Billo ki Bhishm Pratigya - 5 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा - 5

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बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा - 5

बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 5

मां-बाप, भाई का दबाव ज़्यादा हुआ तो कह दिया अगर हम इतना ही भारू हो गए हैं तो ठीक है हम घर छोड़ दे रहें हैं। कहीं काम-धाम करके, मड़ैया डाल के रह लेंगे। मगर वहां नहीं जाएंगे। बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा के आगे सब हार गए। बिल्लो हमेशा के लिए रह गईं मायके में। मगर बोझ बन कर नहीं। अपनी दुनिया नए ढंग से बनाने और उसमें सबको शामिल करने के लिए। मुझे वह दृश्य धुंधला ही सही पर याद आ रहा था। कि आने के बाद बिल्लो हंसना, बोलना एकदम भूल गई थीं। उनकी चंचलता, हंसमुख चेहरा कहीं खो गया। बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आंखें, मक्खन सा गोरापन कुछ ही दिन में ऐसा कुम्हलाया कि बिल्लो टीवी पेशेंट सी लगने लगी। परिवार में उन्हें थोड़ी बहुत सहानुभूति मिली तो सिर्फ़ पिता से।

मां कुछ दिन तो चुप रही लेकिन उसके बाद उनकी कटुवाणी मुखर हो उठी। वह दिन पर दिन नहीं घंटों के हिसाब से मुखर हुई। दिलो-दिमाग पर पड़ी पति की गहरी चोट को मां रोज ही कुरेद-कुरेद कर गहरा करती कि ‘मान जा, चली जा। कौन लड़की ज़िंदगी भर मायके में रही है। कोई राजा भी अपनी लड़की को रख नहीं सका है।’ राजा जनक का उदाहरण देंती कि ‘वह भी सीता को रख नहीं सके। हम सब तुम्हें कैसे रखेंगे। वो सब बुला तो रहे हैं बार-बार, जाती क्यों नहीं? ऐसे जिद करने से कुछ नहीं होने वाला। पूरे रीति-रिवाज से शादी की गई है। शादी कोई गुड्डा गुड़िया का खेल नहीं कि जब रिशियाए गए तब फेंक दिए। जानू कि नाहीं।’ मगर बिल्लो सारी बात सुनकर चुप रही। बिल्कुल मौन साधे रही। ऐसे ही मौन उस दिन भी साधे थी। उनकी अम्मा बोले जा रही थीं। वह भी जो नहीं बोलना चाहिए। किसी पंडित ने कुछ पूजा पाठ करने, प्रदोष व्रत रखने को कहा था। अम्मा चाह रही थीं बिल्लो मान जाए, उसे करे। लेकिन उन्हें नहीं मानना था तो नहीं मानीं।

अम्मा तब खीझ कर आपा खो बैठीं। कुछ ज़्यादा ही अनाप-शनाप बोल गर्इं। बिल्लो भी अपना मौन व्रत संभाल ना सकीं। हो गया विस्फोट। फट पड़ी। कह दिया ‘हम इतना ही भारू हो गए थे तो दबा देती गला। कहती तो मैं खुद ही कहीं जाकर मर जाती। ज़िन्दगी भर के लिए उस निठल्ले अवारा बदमाश शराबी के पल्ले बांध कर मुझे नरक में क्यों झोंक दिया। हमसे पिंड छुड़ाया था। हमने ऐसा कौन सा अपराध किया था जो मुझ से ये दुश्मनी निकाली।’

बिल्लो का इतना बोलना था कि अम्मा के तन-बदन में जैसे आग लग गई। उन्होंने बिल्लो को मनहूस, कुलच्छनी घर पर पड़ी काली छाया तो कहा ही साथ ही यह धमकी भी दे दी, कि ‘तुम्हारी जिद नहीं चलेगी। वो तुम्हारा आदमी है। बियाह के ले गया था। तुम्हें वहां जाना ही होगा। महतारी-बाप शादी के बाद के साथी नाहीं हैं। तोहके ही खोपड़ी पर बैठाए रहब तो का बाकी लड़िकन के भरसाईं में डाल देई।’

