एक था करन जोहर. बडी बडी ब्लोकबस्टर फिल्मों का निर्देशन और निर्माण करके खूब पैसा बटोरने और भारतीय दर्शकों का खासा मनोरंजन करने के बावजूद कई बार वो अपने इन्टर्व्यू में कहेता था की, ‘मैं क्यूं ‘बर्फी’ जैसी क्लासिक फिल्में नहीं बना सकता? संजय लीला भणसाली बनाते है वैसी भव्य, मेग्नमओपस फिल्में मैं क्यूं नहीं बना सकता?’
तो जनाब जोहर ने आखिर तय कर ही लिया की अब मैं भी भणसाली बनके दिखाउंगा, मैं भी एक एसी महा…न फिल्म बनाउंगा की दर्शक देखते रह जाएंगे..! तो उन्होंने प्रोड्युस की ‘कलंक’ जो की अपने टाइटल पे बिलकुल खरी उतरी है. ‘कलंक’ वाकई में कलंक ही साबित होती है.
दिल तो फिल्म का ट्रेलर देख कर ही बैठ गया था, डर तो तभी लग गया था जब फिल्म का गाना ‘तबाह हो गये…’ देखा था. इतनी गंदी कोरियोग्राफी..! और वो भी माधुरी दिक्षित के गाने में..!!! माता रानी का श्राप तो लगना ही था. लग गया, और क्या..!!!
फिल्म की कहानी शुरु होती है लाहोर के नजदिक बसे शहर हुस्नाबाद से. समय है भारत-पाकिस्तान विभाजन से पहले 1945 का. बलराज चौधरी (संजय दत्त) अपने बेटे देव (आदित्य रोय कपूर) के साथ एक प्रेस चलाते है. उनका अखबार ‘डेली न्यूज’ देश के बटवारे के खिलाफ खबरे छापता रहेता है, जिससे कुछ मुसलमानो को तकलीफें होती है. देव की पत्नी सत्या (सोनाक्षी सिंहा) केन्सर की वजह से मरने वाली है. मरने से पहेले वो अपने पति की शादी किसी और लडकी से करवाना चाहती है जिससे उसके पति को भविष्य में कोई तकलीफ न हो. और अपनी खुद की सौतन के तौर पर वो चुनती है रूप (आलिया भट्ट) को. शादी हो जाती है, पर रुप को पति का प्यार नहीं मिल पाता. प्यार की तलाश उसे मुसलमान लोहार जफर (वरुण धवन) तक ले जाती है. हुस्नाबाद के बदनाम हिस्से हिरा मंडी में अपने महेलनुमा कोठे में रहेती है तवायफ बेगम बहार (माधुरी दिक्षित), जो अपने सीने में एक राज छुपाए हुए जी रही है. जफर के प्रति रुप का आकर्षण उनके जीवन में ‘कलंक’ बन जाता है और सब के जीवन ