आयम स्टिल वेटिंग फ़ॉर यू, शची
रश्मि रविजा
भाग - 7
(अभिषेक, एक पत्रिका में कोई रिपोर्ट लिखने के उद्देश्य से एक कस्बे में आता है. वहाँ उसे शची जैसी ही. आवाज़ सुनायी देती है और वह पुरानी यादों में खो जाता है कि शची नयी नयी कॉलेज में आई थी. शुरू में तो शची उसे अपनी विरोधी जान पड़ी थी पर धीरे धीरे वह उसकी तरफ आकर्षित हुआ. पर शची की उपेक्षा ही मिली उसे और उसने कुछ अपने जैसे अमीर घराने वालों से दोस्ती कर ली. पर कुछ ही दिन बाद ऊब गया उनकी संगति से और शची से अपने मन की बात कह डाली )
गतांक से आगे
और जैसे, उसके व्यक्तित्व को इसी मोड़ का इंतज़ार था. पूरी तरह अपने पुराने रूप में लौट आया था, वह. वही हाज़िर
जबाबी, वही जिंदादिली, बिलकुल एक साल पहले वाला अभिषेक आ खड़ा हुआ था. वही खिलंदड़ी आदतें.. किसी भी पत्थर के टुकड़े को जोर से किक लगा देना.. चलते चलते उचक कर पेडों से पत्तियाँ तोड़ लेना, इस बीच कहाँ छुप गयी थीं, ये बातें. सहपाठी तो शायद इसका इंतज़ार ही कर रहें थे. जरा भी आश्चर्य नहीं हुआ उन्हें, उसमे आए परिवर्तन पर. मानो वे लोग , यह सब मान कर ही चले थे. चर्चाएं चल पड़ी थीं. अब उन्हें कोई सफाई देने की जरूरत नहीं थी. कॉलेज में मशहूर हो चली थी, उनकी जोड़ी. सामने तो देख सब सराहते ही थे, पीठ पीछे सिहाते भी थे. 'मेड फॉर इच आदर' का खिताब भी दे दिया गया था, उन्हें.
उसके व्यवहार से तो सारी बातें फूट पड़ती थीं लेकिन अथाह आश्चर्य हुआ, सबको शची को देख. वही शान्ति, वही निरुद्वेगता मानो उसकी ज़िन्दगी में कोई मोड़ क्या हल्का सा भी बदलाव ना आया हो. कभी अकेले में बैठ किसी सहेली से खुस-पुस करती नज़र नहीं आई. ना ही किसी सहपाठी की चुहल पर झूठे गुस्से से आँखें तरेरीं उसने. जैसे कोई अलग सी ना हो ये बात सबकुछ बिलकुल, सहज है. फिर भी आभास तो हो ही जाता था, कोई गहरी आत्मीयता पनप आई है दोनों के बीच. साधिकार, बिना पूछे, उसकी कोई भी किताब या कॉपी ले जाती. अभिभूत हो उठता वह. किसी गैदरिंग के समय भी सहेलियों से घिरी बातें करती आती पर कदम बढ़ जाते उसकी ओर और उसके साथ वाली सीट भी हमेशा खाली रहती. जैसे सबको पता हो, कोई दुराव-छिपाव नहीं. बिलकुल सहज स्वाभाविक था सब. टर्मिनल के समय तो और भी स्पष्ट हो उठा ये अनाम रिश्ता. लिस्ट लगने की खबर सुनते ही शची, आई और नोटिस बोर्ड पर चिपकी लिस्ट की तरफ जाने की बजाय सीधा, उसके पास आ कर पूछ लिया, "कहाँ पड़ी है मेरी सीट?" देख तो रखा था, उसने भी, पर यह आशा नहीं थी कि शची को भी पूरा यकीन है इसका. और यह बताने पर कि "एक ही क्लासरूम में है" जिस तरह किलक उठी, देख अच्छा लगा था. फिर तो लिखना ख़त्म हो जाने के बाद भी, इंतज़ार करते एक दूसरे का और साथ साथ ही पेपर जमा कर, एक साथ ही कैम्पस छोड़ते दोनों.
किन्तु गहरे तक छू गयी, थर्ड पेपर वाले दिन की घटना, ट्रैफिक के चक्कर में वह कुछ लेट हो गया था. हांफता हुआ पहुंचा ही था कि आश्चर्यचकित रह गया. शची बेचैन सी बार बार घड़ी देखती टहल रही थी. देखते ही बोली, '"कहाँ रह गए थे, क्वश्चन पेपर भी बंट चुका है. "
उल्टा बरस पड़ा वह, "तो तुम क्या कर रही हो यहाँ, खड़ी खड़ी... कोई बाहर ही तो नहीं रह जाता मैं"
"अब चलो भी, बहस का समय नहीं है ये " शची ने बिलकुल बुरा नहीं माना और दौड़ते हुए दोनों एग्जामिनेशन हॉल में प्रवेश कर गए थे.
***
फिर भी कोई अतिरिक्त ख़ुशी नहीं जाहिर होती थी, शची के व्यव्हार से. बल्कि उलटे कभी कभी बातें करती हुई, अनावश्यक रूप से गंभीर हो जाती थी. ऐसे में वातावरण बिलकुल बोझिल हो उठता. मनीष से उसे सब मालूम हो ही चुका था. ऐसे में टोकता नहीं, उसे खुद ही सहज होने देता. किन्तु पूछेगा, एक दिन सब पूछेगा. शची के मन की एक एक गाँठ खोलने का प्रयत्न करेगा. कितना सारा बोझ डाले रहती है, मन पर, कहला कर सब हल्का करने की कोशिश करेगा. किन्तु अभी तो कोई गंभीरता नहीं थी, उनके बीच. बस थोड़ी नोंक-झोंक चिढाते रहना एक दूसरे को.
जड़ ही दिया उसने एक दिन, "इतना अच्छा अभिनय कर लेती हो... फिल्मों में कोशिश करो, ना एक बार में ही फिल्म फेयर अवार्ड ले जाओगी "
शची ने भी नकली गंभीरता ओढ़ ली, "हूँ... सलाह तो अच्छी है.... लेकिन तुम्हारी फेवरेट 'जूही चावला' का क्या होगा... सोच लो "
हँस पड़ा वह... "ना बाबा तुमसे मात मिले, यह तो बिलकुल बर्दाश्त नहीं कर पाउँगा.. अच्छा शची एक बात पूछूं "
"ऊँ.. हूँ.. ". गंभीरता से सर हिला दिया शची ने.
"क्यूँsss..... " आशंका से काँप गयी उसकी, आवाज.
"तो अब कुछ पूछने से पहले, इजाज़त की जरूरत है... "
"ओह! मैं तो डर ही गया था"..... राहत की सांस ली उसने... " अच्छा शची सच बताना, तुम्हे कोई बात उद्वेलित नहीं करती, तुम तो ऐसे शांत रहती हो जैसे प्रस्तर प्रतिमा "
"अच्छा जी... तो आपकी तरह सबको दिखाती चलूँ, ना... कि आयम इन लव " शची ने उसे चिढाया
"क्या कहा... क्या कहा... एक बार फिर से कहना जरा "... हँसते हुए बोल पड़ा वह.
ये ठीक था, अब उनके बीच कोई दूरी नहीं रही थी. परस्पर एक दूसरे के राज खुल गए थे किन्तु दो दो घंटे बाते कर जाते वह पर विषय, सब आपसी संबंधों से दूर ही रहते. साहित्य, राजनीति, खेल, राष्ट्रीय समस्याएं कोई भी विषय ना अछूता ना रहता. सबको मथ डालते. बहुत ही हलके मूड में हों तो कॉलेज के किसी अफेयर की चर्चा भी छिड़ जाती. पर इन सबले बीच कभी ये सब नहीं आता, कि तुम्हारे बाल कितने कर्ल और सिल्की हैं.... कि तुम्हारी चाल कितनी म्यूजिकल है... कि तुम्हारी आवाज़ कितनी सुरीली है... कि रातों को नींद नहीं आती.. कि तुम्हारी आँखें बोलती सी हैं.... सिर्फ यह महसूसना ही कम ना था कि दोनों का अधिकार है एक दूसरे पर. आज पहली बार शची ने कुछ कहा था. इसलिए उसने चिढाया. पर शची तुनक उठी,.. "आई हेट यू"
" ओह ऐसा... आई हेट यू टू"
झटके से उठ खड़ी हुई शची, "ठीक है जब हेट करते हो तो, सामने रहना भी नहीं चाहिए... चलती हूँ "
उसे रोकते हुए धीरे से कह उठा... "आई लव यू..... "
शची के चेहरे से रोष की लालिमा छंटते देर नहीं लगी
पर वह रुकी नहीं. गेट की ओर बढ़ने लगी फिर एकाएक विहंसती हुई पलट कर बोली, "अभिषेक, आखिरकार इस जगह ने कवि बना ही दिया तुम्हे.. अभी क्या कह रहें थे तुम, ऐसी शांत जैसे प्रस्तर प्रतिमा "... और जोर जोर से हंसने लगी..