अम्मा की यह बात पूरी ही हुई थी कि दिवार पर छनाक से चुड़ियों के टूटने की आवाज़ आई। बिल्लो ने दोनों हाथ दिवार पर ऐसे मारे कि छनाक-छनाक सारी चुड़ियां टूट कर वहीं बिखर गईं। कलाई में चुड़ियां धंस गईं। खून टपकने लगा। बिल्लो यहीं तक नहीं रुकी, माथे पर लगी बिंदी पोंछ दी। मांग में कई दिन पुराना भरा सिंदूर भी हाथ से रगड़ कर पोंछ डाला। थोड़ी दूर बाल्टी में रखे पानी को लोटे में लेकर मांग पर डाल-डाल कर सिंदूर को धो-धोकर उसका नामो-निशान मिटा दिया।

फिर हांफती हुई चीख कर बोली ‘लो, लो मर गया आदमी, विधवा हो गई मैं। भाड़ में गई ससुराल। आज के बाद किसी ने नाम भी लिया तो मैं वो कर बैठुंगी जो तुम सब सोच भी नहीं पाओगे।’ बिल्लो रोती जा रही थीं। लौट कर फिर वहीं बैठ गई जहां चुड़ियां तोड़ी थीं। बिखरी पड़ी चुड़ियों पर कलाईयों से खून टपकता रहा। आंसू भी लगातार झरते रहे। रोते-रोते हिचकियां बंध गईं। और अम्मा जहां खड़ी थीं। बुत बनी वहीं खड़ी देखती रहीं। बिल्लो की चीख-चिल्लाहट सुनकर भाई-बहन सब आ गए थे। संयोगवश मैं अपने फुफेरे भाई सतीश के साथ ठीक उसी समय पहुंच गया था।

हम उसी दिन गर्मियों की छुट्टियों में वहीं पहुंचे थे। और बिल्लो से ही मिलने गए थे। हम उससे तब से मिलते बतियाते, आए थे जब वो पांचवीं में पढ़ा करती थी। हम जब भी मिलते बिल्लो भी खूब प्यार से मिलती-खेलती-बतियाती थी। हमने उससे गुट्टक खेलना भी सीखा था। जब और बड़ी हुई तो वो खाने को भी कुछ ना कुछ जरूरी देती। सोंठ मिला गुड़ उसको बहुत पसंद था। हमें भी वही देती। हम भी उनके लिए शहर की टॉफी जरूर ले जाते थे। उन्हें जरूर देते थे। ना जाने क्यों गांव चलने की बात आते ही मेरे मन में अगर कोई तस्वीर सबसे पहले उभरती थी तो वह बिल्लो की ही। और फिर चलते समय उनके लिए अपने सामान में टॉफी छिपा कर ले जाना मेरा पहला काम था। सतीश के दिमाग में क्या आता था ये तो वो ही जाने, मैं नहीं जानता।

यह बात घर, चाचा, सभी बुआओं के नजर में आई तो सबने मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। रिश्ते को दूसरा नाम देकर सब छेड़ते। कहते चलो अच्छा है पट्टीदारी से रिश्तेदारी हो जाएगी। बात बिल्लो के घर तक भी पहुंची तो उनके घर वाले भी हंसते, मजाक करते। हम दोनों का मजाक उड़ता। बिल्लो मजाक करने वाले को दौड़ा लेती। शुरुआती कई साल ऐसे ही बीत गए थे। हमारे उनके बीच एक किशोर-किशोरी का रिश्ता खेल-कूद, मिलना-जुलना बतियाना तक ही रहा। लेकिन जब किशोरावस्था पीछे-छूटने लगी तो हम दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति एक विशेष तरह का आकर्षण पनपने लगा था। जिसका मतलब उस वक्त हम बहुत अच्छे से समझ नहीं पाते थे।

यह स्थिति आगे चलकर और भावनात्मक लगाव में बदल गई। और जब मुझे बिल्लो की शादी की खबर अपने शहर में मिली थी तो मैं अजीब सी मनःस्थिति में पड़ गया था। इतना बेचैन हो गया था कि एक जगह बैठ नहीं पा रहा था। कभी इधर जाता कभी उधर। पढ़ाई में मन नहीं लग रहा था। मन में एक ही बात आती कि किसी तरह बिल्लो से मिल लेता। उसे मना कर देता कि मत करो शादी। मन में यही बात बार-बार आती कि बिल्लो की शादी कैंसिल हो जाए। मगर मन की मन में ही रही। बात आई गई हो गई।

मैं फिर से अपनी दुनिया में मस्त हो गया। इन्हीं बिल्लो को जब उस दिन सतीश के साथ अपने हाथों अपने सुहाग चिन्ह मिटा कर विधवा बनते देखा तो एक दम शॉक्ड रह गया। कुछ देर समझ में ही नहीं आया कि हो क्या रहा है। मुझे बस एक ही बात समझ में आ रही थी कि बिल्लो रो रही है। कलाईयों से खून बह रहा है। उनकी मां हम दोनों को देख कर हैरान भी हो रही थीं और गुस्सा भी कि ऐसे टाइम क्यों पहुंचे? खड़ा देख कर आखिर बोल ही दिया कि ‘जा बचवा जा, बादि में आए।’

उनकी भी आंखें आंसुओं से भरी थीं। हम उल्टे पैर वापस हो लिए। सतीश ने मेरा मूड खराब देखकर कहा ‘तुम्हें क्या हो गया? तुम इतना टेंस क्यों हो गए हो? ये उनकी पर्सनल प्रॉब्लम है। हमें क्या लेना-देना।’ सतीश की ये बात मुझे अच्छी नहीं लगी। लेकिन मैं कुछ नहीं बोला। बस धीरे-धीरे चलता रहा।

कैथाने से आगे बभनौटी की ओर क़दम अपने आप बढ़ते गए। उसी के करीब और आगे जाकर एक भीठा (ऊंचा टीला) था उसी पर चढ़ गया। उसके एकदम शिखर पर बैठ गया। तेज़ धूप गर्मी में यह पागलपन देखकर सतीश बोला ‘ये तुम्हें क्या हो गया है? मेरी समझ में नहीं आ रहा है। बैठना है तो चलकर किसी पेड़ की छाया में बैठो, नहीं वापस घर चलो। इतनी हाइट पर बैठे हो। नीचे ढाल कितनी शार्प है। इतनी गर्मी में कहीं चक्कर आ गया तो फुटबॉल की तरह लुढ़कते हुए नीचे पहुंचोगे।आस-पास नीचे से जा रहे लोग अलग देख रहे हैं कि कौन पागल चढ़ गए हैं।’

बगल में खड़ा सतीश बोले जा रहा था। मैं जैसे कुछ सुन ही नहीं रहा था। नीचे जाकर जहां भीठा का ढलान खत्म हो रहा था। ठीक उसी से आगे एक तालाब था यही कोई आधे बीघे का छिछला सा। किनारे-किनारे बेहया के पेड़ लगे थे। जिनके सफेद कुछ बैंगनी से फूल ऊपर से दिख रहे थे। वहीं किनारे एक नीम और महुवा का पेड़ था। मुझे कुछ बोलता ना देखकर, गर्मी से परेशान, खीझे सतीश ने हाथ पकड़ कर उठाया।

बोला ‘क्या यार, ये क्या पागलपन है? आखिर मतलब क्या है? चलो उठो।’ उसकी बात और उठाने पर मैं जैसे कुछ नॉर्मल हुआ। उठकर खड़ा हुआ और नीचे महुआ के पेड़ को देखते हुए उतर कर उसी के नीचे बैठ गया। पेड़ घना था, उसकी छाया में आराम मिला। पसीने से हम दोनों तर थे। बड़ी देर तक हम वहीं बैठे रहे। बिल्लो के लिए इस बार मैं कई चॉकलेट ले गया था। हम दोनों ने बैठे-बैठे वहीं खत्म कर दिया। प्यास सताने लगी तो घर वापस आ गए।

आज उसी बिल्लो को इतने बरसों बाद इस रूप में देखकर, और उसके खाने का निमंत्रण पाकर मैं फिर कुछ वैसी ही फीलिंग्स से गुजर रहा था। नींद नहीं आ रही थी। छत पर लेटे बाकी लोगों, गांव का मामला होने के चलते छत पर चहल-क़दमी भी नहीं कर पा रहा था। सिगरेट कितनी पीता। नॉर्मली जितना पीता था उससे कहीं ज़्यादा पी गया था। लाइट आ चुकी थी। पास ही रखा टेबुल फैन चल रहा था लेकिन वोल्टेज इतना कम था कि पंखा पूरी तरह चल ही नहीं पा रहा था। मैंने पास ही रखे गिलास में जग से निकाल कर पानी पिया। और लेट गया। मैंने यह तय कर लिया था कि सवेरे बिल्लो के निमंत्रण का सम्मान करते हुए उसके साथ खाना खाऊंगा और फिर चला जाऊंगा, जौनपुर रिश्तेदार के यहां। इतना टेंशन लेकर यहां रुकने से क्या फायदा?

अगले दिन सवेरे आठ बजे ही बिल्लो का फ़ोन आ गया। ‘का हो ‘‘सूरत’’ नरेश का करत हएय।’ हमने बताया नाश्ता कर रहा हूं। तो बोलीं ‘ठीक है नाश्ता कई के आय जाओ।’ मैंने सोचा इतनी जल्दी खाने का कौन सा टाइम। इसलिए कहा मैं खाना बारह-एक बजे तक खाता हूं। तो उसने कहा ‘जितने बजे तोहार मन होए ओतने बजे खाए। मगर आए तो जाओ। बैइठ के तनी घरवां का हाल-चाल बतियाव। एतना बरिस बाद आवा है तनी गंऊंवा के बारे में जाना-बूझा। जहां खेलत-कूदत रहअ सब जने।’ बिल्लो इतना पीछे पड़ गई कि मैं नौ बजे उसके यहां पहुंच गया। शिखर को कुछ काम था तो वह बोला ‘भइया मैं बारह बजे तक आ जाऊंगा।’

बिल्लो ने पहुंचते ही पहला प्रश्न किया ‘ई बतावा अपने बाबा, बाबू के नाई शाकाहारी अहै कि मांसो-मछरी खात हएय।’ मैंने कहा मैं इस परंपरा को निभा नहीं पाया। तो वह बोली ‘चला ई बढ़िया बा। लकीर का फकीर ना बनेक चाही। जऊन नीक लगे उहै करै कै चाही।’ इसके बाद तो बिल्लो ने नाश्ते से शुरुआत कर जो दो बजे तक खाने का प्रोग्राम चलाया, उससे मैं एकदम अभिभूत हो उठा। मैंने कल्पना भी नहीं की थी ऐसी मेहमाननवाजी की। उनका भतीजा उसकी पत्नी भी पूरी तनमयता से लगे रहे। भतीजा बीच-बीच में बातचीत में भाग लेता रहा। और दुकान भी देखता रहा।

भतीजे की पत्नी अंशिता की फुर्ती, खाना बनाने की निपुणता से मैं बहुत इंप्रेस हुआ। मैं बार-बार उसकी तारीफ किए बिना नहीं रह सका। बिल्लो इस तरह से अपने तखत पर बैठी थी मानो कोई महारानी अपने सिंहासन पर बैठी हो। वो एक के बाद एक आदेश देती जा रही थी। अंशिता उसका पालन किए जा रही थी। रसोई में उसका साथ देने के लिए एक नौकरानी थी। शिखर भी समय पर आ गया था।

मुझे वहां बिल्लो ने पूरा घर भी दिखाया। घर तो क्या एक बहुत बड़े आंगन के चारो तरफ बने करीब आठ-नौ कमरों का बड़ा सा मकान है। मैंने मकान की तारीफ की तो बिल्लो ने बिना संकोच कहा ‘एके हम तोहरे बब्बा के कृपा मानित है। बाबू जब घरवां से हाथ धोए बैइठेन। रहे का ठिकाना नहीं रहा तब तोहार बब्बा हिंआ आपन जमीन दै दिहेन। रहे भर के बनवावे में मदद किहेन।’ बिल्लो ने यह भी लगे हाथ बता दिया कि बाद में कुछ और जमीन उसने एक दूसरे गांव के तिवारी बाबा की थी ,वह भी दबा ली। थोड़ा लड़ाई-झगड़ा हुआ। लेकिन फिर सब ठीक हो गया।

परिवार में बिल्लो उसका भतीजा उसके तीन बच्चे एक नौकरानी है। आंगन में जमीन पर कोहड़ौरी (उड़द की दाल की बड़िया) सूख रही थीं। मैं करीब चार घंटे वहां रहा और बिल्लो ने जो बताया,दिखाया उसने मुझे आश्चर्य में डाल दिया। इन चार घंटों में गांव की राजनीति में बिल्लो के जबरदस्त दखल की बातें अचरज में डाल रही थीं।

खाना खा-पीकर अंततः जब हमने बिदा ली तो दोपहर भी बिदा ले रही थी। बिल्लो रोक रही थी कि धूप में कहा जाओगे? रुको। मगर मैं खेत देखना चाहता था। सही रेट पता करना चाहता था। क्योंकि जब बिल्लो को बताया कि मैं खेत बेचने आया हूं तो उसने छूटते ही कहा ‘गांव से लगाव का एक बहाना है वह भी खत्म कर रहे हो। जब यह बहाना है तब तो इतने बरिस बाद आए। बेचे के बाद तो फिर ई मान के चलो कि ये आखिरी आना है तुम्हारा।’

