Thug Life - 14 in Hindi Fiction Stories by Pritpal Kaur books and stories PDF | ठग लाइफ - 14

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ठग लाइफ - 14

ठग लाइफ

प्रितपाल कौर

झटका चौदह

सविता दरवाज़े पर ही खड़ी थी. जैसे ही उसने लिफ्ट खुलने की आहट महसूस की उसके पांच सेकंड बाद उसने हलके से दरवाजा खोल कर बाहर झांका तो रमणीक आता हुआ दिखाई दिया. उसका मन एक ही झटके में फूलों की महक से भर गया. उसने दरवाजा वैसे ही छोड़ दिया ताकि रमणीक को उसके खुले होने का एहसास हो जाए और वो एक सेकंड भी ज़्यादा कॉरिडोर में खडा न रहे.

उसके अनुसार अब तक रेचल लिफ्ट ले चुकी होगी और उसने रमणीक को नहीं देखा होगा. वैसे भी रेचल रमणीक को नहीं जानती. सविता ने इस तरफ से निश्चिन्त हो कर सोचा कि अगर देख भी लिया रेचल ने तो वह नहीं जान पायेगी कि ये रमणीक है.

रमणीक घर में दाखिल हो कर अपने पीछे दरवाज़ा बंद कर के उस पर का लॉक क्लिक कर चुका था. दोनों ने एक दूसरे को नज़र भर देखा और फ़ौरन लिपट गए. सविता को रमणीक ने बाँहों में लिया तो उसकी अब तक की रुकी हुयी रुलाई छूट पडी. रमणीक ने उसे छाती से लगा लिया और देर तक इसी तरह खडा हुआ सहलाता रहा.

कमरे में सविता की रुलाई और रमणीक के बोसों और "सविता आय एम् सॉरी" के बार-बार बोले जा रहे लफ़्ज़ों की बसावट के अलावा नीम अँधेरा भी था और एसी की घरघराहट भी.

आखिरकार सविता को कुछ चैन मिला तो उसने रमणीक के आगोश से अलग हो कर डाइनिंग टेबल की तरफ कदम उठाये. रमणीक उसके पीछे-पीछे चलता रहा. सविता ने टिश्यू ले कर अपनी आँखें, नाक और मुंह साफ़ किये और एक बार फिर दोनों एक दूसरे के आगोश में समा गए.

अब तक रमणीक ने खुद को संभाले रखा था. मगर अब वह बेकाबू हो चुका था. उसने सविता को आगोश में लिए-लिए बेडरूम का रुख किया. ज़ाहिर है वह घर का पूरा नक्शा पहचानता था. सविता भी पिछले दो दिनों के तनाव से थक चुकी थी. उसे एक बार तो इस बात का पूरी तरह से यकीन हो चला था कि अब रमणीक से ज़िंदगी में कभी मिलना नहीं हो पायेगा. कम से कम रमणीक उस तरह तो उसकी ज़िंदगी में नहीं हो पायेगा जिस तरह वो अब तक था.

अब उसके लौट आने से उसका ढाढस बंध गया था. साथ ही वह उत्साहित भी थी. उसे लगा था कि रेखा ने जिस तरह से उसे अपमानित किया था उसका बदला वह उसके पति को वापिस हासिल कर के ले रही है. इस पूरे प्रकरण में एक बात वह सिरे से ही नकार रही थी कि रमणीक रेखा का पति था. ये बात न उसने तब सोची थी जब उसका और रमणीक का अन्तरंग सम्बन्ध बनना शुरू हुआ था और ना ही वो अब सोच रही थी कि जब इतना पानी पुल के नीचे से बह चुका था.

इस वक़्त उसे सिर्फ रमणीक की मज़बूत गिरफ्त की परवाह थी और अपनी भूख की. जिसे रमणीक का जिस्म अपनी पूरी मौजूदगी के साथ बखूबी पहचानता था और निभाता था. वे जितनी देर एक दूसरे में खोये रहे उतनी देर बाकी दुनिया उनके लिए बेमानी और गैरमौजूद बनी रही.

सविता का बेडरूम उनके उतरे हुए कपड़ों के ढेर से सजा, उनकी तेज़ होती उखड़ती साँसों और पसीने से महकता जो गीत गाता रहा वो दुनियादारी की कसौटी पर चाहे खरे न उतरते हों, रमणीक और सविता के मन के पन्नों पर वो इबारत लिख रहे थे जिसकी गुन्जायिश रमणीक की सामाजिक ज़िंदगी में कत्तई नहीं थी.

रमणीक और सविता दोनों ही इस बात को जानते भी थे. रमणीक इस बात को मानता भी था. इसी लिए रेखा के सामने उसने अपनी गलती स्वीकार कर ली थी. लेकिन मन से तो मजबूर था ही उससे ज्यादा अब वो एक नयी राह अपने लिए बना रहा था. उस राह पर उठे उसके कुछ बेबाक कदमों में से एक ये भी था.

उसे अपनी पत्नी और ससुर की छाया से अलग हट कर एक नयी पहचान कायम करनी थी. उस सफ़र का एक बड़ा हिस्सा वह तय कर चुका था. सविता से सम्बन्ध बनाये रखना उसके अहम् को तुष्टि देता था.

