आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची
रश्मि रविजा
भाग - 9
(अभिषेक, को शची जैसी ही. आवाज़ सुनायी देती है और वह पुरानी यादों में खो जाता है कि शची नयी नयी कॉलेज में आई थी. शुरू में तो शची उसे अपनी विरोधी जान पड़ी थी पर धीरे धीरे वह उसकी तरफ आकर्षित हुआ. पर शची की उपेक्षा ही मिली पर फिर वे करीब आ गए. पर उनका प्यार अभी परवान चढ़ा भी नहीं था कि एक दिन शची ने कुछ बताना चाह पर रोती ही रह गयी और दूसरे दिन उसने बताया की उसे रुमैटिक हार्ट डिज़ीज़ है, इसलिए वह उस से दूर चली जाना चाहती है )
गतांक से आगे
और मुस्करा कर, शची ने हाथ बढ़ा दिया उसकी ओर, "लेट्स पार्ट फौरेवर एज अन्फौर्गेटेबल फ्रेंड्स."
"इतनी निर्मम ना बनो, शची".... कहते उसने हाथ पीछे की ओर बाँध लिए. मानो यदि सामने रहा तो जबरदस्ती खींच कर मिला लेगी और चल देगी... और बड़े दुखी स्वर में बोल पड़ा, " इतना आसान है शची, बस लेट्स पार्ट कह कर चल देना... अभी तुमने कुछ ठीक से बताया नहीं... मैंने कुछ जाना नहीं और लेट्स पार्ट फौरेवर... "
शची भी नीचे बैठ गयी... "पूछो.... और क्या जानना चाहते हो?"
"मुझे सब बताओ शची... आखिर डा. क्या कहते हैं, मुझे तुम्हारे मेडिकल पेपर्स भी देखने हैं... सब कुछ जानना है "
"तुम जब चाहो पेपर्स देख लो, डा. खुद ही श्योर नहीं हैं. कहते हैं हो सकता है... मेरी ज़िन्दगी इसी तरह आगे के चार साल, दस साल, बीस साल तक चलती रहें या फिर कभी भी कॉम्प्लिकेशन सर उठा सकते हैं, और कुछ भी हो सकता है... एवरीथिंग इज जस्ट सो अनप्रेडिक्टेबल. "
थोड़ी सी आशा जागी मन में, " फिर... तुम क्यूँ दूर जाना चाहती हो. ??.. "
"नहीं अभिषेक, मुझे सौ एहतियात बरतने पड़ते हैं. बेफिक्र सी होकर मैं नहीं जी सकती. पता है आउटडोर गेम्स मुझे बचपन से कितने पसंद थे, पर मेरे साथ खेलनेवाले मुझे कभी भी अपनी टीम में नहीं रखना चाहते थे क्यूंकि मैं तुरंत थक जाती थी, किनारे बैठे बस उनका दौड़ना -भागना देखती रहती. मैं नहीं चाहती कि जब लोग समय को भूल जाना चाहते हैं, तब मैं टाइम देखकर दवाइयां खाऊं. लोग पहाड़ों पर जाते हैं, वहाँ की खुशनुमा वादियों को जीने, और मैं जाऊं हेल्थ सुधारने... ज़िन्दगी के सुन्दरतम क्षण अस्पतालों और दवाइयों के चक्कर में बीतें, मुझे नहीं गवारा..... मैं नहीं चाहती, मेरी वजह से किसी दूसरे को भी यह सब भोगना पड़े, उसे मेरी साँसों का हिसाब रखना पड़े...... मेरी ज़िन्दगी की सारी कमियां, सारे गम मेरे अपने हैं.. इनमे मैं किसी को सहभागी नहीं बनाना चाहती. "
"यू आर सो सेल्फिश, शची... सिर्फ अपना सोचती हो तुम. मैंने दुख और सुख दोनों में तुम्हारा साथ चाहा है. ये भी मन है कि तुम्हारे साथ ढलता सूरज देखूं.... चांदनी में नहाते हुए, पूनम का चाँद देखूं, बारिश में भीगते हुए ढाबे की चाय पीउं. मध्यम रोशनी में तुम्हारे साथ स्लो डांस करूँ, कैफे में बैठ तुम्हारे साथ कॉफ़ी पिउं, आइसक्रीम खाऊं तो यह भी चाह है कि जब मैं बीमार पडूँ तो तुम मेरा माथा सहलाओ... ऐसे ही तुम बीमार पड़ो तो मैं तुम्हारा हाथ थाम के रखूं. मुझे तुम्हारा साथ, सुख और दुख दोनों में चाहिए. तुम्हारी तरह नहीं कि सिर्फ सुख में ही साथ की चाह हो. क्या तुम्हारी तकलीफ मेरी नहीं है? तुम्हारे दुख से मुझे दुख नहीं हो रहा?"
