वन क़ुतरे ने चड्डे के सवालों का फिर जवाब देना चाहा मगर उस ने उसे ख़ामोश कर दिया। “छोड़ो यार....... मैं जज़्बाती होगया हूँ....... इस वक़्त ये सोच रहा हूँ कि आम तौर पर माशूक़ के बाल स्याह होते हैं। जिन्हें काली घटा से तशबीह दी जाती रही है....... मगर यहां कुछ और ही सिलसिला होगया है....... ” फिर वो मुझ से मुख़ातब हुआ। “मंटो.......बड़ी गड़बड़ होगई है। इस के बाल चांदी के तारों जैसे हैं....... चांदी का रंग भी नहीं कहा जा सकता....... मालूम नहीं प्लैटिनम का रंग कैसा होता है, क्योंकि मैंने अभी तक ये धात नहीं देखी....... कुछ अजीब ही सा रंग है.......फ़ौलाद और चांदी दोनों को मिला दिया जाये....... ”
वन क़ुतरे ने दूसरा पैग ख़त्म किया। “और उस में थोड़ी सी थ्री ऐक्स रम मिक्स करदी जाये।”
चड्डे ने भुन्ना कर उस को एक फ़र्बह अंदाम गाली दी....... “बकवास न कर।” फिर उस ने बड़ी रहम अंगेज़ नज़रों से मेरी तरफ़ देखा। “यार....... मैं वाक़ई जज़्बाती होगया हूँ.......हाँ....... वो रंग.......ख़ुदा की क़सम लाजवाब रंग है....... वो तुम ने देखा है....... वो जो मछलीयों के पेट पर होता है....... नहीं नहीं हर जगह होता है....... पोमग़रीट मछली....... इस के वो क्या होते हैं?....... नहीं नहीं.......साँपों के....... वो नन्हे नन्हे खपरे.......हाँ खपरे....... बस इन का रंग.......खपरे.......ये लफ़्ज़ मुझे एक हिंद सतोड़े ने बताया था....... इतनी ख़ूबसूरत चीज़ और ऐसा वाहीयात नाम....... पंजाबी में हम इन्हें चाने कहते हैं। इस अल्फ़ाज़ में चनचनहाहट है.......वही.......बिलकुल वही जो उस के बालों में है....... लटें नन्ही नन्ही संपोलियां मालूम होती हैं जो लोट लगा रही हैं....... ” वो एक दम उठा। “संपोलीयों की ऐसी तैसी, मैं जज़्बाती होगया हूँ।”
वन क़ुतरे ने बड़े भोले अंदाज़ में पूछा। “वो क्या होता है?”
चड्डे ने जवाब दिया। “सनटी मंटल.......लेकिन तू क्या समझेगा, बालाजी बाजी राउ और नाना फ़रनवेस की औलाद....... ”
वन क़ुतरे ने अपने लिए एक और पैग बनाया और मुझ से मुख़ातब हो कर कहा। “ये साला चड्डा समझता है, मैं इंग्लिश नहीं समझता हूँ। मीटरी कोलेट हूँ....... साला मेरा बाप मुझ से बहुत मोहब्बत करता था....... इस से....... ”
चड्डे ने चिड़ कर कहा। “उस ने तुझे तानसेन बना दिया.......तेरी नाक मरोड़ दी कि नकोड़े सर आसानी से तेरे अंदर से निकल सकें.......बचपन ही में उस ने तुझे धुरपदगाना सिख़ा दिया था। और दूध पीने के लिए तो मियां की टोड़ी में रोया करता था और पेशाब करते वक़्त उड़ाना में....... और तू ने पहली बात पिट वीपकी में की थी। और तेरा बाप....... जगत उस्ताद था। बेजोबावरे के भी कान काटता था.......और तू आज उस के कान काटता है, इसी लिए तेरा नाम कन क़ुतरे!”
इतना कह कर वो मुझ से मुख़ातब हुआ। “मंटो.......ये साला जब भी पीता है। अपने बाप की तारीफ़ें शुरू कर देता है....... वो इस से मोहब्बत करता था तो मुझ पर उस ने किया एहसान किया और इस ने उसे मीटरीकोलीट बना दिया तो इस का ये मतलब नहीं कि मैं अपनी बी ए की डिग्री फाड़ के फेंक दूं।”
वन क़ुतरे ने इस बौछार की मुदाफ़अत करना चाही मगर चड्डे ने उस को वहीं दबा दिया। “चुप रह....... मैं कह चुका हूँ कि सेन्टी मेंटल हो गया हूँ....... हाँ, वो रंग.......पोमफ़रीट मछली....... नहीं नहीं.......साँप के नन्हे नन्हे खपरे....... बस इंही का रंग....... मम्मी ने ख़ुदा मालूम अपनी बेन पर कौन सा राग बजा कर उस नागिन को बाहर निकाला?”
वन क़ुतरे सोचने लगा। “पेटी मँगाओ, मैं बजाता हूँ।”
चड्डा खिखला कर हँसने लगा। “बैठ बे मीटरी कोलेट के चाकोलेट....... ”
उस ने रम की बोतल में से रम के बाक़ियात अपने गिलास में उंडेले और मुझ से कहा। “मंटो, अगर ये प्लैटीनम बलोनड न पटी तो मिस्टर चड्डा हिमालया पहाड़ की किसी ऊंची चोटी पर धोनी रमा कर बैठ जाएगा....... ” और उस ने गिलास ख़ाली कर दिया।
वन क़ुतरे ने अपनी लाई हुई बोतल खोलनी शुरू करदी। “मंटो, मुल्गी एक चानगली है....... ”
मैंने कहा। “देख लेंगे।”
“आज ही.......आज रात मैं एक पार्टी दे रहा हूँ। ये बहुत ही अच्छा हुआ कि तुम आगए और श्री एक सौ आठ महित जी ने तुम्हारी वजह से वो ऐडवान्स दे दिया, वर्ना बड़ी मुश्किल हो जाती....... आज की रात.......आज की रात.......”
चड्डे ने बड़े भोंडे सुरों में गाना शुरू कर दिया :
“आज की रात साज़-ए-दर्द ना छेड़!”
वन क़ुतरे बेचारा उस की इस ज़्यादती पर सदा-ए-एहतिजाज बुलंद करने ही वाला था कि ग़रीबनवाज़ और रणजीत कुमार आगए। दोनों के पास स्काच की दो दो बोतलें थीं। ये उन्हों ने मेज़ पर रखीं। रणजीत कुमार से मेरे अच्छे ख़ासे मरासिम थे, मगर बेतकल्लुफ़ नहीं। इस लिए हम दोनों ने थोड़ी सी, आप कब आए, आज ही आया, ऐसी रस्मी गुफ़्तुगू की और गिलास टकरा कर पीने में मशग़ूल होगए।
चड्डा वाक़ई बहुत जज़्बाती होगया था। हर बात में इस प्लैटिनम बलोनड का ज़िक्र ले आता था। रणजीत कुमार दूसरी बोतल का चौथाई हिस्सा चढ़ा गया था। ग़रीबनवाज़ ने स्काच के तीन पैग पिए थे। नशे के मुआमले में इन सब की सतह अब एक ऐसी थी। में चूँकि ज़्यादा पीने का आदी हूँ इस लिए मेरे जज़बात मोतदिल थे। मैंने उन की गुफ़्तुगू से अंदाज़ा लगाया कि वो चारों इस नई लड़की पर बहुत बुरी तरह फ़रेफ़्ता थे। जो मम्मी ने कहीं से पैदा की थी। इस नायाब दाने का नाम फ़ीलस था। पूने में कोई हेयर ड्रेसिंग सैलून था जहां वो मुलाज़िम थी। उस के साथ आम तौर पर एक हीजड़ा नुमा लड़का रहता था। लड़की की उम्र चौदह पंद्रह बरस के क़रीब थी। ग़रीबनवाज़ तो यहां तक उस पर गर्म था कि वो हैदराबाद में अपने हिस्से की जायदाद बेच कर भी इस दाओं पर लगाने के लिए तैय्यार था। चड्डे के पास तिर्प का सिर्फ़ एक पत्ता था, अपना क़बूलसूरत होना। वन क़ुतरे का बज़ात-ए-ख़ुद ये ख़याल था कि उस की पेटी सुन कर वो परी ज़रूर शीशे में उतर आएगी। और रणजीत कुमार जारहाना अक़दाम ही को कारगर समझता था.......लेकिन सब आख़िर में यही सोचते थे कि देखिए मम्मी किसी पर क़ुर्बान होती है। इस से मालूम होता था कि इस प्लैटिनम बलोनड फ़ीलस को वो औरत जिसे मैंने चड्डे के साथ तांगे में देखा था, किसी के भी हवाले कर सकती थी।
फ़ीलस की बातें करते करते चड्डे ने अचानक अपनी घड़ी देखी और मुझ से कहा “जहन्नम में जाये ये लौंडिया....... चलो यार....... भाबी वहां कबाब हो रही होगी....... लेकिन मुसीबत ये है कि मैं कहीं वहां भी सेन्टी मेंटल न हो जाऊं.......ख़ैर.......तुम मुझे सँभाल लेना।” अपने गिलास के चंद आख़िरी क़तरे हलक़ में टपका कर उस ने नौकर को आवाज़ दी। “मम्मियों के मुल्क मिस्र के शहज़ादे।”
मम्मियों के मुल्क मिस्र का शहज़ादा आँखें मलता नुमूदार हुआ, जैसे किसी ने उस को सदीयों के बाद खोद खाद के बाहर निकाला है। चड्डे ने उस के चेहरे पर रम के छींटे मारे और कहा। “दो अदद तांगे लाओ....... जो मिस्री रथ मालूम हों।”
तांगे आ गए। हम सब उन पर लद कर प्रभात नगर रवाना हुए.......मेरा पुराना, फिल्मों का साथी हरीश घर पर मौजूद था। इस दूर दराज़ जगह पर भी उस ने मेरी बीवी की ख़ातिर मदारत में कोई दक़ीक़ा फ़िरोगुज़ाश्त नहीं किया था। चड्डे ने आँख के इशारे से उस को सारा मुआमला समझा दिया था, चुनांचे ये बहुत कारआमद साबित हुआ। मेरी बीवी ने ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब का इज़हार न किया। इस का वक़्त वहां कुछ अच्छा ही कटा था। हरीश ने जो औरतों के नफ़्सियात का माहिर था। बड़ी पुरलुत्फ़ बातें कीं, और आख़िर में मेरी बीवी से दरख़ास्त की कि वो उस की शूटिंग देखने चले जो उस रोज़ होने वाली थी मेरी बीवी ने पूछा। “कोई गाना फिलमा रहे हैं आप?”