खीझ गया वह... इतने दिनों बाद तो कुछ शची ने कहा और उसे विश्वास भी नहीं हुआ, कब वे तीन शब्द अनायास ही उसके मुहँ से निकल गए.. थोड़ी देर, उनकी खुमारी में डूबा रहना चाहता था. पर शची ने तो अपनी हंसी से मटियामेट कर डाला सारा मूड. कपड़ों से घास झाड़ता वह भी खड़ा हो गया, जाने को
"हेलो, फॉर योर कैंड इन्फोर्मेशन.. मैं भी अच्छी हिंदी बोल सकता हूँ ओके... तुम्हारा कोई एकाधिकार नहीं है, इस पे "
"ना ना बिलकुल नहीं है... ऐसी हिंदी तो मैं भी नहीं बोलती... तुम ही बोल सकते हो... प्रस्तर प्रतिमा.. हा हा " शची की हंसी अब भी नहीं रुकी थी और उसे गुस्सा आ रहा था.
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परीक्षाएं तो ख़त्म हो ही चुकी थीं. कॉलेज भी बंद होने वाला था. आखिरी दिन था और कैंटीन में पूरा ग्रुप जुटा हुआ था. जम कर हंगामा मचा रखा था, सबने. चाह कर भी वह शची के साथ अलग समय नहीं निकाल पाया. बस बीच बीच में उनकी आँखें मिलतीं और शची की आँखों का उदासीपन गहरे तक छू जाता, उसे. एक बार लगता , यह सिर्फ उसकी कोरी कल्पना तो नहीं... और फिर से वह शची की नज़र का इंतज़ार करने लगता. लेकिन जब जब उन आँखों में देखता... गहरी खाई सी उदासी झलकती रहती. कॉलेज के बाद दोस्त उसे खींच, एक मूवी के लिए ले गए... लडकियां नहीं आयीं और वह ठीक से शची से विदा भी नहीं ले पाया.
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कॉलेज बंद हो गया वह भी महीनेभर के लिए. इस से पहले कभी इतनी लम्बी छुट्टी पर कोफ़्त नहीं हुई, उसे, एक महीना.. यानि तीस दिन... माई गौड कैसे कटेंगे दिन. सही है वह कुछ ऐसे लकी लोगों में से हैं, जिनका बिना किसी शक-शुबहे के घर पर भी आना जाना है. लेकिन मुलाक़ात होगी भी तो कितनी देर और फिर उसकी महाबोर दीदी भी तो विराजमान रहेंगी. तीसरे दिन जब, पहुंचा तो पहले तो एक घंटा बोर किया उन्होंने. उसके बाद पूछने पर कि, "शची नहीं दिख रही "... खुशखबरी सुनायी कि शची तो उसी शाम अपने पापा के पास चली गयी. ओह! कैसे भूल गया वह, कि शची यहाँ रह कर मात्र पढ़ती भर है. पर शची को तो बताना था. उसने कुछ क्यूँ नहीं कहा... शायद कहना चाह रही थी और उसने मौका ही नहीं दिया... पर सबके सामने ही कह देती... वह समझ जाता, ना. शची ने पता और फोन नंबर तक नहीं दिया. इतनी कंजर्वेटिव है या शायद अपने पिता जी से डरती हो. क्या करे, भाभी से भी नहीं मांग सकता. मनीष भी अपने मामा के गाँव चला गया है... शायद वह कुछ तिकड़म लगा सकता था. लेकिन एक संतोष था, शची को तो उसका पता मालूम है. पूरी छुट्टी में दिनचर्या में एक काम और जुड़ गया, नियमित रूप से डाक देखने का. पर रोज निराशा ही हाथ लगती. रोष हो आया उसे शची पर. दो पंक्ति कुशल क्षेम के ही तो लिख सकती थी. इतना भी क्या भारतीयता का ख़याल. इतनी उत्कंठा से उसने कॉलेज खुलने की प्रतीक्षा कभी नहीं की या यूँ कहे की बस दिन ही गिन रहा था.
