Aadhi najm ka pura geet - 28 in Hindi Fiction Stories by Ranju Bhatia books and stories PDF | आधी नज्म का पूरा गीत - 28

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आधी नज्म का पूरा गीत - 28

आधी नज्म का पूरा गीत

रंजू भाटिया

एपिसोड 28

अमृता इमरोज़ मेरी कलम से

"एक सूरज आसमान पर चढ़ता है. आम सूरज सारी धरती के लिए. लेकिन एक सूरज ख़ास सूरज सिर्फ़ मन की धरती के लिए उगता है, इस से एक रिश्ता बन जाता है, एक ख्याल, एक सपना, एक हकीक़त..मैंने इस सूरज को पहली बार एक लेखिका के रूप में देखा था, एक शायरा के रूप में, किस्मत कह लो या संजोग, मैंने इस को ढूंढ़ कर अपना लिया, एक औरत के रूप में, एक दोस्त के रूप में, एक आर्टिस्ट के रूप में, और एक महबूबा के रूप में !"कल रात सपने में एक औरत देखी जिसे मैंने कभी नही देखा था इस बोलते नैन नक्श बाली को कहीं देखा हुआ है..
कभी कभी खूबसूरत सोचे
खूबसूरत शरीर भी धारण कर लेती है...
ऐसे शब्द लिखने वाला इंसान, कहने वाला इंसान यदि सामने बैठा हो तो उस से एक रूहानी रिश्ता खुद भी खुद जुड़ने लगता है...अमृता से मिलने की इसी चाह ने मुझे उनके घर तक पहुंचाया पर वहां तब जब अमृता सशरीर उपस्थित नहीं थी पर इमरोज़ के लफ़्ज़ों से आज भी वो वही थी...तभी तो इमरोज़ के मुहं से एक बार भी थी नहीं सुना अमृता के लिए और वो प्यार जिसको कभी
कहने की बताने की जरुरत नहीं पड़ी एक दूजे को वह प्यार कितना पावन होगा मैंने अमृता प्रीतम को बहुत छोटी उम्र से पढना शुरू किया था, इमरोज़ उस लिखे में एक साये की तरह साथ साथ चलते रहे..और अमृता की तरह ही मेरी सोच ने भी एक साया खुद में बुन लिया..पर हर किसी को इमरोज़ मिले यह कहाँ मुमकिन है...पर साक्षात् जब इमरोज़ से मिली और जो प्यार मैंने अमृता के लिए उनकी आँखों में उनके न रहने पर भी देखा तो सच कहूँ...एक ख़ुशी के साथ कि प्यार अभी भी इस जमीन से उठा नहीं, एक हलकी सी जलन भी दे गया कि क्या आज के युग में भी कोई किसी को इतना प्यार कर सकता है..बिना किसी स्वार्थ के....

.इमरोज़ नाम मेरे लिए तो प्यार लफ्ज़ का एक दूसरा नाम है एक ऐसा लोकगीत.एक ऐसा प्यार का रिश्ता जिसे सामाजिक मंजूरी की जरुरत नही पड़ती है
मैं एक लोकगीत
बेनाम, हवा में खड़ा
हवा का हिस्सा
जिसे अच्छा लगूं
वो याद कर ले
जिसे और अच्छा लगूं
वो अपना ले --
जी में आए तो गा भी ले
मैं एक लोकगीत
जिसको नाम की
जरुरत नही पड़ी...

इमरोज़ शब्द मतलब आज टुडे..उन्होंने अपना यह नाम खुद ही रखा उनसे मिलने पर यह भी जाना कि उनका सेन्स ऑफ़ हयूमर भी बहुत गजब का है वह छोटी छोटी बातो में भी हंसने की वजह तलाश लेते हैं और बहुत ही दार्शनिक बातें कह जाते हैं..एक बार एक दोपहर में खाना लगा हुआ था कि इमरोज़ कहीं चले गए..अमृता ने आवाज़ दी ----इम्मा जी (वह इमरोज़ को इम्मा कह कर बुलाती थी
कभी कभी ) और कभी अलीजा जिसका मतलब है सखी मित्र सखा या आदर योग्य सबका अजीज अलीजा....और इमरोज़ अमृता को कभी माँ सदके, कभी बुल्ले शाह या अधिक माजा कह कर बुलाते.प्यार के कितने नाम...कभी कभी तो जिंदगी एक नाम के लिए किसी विशेष से सुनने को तरसती रह जाती है और इंतज़ार रह जाता है कि कोई तो हो जो उसको प्यार के नाम से न सही उसके नाम सी ही पुकार ले...खैर
यहाँ बात अमृता के इमरोज़ की हो रही है....माजा नाम उन्होंने अमृता का एक स्पेनिश नावल से पढ़ कर रखा जिसका मतलब होता है बिलकुल मेरा अपना...तो अमृता ने इमरोज़ को पुकार कर कहा कि रोटी के वक़्त आप कहाँ उठ कर चले जाते हैं इम्मा जी...इमरोज़ बोले माजा छत पर तेरी टंकी में पानी लगाने गया था, तेरी टंकी में पानी लगाने के लिए बाकी टंकियों का पानी बंद करना पड़ता है...........और आगे कहा..जैसे तुझसे मिलने के लिए बाकी समाज से मिलना बंद करना पड़ता है..अमृता ने यह सुन कर इमरोज़ का माथा चूम लिया
....
समाज की परवाह कब की इमरोज़ ने..वह अमृता के लिए एक उस घने पेड़ की तरह रहे जिसकी छांव में अमृता बेफिक्री से सोती जागती, मुस्कारती रही
...इमरोज़ ने एक जगह लिखा है

कानून
किसी अजनबी मर्द औरत को
रिश्ता बनाने का
सिर्फ मौका देता है
रिश्ता नहीं...
रिश्ता बने या न बने
इसका न कानून
फ़िक्र करता है
और न जिम्मा लेता है

इमरोज़ मेरी कलम से जितना भी लिखूं उतना ही कम होगा..मेरे लिए वह अमृता से ही पूजनीय हैं और जब जब यह एहसास दिल में जागेगा कि प्यार लफ्ज़ मेंबहुत सच्चाई है अभी भी इस दुनिया में तो इमरोज़ का ही मुस्कराता चेहरा यह गुनगुनाते हुए सामने आ जायेगा..........

प्यार सबसे सरल
इबादत है
बहते पानी जैसी....

ना इसको किसी शब्द की जरुरत
ना किसी जुबान की मोहताजी
ना किसी वक़्त की पाबंदी
और ना ही कोई मज़बूरी
किसी को सिर झुकाने की

प्यार से ज़िन्दगी जीते जीते
यह इबादत अपने आप
हर वक़्त होती रहती है
और --जहाँ पहुँचना है
वहां पहुँचती रहती है.

***

अंत जो अंत नहीं है

यह थे अमृता की लेखनी के चमकते सितारें जो उनकी कहानियों से, उपन्यास से, लिए गए, आज भी हमारे समाज में पूरो भी है, अंगूरी भी और बाकी स्त्री पात्र भी, जो इन्ही किरदारों में खुद को देखते भी है और अमृता के लेखन को समझते भी है, यह श्रृंखला अनन्त है, मेरी कलम अमृता प्रीतम के हर किरदार पर और भी बहुत कहना चाहती है, और बताना चाहती है की वक्त के जिस दौर में भी अमृता ने लिखा औरत तब् भी यही थी और आज भी यही है.औरत के जीवन को हर युग में एक भोग का साधन ही माना गया है, चाहे राम हो या कृष्ण वे अपने अहं और रास से बाहर नहीं आ पाए हैं. शायद इसीलिए वे कहती हैं सतयुग मनचाही ज़िंदगीं जीने का नाम है, किसी आने वाले युग का नहीं... सामाजिक दायरों में दबी पिसी स्त्री की कसमसाहट और वैवाहिक जीवन के कडवे सच हमेशा अपनी कलम से लिखती रही.वह अपने ही लिखे हुए किरदारों को इस तरह से अपने लिखे में जीती रही मानों उनका दर्द अमृता का दर्द हो l एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा था, ''जन्मों की बात मैं नहीं जानती, लेकिन कोई दूसरा जन्म हो तो... इस जन्म में कई बार लगा कि औरत होना गुनाह है... लेकिन यही गुनाह मैं फिर से करना चाहूँगी, एक शर्त के साथ, कि खुदा को अगले जन्म में भी, मेरे हाथ में कलम देनी होगी.”..उनके कहे यही शब्द उन्हें उस ऊँचे स्थान पर पहुंचा देते हैं जहाँ कोई नहीं पहुंच सकता और यही शब्द अमृता प्रीतम और हम सब आधी आबादी के भी सच बन जातें हैं

इसका अंत कहीं नहीं है, पर फिलहाल अभी इतना ही

आपको यह सीरिज कैसी लगी, जरुर बताये मेरा ईमेल एड्रेस है

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