हरीश ने जवाब दिया। “जी नहीं....... वो कल का प्रोग्राम है....... मेरा ख़याल है आप कल चलिएगा।”
हरीश की बीवी शूटिंग देख देख कर और दिखा दिखा कर आजिज़ आई हुई थी। उस ने फ़ौरन ही मेरी बीवी से कहा। “हाँ कल ठीक रहेगा.......आज तो इन्हें सफ़र की थकन भी है।”
हम सब ने इत्मिनन का सांस लिया। हरीश ने फिर कुछ देर पुर-लुत्फ़ बातें कीं। आख़िर में मुझ से कहा। “चलो यार....... तुम चलो मेरे साथ” और मेरे तीन साथीयों की तरफ़ देखा “इन को छोड़ो....... सेठ साहब तुम्हारी कहानी सुनना चाहते हैं।”
मैंने अपनी बीवी की तरफ़ देखा और हरीश से कहा “इन से इजाज़त ले लो।”
मेरी सादा लौह बीवी जाल में फंस चुकी थी। उस ने हरीश से कहा। “मैंने बमबई से चलते वक़्त इन से कहा भी था कि अपना डॉक्यूमेंट केस साथ ले चलिए, पर इन्हों ने कहा कोई ज़रूरत नहीं....... अब ये कहानी क्या सुनाएंगे।”
हरीश ने कहा। “ज़बानी सुना देगा” फिर उस ने मेरी तरफ़ यूं देखा जैसे कह रहा है कि हाँ कहो जल्दी।
मैंने इत्मिनान से कहा। “हाँ ऐसा हो सकता है!”
चड्डे ने इस ड्रामे में तकमीली टच दिया। “तो भई हम चलते हैं।” और वो तीनों उठ कर सलाम नमस्ते करके चले गए। थोड़ी देर के बाद मैं और हरीश निकले....... प्रभात नगर के बाहर तांगे खड़े थे। चड्डे ने हमें देखा तो ज़ोर का नारा बुलंद किया। “राजा हरीशचंद्र ज़िंदाबाद....... ”
हरीश के सिवा हम सब मम्मी के घर रवाना होगए। उस को अपनी एक सहेली से मिलने जाना था।
ये भी एक काटेज थी। शक्ल-ओ-सूरत और साख़त के एतबार से सईदा काटेज जैसी मगर बहुत साफ़ सुथरी जिस से मम्मी के सलीक़े और करीने का पता चलता था। फ़र्नीचर मामूली था मगर जो चीज़ जहां थी सजी हुई थी। प्रभात नगर से चलते वक़्त मैंने सोचा था कोई क़हबाख़ाना होगा, मगर इस घर की किसी चीज़ से भी बसारत को ऐसा शक नहीं होता था। वो वैसा ही शरीफ़ाना था जैसा कि एक औसत दर्जे के ईसाई का होता है। लेकिन मम्मी की उम्र के मुक़ाबले में वो जवान जवान दिखाई देता था। उस पर वो मेकअप्प नहीं था जो मैंने मम्मी के झुर्रियों वाले चेहरे पर देखा था। जब मम्मी ड्राइंगरूम में आई, तो मैंने सोचा कि गर्द-ओ-पेश शफ़क़त ने इस के गाल थपथपाए और कहा “तुम फ़िक्र न करो....... मैं अभी इंतिज़ाम करती हूँ।”
वो इंतिज़ाम करने बाहर चली गई। चड्डे ने ख़ुशी का एक और नारा बुलंद किया और वन क़ुतरे से कहा। “जनरल वन क़ुतरे.......जाओ हेड क्वाटर्रज़ से सारी तोपें ले आओ।”
वन क़ुतरे ने सेलूट किया और हुक्म की तामील के लिए चला गया। सईदा काटेज बिलकुल पास था, दस मिनट के अंदर अंदर वो बोतलें लेकर वापस आगया। साथ उस के चड्डे का नौकर था। चड्डे ने उस को देखा तो उस का इस्तिक़बाल किया। “आओ, आओ.......मेरे कोह-ए-क़ाफ़ के शहज़ादे....... वो.......वो साँप के खपड़ों जैसे रंग के बालों वाली लौंडिया आरही है.......तुम भी क़िसमत आज़माई कर लेना।”
रणजीत कुमार और ग़रीबनवाज़ दोनों को चड्डे की ये सलाये आम है याराँ-ए-नुक्तादां के लिए, वाली बात बहुत नागवार मालूम हुई। दोनों ने मुझ से कहा कि ये चड्डे की बहुत बे-हूदगी है। इस बेहूदगी को उन्हों ने बहुत महसूस किया था। चड्डा हस्ब-ए-आदत अपनी हाँकता रहा और वो ख़ामोश एक कोने में बैठे आहिस्ता आहिस्ता रम पी कर एक दूसरे से अपने दुख का इज़हार करते रहे।
मैं मम्मी के मुतअल्लिक़ सोचता रहा। ड्राइंगरूम में, ग़रीबनवाज़, रणजीत कुमार और चड्डे बैठे थे। ऐसा लगता था कि ये छोटे छोटे बच्चे हैं। उन की माँ बाहर खिलौने लेने गई है। ये सब मुंतज़िर हैं। चड्डा मुतमइन है कि सब से बढ़िया और अच्छा खिलौना उसे मिलेगा, इस लिए कि वो अपनी माँ का चहेता है। बाक़ी दो का ग़म चूँकि एक जैसा था इस लिए वो एक दूसरे के मोनिस बन गए थे.......शराब इस माहौल में दूध मालूम होती थी और वो प्लैटिनम बलोनड.......इस का तसव्वुर एक छोटी सी गुड़िया के मानिंद दिमाग़ में आता था....... हर फ़िज़ा, हर माहौल की अपनी मौसीक़ी होती है....... उस वक़्त जो मौसीक़ी मेरे दल के कानों तक पहुंच रही थी, इस में कोई सुर इश्तिआल अंगेज़ नहीं था। हर शैय, माँ और उस के बच्चे और उन के बाहमी रिश्ते की तरह काबिल-ए-फ़ह्म और यक़ीनी थी।
मैंने जब उस को तांगे में चड्डे के साथ देखा था तो मेरी जमालियाती हिस को सदमा पहुंचा था। मुझे अफ़सोस हुआ कि मेरे दिल में इन दोनों के मुतअल्लिक़ वाहीयात ख़्याल पैदा हुए। लेकिन ये चीज़ मुझे बार बार सता रही थी कि वो इतना शोख़ मेकअप्प क्यों करती है जो उस की झुर्रियों की तौहीन है। उस ममता की तज़हीक है जो उस के दिल में चड्डे, ग़रीबनवाज़ और वन क़ुतरे के लिए मौजूद है....... और ख़ुदा मालूम और किस किस के लिए.......
बातों बातों में चड्डे से मैंने पूछा। “यार ये तो बताओ तुम्हारी मम्मी इतना शोख़ मेकअप्प क्यों करती है?”
“इस लिए कि दुनिया हर शोख़ चीज़ को पसंद करती है....... तुम्हारे और मेरे जैसे उल्लू इस दुनिया में बहुत कम बस्ते हैं जो मद्धम सुर और मद्धम रंग पसंद करते हैं। जो जवानी को बचपन के रूप में नहीं देखना चाहते और....... और जो बुढ़ापे पर जवानी का मुलम्मा पसंद नहीं करते....... हम जो ख़ुद को आर्टिस्ट कहते हैं। उल्लू के पट्ठे हैं....... मैं तुम्हें एक दिलचस्प वाक़िया सुनाता हूँ.......बैसाखी का मेला था....... तुम्हारे अमृतसर में....... एक सेहत मंद नौजवान ने.......ख़ालिस दूध और मक्खन पर पले हुए जवान ने, जिस की नई जूती उस की लाठी पर बाज़ीगरी कर रही थी ऊपर एक कोठे की तरफ़ देखा और निहायत वाहीयात रंगों में लिपि तपी एक स्याह फ़ाम टखयाई की तरफ़ देखा, जिस की तेल में चुपड़ी हुई बबरयां, इस के माथे पर बड़े बद-नुमा तरीक़े पर जमी हुई थीं और अपने साथी की पिसलीयों में टहोका दे कर कहा.......ओए लहना सय्यां....... वीख़ ओए ऊपर वीख़.......इसी तय पिंड विच मझां ई....... ” आख़िरी लफ़्ज़ वो ख़ुदा मालूम क्यों गोल कर लिया, हालाँकि वो शाइस्तगी का बिलकुल क़ाएल नहीं था। खिलखिला कर हँसने लगा और मेरे गिलास में रम डाल कर बोला। “उस जाट के लिए वो चुड़ैल ही उस वक़्त कोह-ए-क़ाफ़ की परी थी....... और उस के गांव की हसीन-ओ-जमील मुटियारें, बेडौल भैंसें.......हम सब चुग़द हैं....... दरमियाने दर्जे के....... इस लिए कि इस दुनिया में कोई चीज़ अव्वल दर्जे की नहीं....... तीसरे दर्जे की है या दरमियाने दर्जे की....... लेकिन.......लेकिन फ़ीलस.......ख़ासुलख़ास दर्जे की चीज़ है....... वो साँप के खपरों....... ”
वन क़ुतरे ने अपना गिलास उठा कर चड्डे के सर पर उंडेल दिया। “खपरे.......खपरे.......तुम्हारा मस्तक फिर गया है।”
चड्डे ने माथे पर से रम के टपकते हुए क़तरे ज़बान से चाटने शुरू कर दिए और वन क़ुतरे से कहा। “ले अब सुना....... तेरा बाप साला तुझ से कितनी मोहब्बत करता था....... मेरा दिमाग़ अब काफ़ी ठंडा हो गया है!”
वन कुतरे बहुत संजीदा हो कर मुझ से मुख़ातब हुआ। “बाई गॉड....... वो मुझ से बहुत मोहब्बत करता था.......मैं फ़िफ़टीन एरज़ का था कि उस ने मेरी शादी बना दी।”
चड्डा ज़ोर से हंसा। “तुम्हें कार्टून बना दिया उस साले ने....... भगवान उसे स्वर्ग में केरील की पेटी दे कि वहां भी इसे बजा बजा कर तुम्हारी शादी के लिए कोई ख़ूबसूरत हूर ढूंढता रहे।”
वन क़ुतरे और भी संजीदा हो गया। “मंटो.......मैं झूट नहीं कहता.......मेरी वाइफ़ एक दम ब्यूटीफुल है....... हमारी फ़ैमिली में....... ”
“तुम्हारी फ़ैमिली की ऐसी तैसी.......फ़ीलस की बात करो....... इस से ज़्यादा और कोई ख़ूबसूरत नहीं हो सकता।” चड्डे ने ग़रीबनवाज़ और रणजीत कुमार की तरफ़ देखा जो कोने में बैठे फ़ीलस के हुस्न के मुतअल्लिक़ अपनी अपनी राय का इज़हार एक दूसरे से करने वाले थे। “गुण पाउडर प्लोट के बानियो.......सुन लो तुम्हारी कोई साज़िश कामयाब नहीं होगी....... मैदान चड्डे के हाथ रहेगा.......क्यों वेल्ज़ के शहज़ादे?”
वेल्ज़ का शहज़ादा रम की ख़ाली होती हुई बोतल की तरफ़ हसरत भरी नज़रों से देख रहा था। चड्डे ने क़हक़हा लगाया और उस को आधा गिलास भर के दे दिया।
ग़रीबनवाज़ और रणजीत कुमार एक दूसरे से फ़ीलस के बारे में घुल मिल के बातें तो कर रहे थे मगर अपने दिमाग़ में वो उसे हासिल करने की मुख़्तलिफ़ स्कीमें अलाहिदा तौर पर बना रहे थे। ये उन के तर्ज़-ए-गुफ़्तुगू से साफ़ अयाँ था।
ड्राइंगरूम में अब बिजली के बल्ब रौशन थे, क्योंकि शाम गहरी हो चली थी। चड्डा मुझ से बमबई की फ़िल्म इंडस्ट्री के ताज़ा हालात सुन रहा था कि बाहर बरामदे में मम्मी की तेज़ तेज़ आवाज़ सुनाई दी। चड्डे ने नारा बुलंद किया और बाहर चला गया। ग़रीबनवाज़ ने रणजीत कुमार की तरफ़ और रणजीत कुमार ने ग़रीबनवाज़ की तरफ़ मानी ख़ेज़ नज़रों से देखा, फिर दोनों दरवाज़े की जानिब देखने लगे।
मम्मी चहकती हुई अंदर दाख़िल हुई। उस के साथ चार पाँच ऐंगलो इंडियन लड़कीयां थीं। मुख़्तलिफ़ क़द-ओ-क़ामत और ख़ुतूत वालोवान की। पोली, डोली, कटी, उलमा और थीलमा....... और वो हिजड़ा नुमा लड़का....... उस को चड्डा ससी कह कर पुकारता था। फ़ीलस सब से आख़िर में नमूदार हुई और वो भी चड्डे के साथ। उस का एक बाज़ू इस प्लैटिनम बलोनड की पतली कमर में हमायल था। मैंने ग़रीबनवाज़ और रणजीत कुमार का रद्द-ए-अमल नोट किया। इन को चड्डे की ये नुमाइशी फ़तहमनदाना हरकत पसंद नहीं आई थी।
लड़कीयों के नाज़िल होते ही एक शोर बरपा होगया। एक दम इतनी अंग्रेज़ी बरसी कि वन क़ुतरे मीटरी कोलीशन इम्तिहान में कई बार फ़ेल हुआ। मगर उस ने कोई पर्वा ना की और बराबर बोलता रहा। जब उस से किसी ने इल्तिफ़ात न बरता तो वो उलमा की बड़ी बहन थीलमा के साथ एक सोफे पर अलग बैठ गया और पूछने लगा कि उस ने हिंदूस्तानी डांस के और कितने नए तोड़े सीखे हैं। वो इधर धानी नाकत और नाथई थई कि वन, टू, थ्री बना बना कर उस को तोड़े बता रहा था, इधर चड्डा बाक़ी लड़कीयों के झुरमुट में अंग्रेज़ी के नंगे नंगे लमरक सुना रहा था। जो उस को हज़ारों की तादाद में ज़बानी याद थे....... मम्मी सोडे की बोतलें और गज़क का सामान मंगवा रही थी। रणजीत कुमार सिगरेट के कश लगा कर टिकटिकी बांधे फ़ीलस की तरफ़ देख रहा था और ग़रीबनवाज़ मम्मी से बार बार कहता था कि रुपय कम हों तो वो इस से ले ले।
स्काच खुली और पहला दौर शुरू हुआ। फ़ीलस को जब शाम होने के लिए कहा गया तो उस ने अपने प्लैटीमनी बालों को एक ख़फ़ीफ़ सा झटका दे कर इनकार कर दिया कि वो विस्की नहीं पिया करती। सब ने इसरार किया मगर वो ना मानी। चड्डे ने बद-दिली का इज़हार किया तो मम्मी ने फ़ीलस के लिए हल्का सा मशरूब तैय्यार किया और गिलास उस के होंटों के साथ लगा कर बड़े प्यार से कहा। “बहादुर लड़की बनो और पी जाओ।”
फ़ीलस इनकार न कर सकी। चड्डा ख़ुश होगया। और उस ने इसी ख़ुशी में बीस पच्चीस और लमरक सुनाए। सब मज़े लेते रहे....... मैंने सोचा, उर्यानी से तंग आकर इंसान ने सतरपोशी इख़्तियार की होगी, यही वजह है कि अब वो सतरपोशी से उकता कर कभी कभी उर्यानी की तरफ़ दौड़ने लगता है। शाइस्तगी का रद्द-ए-अमल यक़ीनन नाशाइस्तगी है। इस फ़रार का क़तई तौर पर एक दिलकशा पहलू भी है। आदमी को इस से एक मुसलसल एक आहंगी की कोफ़्त से चंद घड़ियों के लिए नजात मिल जाती है.......
मैंने मम्मी की तरफ़ देखा जो बहुत हश्शाश बश्शाश जवान लड़कियों में घुली मिली चड्डे के नंगे नंगे लमरक सुन कर हंस रही थी और क़हक़हे लगा रही थी....... उस के चेहरे पर वही वाहियात मेकअप्प था। इस के नीचे उस की झुर्रियां साफ़ नज़र आ रही थीं मगर वो भी मसरूर थीं....... मैंने सोचा, आख़िर लोग क्यों फ़रार को बुरा समझते हैं....... वो फ़रार जो मेरी आँखों के सामने थे, इस का ज़ाहिर गो बद-नुमा था, लेकिन बातिन उस का बेहद ख़ूबसूरत था....... उस पर कोई बनाओ सिंघार, कोई ग़ाज़ा, कोई उबटन नहीं था।
पोली थी, वो एक कोने में रणजीत कुमार के साथ खड़ी, अपने नए फ़राक़ के बारे में बातचीत कर रही थी और उसे बता रही थी कि सिर्फ़ अपनी होशयारी से उस ने बड़े सस्ते दामों पर ऐसी उम्दा चीज़ तैय्यार करा ली है। दो टुकड़े थे जो बज़ाहिर बिलकुल बेकार मालूम होते थे, मगर अब वो एक ख़ूबसूरत पोशाक में तबदील होगए थे....... और रणजीत कुमार बड़े ख़ुलूस के साथ उस को दो नए ड्रेस बनवा देने का वाअदा कर रहा था। हालाँकि उसे फ़िल्म कंपनी से इतने रुपय यकमुशत मिलने की हरगिज़ हरगिज़ उम्मीद नहीं थी। डॉली थी वो ग़रीबनवाज़ से कुछ क़र्ज़ मांगने की कोशिश कर रही थी और उस को यक़ीन दिला रही थी कि दफ़्तर से तनख़्वाह मिलने पर वो ये क़र्ज़ ज़रूर अदा कर देगी। ग़रीबनवाज़ को क़तई तौर पर मालूम था कि वो ये रुपया हस्ब-ए-मामूल कभी वापस नहीं देगी मगर वो इस के वाअदे पर एतबार किए जा रहा था। थीलमा, वन क़ुतरे से तानडीव नाच के बड़े मुश्किल तोड़े सीखने की कोशिश कर रही थी। वन क़ुतरे को मालूम था कि सारी उम्र इस के पैर कभी उन के बोल अदा नहीं कर सकेंगे, मगर वो उस को बताए जा रहा था और थीलमा भी अच्छी तरह जानती थी कि वो बेकार अपना और वन क़ुतरे का वक़्त ज़ाए कर रही है, मगर बड़े शौक़ और इन्हिमाक से सबक़ याद कर रही थी। उलमा और कटी दोनों पिए जा रही थीं और आपस में किसी आटवी की बात कर रही थीं जिस ने पिछली रेस में इन दोनों से ख़ुदा मालूम कब का बदला लेने की ख़ातिर ग़लत टिप दी थी। वो चड्डा फ़ीलस के साँप के खपरे ऐसे रंग के बालों को पिघले हुए सोने की रंग की स्काच में मिला मिला कर पी रहा था। फ़ीलस का हिजड़ा नुमा दोस्त बार बार जेब से कंघी निकालता था और अपने बाल संवारता था। मम्मी कभी उस से बात करती थी, कभी इस से, कभी सोडा खुलवाती थी। कभी टूटे हुए गिलास के टुकड़े उठवाती थी....... उस की निगाह सब पर थी। उस बिल्ली की तरह, जो बज़ाहिर आँखें बंद किए सुस्ताती है, मगर उस को मालूम होता है कि उस के पांचों बच्चे कहाँ कहाँ हैं और क्या क्या शरारत कर रहे हैं
इस दिलचस्प तस्वीर में कौन सा रंग, कौन साख़्त ग़लत था?....... मम्मी का वो भड़कीला और शोख़ मेकअप्प भी ऐसा मालूम होता था कि इस तस्वीर का एक ज़रूरी जुज़्व है। ग़ालिब कहता है कैद-ए-हयात-ओ-बंद-ए-ग़म, असल में दोनों एक हैं। मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यों?....... कैद-ए-हयात और बंद-ए-ग़म जब अस्लन एक हैं तो ये क्या ग़रज़ है कि आदमी मौत से पहले थोड़ी देर के लिए नजात हासिल करने की कोशिश न करे....... इस नजात के लिए कौन मलकुलमौत का इंतिज़ार करे....... क्यों आदमी चंद लमहात के लिए ख़ुद फ़रेबी के दिलचस्प खेल में हिस्सा न ले।
मम्मी सब की तारीफ़ में रतबुल्लिसान थी। उस के पहलू में ऐसा दिल था। जिस में इन सब के लिए ममता थी....... मैंने सोचा, शायद इस लिए उस ने अपने चेहरे पर रंग मल लिया है कि लोगों को उस की असलीयत मालूम न हो....... इस में शायद इतनी जिस्मानी क़ुव्वत नहीं थी कि वो हर एक की माँ बन सकती.... उस ने अपनी शफ़क़त और मोहब्बत के लिए चंद आदमी चुन लिए थे और बाक़ी सारी दुनिया को छोड़ दिया था।
मम्मी को मालूम नहीं था। चड्डा एक तगड़ा पैग फ़ीलस को पिला चुका था। चोरी छुपे नहीं सब के सामने, मगर मम्मी उस वक़्त अन्दर बावर्चीख़ाने में पोटैटो चिप्स तल रही थी....... फ़ीलस नशे में थी, हल्के हल्के सुरूर में। जिस तरह उस के पालिश किए हुए फ़ौलाद के रंग के बाल आहिस्ता आहिस्ता लहराते थे, इसी तरह वो ख़ुद भी लहराती थी।
रात के बारह बज चुके थे। वन क़ुतरे, थीमा को तोड़े सिखा सिखा कर अब उसे बता रहा था कि उस का बाप साला उस से बहुत मोहब्बत करता था। चाइल्ड हुड में उस ने उस की शादी बना दी थी। उस की वाइफ़ बहुत ब्यूटीफुल है....... और ग़रीबनवाज़, डॉली को क़र्ज़ दे कर भूल भी चुका था। रणजीत कुमार, पोली को अपने साथ कहीं बाहर ले गया था। उलमा और कटी दोनों जहान भर की बातें कर के अब थक गई थीं और आराम करना चाहती थीं.......तिपाई के इर्द गिर्द फ़ीलस उस का हिजड़ा नुमा साथी और मम्मी बैठे थे। चड्डा अब जज़्बाती नहीं था। फ़ीलस उस के पहलू में बैठी थी जिस ने पहली दफ़ा शराब का सुरूर चखा था....... उस को हासिल करने का अज़म उस की आँखों में साफ़ मौजूद था। मम्मी इस से ग़ाफ़िल नहीं थी।
थोड़ी देर के बाद फ़ीलस का हीजड़ा नुमा दोस्त उठ कर सोफे पर दराज़ होगया और अपने बालों में कंघी करते करते सो गया....... ग़रीबनवाज़ और उलमा उठ कर कहीं चले गए। उलमा और कटी ने आपस में किसी मारगरट के मुतअल्लिक़ बातें करते हुए मम्मी से रुख़स्त ली और चली गईं.......वन क़ुतरे ने आख़िरी बार अपनी बीवी की ख़ूबसूरती की तारीफ़ की और फ़ीलस की तरफ़ हसरत भरी नज़रों से देखा, फिर थीलमा की तरफ़ जो उस के पास बैठी थी और उस को बाज़ू से पकड़ कर चांद दिखाने के लिए बाहर मैदान में ले गया।
एक दम जाने क्या हुआ कि चड्डे और मम्मी में गर्मगर्म बातें शुरू होगईं। चड्डे की ज़बान लड़खड़ा रही थी। वो एक ना-ख़ल्फ़ बच्चे की तरह मम्मी से बदज़बानी करने लगा। फ़ीलस ने दोनों में मुसालहत की महीन महीन कोशिश की, मगर चड्डा हवा के घोड़े पर सवार था। वो फ़ीलस को अपने साथ सईदा काटेज में ले जाना चाहता था। मम्मी इस के ख़िलाफ़ थी। वो उस को बहुत देर तक समझाती रही कि वो इस इरादे से बाज़ आए, मगर वो इस के लिए नहीं था। वो बार बार मम्मी से कह रहा था। “तुम दीवानी हो गई हो....... बूढ़ी दलाला.......फ़ीलस मेरी है.......पूछ लो इस से”
मम्मी ने बहुत देर तक उस की गालियां सुनीं, आख़िर में बड़े समझाने वाले अंदाज़ में उस से कहा। “चड्डा, माई सन.......तुम क्यों नहीं समझते....... शि इज़ यंग। शि इज़ वेरी यंग!”