बिल्लो सही कह रही थी। बेचना ना होता तो मैं गांव पहुंचता ही क्यों? और जब बिक जाएगा तो उसके बाद यहां आने का प्रश्न कहां? फिर बिल्लो ने रेट सुनने के बाद कहा ‘तोहके हर बिगहा (बीघा) पर दुुई-ढाई लाख रुपया कम मिलत बा। ऐइसन बा जा पहले सही दाम पता करा।’ यह बात मुझे बराबर मथने लगी थी। मैंने कहा ‘ठीक है।’

वाकई जब मैं खेत पर गया तो रिश्तेदार के कई झूठ सामने आए। उन्होंने कहा था खेत ऊसर गांजर है। चार आने मालियत का है। इससे ज़्यादा नहीं मिल पाएगा। जिसे बंटाई पर दे रखा था, जो कभी-कभार कुछ पैसा मनी ऑर्डर करता था हमेशा यह कहते हुए कि ‘फसल कायदे से भई नाई। दाम मिले नाई।’ उसने भी कई बातें बर्ताइं। मैंने उससे शिकायत की ‘भाई जब मैंने खेत दिए थे तो आठ आने मालियत के थे। तुम बीज, खाद, सिंचाई के भी पैसे बराबर लेते रहे। फिर खेत चार आने की मालियत के कैसे हो गए? कहां गए सारे पैसे?’ इस पर वह भड़क कर बोला ‘भइया आठ आना दिए थे तो आजो आठ आना है। कऊनो झूठ बोला है आप से।’ मैं चुप रहा।

खेत की कीमत के बारे में भी उसने बिल्लो ही की बात एक तरह से दोहरा दी। सारा घालमेल सुन कर मैं परेशान हो गया। मेरा सिर चकराने लगा। तभी उसने एक और प्रस्ताव रख कर मुझे हैरान कर दिया। बिना लाग लपेट के बोला ‘भइया जो भी आपका खेत बिकवा रहा है ऊ आपको ठग रहा है। हमैं दो सारी ज़िम्मेदारी हम ईसे बढ़िया दाम दिला देंगे। जितना कमीशन ऊइका दे रहे हो। ऊसे दुई पैसा कम दई दो तबो हम काम कई देब।’ एक झटके में वह बोल गया था यह सारी बात। ड्राइवर बगल में खड़ा था। मैं परेशान हुआ कि यह रिश्तेदार को बता देगा। मैंने बात बदलते हुए कहा ‘नहीं-नहीं कोई ठग-वग नहीं रहा है। वो भले आदमी हैं। दलाली-फलाली उनका काम नहीं है।’ साझीदार समझदार आदमी था। उसे समझते देर नहीं लगी। कि वो गलत समय पर सही बात बोल गया है।

उसने तुरंत बात संभालते हुए कहा ‘नाहीं भइया मतलब ई नहीं था। हम ई कहना चाह रहे थे कि औऊर केहू से कहेंगे तो ऊहो अपना कमीशन लेगा। हमैं बताइए हमहूं ई काम आसानी से कर देब। एतना दिन से जोतत-बोवत हई, एहू नाते हमार हक पहिले बनत है कि हम कुछ करि। अरे इतना दिन फसल उगाए। परिवार के रोटी-दाल भइया इहै खेतवे से मिलत बा। अब बेचे चाहत हअ तअ बेचा भइया। मालिक हअ-तू। मगर ई कमवा हमें करे देबा तअ दाल-रोटी चलावे के बरे कुछ इंतजाम होई जाइ। काम-धंधा करे बरे कुछ पैइसा का इंतजाम होई जाए।’ उसकी दयनीयता, चेहरे पर भावुकता देख कर मुझे उस पर दया आ गई। उसका लॉजिक, भी मुझे सही लगा।