राम राम करके कॉलेज खुला. एक डर सा था, पता नहीं शायद अभी तक शची नहीं आई हो, घर से. गेट पर ही खड़ा था. दूर से शची को आते देख, एक हूक सी उठी, जिसे मुश्किल से जब्त किया उसने. शची उस तक पहुँच पाती कि बीच में ही उसकी ढेर सारी सहेलियों ने घेर लिया. शची ने एक दो बार बेबसी से उसकी तरफ देखा, पर इतना गुस्सा आया उसे... सर झटक चल दिया. और दिन भर यही हाल रहा.. शची एक पल को भी खाली नहीं हुई... बस लेक्चर में उसके समीप आ बैठी. पर मन इतना भरा हुआ था. कुछ भी नहीं बोल पाया. शची भी चुप चुप सी थी. ऐसा लग रहा था, एक महीने बाद नहीं एक साल बाद मिल रहें हों.
क्लास से निकल एक तरफ खड़ा था.... शायद शची मैडम को फुरसत मिल जाए सहेलियों से. और जब उसे अपनी तरफ आते देखा, तो सारी नाराजगी.. सारा गुस्सा भूल बैठा. मन हो रहा था... उसकी कलाई पकडे... और भाग जाए इन सारे शोर शराबों से दूर. शची ने आते ही कहा.. "आज शाम फ्री हो.. आ सकोगे घर पर.. ?"
उसने आँखों में प्रश्न भर कर देखा तो शची मुस्कुरा दी... "यूँ ही.. मुझे कुछ कहना है "
"मुझे भी कुछ कहना है.... " एक परिचित गाने की लाईन उसने उसी लय में दुहरा दी
आँखें चौड़ी कर शची ने कहा.... "लेकिन पहले मैं"... और हंसती हुई फिर से अपनी सहेलियों की झुण्ड की तरफ चली गयी..
वह उसी दिशा में देर तक देखता रहा. पता ही नहीं चला, कब मनीष आ खड़ा हुआ, बगल में. बोला, "क्यूँ अब नहीं कहते, यह लड़की है या पत्थर... कुछ भी बोल.. तेरी पसंद की तारीफ़ सब तहे-दिल से करेंगे"
"और शची के पसंद की "... पूछ लिया उसने.
मनीष ने एक नकली निश्वास खींचने का नाटक किया "उसके लिए तो यही कहेंगे... किस चालबाज़ के पल्ले पड़ गयी... जिसके ना जाने कितनी गर्लफ्रेंड्स हैं... रूबी, कणिका, पल्लवी.. "
"बस बस तुझे तो बस मौका मिलना चाहिए.... बताना तो कब थीं, मेरी गर्लफ्रेंड्स वे सब "
"ओह... तो तेरा मतलब है..... फ्रेंड्स के साथ नहीं दुश्मनों के साथ पार्टी की जाती है.. मूवी देखी जाती है... "
"छोड़ ना यार... वो सब एक बुरा सपना था... आँख खुली, ख़त्म हो गया... पर आज इन लड़कियों को क्या हो गया है... ये विंशी, शची, अमृता.. सब इतनी गुपचुप क्या बातें कर रही हैं... हमें बैन कर रखा है.. ग्रुप में आने ही नहीं दे रहीं. "
"अरे इतने दिनों बाद मिल रही है, सब.... लड़कियों के अपने सीक्रेट होते हैं यार... सब शेयर कर रही होंगी... अरे मेरे बॉय फ्रेंड ने ये गिफ्ट दिया.. ये बोला.. छुट्टियों में मेरी भाभी का भाई आया था.. दीदी के देवर के साथ मूवी गयी थी.... "
" तुझे बड़ी खबर है सब.... विंशी सब बताती है क्या तुझे.. और तुझे क्यूँ फिकर होने लगी... विंशी तो इसी शहर की है ना.. पूरी छुट्टियों में, मिलता रहा तू उस से... मेरे लिए भी टाइम नहीं था तेरे पास "
"अरे हाँ यार... आज तो फर्स्ट डे है कॉलेज का... तू तो मिला ही नहीं ना शची से इतने दिन.. रुक मैं जाकर कहता हूँ... शची को रिलीज़ करो, भाई... "
"शट अप... ऐसा कुछ नहीं करेगा तू... और वैसे भी शची ने आज शाम घर बुलाया है.. "
"ओह मान गए गुरु.... दिस कॉल्स फॉर सेलिब्रेशन.. चल कैंटीन में सेलिब्रेट करते हैं... शैम्पेन तो नहीं... कोका कोला ही सही.. "
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वह समझ नहीं पा रहा था... शची ने क्यूँ बुलाया इस तरह. एक फोन नहीं किया एक लेटर नहीं लिखा... कॉलेज में भी समय नहीं निकाला... और घर पर बुला लिया. शायद इसी अपराधबोध की वजह से बुलाया होगा. चलो उसकी सहेलियों के झुण्ड से तो बेहतर है, एक उसकी दीदी को झेलना... कम से कम शची की उपस्थिति तो महसूस कर सकेगा.
आशंका, प्रसन्नता के बीच झूलता मन लिए. समय से कुछ पहले ही पहुँच गया. तीन बार बेल बजायी. कोई रिस्पौंस नहीं. कहीं शची ने बेवकूफ तो नहीं बनाया. चौथी बार बजाने जा ही रहा था कि दरवाजा खुला और सामने शची खड़ी थी. उसके ताजे खिले रूप ने तो आँखें ही बाँध लीं. शायद अभी अभी नहा कर निकली थी. सफ़ेद कुरते में किसी श्वेत गुलाब सी लग रही थी. ताज़ा धुला चेहरा, रजनीगंधा के पुष्पगुच्छ सा लग रहा था. जिस पर पानी की बूँदें ट्यूबलाईट की रोशनी में ओसकण सी चमचमा रही थीं. अपनी तरफ यूँ एकटक देखती बोली, "क्या बात है.. नाराज़ हो ? हलो तक नहीं "
अब मानो प्रकृतस्थ हुआ, बड़ी अदा से झुक कर बोला, "गुड़ इवनिंग मैडम " और शची हँस पड़ी.
घर यूँ सूना देख पूछ बैठा, "और लोग कहाँ हैं ?"
कुहू के एक फ्रेंड की बर्थडे पार्टी में गए हैं, मैं नहीं गयी... किसी को पहचानती नहीं... और फिर सोचा तुमसे बात भी नहीं हुई. इसी बहाने थोड़ा वक़्त मिल जायेगा.
अंदर तक पुलकित हो उठा वह.. यानि की शची ने भी उतना ही मिस किया उसे. शची ने यूँ ही खड़े खड़े दो चार बातें कीं और दो तीन पत्रिकाएं निकाल कर रख दीं और कहा, "इन्हें देखो तब तक, मैं अभी आई"
"अरे कहाँ चली... "परेशान हो उठा वह.
"बस कॉफ़ी लेकर आती हूँ. फिर बातें करते हैं... बहुत सारी बातें करनी हैं तुमसे"... और चली गयी.
हैरान हो गया वह, इस एक महीने में तो बहुत परिवर्तन आ गया शची में. पहले उसे घर बुलाया और अब यूँ खुल कर कह रही है... बहुत सारी बातें करनी हैं. नॉट बैड... पत्रिकाओं में मन क्या लगता, यूँ ही पलट कर रख दिया. उठ कर एक्वेरियम के पास कुछ देर तक तैरती मछलियों को देखता रहा. फिर मुड कर बी. प्रभा की पेंटिंग का अवलोकन करने लगा. नज़रें फिसल कर उस खूबसूरत हँस के जोड़ें पर टिकीं.. "ओह कहाँ रह गयी शची.. "
और तभी ट्रे सजाये शची आ गयी.
अपनी जगह आ जम गया. उसकी शिकायतों पर शची का यही कहना था, वह अपने गाँव दादी के पास चली गयी थी. वहाँ ना फोन की सुविधा है ना लेटर की सही जगह पहुँचने की कोई गारंटी. महीने भर में एक चिट्ठी आती है. उसे तो इतनी बातें करनी थीं कि पता नहीं क्या क्या बोलता गया.. पर गौर किया शची बस सुन भर रही है... अपनी तरफ से कुछ भी नहीं जोड़ रही. बिलकुल शांत सी लग रही थी. अजीब कशमकश सी चल रही थी, उसके चेहरे पर. लग रहा था, भावनाओं के ज्वार को बड़ी मुश्किल से दबा रखा है उसने. या हो सकता है, आशा के विपरीत उसे यूँ चुप बैठे देख उसे ऐसा लग रहा हो पर उसकी आँखें भी भारी लग रही थीं. कह ही दिया... "लगता है.. कॉलेज से आकर सो गयी थी "
:'नहीं तो कहाँ सोयी"
"क्या फायदा झूठ बोलने से, चेहरा और आँखें तो साफ़ बता रही हैं.... खूब आराम करो... बस अपनी ही नींद हराम है.. " और हलके से हँस दिया वह. झेंप गयी शची और हथेलियाँ आँखों से जा लगीं.