उस की आवाज़ में कपकपाहट थी। एक इल्तिजा थी, एक सरज़निश थी, एक बड़ी भयानक तस्वीर थी, मगर चड्डा बिलकुल न समझा। उस वक़्त उस के पेश-ए-नज़र सिर्फ़ फ़ीलस और उस का हुसूल था। मैंने फ़ीलस की तरफ़ देखा और मैंने पहली दफ़ा बड़ी शिद्दत से महसूस किया कि वो बहुत छोटी उम्र की थी। ब-मुश्किल पंद्रह बरस की.......इस का सफ़ेद चेहरा नक़रई बादलों में घिरा हुआ बारिश के पहले क़तरे की तरह लरज़ रहा था।
चड्डे ने उस को बाज़ू से पकड़ कर अपनी तरफ़ खींचा और फिल्मों के हीरो के अंदाज़ में उसे अपने सीने के साथ भींच लिया.......मम्मी ने एहतिजाज की चीख़ बुलंद की। “चड्डा....... छोड़ दो....... फ़ौर गाडज़ सेक.......छोड़ दो उसे।”
जब चड्डे ने फ़ीलस को अपने सीने से जुदा न किया तो मम्मी ने उस के मुँह पर एक चांटा मारा। “गेट आउट....... गेट आउट!”
चड्डा भौंचक्का रह गया। फ़ीलस को जुदा कर के उस ने धक्का दिया और मम्मी की तरफ़ क़हर आलूद निगाहों से देखता बाहर चला गया। मैंने उठ कर रुख़स्त ली और चड्डे के पीछे चला गया।
सईदा काटेज पहुंच कर मैंने देखा कि वो पतलून, क़मीज़ और बूट समेत पलंग पर औंधे मुँह लेटा था। मैंने उस से कोई बात न की और दूसरे कमरे में जा कर बड़े मेज़ पर सो गया।
सुबह देर से उठा। घड़ी में दस बजे रहे थे। चड्डा सुबह ही सुबह उठ कर बाहर चला गया। कहाँ, ये किसी को मालूम नहीं था। मैं जब ग़ुसलख़ाने से बाहर निकल रहा था तो मैंने उस की आवाज़ सुनी जो गराज से बाहर आरही थी। मैं रुक गया। वो किसी से कह रहा था “वो ला-जवाब औरत है....... ख़ुदा की क़सम वो ला-जवाब औरत है.......दुआ करो कि उस की उम्र को पहुंच कर तुम भी वैसी ही ग्रेट हो जाओ।”
उस के लहजे में एक अजीब-ओ-ग़रीब तल्ख़ी थी.......मालूम नहीं उस का रुख़ उस की अपनी ज़ात की जानिब था या उस शख़्स की तरफ़ जिस से वो मुख़ातब था....... मैंने ज़्यादा देर वहां रुके रहना मुनासिब न समझा और अन्दर चला गया। निस्फ़ घंटे के क़रीब मैंने उस का इंतिज़ार किया। जब वो न आया तो में प्रभात नगर रवाना हो गया।
मेरी बीवी का मिज़ाज मोतदिल था....... हरीश घर में नहीं था। उस की बीवी ने उस के मुतअल्लिक़ इस्तिफ़्सार किया तो मैंने कह दिया कि वो अभी तक सो रहा है। पूने में काफ़ी तफ़्रीह हो गई थी। इस लिए मैंने हरीश की बीवी से कहा कि हमें इजाज़त दी जाये। रसमन उस ने हमें रोकना चाहा, मगर मैं सईदा काटेज ही से फ़ैसला करके चला था कि रात का वाक़िआ मेरे लिए ज़हनी जुगाली के वास्ते बहुत काफ़ी है.......
हम चल दिए.......रास्ते में मम्मी की बातें हुईं। जो कुछ हुआ था। मैंने उस को मन-ओ-अन सुना दिया। उस का रद्द-ए-अमल ये था कि फ़ीलस उस की कोई रिश्तेदार होगी। या वो उसे किसी अच्छी आसामी को पेश करना चाहती थी जभी उस ने चड्डे से लड़ाई की.......मैं ख़ामोश रहा। उस की तरदीद की न ताईद।
कई दिन गुज़रने पर चड्डे का ख़त आया, जिस में उस रात के वाक़े का सरसरी ज़िक्र था। और उस ने अपने मुतअल्लिक़ ये कहा था। “मैं उस रोज़ हैवान बन गया था....... लानत हो मुझ पर!”
तीन महीने के बाद मुझे एक ज़रूरी काम से पूने जाना पड़ा। सीधा सईदा काटेज पहुंचा। चड्डा मौजूद नहीं था। ग़रीबनवाज़ से उस वक़्त मुलाक़ात हुई, जब वो गिर्राज से बाहर निकल कर शीरीं के ख़ुर्द साल बच्चे को प्यार कर रहा था। वो बड़े तपाक से मिला। थोड़ी देर के बाद रणजीत कुमार आगया, कछुवे की चाल चलता और ख़ामोश बैठ गया। मैं अगर इस से कुछ पूछता तो वो बड़े इख़्तिसार से जवाब देता। उस से बातों बातों में मालूम हुआ कि चड्डा उस रात के बाद मम्मी के पास नहीं गया और न वो कभी यहां आई है। फ़ीलस को उस ने दूसरे रोज़ ही अपने माँ बाप के पास भिजवा दिया था। वो इस हीजड़ा नुमा लड़के के साथ घर से भाग कर आई हुई थी.......रणजीत कुमार को यक़ीन था कि अगर वो कुछ दिन और पूने में रहती तो वो ज़रूर उसे ले उड़ता। ग़रीबनवाज़ को ऐसा कोई ज़ोअम नहीं था। उसे सिर्फ़ ये अफ़सोस था कि वो चली गई।
चड्डे के मुतअल्लिक़ ये पता चला कि दो तीन रोज़ से उस की तबीयत नासाज़ है....... बुख़ार रहता है, मगर वो किसी डाक्टर से मश्वरा नहीं लेता....... सारा दिन इधर उधर घूमता रहता है। ग़रीबनवाज़ ने जब मुझे ये बातें बताना शुरू करीं तो रणजीत कुमार उठ कर चला गया। मैंने सलाख़ों वाली खिड़की में से देखा, उस का रुख़ गिर्राज की तरफ़ था।
मैं ग़रीबनवाज़ से गिराज वाली शीरीं के मुतअल्लिक़ कुछ पूछने के लिए ख़ुद को तैय्यार ही कर रहा था कि वन क़ुतरे सख़्त घबराया हुआ कमरे में दाख़िल हुआ उस से मालूम हुआ कि चड्डे को सख़्त बुख़ार था, वो उसे तांगे में यहां लारहा था कि रास्ते में बेहोश होगया....... मैं और ग़रीबनवाज़ बाहर दौड़े। तांगे वाले ने बेहोश चड्डे को सँभाला हुआ था। हम सब ने मिल कर उसे उठाया और कमरे में पहुंचा कर बिस्तर पर लिटा दिया। मैंने उसके माथे पर हाथ रख कर देखा। वाक़ई बहुत तेज़ बुख़ार था। एक सौ छ डिग्री से क़तअन कम न होगा।
मैंने ग़रीबनवाज़ से कहा कि फ़ौरन डाक्टर को बुलाना चाहिए। उस ने वन क़ुतरे से मश्वरा किया। वो “अभी आता हूँ“ कह कर चला गया। जब वापस आया तो इस के साथ मम्मी थी जो हांप रही थी। अंदर दाख़िल होते ही उस ने चड्डे की तरफ़ देखा और क़रीब क़रीब चीख़ कर पूछा। “क्या हुआ मेरे बेटे को?”
वन क़ुतरे ने जब उसे बताया कि चड्डा कई दिन से बीमार था तो मम्मी ने बड़े रंज और ग़ुस्से के साथ कहा “तुम कैसे लोग हो....... मुझे इत्तिला क्यों न दी।” फिर उस ने ग़रीबनवाज़, मुझे और वन क़ुतरे को मुख़्तलिफ़ हिदायात दीं। एक को चड्डे के पास सहलाने की, दूसरे को बर्फ़ लाने की और तीसरे को पंखा करने की। चड्डे की हालत देख कर उस की अपनी हालत बहुत ग़ैर होगई थी। लेकिन उस ने तहम्मुल से काम लिया और डाक्टर बुलाने चली गई।
मालूम नहीं रणजीत कुमार को गिराज में कैसे पता चला। मम्मी के जाने के बाद फ़ौरन वो घबराया हुआ आया। जब उस ने इस्तिफ़सार किया तो वन क़ुतरे ने उस के बेहोश होने का वाक़िया बयान कर दिया और ये भी बता दिया कि मम्मी डाक्टर के पास गई है। ये सुन कर रणजीत कुमार का इज़्तिराब किसी हद तक दूर हो गया।
मैंने देखा कि वो तीनों बहुत मुतमइन थे, जैसे चड्डे की सेहत की सारी ज़िम्मेदारी मम्मी ने अपने सर ले ली है।
उस की हिदायात के मुताबिक़ चड्डे के पांव सहलाए जा रहे थे। सर पर बर्फ़ की पट्टियां रखी जा रही थीं। जब मम्मी डाक्टर लेकर आई तो वो किसी क़दर होश में आ रहा था। डाक्टर ने मुआइने में काफ़ी देर लगाई। उस के चेहरे से मालूम होता था कि चड्डे की ज़िंदगी ख़तरे में है। मुआइने के बाद डाक्टर ने मम्मी को इशारा किया और वो कमरे से बाहर चले गए.......मैंने सलाख़ों वाली खिड़की में से देखा गिराज के टाट का पर्दा हिल रहा था।
थोड़ी देर के बाद मम्मी आई। ग़रीबनवाज़, वन क़ुतरे और रणजीत कुमार से उस ने फ़र्दन फ़र्दन कहा कि घबराने की कोई बात नहीं। चड्डा अब आँखें खोल कर सुन रहा था। मम्मी को उस ने हैरत की निगाहों से नहीं देखा था। लेकिन वो उलझन सी महसूस कर रहा था। चंद लमहात के बाद जब वो समझ गया कि मम्मी क्यों और कैसे आई है तो उस ने मम्मी का हाथ अपने हाथ में लिया और दबा कर कहा “मम्मी, यू आर ग्रेट!”