"तुम मेरी जगह नहीं हो ना, इसीलिए ये सब कह पा रहें हो, ये सब बातें, सिर्फ किताबों में अच्छी लगती हैं, अभिषेक या फिर हमारी हिंदी फिल्मों में... वास्तविक धरातल पर कोई महत्त्व नहीं इनका... इस संसार में रहना है तो पग पग पर समझौते करने ही पड़ेंगे. सिर्फ बातों के सहारे, ज़िन्दगी नहीं चलती, अभिषेक. तुमने अभी अभी इस तरफ निगाहें की और मैं भा गयी तुम्हे. मैं कोई अनिन्द्य सुंदरी नहीं, ना ही कोई ऐसी खासियत है मुझमे जो दूसरी लड़कियों में ना हो... तुमने तो अभी अभी लड़कियों की ओर ध्यान देना शुरू ही किया है. पात्र-अपात्र का चुनाव करने की क्षमता ही कहाँ है तुम में? एक बार नज़रें उठा कर देखो, कितनी ही सुन्दर, सुसंस्कृत, गुणी लडकियां पलक -पांवड़े बिछाए मिलेंगी और जिनके साथ तुम अपने सारे अरमान पूरे कर सकते हो... वो ढलता सूरज.. और चाँद देखने के. "
बड़े दुख से मानो, शची की बुद्धि पर तरस खाते हुए बोला, "ये लडकियां.. लडकियां जो रट रही हो... गौर किया है, कितना एब्सर्ड लग रहा है, सब. ये कोई फ़िल्मी धुन है क्या जो इस साज़ पे नहीं तो उस साज़ पे बजा लिया... " और दोनों हाथों से अपने ललाट की शिकनें दूर करते, नीचे देखते हुए बोल उठा.. "ये तो वो दिव्य संगीत है शची, जो हर साज़ पे नहीं बजाय जा सकता "
उसकी इतनी गंभीरता से कही बात को भी, हंसी में उड़ा दिया शची ने और जोर से खिलखिलाते हुए बोली, "अभिषेक शुक्रिया, अदा करो इस जगह का, जिसने तुम्हे शायर बना कर ही दम लिया, क्या कह रहें थे अभी, 'हर साज़ पे नहीं बजाय जा सकता'... किसकी लिखी है, अब ये भी तो बता दो. "
लेकिन वह गंभीर बना वैसे ही बैठा रहा. अपनी इतनी मजाकिया बातों का उस पर कोई असर ना होता देख, वह भी चुप हो आई.
बहुत देर तक मौन पसरा रहा, दोनों के बीच. पेडों की परछाइयां लम्बी होकर तालाब में पड़ रही थीं. लम्बे लम्बे नारियल के पेड़ पानी में हिलते डुलते ऐसे लग रहें थे मानो पूरा तालाब ही पेडों से पाट दिया गया हो. शची ने ही चुप्पी तोड़ी... "कुछ बोलो, ना अभिषेक यूँ चुप क्यूँ बैठे हो "
उसने कोई उत्तर नहीं दिया बस लहराते पानी को देखता रहा.
शची ने मनाने की गरज से उसके घुटनों पर हाथ रख कर कहा, "अभिषेक!! सच कह रही हूँ, कसम है तुम्हे, मेरी.... भूल जाओ कि ऐसा कुछ भी घटा था हमारे जीवन में. मैंने कितना टाला, तुम्हे, कितना चाहा तुमसे दूर रहना. पर नियति के हाथों मजबूर हो गयी. कैसे बताऊँ तुम्हे, कोई कोशिश नहीं छोड़ी मैंने उपेक्षा दिखाने की. तुम्हें आहत देख कितना दुख होता था लेकिन हर बार सख्ती से रोक लिया खुद को. पर हूँ, तो आखिर मनुष्य ही ना. भावनाओं के लपेट में आ ही गयी. अच्छी तरह जानते हुए भी कि यह क्षेत्र मेरा नहीं... यह अनर्थ कर डाला मैंने. ऐसा क्यूँ होता है, अभिषेक? शरीर तो हमलोगों का बीमार हो जाता है पर मन को बीमारी छू भी नहीं जाती. उसमे अपेक्षाओं, आशाओं की तरंग वैसे ही उठती रहती है. वह भी सुनहरे ख्वाब बुनने से बाज़ नहीं आता. बड़ी मुश्किल से मस्तिष्क साधे रहता है, उसे पर रस्सी तुड़ा, भाग निकलता ही है, कभी कभी.
ऐसा ही हुआ, मेरे साथ. हर संभव प्रयत्न किया मैंने, खुद को इन्वॉल्व होने से रोकने का. शायद रोक भी लेती, संभाल भी लेती खुद को, अगर तुमने किसी अच्छी लड़की का साथ किया होता. लेकिन तुमने तो उनलोगों से दोस्ती की, जिन्हें तुमसे नहीं एक अदद कार और एक खनखनाते पर्स से मतलब था. उनका नाम आज किसी से जुड़ता है तो कल कोई और उसकी जगह ले लेता है. मौसम की तरह तो उनके बॉयफ्रेंड बदलते हैं. पढ़ाई तो मात्र एक एंगेजमेंट है उनके लिए राम जाने पास कैसे हो जाती हैं. ऑफ कोर्स, नक़ल से और कैसे? तो शायद यह सब ये कमबख्त मन बर्दाश्त नहीं कर पाया और उसने तुम्हे आगाह करना उचित समझा. जिसकी इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है. क्या सोचते हो, बड़ी ख़ुशी हो रही है मुझे ये सब कह कर. ? दुख मुझे भी होता है, अभिषेक. पत्थर की नहीं बनी हूँ मैं. पर नियति यदि यही है तो इसे स्वीकार करना ही होगा,. हंस कर या रोकर और चाहे वो शहद की तरह मीठा हो या नीम की तरह कड़वा. "
वह चुपचाप वैसे ही सामने देखता, सब सुनता रहा.
उसे यूँ चुप देख, विषय बादल दिया, शची ने और कुछ विहँसती हुई सी बोली, "कविता को देखा, तुमने?? आश्चर्य होता है देख. महानगर में ऐसी लडकियां भी होती हैं. बाहर की रंगीनी छू तक नहीं गयी उसे. जब भी उसकी आँखों में देखोगे, अपने सिवा कोई और नज़र नहीं आएगा. तो मानते हो मेरी बात ?""
अपनी तरफ से, शची पूरी कोशिश कर रही थी लेकिन उसकी आवाज़ की गहरी उदासी छुप नहीं सकी, उस से. गुस्सा भी आया उसकी बात पर. पानी से बिना नज़रें हटाये बोला, " किसी की भी आँखों में झाँकने पर अपना प्रतिबिम्ब ही नज़र आता है. हो गया भाषण? कुछ बोलने दोगी, मुझे भी ??"
"बोलो ना, कब से तो चाह रही हूँ "
"मेरे लिए तो तुमने इतना सोच लिया. अपना कभी सोचा, कैसे काटोगी ये पहाड़ सी ज़िन्दगी? तुम्हे कोई स्मृति परेशान नहीं करेगी??"