मैंने बड़े स्नेह से उसके कंधे पर हाथ रखा। और चहलक़दमी करता हुआ ड्राइवर, शिखर से थोड़ा दूर ले जाकर कहा ‘तुमने अब तक जो कहा सही कहा। मैं तुम्हारी इस बात से सहमत हूं कि तुम जोतते-बोते आए हो तो पहला हक़ जरूर तुम्हारा ही है। अब जो भी करूंगा, कोशिश करूंगा कि तुम्हें तुम्हारा हक़ मिले। रोटी-दाल पर कोई असर नहीं आने दूंगा।’ मेरी बातें सुनकर उसकी आंखें गीली हो गईं। उसने हाथ जोड़ कर कहा ‘भइया तोहरे सहारे अबे तक हमार परिवार जियत रहा, आगेव ई का बनाए रखो। ज़िंदगी भर तोहार एहसान ना भूलब।’ मैंने उसकी पीठ थपथपा कर आश्वस्त किया। कहा ‘कल तुमसे फिर बात करूंगा।’ वह चला गया।

मैंने शिखर से कहा तुम्हारे हिसाब से कितने तक में बात सही रहेगी। तो उसने भी बिल्लो, बंटाईदार की बात का ही समर्थन कर दिया। मैं अपने जिस खेत की मेड़ पर खड़ा था। उसमें गेंहू की फसल लगी थी। उसकी बालियां, तने सब सुनहले पड़ चुके थे। उसके आस-पास के खेतों में भी दूर-दूर तक गेंहू की फसल लगी थी। सब हफ्ते दो हफ्ते में कटाई के लायक हो गई थीं। मैंने देखा कि शिखर ऊब रहा। तो मैंने उससे कहा ‘आओ तुम्हारे खेत पर चलते हैं।’ मुझे लगा जैसे उसका मन मुझे अपने खेत तक ले जाने का नहीं था। उसने कहा ‘भइया। गर्मी बहुत बा। डांडे़-मेड़े काफी दूर चलना पड़ेगा। थक जाएंगे। आपकी आदत है नहीं।’ मैंने कहा ‘नहीं ऐसा नहीं है। इतना कमजोर नहीं हूं। मेड़ पर भी खूब चला, दौड़ा हूं। तब तुम बहुत छोटे थे। आज फिर पुरानी याद ताजा करता हूं। वैसे मेरा यकीन है कि मैं तुमसे कम आज भी नहीं चलूंगा।’

शिखर कोई रास्ता ना देख कर बोला ‘ठीक है भइया चलिए।’ ड्राइवर को मैंने गाड़ी में चले जाने को कह दिया। वह थोड़ी ही दूर पर चक रोड पर गाड़ी खड़ी किए हुए था। वह भी गर्मी में आगे मेड़ पर चलना नहीं चाहता था। मैंने उससे पानी की बोतल गाड़ी में से मंगवा ली थी। शिखर के लिए भी। दोनों ने बोतल से कुछ पानी पिया और चल पड़े मेड़ के किनारे-किनारे खेत में ही। गेहूं की फसल उस खेत में मेड़ से सात-आठ इंच दूर हट कर लगी थी। चलते वक्त बालियां हम दोनों के पैरों से टकरा कर अजीब सी सर्र-सर्र आवाज़ कर रही थीं। बीच-बीच में ऐसी स्थिति भी आ रही थी जब हमें मेड़ पर चढ़ कर संभलते हुए चलना पड़ रहा था।

शिखर परेशान ना हो इस लिए मैं लगातार उससे बातें कर रहा था। साढ़े पांच बजने वाले थे सूरज हमारे ठीक सामने अब भी धधक रहा था। धूप अब भी बड़ी तीखी थी। मेरे कॉलर और बाहों के आस-पास शर्ट पसीने से भीग रही थी। शिखर की भी। मैं रुमाल से बार-बार चेहरे और गर्दन के पास पसीना पोंछ रहा था। करीब तीन खेत क्रॅास करने के बाद ही मैं हांफने लगा। मगर शिखर अभी मेरे जितना नहीं थका था। मुझे बोलने में जितनी तकलीफ हो रही थी उतना उसे नहीं। तीन खेत बाद ही मैंने पूछ लिया अभी और कितनी दूर है। तो वह बोला ‘बस भइया चार खेत बाद अपना खेत है। वो आगे जहां दो पेड़ दिख रहे हैं वह अपने ही खेत में हैं।’