मम्मी उस के पास पलंग पर बैठ गई। वो शफ़क़त का मुजस्समा थी। चड्डे के तपते हुए माथे पर हाथ फेर कर उस ने मुस्कुरते हुए सिर्फ़ इतना कहा “मेरे बेटे.......मेरे ग़रीब बेटे!”
चड्डे की आँखों में आँसू आगए। लेकिन फ़ौरन ही उस ने उन को जज़्ब करने की कोशिश की और कहा “नहीं....... तुम्हारा बेटा अव्वल दर्जे का स्काउनडरल है....... जाओ अपने मरहूम ख़ाविंद का पिस्तौल लाओ और इस के सीने पर दाग़ दो!”
मम्मी ने चड्डे के गाल पर हौले से तमांचा मारा “फ़ुज़ूल बकवास न करो।” फिर वो चुस्त-ओ-चालाक नर्स की तरह उठी और हम सब से मुख़ातब हो कर कहा। “लड़को.......चड्डा बीमार है, और मुझे हस्पताल ले जाना है इसे....... समझे?”
सब समझ गए। ग़रीबनवाज़ ने फ़ौरन टैक्सी का बंद-ओ-बस्त कर दिया। चड्डे को उठा कर उस में डाला गया। वो बहुत कहता रहा कि इतनी कौन सी आफ़त आगई है जो उस को हस्पताल के सपुर्द किया जा रहा है। मगर मम्मी यही कहती रही कि बात कुछ भी नहीं। हस्पताल में ज़रा आराम रहता है। चड्डा बहुत ज़िद्दी था। मगर नफ़्सियाती तौर पर वो उस वक़्त मम्मी की किसी बात से इनकार नहीं कर सकता था।
चड्डा हस्पताल में दाख़िल होगया.......मम्मी ने अकेले में मुझे बताया कि मर्ज़ बहुत ख़तरनाक है। यानी प्लेग। ये सुन कर मेरे औसान ख़ता होगए। ख़ुद मम्मी बहुत परेशान थी। लेकिन उस को उम्मीद थी कि ये बला टल जाएगी और चड्डा बहुत जल्द तंदरुस्त हो जाएगा।
ईलाज होता रहा। प्राईवेट हस्पताल था। डाक्टरों ने चड्डे का ईलाज बहुत तवज्जो से किया मगर कई पेचीदगियां पैदा होगईं। उस की जिल्द जगह जगह से फटने लगी। और बुख़ार बढ़ता गया। डाक्टरों ने बिलआख़िर ये राय दी कि उसे बंबई ले जाओ, मगर मम्मी न मानी। इस ने चड्डे को उसी हालत में उठवाया और अपने घर ले गई।
मैं ज़यादा देर पूने में नहीं ठहर सकता था। वापस बंबई आया तो मैंने टेलीफ़ोन के ज़रीये से कई मर्तबा उस का हाल दरयाफ़्त किया। मेरा ख़याल था कि वो प्लेग के हमले से जांबर न हो सकेगा। मगर मुझे मालूम हुआ कि आहिस्ता आहिस्ता उस की हालत सँभल रही है। एक मुक़द्दमे के सिलसिले में मुझे लाहौर जाना पड़ा। वहां से पंद्रह रोज़ के बाद लौटा तो मेरी बीवी ने चड्डे का एक ख़त दिया जिस में सिर्फ़ ये लिखा था “अज़ीमुलमरतबत मम्मी ने अपने ना-ख़ल्फ़ बेटे को मौत के मुँह से बचा लिया है।”
इन चंद लफ़्ज़ों में बहुत कुछ था। जज़्बात का एक पूरा समुंद्र था। मैंने अपनी बीवी से इस का ज़िक्र खिलाफ-ए-मामूल बड़े जज़्बाती अंदाज़ में किया तो उसने मुतअस्सिर हो कर सिर्फ़ इतना कहा “ऐसी औरतें उमूमन ख़िदमत-गुज़ार हुआ करती हैं।”
मैंने चड्डे को दो तीन ख़त लिखे, जिन का जवाब न आया। बाद में मालूम हुआ कि मम्मी ने उस को तबदीली आब-ओ-हवा की ख़ातिर अपनी एक सहेली के हाँ लोनावला भिजवा दिया था। चड्डा वहां बमुश्किल एक महीना रहा और उकता कर चला आया। जिस रोज़ वो पूने पहुंचा इत्तिफ़ाक़ से मैं वहीं था।
प्लेग के ज़बरदस्त हमले के बाइस वो बहुत कमज़ोर हो गया था। मगर उस की गोगा पसंद तबीयत उसी तरह ज़ोरों पर थी। अपनी बीमारी का उस ने इस अंदाज़ में ज़िक्र किया कि जिस तरह आदमी साईकल के मामूली हादिसे का ज़िक्र करता है। अब कि वो जांबर हो गया था, अपनी ख़तरनाक अलालत के मुतअल्लिक़ तफ़सीली गुफ़्तुगू उसे बे-कार मालूम होती थी।
सईदा काटेज में चड्डे की ग़ैर हाज़िरी के दौरान में छोटी छोटी तबदीलियां हुई थीं। एल बिरादरान यानी अक़ील और शकील कहीं और उठ गए थे। क्योंकि उन्हें अपनी ज़ाती फ़िल्म कंपनी क़ायम करने के लिए सईदा काटेज की फ़िज़ा मुनासिब-ओ-मौज़ूं मालूम नहीं होती थी। उस की जगह एक बंगाली म्यूज़िक डायरेक्टर आ गया था। उस का नाम सेन था। उस के साथ लाहौर से भागा हुआ एक लड़का राम सिंह रहता था। सईदा काटेज वाले सब उस से काम लेते थे। तबीअत का बहुत शरीफ़ और ख़िदमत-गुज़ार था। चड्डे के पास उस वक़्त आया था जब वो मम्मी के कहने पर लोनावला जा रहा था। उस ने ग़रीबनवाज़ और रणजीत कुमार से कह दिया था कि उसे सईदा काटेज में रख लिया जाए। सेन के कमरे में चूँकि जगह ख़ाली थी, इस लिए उस ने वहीं अपना डेरा जमा दिया था।
रणजीत कुमार को कंपनी के नए फ़िल्म में हीरो मुंतख़ब कर लिया गया और उस के साथ वाअदा किया गया था कि अगर फ़िल्म कामयाब हुआ तो उस को दूसरा फ़िल्म डाइरेक्ट करने का मौक़ा दिया जाएगा। चड्डा अपनी दो बरस की जमा शूदा तनख़्वाह में से डेढ़ हज़ार रुपया यकमुश्त हासिल करने में कामयाब हो चुका था। उस ने रणजीत कुमार से कहा था। “मेरी जान अगर कुछ वसूल करना है तो प्लेग में मुबतला हो जाओ.......हीरो और डायरेक्टर बनने से मेरा तो ख़याल है यही बेहतर है।”
ग़रीबनवाज़ ताज़ा ताज़ा हैदराबाद से वापस आया था। इस लिए सईदा काटेज किसी क़दर मरफ़उलहाल थी। मैंने देखा कि गिराज के बाहर अलगनी से ऐसी क़मीज़ और शलवारें लटक रही थीं जिन का कपड़ा अच्छा और क़ीमती था। शीरीं के ख़ुर्द साल बच्चे के पास नए खिलौने थे।
मुझे पूने में पंद्रह रोज़ रहना पड़ा। मेरा पुराना फिल्मों का साथी अब नए फ़िल्म की हीरोइन की मोहब्बत में गिरफ़्तार होने की कोशिश में मसरूफ़ था। मगर डरता था। क्योंकि ये हीरोइन पंजाबी थी और उस का ख़ाविंद बड़ी बड़ी मूंछों वाला हट्टा कट्टा मुश्टंडा था। चड्डे ने उस को हौसला दिया था “कुछ पर्वा न करो उस साले की.......जिस पंजाबी ऐक्ट्रस का ख़ाविद बड़ी बड़ी मूंछों वाला पहलवान हो, वो इशक़ के मैदान में ज़रूर चारों शाने चित्त गिरा करता है....... बस इतना करो कि सौ रुपय फ़ी गाली के हिसाब से मुझ से पंजाबी की दस बीस बड़ी हेवी वेट क़िस्म की गालियां सीख लो। ये तुम्हारी ख़ास मुश्किलों में बहुत काम आया करेंगी।”
हरीश एक बोतल फ़ी गिलास के हिसाब से छः गालियां पंजाब के मख़सूस लब-ओ-लहजे में याद कर चुका था। मगर अभी तक उसे अपने इश्क़ के रास्ते में कोई ऐसी ख़ास मुश्किल दरपेश नहीं आई थी जो वो उन की तासीर का इम्तिहान ले सकता।
मम्मी के घर हस्ब-ए-मामूल महफ़िलें जमती थीं। पोली। डोली। कटी। उलमा। थीलमा वग़ैरा सब आई थीं। वन क़ुतरे बदस्तूर थीलमा को कथा कली और तानडीव नाच की ताथई और धानी नाकत की वन टू थ्री बना बना कर बताता था। और वो उसे सीखने की पुर-ख़ुलूस कोशिश करती थी। ग़रीबनवाज़ हस्ब-ए-तौफ़ीक़ क़र्ज़ दे रहा था और रणजीत कुमार जिस को अब कंपनी के नए फ़िल्म में हीरो का चांस मिल रहा था। इन में से किसी एक को बाहर खुली हवा में ले जाता था.......चड्डे के नंगे नंगे लमरक सुन कर इसी तरह क़हक़हे बरपा होते थे.......एक सिर्फ़ वो नहीं थी....... वो जिस के बालों के रंग के लिए सही तशबीहा ढ़ूढ़ने में चड्डे ने काफ़ी वक़्त सर्फ़ किया था। मगर इन महफ़िलों में चड्डे की निगाहें उसे ढूंढती नहीं थी। फिर भी कभी कभी चड्डे की नज़रें मम्मी की नज़रों से टकरा कर झुक जाती थीं तो मैं महसूस करता था कि उस को अपनी उस रात की दीवानगी का अफ़्सोस है। ऐसा अफ़्सोस जिस की याद से उस को तकलीफ़ होती है। चुनांचे चौथे पैग के बाद किसी वक़्त इस क़िस्म का जुमला उस की ज़बान से बे-इख़्तियार निकल जाता। “चड्डा....... यू आर ए डीम्ड बरोट!”