"अँ हँ... "अटकती हुई सी बोली, " अरे! इतनी किताबें हैं दुनिया में जिन्हें पढने को एक जन्म भी कम पड़ेगा. और मेरी ज़िन्दगी किसी टीले सी है अभिषेक, पहाड़ सी नहीं और फिर यादों का खजाना भी तो है, मेरे पास.... आराम से कटेगी "
"किताबें सिर्फ तुम्हारे लिए ही नहीं हैं और यादों का खजाना तो मेरे पास भी है, जी लूँगा उसी के सहारे मैं भी. "
"तुम समझते क्यूँ नहीं अभिषेक... कितनी आशाएं, आकांक्षाएं टिकी हैं तुम्हारे ऊपर. तुम्हारे पैरेंट्स को तुम्हारे भविष्य की चिंता नहीं है? इकलौते लड़के हो तुम उनके., कितने सारे सपने देखें होंगे उन्होंने तुम्हारे लिए.... सिर्फ अपनी खातिर जी रहें हो?... बस अपने सुख-दुख की परवाह है तुम्हे. ? तुम्हारी इस ज़िन्दगी पर उनका भी कुछ हक है. लेकिन इन सबके पहले तुम्हे, भावुकता से उबरना होगा.... बहुत बुरी चीज़ है यह भावुकता. तहस-नहस कर डालती है ज़िन्दगी... "
"हम्म.... लेक्चर तो अच्छा दे लेती हो आखिर लेखिका जो ठहरी... तो महान पत्रकार कम लेखिका कम अभिनेत्री कम गायिका जी.... आपने मेरी बात का समुचित उत्तर नहीं दिया?"... विद्रूपता से बोला उसने तो शची हंस पड़ी.... "थैंक्यू... थैंक्यू... आखिर तुमने मुझे पहचाना तो, सही. और मेरा क्या पूछते हो.. मेरा क्या है..... एक पिताश्री हैं, लेकिन लगता है उनके जाने के पहले मैं ही चल दूंगी या फिर अपने जैसे ही किसी टी. बी. या कैंसरग्रस्त व्यक्ति से शादी कर बची-खुची ज़िन्दगी भी बड़े शान से गुजार दूंगी. "
सह नहीं पाया ऐसा मजाक. इतनी देर से दबा हुआ आक्रोश फूट पड़ा. दांत पीसते हुए बोल, पड़ा, "अगर ऐसी ही बातें करती रही ना, तो सच कहता हूँ पत्थर उठा अपना ही सर फोड़ लूँगा या तुम्हारा ही... क्या मतलब जो भी करो तुम, मेरी तरफ से जहन्नुम में जाओ. "... और हाथ झाड़ता, धम धम पैर पटकता, चला आया.
बेहद थका सा गाड़ी का दरवाजा खोल, सीट पर निढाल पड़ गया. मस्तिष्क बिलकुल निष्पंद हो गया था. कुछ भी सोचने -समझने की शक्ति नहीं बची थी. चकराता सर स्टीयरिंग पर रख, आँखें मूँद ली उसने.
जब आँखें खोल निगाहें दौडायीं तो पाया, चारों तरफ हल्का हल्का, अंधियारा घिर आया था, जो अब गहरेपन का रूप ले रहा था. उसके चलने से पहले सूरज तो डूब ही चुका था और अब शाम का उजास भी ख़त्म हो, अँधेरा फ़ैल रहा था. शची, अब तक नहीं आई ??. किसी बुरी आशंका से दिल जोरों से धड़क उठा. दौड़ता हुआ, बढ़ चला. तालाब तक जाने का छोटा रास्ता कंकड़ पत्थरों से भरा था. पूरे रास्ते पर रोड़े बिछे हुए थे. उसे खासी परेशानी हो रही थी फिर भी ठोकरें खाता गिरता-पड़ता, दौड़ता हुआ पहुंचा तो दूर से ही शची को सही-सलामत देख, जान में जान आई उसकी. बड़ा रहस्यमय सा दृश्य लग रहा था, दैत्याकार पेड़ और काढ़े से पानी के बीच बैठी एक नारी आकृति. अजीब भयावह सा लग रहा था, सब कुछ. मन में आया झिंझोड़ दे उसे जाकर. पर हिम्मत नहीं हुई. फिर शची कुछ ऐसा कह देगी, जिसे ये क्षत-विक्षत मन बर्दाश्त नहीं कर पायेगा. उसकी चुभती बातें झेलने की जरा भी सामर्थ्य नहीं बची थी. अभी तो मन हो रहा था, बस सामने बिस्तर हो और तकिये में मुहँ छुपा, गहरी नींद में सो जाए, सारी दुनिया से बेखबर. कुछ देर असमंजस में खड़ा रहा. फिर धीरे धीरे लौट आया. अभी पांच मिनट भी नहीं बीते होंगे कि शची आती दिखी.