मैं सामने देखने लगा तो तेज़ धूप के कारण आँखों पूरी खोल नहीं सका। तेज़ धूप सीधे चेहरे पर पड़ रही थी। पेड़ों की दूरी जो मैं समझ पा रहा था उससे मुझे लगा कि कुछ ही देर में पहुंच जाऊंगा। मगर कुछ देर बाद महसूस हुआ कि जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे पेड़ भी आगे बढ़ते जा रहे हैं। दूरी है कि कम ही नहीं हो रही है। दो खेत और क्रॉस करते-करते मुझे लगा कि अब बैठ जाना पड़ेगा।

पसीने से अब पूरी शर्ट भीग गई थी। और पैंट का हाल पूछिए मत। मगर शिखर मेरे जितना नहीं भीगा था। आखिर एक जगह मैं मेड़ पर बैठ गया। फिर पानी पीने लगा। शिखर भी। ‘मैंने उससे कहा यार ये पेड़ हमसे आगे-आगे क्यों भागे जा रहे हैं।’ शिखर हंस पड़ा। बोला ‘भइया मैं तो पहले ही कह रहा था कि आप परेशान हो जाएंगे। यहां हम लोगों की तो आदत है। आप चाहें तो यहीं से वापस चले चलिए। वहां जाकर वापस भी तो आना है। और ये धूप अभी घंटे भर से तो ज़्यादा रहेगी ही।’

उसकी इस बात ने मेरी हिम्मत कमजोर कर दी। मगर रिश्तेदार की धूर्तता ने कहा कि नहीं टाइम नहीं है। आए हैं तो हर चीज ज़्यादा से ज़्यादा पता करना ही अच्छा है। नहीं तो सब ठगते रहेंगे। यह सोचकर मैंने एक बार फिर दोनों पेड़ों को देखा और हंसकर कहा। ‘नहीं डियर परेशान होने वाली कोई बात नहीं है। जाकर आराम से वापस आ जाऊंगा, हां पसीना जरूर ज़्यादा हो रहा है। शहर में पैदल चलने की आदत शुरू से ही नहीं पड़ पाई। इसी वजह से वेट ज़्यादा है। फैट भी बढ़ा हुआ है।’ शिखर ने कहा ‘हां आप हांफ भी बहुत रहे हैं। इसी लिए कह रहा हूं चले चलिए।’ मैंने कहा ‘मंजिल सामने दिख रही हो तो छोड़ कर वापस चल देना ठीक नहीं। आओ चलते हैं।’ मैंने पानी पिया और उठकर चल दिया।

पसीना बहाते, हांफते, एक-एक घूंट पानी पीते आखिर शिखर के खेत में पहुंच गया। उसके एक खेत में जहां पेड़ लगे थे उसी की छाया में हम दोनों बैठ गए। कुछ देर बैठने के बाद शिखर के वो खेत भी देखे। जो पड़ती पड़े थे उनके बंजर होते जाने, शिखर की लापरवाही पर मुझे कष्ट हुआ। उठकर कुछ क़दम आगे बढ़ा तो उसके बंजर खेतों के आगे ही कुछ दूर तक कई खेतों में ‘ऐलोवेरा’ लगे थे जिसे वहां ‘घीक्वार’ या ‘ग्वारपाठा’ भी कहते हैं।

मुझे आश्चर्य हुआ कि यहां एक साथ इतने खेतों में ऐलोवेरा की खेती कौन कर रहा है। मैंने शिखर से पूछा तो उसने बताया कि ‘यह सब बिल्लो बुआ के खेत हैं। कई साल पहले उन्होंने औने-पौने दाम में कप्तान चच्चा की आठ बीघा जमीन खरीद ली। वो लोग भी कई-कई साल यहां आते नहीं थे। खेत बंजर हो गए तो बेच दिया। और बिल्लो बुआ उसी बंजर जमीन से इतना कमा रही हैं कि पूछिए मत।’

शिखर ने बताया कि ‘उन्होंने एक बाबा की कंपनी से बात कर रखी है। सारी पैदावार ट्रकों में भर कर चली जाती है। बहुत अच्छी कमाई हो रही है।’ मैंने कहा ‘आखिर तुम क्यों नहीं करते? जब इतना फायदा है। उन्हीं की पैदावार के साथ-साथ तुम्हारी भी चली जाया करेगी। बिल्लो मना थोड़े ही करेंगी।’ तब शिखर ने कहा ‘ऐसा है भइया कि सब तो छोड़कर शहर भाग गए। मेरा भी मन यहां नहीं लग रहा। पापा जब तक हैं तब तक हम भी हैं। मैं भी शहर में ही कुछ करना चाहता हूं।’

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