ये सुन कर मम्मी ज़ेर-ए-लब मुस्कुरा देती थी, जैसे वो इस मुस्कुराहट की शीरीनी में लपेट लपेट कर ये कह रही है। “डोंट टोक रूट।”
वन क़ुतरे से बदस्तूर उस की चख़ चलती थी। सुरूर में आकर जब भी वो अपने बाप की तारीफ़ में या अपनी बीवी की ख़ूबसूरती के मुतअल्लिक़ कुछ कहने लगता तो वो उस की बात बहुत बड़े गंडासे से काट डालता। वो ग़रीब चुप हो जाता और अपना मीटरी कोलीशन सर्टीफ़िकेट तहा कर के जेब में डाल लेता।
मम्मी, वही मम्मी थी....... पोली की मम्मी, डॉली की मम्मी, चड्डे की मम्मी, रणजीत कुमार की मम्मी.......सोडे की बोतलों, गज़क चीज़ों और महफ़िल जमाने के दूसरे साज़-ओ-सामान के इंतिज़ाम में वो उसी पर शफ़क़त इन्हिमाक से हिस्सा लेती थी। उस के चेहरे का मेकअप्प वैसा ही वाहियात होता था। उस के कपड़े उसी तरह के शोख़-ओ-शंग थे। ग़ाज़े और सुर्ख़ी की तहों से उस की झुर्रियां उसी तरह झाँकती थीं। मगर अब मुझे ये मुक़द्दस दिखाई देती थीं। इतनी मुक़द्दस कि प्लेग के कीड़े उन तक नहीं पहुंच सके थे। डर कर, सिमट कर, वो डर गए थे....... चड्डे के जिस्म से भी निकल भागे थे कि उस पर इन झुर्रियों का साया था....... उन मुक़द्दस झुर्रियों का जो हरवक़्त निहायत वाहियात रंगों में लुथड़ी रहती थीं।
वन क़ुतरे की ख़ूबसूरत बीवी के जब इस्क़ात हुआ था तो मम्मी ही की बरवक़्त इमदाद से उस की जान बची थी। थीलमा जब हिंदूस्तानी रक़्स सीखने के शौक़ में मारवाड़ के एक कत्थक के हत्थे चढ़ गई थी और उस सौदे में एक रोज़ जब उस को अचानक मालूम हुआ था कि उस ने एक मर्ज़ ख़रीद लिया है तो मम्मी ने उस को बहुत डाँटा था। और उस को जहन्नम सपुर्द कर के हमेशा हमेशा के लिए उस से क़ता तअल्लुक़ करने का तहय्या कर लिया था मगर उस की आँखों में आँसू देख कर उस का दिल पसीज गया था। इस ने उसी रोज़ शाम को अपने बेटों को सारी बात सुना दी थी और उस से दरख़ास्त की थी कि वो थीलमा का ईलाज कराएं। कटी को एक मुअम्मा हल करने के सिलसिले में पाँच सौ रुपय का इनाम मिला था, तो इस ने मजबूर किया था कि वो कम अज़ कम उस के आधे रुपय ग़रीबनवाज़ को दे दे, क्योंकि उस ग़रीब का हाथ तंग है। उस ने कटी से कहा था तुम इस वक़्त उसे दे दो....... बाद में लेती रहना और मुझ से उस ने पंद्रह रोज़ के क़ियाम के दौरान में कई मर्तबा मेरी मिसिज़ के बारे में पूछा था और तशवीश का इज़हार किया था कि पहले बच्चे की मौत को इतने बरस होगए हैं, दूसरा बच्चा क्यों नहीं हुआ। रणजीत कुमार से ज़्यादा रग़बत के साथ बात नहीं करती थी। ऐसा मालूम होता था कि उस की नुमाइश पसंद तबीयत उस को अच्छी नहीं लगती। मेरे सामने इस का इज़हार वो एक दो मर्तबा लफ़्ज़ों में भी कर चुकी थी। म्यूज़िक डायरेक्टर सेन से वो नफ़रत करती थी। चड्डा उस को अपने साथ लाता था तो वो उस से कहती थी “ऐसे ज़लील आदमी को यहां मत लाया करो।” चड्डा उस से वजह पूछता तो वो बड़ी संजीदगी से ये जवाब देती थी कि “मुझे ये आदमी ओपरा ओपरा सा मालूम होता है.......फ़िट नहीं बैठता मेरी नज़रों में।” ये सुन कर चड्डा हंस देता था।
मम्मी के घर की महफ़िलों की पुर-ख़ुलूस गर्मी लिए मैं वापस बमबई चला गया। इन महफ़िलों में ज़िंदगी थी, बला-नोशी थी, जिन्सियाती रंग था। मगर कोई उलझाओ नहीं था। हर चीज़ हामिला औरत के पेट की तरह क़ाबिल-ए-फ़हम थी। उसी तरह उभरी हुई। बज़ाहिर उसी तरह कढब, बीनडी और देखने वाले को गोमगो की हालत में डालने वाली। मगर असल में बड़ी सही, बा-सलीक़ा और अपनी जगह पर क़ायम।
दूसरे रोज़ सुबह के अख़बारों में ये पढ़ा कि सईदा काटेज में बंगाली म्यूज़िक डायरेक्टर सेन मारा गया है। उस को क़तल करने वाला कोई राम सिंह है जिस की उम्र चौदह पंद्रह बरस के क़रीब बताई जाती है। मैंने फ़ौरन पूने टेलीफ़ोन किया मगर कोई न मिल सका।
एक हफ़्ते के बाद चड्डे का ख़त आया जिस में हादिस-ए-क़त्ल की पूरी तफ़सील थी। रात को सब सोए थे कि चड्डे के पलंग पर अचानक कोई गिरा। वो हड़बड़ा कर उठा। रौशनी की तो देखा कि सेन है। ख़ून में लतपत्। चड्डा अच्छी तरह अपने होश-ओ-हवास सँभालने भी न पाया था कि दरवाज़े में राम सिंह नुमूदार हुआ। उस के हाथ में छुरी थी। फ़ौरन ही ग़रीबनवाज़ और रणजीत कुमार भी आगए। सारी सईदा काटेज बेदार होगई। रणजीत कुमार और ग़रीबनवाज़ ने राम सिंह को पकड़ लिया और छुरी उस के हाथ से छीन ली। चड्डे ने सेन को अपने पलंग पर लिटाया और इस से ज़ख़मों के मुतअल्लिक़ कुछ पूछने ही वाला था कि उस ने आख़री हिचकी ली और ठंडा होगया।
राम सिंह, ग़रीबनवाज़ और रणजीत कुमार की गिरिफ़त में था, मगर वो दोनों काँप रहे थे। सेन मर गया तो राम सिंह ने चड्डे से पूछा “भापा जी....... मर गया?”
चड्डे ने इस्बात में जवाब दिया तो राम सिंह ने रणजीत कुमार और ग़रीबनवाज़ से कहा “मुझे छोड़ दीजीए, मैं भागूंगा नहीं।”
चड्डे की समझ में नहीं आता था कि वो क्या करे। उस ने फ़ौरन नौकर को भेज कर मम्मी को बुलवाया। मम्मी आई तो सब मुतमइन होगए कि मुआमला सुलझ जाएगा। उस ने राम सिंह को आज़ाद कर दिया और थोड़ी देर के बाद अपने साथ पुलिस स्टेशन ले गई जहां उस का बयान दर्ज करा दिया गया। इस के बाद चड्डा और उस के साथी कई दिन तक सख़्त परेशान रहे। पुलिस की पूछगछ, बयानात, फिर अदालत में मुक़द्दमे की पैरवी। मम्मी इस दौरान में बहुत दौड़ धूप करती रही थी। चड्डा को यक़ीन था कि राम सिंह बरी हो जाएगा। चुनांचे ऐसा ही हुआ। मातहत अदालत ही ने उसे साफ़ बरी कर दिया। अदालत में उस का वही बयान था जो उस ने थाने में दिया था। मम्मी ने उस से कहा था “बेटा घबराओ नहीं, जो कुछ हुआ है सच्च सच्च बता दो.......” और उस ने तमाम वाक़िआत मिन-ओ-अन बयान कर दिए थे कि सेन ने उस को प्ले बैग सिंगर बना देने का लालच दिया था। उस को ख़ुद भी मोसीक़ी से बड़ा लगाओ था और सेन बहुत अच्छा गाने वाला था। वो इस चक्कर में आ कर उस की शहवानी ख़्वाहिशात को पूरी करता रहा। मगर उस को इस से सख़्त नफ़रत थी। उस का दिल बार बार उसे लानत मलामत करता था। आख़िर में वो इस कदर तंग आगया था कि उस ने सेन से कह भी दिया था कि अगर उस ने फिर उसे मजबूर किया तो वो उसे जान से मार डालेगा। चुनांचे वारदात की रात को यही हुआ।
अदालत में उस ने यही बयान दिया। मम्मी मौजूद थी। आँखों ही आँखों में वो राम सिंह को दिलासा देती रही कि घबराओ नहीं, जो सच्च है कह दो। सच्च की हमेशा फ़तह होती। इस में कोई शक नहीं कि तुम्हारे हाथों ने ख़ून किया है मगर एक बड़ी नजिस चीज़ है। एक ख़बासत का, एक ग़ैर फ़ित्री सौदे का।
राम सिंह ने बड़ी सादगी, बड़े भोलेपन और बड़े मासूमाना अंदाज़ में सारे वाक़ियात बयान किए। मजिस्ट्रेट इस क़दर मुतअस्सिर हुआ कि उस ने राम सिंह को बरी कर दिया। चड्डे ने कहा “इस झूटे ज़माने में ये सदाक़त की हैरतअंगेज़ फ़तह है....... और इस का सहरा मेरी बुढ्ढी मम्मी के सर है!”
चड्डे ने मुझे उस जलसे में बुलाया था जो राम सिंह की रिहाई की ख़ुशी में सईदा काटेज वालों ने किया था। मगर मैं मसरूफ़ियत के बाइस इस में शरीक न हो सका। एल बरादर्ज़ शकील और अक़ील दोनों वापस सईदा काटेज आगए थे। बाहर की फ़िज़ा भी उन की ज़ाती फ़िल्म कंपनी की तासीस-ओ-तामीर के लिए रास न आई थी। अब वो फिर अपनी पुरानी फ़िल्म कंपनी में किसी असिस्टैंट के असिस्टैंट होगए थे। इन दोनों के पास इस सरमाए में से चंद सौ बाक़ी बचे हुए थे जो उन्हों ने अपनी फ़िल्म कंपनी की बुनियादों के लिए फ़राहम किया था। चड्डे के मश्वरे पर उन्हों ने ये सब रूपए जलसे को कामयाब बनाने के लिए दिया। चड्डे ने उन से कहा था “अब मैं चार पैग पी कर दुआ करूंगा कि वो तुम्हारी ज़ाती फ़िल्म कंपनी फ़ौरन खड़ी करदे।”
चड्डे का बयान था कि इस जलसे में वन क़ुतरे ने शराब पी कर खिलाफ-ए-मामूल अपने साले बाप की तारीफ़ न की और न अपनी ख़ूबसूरत बीवी का ज़िक्र किया। ग़रीबनवाज़ ने कटी की फ़ौरी ज़रूरीयात के पेशे नज़र उस को दो सौ रुपय क़र्ज़ दिए और रणजीत कुमार से उस ने कहा था “तुम इन बेचारी लड़कियों को यूंही झांसे न दिया करो....... हो सकता है कि तुम्हारी नीयत साफ़ हो, मगर लेने के मुआमले में उन की नीयत इतनी साफ़ नहीं होती....... कुछ न कुछ दे दिया करो!”
मम्मी ने इस जलसे में राम सिंह को बहुत प्यार किया, और सब को ये मश्वरा दिया कि उसे घर वापस जाने के लिए कहा जाये। चुनांचे वहीं फ़ैसला हुआ और दूसरे रोज़ ग़रीबनवाज़ ने उस के टिकट का बंद-ओ-बस्त कर दिया....... शीरीं ने सफ़र के लिए उस को खाना पका कर दिया। स्टेशन पर सब उस को छोड़ने गए। ट्रेन चली तो वो देर तक हाथ हिलाते रहे।
ये छोटी छोटी बातें मुझे इस जलसे के दस रोज़ बाद मालूम हुईं। जब मुझ एक ज़रूरी काम से पूने जाना पड़ा। सईदा काटेज में कोई तबदीली वाक़्य नहीं हुई थी। ऐसा मालूम होता था कि वो ऐसा पड़ाओ है जिस की शक्ल-ओ-सूरत हज़ार-हा क़ाफ़िलों के ठहरने से भी तबदील नहीं होती। वो कुछ ऐसी जगह थी जो अपना ख़ला ख़ुद ही पर कर देती थी। मैं जिस रोज़ वहां पहुंचा । शीरीनी बट रही थी। शीरीं के घर एक और लड़का हुआ था। वन क़ुतरे के हाथ में ग्लैक्सो का डिब्बा था। उन दिनों ये बड़ी मुश्किल से दस्तयाब होता था। उस ने अपने बच्चे के लिए कहीं से दो पैदा किए थे। इन में से एक वो शीरीं के नौज़ाईदा लड़के के लिए ले आया था। चड्डे ने आख़िरी दो लड्डू इस के मुँह में ठूंसे और कहा “तू ये ग्लैक्सो का डिब्बा ले आया है....... बड़ा कमाल किया है तू ने....... अपने साले बाप और अपनी साली बीवी को देखना, हरगिज़ कोई बात न करना।”
वन क़ुतरे ने बड़े भोलेपन के साथ कहा “साले, मैं अब कोई पिएला हूं....... वो तो दारू बोला करती है.......वैसे बाई गॉड.......मेरी बीवी बड़ी हैंडसम है....... ”
चड्डे ने इस क़दर बे-तहाशा क़हक़हा लगाया कि वन क़ुतरे को और कुछ कहने का मौक़ा न मिला। इस के बाद चड्डा, ग़रीबनवाज़ और रणजीत कुमार मुझ से मुतवज्जा हुए और इस कहानी की बातें शुरू होगईं जो मैं अपने पुराने फिल्मों के साथी के ज़रीये से वहां के एक प्रोडयूसर के लिए लिख रहा था। फिर कुछ देर शीरीं के नौज़ाईदा लड़के का नाम मुक़र्रर होता रहा। सैकड़ों नाम पेश हुए मगर चड्डे को पसंद न आए। आख़िर मैं ने कहा कि जाये पैदाइश यानी सईदा काटेज की रियायत से लड़का मौलूद-ए-मसऊद है। इस लिए मसऊद नाम बेहतर रहेगा। चड्डे को पसंद नहीं था लेकिन उस ने आरज़ी तौर पर क़बूल कर लिया।
इस दौरान में मैंने महसूस किया कि चड्डा, ग़रीबनवाज़ और रणजीत कुमार तीनों की तबीयत किसी क़दर बुझी बुझी सी थी। मैंने सोचा शायद ख़िज़ां के मौसम की वजह है। जब आदमी ख़्वाह-मख़्वाह थकावट महसूस करता है। शीरीं का नया बच्चा भी इस ख़फ़ीफ़ इज़मिहलाल का बाइस हो सकता था। लेकिन ये शुबा इस्तिदलाल पर पूरा नहीं उतरता था। सेन के क़त्ल की ट्रेजडी?....... मालूम नहीं। क्या वजह थी.......लेकिन मैंने ये क़तई तौर पर महसूस किया था कि वो सब अफ़्सुर्दा थे। बज़ाहिर हंसते थे, बोलते थे मगर अंदरूनी तौर पर मुज़्तरिब थे।
मैं प्रभात नगर में अपने पुराने फिल्मों के साथी के घर में कहानी लिखता रहा। ये मस्रूफ़ियत पूरे सात दिन जारी रही। मुझे बार बार ख़याल आता था कि इस दौरान में चड्डे ने ख़लल-अंदाज़ी क्यों नहीं की। वन क़ुतरे भी कहीं ग़ायब था। रणजीत कुमार से मेरे कोई इतने मरासिम नहीं थे कि वो मेरे पास इतनी दूर आता। ग़रीबनवाज़ के मुतअल्लिक़ मैंने सोचा था कि शायद हैदराबाद चला गया हो। और मेरा पुराना फिल्मों का साथी अपने नए फ़िल्म की हीरोइन से उस के घर में उस के बड़ी बड़ी मूंछों वाले ख़ाविंद की मौजूदगी में इश्क़ लड़ाने का मुसम्मम इरादा कर रहा था।
मैं अपनी कहानी के एक बड़े दिलचस्प बाब का मंज़र-नामा तैय्यार कर रहा था कि चड्डा बला-ए-नागहानी की तरह नाज़िल हुआ। कमरे में दाख़िल होते ही उस ने मुझ से पूछा “इस बकवास का तुम ने कुछ वसूल किया है।”
उस का इशारा मेरी कहानी की तरफ़ था जिस के मुआवज़े की दूसरी क़िस्त मैंने दो रोज़ हुए वसूल की थी.......। “हाँ....... दूसरा हज़ार परसों लिया है।”
“कहाँ है ये हज़ार?” ये कहता चड्डा मेरे कोट की तरफ़ बढ़ा।
“मेरी जेब में!”
चड्डे ने मेरी जेब में हाथ डाला। सौ-सौ के चार नोट निकाले और मुझ से कहा। “आज शाम को मम्मी के हाँ पहुंच जाना.......एक पार्टी है!”
मैं इस पार्टी के मुतअल्लिक़ उस से कुछ दरयाफ़्त ही करने वाला था कि वो चला गया। वो अफ़्सुर्दगी जो मैंने चंद रोज़ पहले उस में महसूस की थी बदस्तूर मौजूद थी। वो कुछ मुज़्तरिब भी था....... मैंने उस के मुतअल्लिक़ सोचना चाहा मगर दिमाग़ माइल न हुआ कहानी के दिलचस्प बाब का मंज़र नामा इस में बुरी तरह फंसा था।
अपने पुराने फिल्मों के साथी की बीवी से अपनी बीवी की बातें करके शाम को साढ़े पाँच बजे के क़रीब मैं वहां से रवाना हो कर सात बजे सईदा काटेज पहुंचा। गिराज के बाहर अलगनी पर गीले गीले पोतड़े लटक रहे थे। और नल के पास एल बिरादरान शीरीं के बड़े लड़के के साथ खेल रहे थे। गिराज के टाट का पर्दा हटा हुआ था और शीरीं उन से ग़ालिबन मम्मी की बातें कर रही थी। मुझे देख कर वो चुप होगए। मैंने चड्डे के मुतअल्लिक़ पूछा तो अक़ील ने कहा कि “वो मम्मी के घर मिल जाएगा।”
मैं वहां पहुंचा तो एक शोर बरपा था। सब नाच रहे थे। ग़रीबनवाज़ पोली के साथ, रणजीत कुमार, कटी और उलमा के साथ और वन क़ुतरे थीलमा के साथ। वो उस को कथा कली के मदरे बता रहा था। चड्डा मम्मी को गोद में उठाए इधर उधर कूद रहा था.......सब नशे में थे। एक तूफ़ान मचा हुआ था। में अंदर दाख़िल हुआ तो सब से पहले चड्डे ने नारा लगाया। इस के बाद देसी और नीम बिदेशी आवाज़ों का एक गोला सा फटा जिस की गूंज देर तक कानों में सरसराती रही। मम्मी बड़े तपाक से मिली....... ऐसे तपाक से जो बे-तकल्लुफ़ी की हद तक बढ़ा हुआ था। मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर इस ने कहा “किस मी डियर!”
लेकिन उस ने ख़ुद ही मेरा एक गाल चूम लिया और घसीट कर नाचने वालों के झुरमुट में ले गई। चड्डा एक दम पुकारा.......बंद करो.......अब शराब का दौर चलेगा। फिर उस ने नौकर को आवाज़ दी “स्काटलैंड के शहज़ादे.......विस्की की नई बोतल लाओ।“ स्काटलैंड का शहज़ादा नई बोतल ले आया। नशे में धुत था। बोतल खोलने लगा तो हाथ से गिरी और चकनाचूर होगई। मम्मी ने उस को डाँटना चाहा तो चड्डे ने रोक दिया और कहा “एक बोतल टूटी है मम्मी.... जाने दो, यहां दिल टूटे हुए हैं।”
महफ़िल एक दम सूनी हो गई। लेकिन फ़ौरन ही चड्डे ने इस लम्हाती अफ़्सुर्दगी को अपने क़हक़हों से दरहम बरहम कर दिया। नई बोतल आई। हर गिलास में गिरांडील पैग डाला गया। चड्डे की बेरब्त सी तक़रीर शुरू हुई “लेडीज़ ऐंड जैंटलमैन....... आप सब जहन्नम में जाएं.......मंटो हमारे दरमयान मौजूद है। बज़ोम-ए-ख़ुद बहुत बड़ा अफ़्साना निगार बनता है। इंसानी नफ़्सियात की.......वो क्या कहते हैं अमीक़ तरीन गहिराईयों में उतर जाता है.......मैं कहता हूँ कि बकवास है.......कुँवें में उतरने वाले.......कुवें में उतरने वाले उस ने इधर उधर देखा अफ़्सोस कि यहां कोई हिन्दसतोड़ नहीं। एक हैदराबादी है जो क़ाफ़ को खाफ कहता है और जिस से दस बरस पीछे मुलाक़ात हुई तो कहेगा, परसों आप से मिला था.......लानत हो उस के निज़ाम-ए-हैदराबाद पर जिस के पास कई लाख टन सोना है। करोड़ों जवाहरात हैं, लेकिन एक मम्मी नहीं....... हाँ.......वो कुवें में उतरने वाले....... मैंने क्या कहा था कि सब बकवास है.......पंजाबी में जिन्हें टोबहे कहते हैं.......वो ग़ोता लगाने वाले, वो इस के मुक़ाबले में इंसानी नफ़्सियात को बदरजहा बेहतर समझते हैं.......इस लिए मैं कहता हूँ.......”