उसे देख आवाक रह गयी, "अरे, तुम यहीं हो अभी तक ? मैं तो समझी थी, चले गए होगे. " कार का दरवाजा खोल बैठते हुए बोली.
उसे वैसी ही सहज देख, रोष उफान आया, "जब लाया मैं हूँ.. तो पहुंचाने की जिम्मेवारी भी मेरी ही है. " कह कर गाड़ी स्टार्ट कर दी.
शची ने उबासी ले ली, "अपनी जिम्मेवारी समझ लो, तब तो सारी समस्या ही हल हो जाए "
बिलकुल गरज उठा वह, "शची आगे ऐसा कुछ भी कहा ना, तो गड्ढे में गिरा दूंगा गाड़ी, समझी.... कल जाने वाली हो, ना भगवान के पास... आज ही चली जाओगी "
हंस दी शची, "और साथ में तुम्हे भी ले जाउंगी... " लेकिन उसे रोष से कांपते और हाथों में सचमुच स्टीयरिंग डगमगाता देख घबराकर बड़ी नरमी से बोली, "इतने नाराज़ हो ?"
चिढ उठा वह, "नाराज़ क्यूँ होऊंगा... हक ही क्या है नाराज़ होने का. तुम्हारे जो भी मन में आए कहो, करो... कौन होता हूँ मैं रोकने वाला.... अधिकार ही क्या है मेरा... ना कोई अधिकार ना कोई सम्बन्ध.. लगता ही कौन हूँ आखिर... "आखिरी वाक्य कहते कहते गला भर आया उसका. शब्द भीतर ही घोंट लिए. क्या फायदा यूँ अपनी कमजोरी जाहिर करके. शची ने भी उसका लाल होता चेहरा देख लिया था. धुंधली दृष्टि शीशे के पार गड़ा दी.
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अगले कुछ दिन शॉक की हालत में रहा वह. लगा जैसे सभी स्वजन बिछड़ गए हैं और नितांत अनजान जगह पर आ गया है वह. बेहद अकेला. बिलकुल निस्सहाय. शची को समझाते समझाते थक गया था, की ज़िन्दगी चाहे चार पल की हो या एक सदी की, वह शची के साथ ही गुजारना चाहता है. हो सकता है, सब कुछ ठीक हो जाए. मेडिकल साइंस में रोज इतने नए प्रयोग हो रहें हैं... हो सकता है कुछ रास्ता निकल आए.
पर शची, हर बार एक लम्बा सा लेक्चर दे डालती, " अभिषेक ! तुम अभी भावनाओं के ज्वार से उबर नहीं पा रहें हो. व्यावहारिक बनो. यथार्थ के धरातल पर उतर कर सोचो. ऐसा ना हो अभी जोश में लिया गया निर्णय, होश आने पर गलत साबित हो. तटस्थ होकर सोचो, इस विषय पर. "
या कभी हंसी का पुट लिए बींध देती, " अभिषेक ! कितनी ही गरीब लडकियां दहेज़ का शिकार हो रही हैं. उन्हीं में से किसी का उद्धार करो, ना. अपनी तरफ से कोई कुर्बानी भी नहीं दोगे और आराम से स्वर्ग में भी रिजर्वेशन हो जायेगा. मैं भी एक शानदार आर्टिकल लिखूंगी. " एक बड़े उद्योगपति के इकलौते सुपुत्र ने किया एक गरीब कन्या का उद्धार " तुम्हारी उदारता के किस्से बच्चे बच्चे की जुबान पर चढ़ जाएंगे गली-गली में गूँज उठेगा नाम तुम्हारा. " तिलमिला कर रह जाता वह.
हर बार शची की भूल जाओ की रट से खासा परेशान हो उठा. समझ में नहीं आता कैसे इस लड़की को राह पर लाये. जीना मुश्किल कर दिया था, शची की इस जिद ने.