इसके अलावा सविता बेहद हसीन और कमनीय स्त्री तो थी ही. यह रमणीक के लिए अतिरिक्त आकर्षण था. छिप-छिप कर मिलने का रोमांच भी इस रिश्ते में रमणीक को मिल रहा था जो उसे सविता से सम्बन्ध बनाए रखने को पहले भी आतुर करता रहता था.

रेखा के हाथों अपमानित हुयी सविता की चोटों पर सहानुभूति का फाहा रखना भी उसका फ़र्ज़ था. ये वो जानता था. इस काम के लिए यही तरीका उसे उचित लग रहा था.

सविता के लिए इतने अपमान के बाद रमणीक का आना और माफी मांगना ही काफी था. ये जिस्म और मन का साथ तो अतिरिक्त बोनस के तौर पर आया था जिसे वो पूरे तन और मन के साथ जी रही थी.

उन्माद के गुज़र जाने के बाद कुछ देर वे यूँ ही चुपचाप लेटे रहे.

सविता ने ही चुप्पी तोडी, "रमणीक, तुम वहीं थे जब रेखा ने मुझे गलियाँ दीं."

उसके स्वर में आक्रोश तो नहीं था. शिकायत काफी थी. प्रेमी के उसके हक़ में नहीं बोल पाने की मजबूरी की समझ तो थी लेकिन उम्मीद के टूट जाने का एक दबा-ढका सा उलाहना भी था. इससे ज्यादा कुछ रखने का उसे हक नहीं था ये भी जानती थी.

उसने करवट ले कर रमणीक की तरफ चेहरा कर लिया था. वह चित्त लेटा हुया था. जानता था ये बात आयेगी. जवाब सोच कर रखे हुए था.

यहाँ आने के लिए एक दोस्त के घर से बाहर निकल कर अपनी गाड़ी वहीं उसके घर के बाहर छोड़ते हुए जब टैक्सी ली थी तभी से ये सोच रहा था कि सविता के किस सवाल का जवाब देना है और किस का नहीं. और क्या देना है यह भी.

"हाँ. मैं वहीं था और नहीं भी. मैं उस वक़्त बाथरूम में था. उससे पहले रेखा से मेरी बात हो चुकी थी. मैंने उसे समझा दिया था. वो समझ भी गयी थी. फिर मैं नहाने चला गया तभी उसने मेरे पीछे से मेरा फ़ोन ले कर तुम्हारे साथ बात की थी. बाहर आ कर मैंने अपना फ़ोन उससे ले लिया था. उसके बाद तो तुम्हें उसने फ़ोन नहीं किया ना?"

"उसके बाद भी फ़ोन आये. फिर मैंने सारे नंबर ब्लाक कर दिए. लेकिन मुझे बहुत तकलीफ हुयी. तुमने भी मेरी सुध नहीं ली." सविता एक बार फिर रुआंसी हो आयी थी.

रमणीक घबरा गया. रोना-धोना ज्यादा नहीं झेल पाता. इसके अलावा सविता के पास वह खुशी और सुख के लिए ही आना चाहता था. अगर यहाँ भी यही रूठना मनाना होने लगा तो वह नहीं झेल पायेगा.

इसके अलावा वह अपनी पत्नी की छाया के तले दबा हुया था. प्रेमिका के साथ भी वैसा ही सम्बन्ध बन जाए वो नहीं चाहता था. एक बारगी उसे लगा शायद उसने इस काम के लिए गलत स्त्री का चुनाव कर लिया है. उसे तो एक ऐसी स्त्री चाहिए थी जो उसकी हां में हां मिलाये और अपने दुखड़े न सुनाये. कम से कम उससे जुड़े हुए तो.

इसके बदले में वह सविता के आर्थिक मसले सुलझाने को तत्पर था. एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के सी. ई. ओ. से उसकी आज ही बात हो गयी थी. वे सविता को को नौकरी देने को तैयार था. नौकरी ऊंचे पद पर थी और पे पैकेट भी खासा मोटा था. सविता के पेपर्स उसने पहले ही सविता से ले रखे थे जो उसके ऑफिस की दराज़ में पड़े थे.

लेकिन वो अभी सविता को ये खुशखबरी दे कर उसकी आशाएं बढ़ाना नहीं चाहता था. उसका इरादा था कि एक दो दिन में जब सविता के नाम का जोइनिंग लैटर हाथ में आ जाए तो वह उसे सरप्राइज दे. इस सरप्राइज के साथ उसे मिलने वाला प्यारा भी और रंगीन हो जायेगा इसका रमणीक को पूरा भरोसा था.

"यार. छोडो न जो हो गया वो हो गया. अब मैं हूँ न तुम्हारे पास. और क्या चाहिए तुम्हें?"