"अँ हँ... गर्मी गयी कहाँ है, अभी... बस जरा सा आँख लग गए थी... कप्स रख कर आती हूँ. "
इस बार जो शची कप रखने गयी तो वापस आ ही नहीं रही थी. अजीब उलझन में पड़ गया वह. एक दो बार पुकारा भी पर सूने घर में उसकी आवाज़ यूँ गूंजती सी लगी कि तुरंत चुप हो गया. ओह क्या करे वह. अभी भाभी होतीं तो शायद बेधड़क वह उन्हें पुकारता अंदर तक चला जाता. पर शची के अकेले होने से उसे संकोच सा महसूस हो रहा था. पर काफी देर हो गयी तो वह और जब्त नहीं कर सका. एक मन कह रहा था, यह अशिष्टता होगी... दूसरा मन किसी आशंका से घबरा भी रहा था. कदम कई बार हिचकिचाए. लेकिन आखिर बरामदा पार कर ही लिया उसने. और अंदर का जो नज़ारा देखा तो आवाक रह गया. आँखें झपकना तक भूल गयीं. चित्रलिखे सा खड़ा जडवत देखता ही रह गया. शची दीवार पर हाथों के सहारे सर टिकाये, हिलक हिलक कर रो रही थी. चेहरा सफ़ेद पड़ गया उसका, पैर जैसे अपनी जगह जम गए. यह क्या देख रहा है वह... शची और रो रही है??
कुछ ही क्षणों में हज़ार आशंकाएं घुमड़ आयीं मन में. क्या किसी ने कुछ कह दिया है. पर ऐसा कुछ था ही कहाँ उनके बीच जिसकी अफवाह उड़े. ऋचा और भाभी को भी कुछ खबर नहीं थी. तो क्या शची किसी की वाग्दत्ता है? किन्तु यह अगर सच होता तो दुनिया, जहान की खबर सुनाने वाली भाभी, क्या इस महत्वपूर्ण खबर को दूर रखतीं. शची का इस कदर रोना, खुद उसका ह्रदय भी हिला गया. किसी तरह पीछे पहुँच पुकारा, "शची... शची.. " कोई जबाब नहीं पूर्ववत हिचकियाँ, हवा में तैरती रहीं. ओह! क्या करे वह. झिझकता हुआ हाथ, उसके कंधे पर रखा ही था कि शची पलट कर बिलकुल उसके कंधे से लग गयी.
"क्या हो गया तुम्हे.. " स्नेह से पूछा तो शची की रुलाई और बढ़ गयी. शची की ये हालत देख खुद उसकी आँखें भी गीली हो आयीं. आंधी में किसी कोमल पत्ते की तरह थरथरा रहा था, शची का पूरा शरीर. रुलाई जैसे बाँध तोड़ निकल जाना चाहती थी. धीरे धीरे उसके बाल सहलाते हुए, एक बार और कोशिश की, "क्यूँ रो रही हो, शची इस तरह.... क्या हुआ तुम्हे ?" किन्तु पूछती खुद की आवाज़ भी थरथरा गयी. उसकी आँखों से भी दो बूँद पानी गिर शची के बालों में समा गए. आंसुओं का सैलाब किसी तरह रुकने का नाम नहीं ले रहा था. जब भी कुछ पूछता, शची की थमती रुलाई, दुगुने वेग से उमड़ पड़ती.