आखिर एक दिन बरस ही पड़ा... " जब तुम्हे पता था कि तुम इतनी भयावह बीमारी से पीड़ित हो तो क्यूँ आगे बढ़ी.. क्यूँ इस राह पर कदम रखा? खुद लौट तो गयी बड़े आराम से पर मुझे खाई में धकेल कर. और खुश हो तुम, क्यूँ नहीं होगी, आदिम प्रवृत्ति तो सबमे होती है. क्रूर सुख मिलता है, किसी को यूँ तिल तिल जलाकर. बोलो मेरी बेचैनी का हजारवां भाग भी छू गया है तुम्हे?"
शची एकटक देखती रही उसे. और जोरों से भड़क उठा, वह. "हाँ क्या बोलोगी... अब कहाँ गए वो लम्बे लम्बे लेक्चर... वो फिलौस्फर किस्म की बातें. वो देवी बनने का ढोंग.,.. हमेशा ऊँचे रहने का दिखावा. यथार्थ की एक चोट पड़ी नहीं कि सब निष्प्रभ. बीच में कितनी आत्मीयता जताई तुमने. कहाँ गए वो सब कहे शब्द तुम्हारे.... कोई मैजिशियन तो नहीं मैं कि तुम्हे हिप्नोटाईज करके तुम्हे अपने करीब ले आया था. क्यूँ भूल गयी, उस समय कि तुम्हे रुमैटिक हार्ट डिज़ीज़ है. कि ये क्षेत्र तुम्हारा नहीं. "
शची, बिना पलकें झपकाए, मुहँ खोले.. इतनी आहत दृष्टि से देख रही थी उसे कि अचानक ब्रेक लग गया उसके शब्दों को. इतने सरे भाव आ जा रहें थे उसके चेहरे पर कि उन सबका स्पंदन उसके ह्रदय में भी हो रहा था या नहीं कहना मुश्किल था. इतना असहाय, इतना कातर, इतना आहत रूप उसने नहीं देखा था शची का. सहा नहीं गया उसका इतना कमजोर और लाचार रूप. ऐसी दहशत भरी डरी डरी नज़रें थी उसकी जैसे किसी मासूम बच्चे कि होती हैं, पीटे जाने की आशंका से.
शची sssss.... " शायद थर्रा गयी उसकी आवाज़. जिसने शची की हिम जड़ता को भी पिघला दिया.
उसके घुटनों पर सर रख, बेसंभाल हो फफक पड़ी, "मत करो यह सवाल, अभिषेक. मत पूछो मुझसे यह सब. इतनी बार पूछ चुकी हूँ खुद से कि कहीं अर्थ ही ना खो जाए, इनका. चौबीसों घंटे किसी विशाल बजर सा यह सब बजता रहा है, मन मस्तिष्क पर. आखिर क्यूँ मैं आगे बढ़ी? क्यूँ नहीं उसके भी आगे का सोचा? क्या हक पहुँचता था मुझे किसी को यूँ परेशान कर डालने का. ? क्यूँ आँखें मूँद लीं मैंने? क्यूँ नहीं देखा किस लायक हूँ मैं? किसी गर्म हथौड़े सा दिलोदिमाग पर निरंतर चोट करती रहती है ये बातें. अब तुम भी यह सब मत पूछो... जो सजा देनी हो दो पर यह सब कह कह कर मत बीन्धो मुझे.... आई केन नॉट बियर अभिषेक.. केन नॉट बियर. " हिचकियाँ तेज हो गयीं और आगे बोलने की उसकी सिसकियों ने इजाज़त नहीं दी.
वह वैसे ही हाथ पीछे टेके बैठा रहा. मन बेहद विचलित हो उठा. क्यूँ इस तरह होश खो बैठा. जो मुहँ में आया बोलता चला गया. क्या क्या ना कह डाला. इन सबमे भला, शची का क्या दोष? उसने ही तो इस तरह विवश कर दिया, उसे. शची की जगह कोई संत भी होते तो क्या उसके इतना बाँध पाते अपने मन को. कितनी चोट पहुंची होगी उसे, उसकी एक एक हिचकी बता रही थी. जो पिघले शीशे की तरह पड़ रही थी उसके कानों में. किसी तरह अपने को समेट कुछ कहना चाहा. पर कहे तो क्या कहे. शची, तूने तो सारे रास्ते ही बंद कर रखे हैं. कैसी सांत्वना दे, कौन सा दिलासा दे तुम्हे? क्या कहकर हिम्मत बंधाये तुम्हे. ? हमेशा मजबूत बने रहने की कोशिश में तुमने दुख दर्द बांटना जाना ही नहीं. उसकी इतनी कातर छटपटाहट देख, मन भर आया. पर शब्द सूझ नहीं रहें थे. वैसे ही छोड़ दिया उसे. शायद अश्कों के रूप में कुछ पीड़ा बह सके, कुछ भार हल्का हो उसके मन का.