वाकई और क्या चाहिए था सविता को? इस वक़्त तो और कुछ भी नहीं. सविता को भरोसा था कि जब तक रमणीक उसकी ज़िंदगी में बना हुया है उसके आर्थिक मसले सुलझ ही जायेंगे. और उसके लिए जीवन की सबसे बड़ी समस्या यही थी. बाकी काम तो वह खुद अपने बूते पर कर ले जाती थी. काम वह पूरा मन लगा कर करती थी. उस वक़्त उसे सही गलत का भेद-भाव नहीं रहता था. उचित-अनुचित सभी उसके लिए एक समान थे. तन तक जब तक कि वे उसे फायदा पहुंचा रहे हों.

रमणीक के साथ उसके अन्तरंग सम्बन्ध भी काफी कुछ इसी सोच का नतीजा थे.

रमणीक ने भी उसकी तरह करवट ले ली थी. वे आमने-सामने हुए तो फिर आलिंगन में बंध गए. होठों ने फिर एक दूसरे की थाह लेने की ठान ली. एक बार फिर कमरे में सांसों का तूफ़ान बरपा गया.

इस बार तूफ़ान के रुकते ही रमणीक उठ कर बैठ गया.

"मुझे अब चलना चाहिए. "

"बस? अभी तो आये हो. खाना नहीं खाओगे?'

कह तो दिया सविता ने लेकिन अगले ही पल ख़याल आया रमणीक के लायक खाना घर में था ही नहीं. वो तो थाली में तीन सब्जी, चावल, दाल, रोटी, पापड़, रायता ये सब होने पर ही खाता था. उसके लायक खाना बनाने का इंतजाम भी नहीं था घर में. लेकिन रमणीक के अगले शब्दों ने उसकी चिंता को सिरे से ही ख़ारिज कर दिया.

"यार मैं तुम्हारे घर खाना खाने नहीं आया.मैं तो तुम्हें मिलने और तुम्हें खाने आया हूँ." एक चपत लगा कर उसे एहसास भी दिला दिया की सिर्फ मज़ाक ही कर रहा है.

वह भी हंस पडी. "अच्छा है. मुझे खा लिया तो ठीक है. लेकिन मैं तो अभी जिंदा हूँ."

"हाँ. कल भी तो खाना है. थोडा-थोडा कर एक खाऊँगा. एक साथ खा गया तो कल क्या करूंगा?"

"कल? कब आओगे?"

सविता के मन में उम्मीद ने हिलोरें मारनी शुरू कर दीं.

"ये कल बताऊँगा." कपडे पहनते हुए रमणीक बोला. पेंट की हुक लगाते-लगाते ठिठक कर वह बाथरूम की तरफ बढ़ गया.

दो तीन मिनट बाद बाथरूम से बाहर आया तो बालों में कंघी कर चुका था. बेड पर बैठ कर मोज़े और जूते पहने और खडा हो गया. सविता भी तब तक कपडे पहन चुकी थी. बालों में ब्रश कर के वह भी सामने आ खड़ी हुयी.

दोनों ने एक दूसरे की बाहों में बाहें डालीं और बेडरूम से बाहर आ गए.

एक लंबा सा चुम्बन सविता के होठों पर जड़ कर रमणीक ने मेन डोर की तरफ बढ़ते हुए कहा, "मैं चलता हूँ. देर हो रही है. मैं फ़ोन करूंगा. तुम मत करना."

"ओके." मायूस सविता ने कहा. फिर पूछ ही बैठी," गाड़ी कहाँ पार्क की?"

"पागल हो? यहाँ अपनी गाड़ी से आऊँगा? "

"तो"

"टैक्सी ली है. गाडी दोस्त की बिल्डिंग के बाहर है. उसको भी नहीं पता. क्या पता कौन कब चुगली खा ले. सब हरामी हैं साले. किसी पर भरोसा नहीं करना अब. रेखा के सब तलवे चाटते हैं."

बातचीत के दौरान वह फ़ोन पर लगा हुया था.

"मुझ पर तो करोगे न?'

"हाँ और तुम मुझ पर करना."

"मैं तो करती हूँ."

"ओके डार्लिंग बाय." कह कर रमणीक ने दरवाज़ा हौले से खोला और बाहर कॉरिडोर में निकल आया.

कॉरिडोर में कोई नहीं था. नीचे आने तक गार्ड के अलावा उसे और किसी भी एंसान का चेहरा नज़र नहीं आया. सविता से बात करते हुयी ही उसने फ़ोन से ओला बुलवा ली थी जो गेट पर उसका इंतज़ार कर रही थी. उसमें बैठा और गाडी चल पडी. रमणीक इत्मिनान से था.

वो नहीं देख पाया कि सामने के अँधेरे से कोने में से एक आदमी उसकी गाडी के चलते ही सविता की बिल्डिंग के गार्ड के पास आया, उसके हाथ में कुछ थमा दिया और उसी तरह चुपचाप बिना कुछ बोले अँधेरे में गुम हो गया. ये वही आदमी था जिसे सुबह सविता ने देख कर अनदेखा कर दिया था.

गार्ड ने उसके जाते ही अपनी हथली को खोल कर देखा. उसमें एक पर्ची पर एक फ़ोन नंबर लिखा हुया था और साथ में था एक बैंगनी रंग का दो हज़ार का कड़कड़ाता नोट.

***