सब ने ज़िंदाबाद का नार लगाया। चड्डा चीख़ा “ये सब साज़िश है....... इस मंटो की साज़िश है। वर्ना मैंने हिटलर की तरह तुम लोगों को मुर्दाबाद के नारे का इशारा किया था....... तुम सब मुर्दा बाद....... लेकिन पहले मैं....... मैं....... ” वो जज़्बाती हो गया। “मैं....... जिस ने उस रात उस.......साँप के पेट के खपरों ऐसे रंग वाले बालों की एक लड़की के लिए अपनी मम्मी को नाराज़ कर दिया....... मैं ख़ुद को ख़ुदा मालूम कहाँ का डोन जो आसान समझता था....... लेकिन नहीं....... उस को हासिल करना कोई मुश्किल काम नहीं था। मुझे अपनी जवानी की क़सम। एक ही बोसे में उस प्लैटिनम बलोनड के कंवारे पने का सारा अर्क़ मैं अपने इन मोटे मोटे होंटों से चूस सकता था....... लेकिन ये एक....... ये एक ना-मुनासिब हरकत थी....... वो कम-उम्र थी....... इतनी कम-उम्र, इतनी कमज़ोर, इतनी कैरेक्टर लेस....... इतनी” उस ने मेरी तरफ़ सवालिया नज़रों से देखा। “बताओ यार उसे उर्दू फ़ारसी या अरबी में क्या कहेंगे.......कैरेक्टर लेस.......लेडीज़ ऐंड जैंटलमैन....... वो इतनी छोटी, इतनी कमज़ोर और इतनी ला-किरदार थी कि उस रात गुनाह में शरीक हो कर या तो वो सारी उम्र पछताती रहती, या उसे क़तअन भूल जाती....... उन चंद घड़ियों की लज़्ज़त की याद के सहारे जीने का सलीक़ा उस को क़तई तौर पर न आता....... मुझे इस का दुख होता। अच्छा हुआ कि मम्मी ने उसी वक़्त मेरा हुक़्क़ा पानी बंद कर दिया....... मैं अब अपनी बकवास बंद करता हूँ। मैंने असल में एक बहुत लंबी चौड़ी तक़रीर करने का इरादा किया था। मगर मुझ से कुछ बोला नहीं जाता....... मैं एक पैग और पीता हूँ।”
इस ने एक पैग और पिया। तक़रीर के दौरान में सब ख़ामोश थे। इस के बाद भी ख़ामोश रहे। मम्मी न मालूम क्या सोच रही थी। ग़ाज़े और सुर्ख़ी की तहों के नीचे उस की झुर्रियां भी ऐसा दिखाई देता था कि ग़ौर-ओ-फ़िक्र में डूबी हुई हैं। बोलने के बाद चड्डा जैसे ख़ाली सा हो गया था। इधर उधर घूम रहा था। जैसे कोई चीज़ खोने के लिए ऐसा कोना ढूंढ रहा है जो उस के ज़हन में अच्छी तरह महफ़ूज़ है। मैंने उस से एक बार पूछा। “क्या बात है चड्डे?”
उस ने क़हक़हा लगा कर जवाब दिया “कुछ नहीं....... बात ये है कि आज विस्की मेरे दिमाग़ के चूतड़ों पर जमा के लात नहीं मार रही।”
उस का क़हक़हा खोखला था।
वन क़ुतरे ने थीलमा को उठा कर मुझे अपने पास बिठा लिया और इधर उधर की बातें करने के बाद अपने बाप की तारीफ़ शुरू कर दी कि वो बड़ा गुनी आदमी था। ऐसा हारमोनियम बजाता था कि लोग दमबख़ुद हो जाते थे। फिर उस ने अपनी बीवी की ख़ूबसूरती का ज़िक्र किया और बताया कि बचपन ही में इस के बाप ने ये लड़की चुन कर उस से ब्याह दी थी। बंगाली म्यूज़िक डायरेक्टर सेन की बात निकली तो उस ने कहा “मिस्टर मंटो.......वो एक दम हलकट आदमी था....... कहता था मैं ख़ां साहब अबदुल करीम ख़ां का शागिर्द हूँ....... झूट, बिलकुल झूट....... वो तो बंगाल के किसी भड़वे का शागिर्द था....... ”
घड़ी ने दो बजाय। चड्डे ने जसटरबग बंद किया। कटी को धक्का दे कर एक तरफ़ गिराया और बढ़ कर वन क़ुतरे के कद्दू ऐसे सर पर धप्पा मार कर “बकवास बंद कर बे.......उठ....... और कुछ गा....... लेकिन ख़बरदार अगर तू ने कोई पक्का राग गाया।”
वन क़ुतरे ने फ़ौरन गाना शुरू कर दिया। आवाज़ अच्छी नहीं थी। मुरकीयों की नोक-ए-पलक वाज़ेह तौर पर उस के गले से नहीं निकलती थी। लेकिन जो कुछ गाता था, पूरे ख़ुलूस से गाता था। माल्कोस में उस ने ऊपर तले दो तीन फ़िल्मी गाने सुनाए जिन से फ़िज़ा बहुत उदास होगई, मम्मी और चड्डा एक दूसरे की तरफ़ देखते थे और नज़रें किसी और समत हटा लेते थे....... ग़रीबनवाज़ इस क़दर मुतअस्सिर हुआ कि उस की आँखों में आँसू आगए। चड्डे ने ज़ोर का क़हक़हा बुलंद किया और कहा “हैदराबाद वालों की आँख का मसाना बहुत कमज़ोर होता है....... मौक़ा बे-मौक़ा टपकने लगता है।”
ग़रीबनवाज़ ने अपने आँसू पोंछे और उलमा के साथ नाचना शुरू कर दिया। वन क़ुतरे ने ग्रामोफोन के तवे पर रिकॉर्ड रख कर सुइच लगा दी। घिसी हुई ट्यून बजने लगी। चड्डे ने मम्मी को फिर गोद में उठा लिया और कूद कूद कर शोर मचाने लगा। उस का गला बैठ गया था। उन मीरासियों की तरह जो शादी ब्याह के मौक़ों पर ऊंचे सुरों में गागा कर अपनी आवाज़ का नास मार लेती हैं।
इस उछल कूद और चीख़म धाड़ में चार बज गए। मम्मी एक दम ख़ामोश हो गई। फिर उस ने चड्डे से मुख़ातब हो कर कहा। “बस, अब ख़त्म!”
चड्डे ने बोतल से मुँह लगाया, उसे ख़ाली करके एक तरफ़ फेंक दिया और मुझ से कहा। “चलो मंटो चलें!”
मैंने उठ कर मम्मी से इजाज़त लेनी चाही कि चड्डे ने मुझे अपनी तरफ़ खींच लिया। “आज कोई उल-विदा नहीं कहेगा!”
हम दोनों बाहर निकल रहे थे कि मैंने वन क़ुतरे के रोने की आवाज़ सुनी। मैंने चड्डे से कहा। “ठहरो, देखें क्या बात है,” मगर वो मुझे धकेल कर आगे ले गया। इस साले की आँखों का मसाना भी ख़राब है।
मम्मी के घर से सईदा काटेज बिलकुल नज़दीक थी। रास्ते में चड्डे ने कोई बात न की। सोने से पहले मैंने उस से इस अजीब-ओ-ग़रीब पार्टी के मुतअल्लिक़ इस्तिफ़सार करना चाहा तो उस ने कहा “मुझे सख़्त नींद आरही है” और बिस्तर पर लेट गया।
सुबह उठ कर मैं ग़ुसलख़ाने में गया। बाहर निकला तो देखा कि ग़रीबनवाज़ गिराज के टाट के साथ लग कर खड़ा है और रो रहा है। मुझे देख कर वो आँसू पोंछता वहां से हट गया। मैंने पास जा कर उस से रोने की वजह दरयाफ़्त की तो इस ने कहा “मम्मी चली गई!”
“कहाँ!”
“मालूम नहीं” ये कह कर ग़रीबनवाज़ ने सड़क का रुख़ किया।
चड्डा बिस्तर पर लेटा था। ऐसा मालूम होता था कि वो एक लम्हे के लिए भी नहीं सोया था। मैंने उस से मम्मी के बारे में पूछा तो इस ने मुस्कुरा कर कहा “चली गई....... सुबह की गाड़ी से उसे पूना छोड़ना था।”
मैंने पूछा। “मगर क्यों?”
चड्डे के लहजे में तल्ख़ी आगई “हुकूमत को उस की अदाऐं पसंद नहीं थीं.......उस की वज़ाक़ता पसंद नहीं थी। उस के घर की महफ़िलें उस की नज़र में क़ाबिल-ए-एतराज़ थीं। इस लिए कि पुलिस उस की शफ़क़त और मोहब्बत बतौर यरग़माल के लेना चाहती थी.......वो उसे माँ कह कर एक दलाला का काम लेना चाहते थे....... एक अर्से से उस का एक केस ज़ेरे तफ़तीश था। आख़िर हुकूमत पुलिस की तहक़ीक़ात से मुतमइन होगई और उस को तड़िपार कर दिया.......शहर बदर कर दिया.......वो अगर क़हबा थी। दलाला थी....... उस का वजूद सोसाइटी के लिए मोहलिक था तो उस का ख़ातमा कर देना चाहिए था.......पूने की ग़लाज़त से ये क्यों कहा गया कि तुम यहां से चली जाओ। और जहां चाहो ढेर हो सकती हो। चड्डे ने बड़े ज़ोर का क़हक़हा लगाया और थोड़ी देर ख़ामोश रहा। फिर उस ने बड़े जज़्बात भरे लहजे में कहा “मुझे अफ़्सोस है मंटो कि इस ग़लाज़त के साथ एक ऐसी पाकीज़गी चली गई है जिस ने उस रात मेरी एक बड़ी ग़लत और नजिस तरंग को मेरे दिल-ओ-दिमाग़ से धो डाला.......लेकिन मुझे अफ़्सोस नहीं होना चाहिए....... वो पूने से चली गई है .......मुझे ऐसे जवानों में ऐसी नजिस और ग़लत तरंगें वहां भी पैदा होंगी जहां वो अपना घर बनाएगी....... मैं अपनी मम्मी उन के सपुर्द करता हूँ....... ज़िंदाबाद मम्मी.......ज़िंदाबाद!.......चलो ग़रीबनवाज़ को ढूंढें। रो रो कर उस ने अपनी जान हलकान कर ली होगी....... इन हैदराबादियों की आँखों का मसाना बहुत कमज़ोर होता है....... वक़्त बे-वक़्त टपकने लगता है।”
मैंने देखा, चड्डे की आँखों में आँसू इस तरह तेर रहे थे जिस तरह मक़्तूलों की लाशें।