आंसू थमे तो चेहरा उठाया शची ने. काले काले बादलों के छा जाने से हल्का सा अँधेरा घिर आया था. उस अँधेरे में शची की लाल लाल आँखें और आंसुओं से सना चेहरा एक अजीब ही रहस्यमय सा दृश्य उपस्थित कर रहें थे.
सामने खाली खाली नज़रों से देखती शची बोलती रही.. जैसे मीलों दूर से आवाज़ आ रही हो, उसकी... "अभिषेक ईश्वर गवाह है. कौन सी कोशिश नहीं कि मैंने तुमसे दूर रहने की. बहुत पहले ही तुम्हारा मनोभाव जान लिया था मैंने, शायद तब तक तुम्हे भी अपने मन की खबर नहीं थी. और अवोइड करती रही तुम्हे. लेकिन शायद गलत ही किया. इस उपेक्षा ने और भी ध्यान खींचा तुम्हारा. लेकिन इसके सिवा मैं और क्या कर सकती थी. तुम्हारा विवश क्रोध से अपमानित चेहरा झिंझोड़ डालता मुझे. फिर भी कोई कमजोरी नहीं आने दी मन में. हर बार सख्ती से होंठ भींच, आवेगों को कुचल डाला मैंने. पर पता नहीं उस दिन कॉमन रूम में कैसे कमजोर पड़ गयी. विश्वास नहीं दिला सकती तुम्हे, कितना धिक्कारा खुद को. रोज निश्चय करके आती, आज देखूंगी भी नहीं तुम्हारी तरफ. ऐसा करार जबाब दूंगी किसी बात का कि तिलमिला कर रह जाओ तुम. लेकिन क्या करूँ, विवश हो गयी, अभिषेक... तुम्हारे सामने आते ही सारे निश्चय पानी के बगूलों से फूट पड़ते.
मुझे इतना खुश देखते हो, पर खुश रहना जैसे एक आदत सी बन गयी है. दिल से कोई रिश्ता नहीं इसका. कभी ह्रदय, शांत, उत्फुल्ल नहीं रहता. पर सच मानो, जब जब तुमसे बातें की हैं, सुकून सा मिला है. दो घड़ी तुम्हारे साथ रहकर हलकी हो आई हूँ. सारे अदृश्य बोझ एकबारगी ही उतर आए हैं. फिर भी घर लौटती तो रातें यही सोचते बीतती, ये क्या कर रही हूँ, मैं? क्यूँ छलावा दे रही हूँ तुम्हे. जिस राह की कोई मंजिल नहीं, क्यूँ उस पर कदम से कदम मिला, बढ़ी चली जा रही हूँ. और फैसला कर लिया, कॉलेज छोड़ दूंगी. काश जिस वक़्त यह ख़याल आया,, उसी वक़्त छोड़ दिया होता. पर ख़ुशी चाहे वह झूठी ही हो, अगर सच का आभास दे तो उसे पाने का मोह बहुत दारुण होता है., अभिषेक. और मैंने सोचा कुछ दिन में कॉलेज बंद हो ही रहा है. छुट्टियों में जाउंगी तो नहीं लौटूंगी... और यही सोच सभी बंधन ढीले कर दिए. दृढ मन से सोचा था, किसी को कुछ नहीं बताया.