उसने शची को स्वयं चुप हो जाने देना ही बेहतर समझा. बस अंगुलियाँ, शची के बालों में घूमती रहीं. धीरे धीरे रुलाई थमी तो जैसे होश आया, शची को. और वह हाथ छुड़ा अलग खड़ी हो गयी. उसने आंसुओं से भीगा उसका चेहरा ऊपर उठाया तो शची की आँखें फिर से बरस पड़ीं. शची के हँसते खिलखिलाते रूप के बीच उसकी ये रोती छवि ह्रदय स्वीकार नहीं कर पा रहा था. आंसुओं से भीगा चेहरा.. कुछ बाल आंसुओं से भीग गाल और गले पर चिपक गए थे. जिस्म में कोई जान नहीं लग रही थी. लगता था, अब गिर पड़ेगी. उसकी ये हालत देख, खुद उसकी आँखें भी सजल हो आयीं. लेकिन संभाल लिया खुद को. अभी शची को संभालना था, उसे.. वाश बेसिन पे ले जा, उसका हाथ मुहँ धुलवाया, एक ग्लास पानी ला पीने को दिया. शची एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह सब करती रही.
किसी तरह इस बोझिल वातावरण को हल्का करना चाहता था. हंसने की कोशिश करते हुए बोला, "अच्छा तो यही कहना था कि देखो, जितना अच्छा मैं हँस लेती हूँ, उस से कहीं ज्यादा अच्छा रो भी लेती हूँ.. क्यूँ"
शची की आँखें फिर भर आयीं, "नहीं अभिषेक.. सचमुच मुझे कुछ.... " लेकिन आगे उस से कुछ कहा नहीं गया और फिर सिसकने लगी.. उसने शची का कांपता हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया, और बोला... "ये क्या लगा रखा है बस रोना ही रोना... फिर धीरे से बोला.. "क्यूँ मैं दुनिया से जा रहा हूँ क्या... चलो अच्छा हुआ... कोई रोने वाला तो मिला... "
शची फिर फूट पड़ी... " ऐसा कभी मत बोलना... तुम क्यूँ... " और आगे के शब्द आंसुओं में डूब गए. समझ गया, शची कुछ बोलने कि मनःस्थिति में नहीं है. उसे अकेले छोड़ना ही श्रेयस्कर होगा. और अब उसके दीदी-जीजाजी भी आने वाले होंगे. क्या क्या एक्सप्लेनेशन देगी. शची. बेहतर है सर दर्द का बहाना कर सो जाए. बोला.. "शची मुझे अब जाना होगा... किसी के यहाँ डिनर पर जाना है... सब लोग घर पर मेरा इंतज़ार कर रहें होंगे.. चलूँ मैं.. "
"लेकिन अभिषेक.. मुझे कुछ..... " शची के होंठ काँप कर रह गए.
"अरे बाबा.. कहना था, यही ना... ज़िन्दगी तो नहीं बीती जा रही... कल परसों जब जी चाहे कह देना... अब जाकर आराम करो.. लगता है घंटो से रो रही हो... ऐसी भी क्या बात है.. अँss अब चलूँ? पर वादा करो अब और नहीं रोओगी तुम... प्रॉमिस ?
पर शची बस भरी भरी आँखों से उसे देखती रही.
"चलो.. बाय.. " कहता वह खुद ही उठ कर दरवाजे तक आ गया... शची धीरे धीरे पीछे आती कमरे में ही निश्चल खड़ी रह गयी.
वह घूम कर मुस्कुरा दिया.. "मैडम दरवाजे तो बंद कर लो "
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घर पहुँच, कटी शाख सा बिस्तर पर गिर पड़ा. कपड़े भी नहीं बदले, बत्ती तक नहीं जलाई. उसने तो शची को कुछ कहने से मना कर दिया. लेकिन खुद अटकलों के जाल में बुरी तरह उलझ गया. आखिरकार कौन सी ऐसी बात है, जिसे शची कहना चाहती है... पर कह नहीं पा रही और उसे ले इस तरह रो रही है. एक बार फिर ख़याल आया उसके किसी के मंगेतर होने का. पर मनीष को तो पता होता. और उस दिन ऋचा के बर्थडे में उसके जीजाजी बार बार उसे ले शची को छेड़ रहें थे. जिसे उसने महज जीजा साली के बीच की छेड़छाड़ माना था. पर वह किसी की मंगेतर होती तब तो वे भी ऐसी हिमाकत नहीं करते. क्या बात हो सकती है... पर उसे बिलकुल भी समझ नहीं आ रहा था और शची के दुःख से वह दुखी भी बहुत था... अब तो शची ही सामान्य होकर कुछ बताये तो पता चले... आँखें जलने लगीं उसकी... अब तो रात आँखों में ही कटेगी.
(क्रमशः)