पर एक महीने तुमसे दूर रहकर ऐसा लगा, वह एक मोहपाश था, जिसे झटक सकती हूँ. तोड़ सकती हूँ, सारे बंधन. तुम्हारा भी जो मन मैंने पढ़ा था, यही लगा कि किसी भी चीज़ को बड़ी तीव्रता से आत्मसात करते हो तुम. बहुत तेजी से जुड़ते हो पर मोहभंग होने पर या धक्का लगने पर उतनी ही तेजी से दूर चले जाते हो. दुर्भाग्यवश ऐसा लगा मुझे, कि इतने लम्बे अंतराल में तुम्हारी भावनाओं पर बर्फ की ठंढी चादर पड़ गयी होगी. और उन्हें मेरा व्यवहार और भी सर्द बना देगा. और इन्हीं अटकलों ने मेरा फैसला बदल डाला.. मैं क्यूँ चौपट करूँ, अपना कैरियर?. व्यस्त रहकर ही तो भूली रहती हूँ सबकुछ. जब सोचने का समय ही समय होगा तो माथे की नसें फट नहीं जाएँगी तड़क कर. और यही सोच लौट आई और इस बार देर भी नहीं की बताने में. आते ही बताना चाहा पर सब उलट-पुलट हो गया अभिषेक.. मैं क्या करूँ.. इतना सोचा है मैंने... इतनी कोशिश की है तुम्हें इस स्थिति से बचाने की. इस तरह तो आरोप मत लगाओ, मुझपर ".... और कहती कहती चुप हो आई थी, शची वह वैसे ही दोनों हाथों पर शरीर का बोझ डाले... पीछे हाथ टेके बैठा रहा. मन इतना खाली हो आया था कि शची की स्वीकारोक्तियां सुन, ना हर्ष हुआ, ना विषाद. ह्रदय सुन्न सा हो गया था, जैसे बस घड़ी की तरह टिक टिक करना ही उसकी नियति हो. सुख-दुख-चिंता-कुंठा कुछ भी महसूस करने की कोई क्षमता ना हो. सांत्वना के दो बोल तक नहीं आ सके उसके होठों पर. भावशून्य नज़रों से बस शची की तरफ देखता रहा.
तभी मोटी मोटी बूंदे गिरने लगीं. शची ने उसके हाथों के नीचे पड़ा अपना बैग खींचा तब ध्यान आया उसे. उसी तरह शून्य मस्तिष्क लिए, आगे बढ़ गया. पलट कर देखा, तो शची झुक कर अपनी सैंडल पहन रही थी... कुछ ज्यादा ही समय लगा रही थी, बोला... "चलो भी "
अब वह अपने बैग के साथ उलझी हुई थी... खीझ गया वह, "क्या इरादा है ?"
उसके स्वर में किसी भाव की भनक पा, शची मुस्कुरा दी... बेतरह नटखटपन कस आया चेहरे पर... बोली, "भीगने का... एक बार कहा था ना तुमने, फिल्मों में कोशिश करूँ... तो आज रिहर्सल हो जाए... कौन सा गाना चलेगा?"
इतना तनावग्रस्त होते हुए भी मुस्करा पड़ा. निर्निमेष देखता रहा वह उसकी तरफ.. कैसी भी सिचुएशन हो, ये लड़की उसे सामान्य बनाने का प्रयास करती रहती है. बेहद प्यार उमड़ आया शची पर और अनायास ही उसके हाथ शची की तरफ बढ़ गए. उसके इतने स्नेहिल स्पर्श का शची भी अनादर नहीं कर सकी. और उसकी बाहों में सिमट आई. शची के पास आते ही जैसे अंतर उमड़ पड़ा उसका. शची का हाल भी उस जैसा ही था और इसकी कहानी उसके हिलते कंधे कह रहें थे. हे ईश्वर ये, कैसी लड़की चुनी, उसके लिए, जो तन से तो इतनी कमजोर है पर मन से उतनी ही मजबूत. तभी जोरों की बारिश शुरू हो गयी. शची ने बारिश से बचने को शेड की तरफ जाना चाहा पर उसने बाहों के बंधन ढीले नहीं किए. आज रोने दो आसमान को भी उनके साथ. और उसने अपना चेहरा ऊपर की तरफ उठा दिया. चेहरे पर तड तड बूंदे पड़ रही थीं और उसके आँखों की बरसात, आसमान की बरसात के साथ मिलकर एकाकार हो रही थी.
(क्रमशः)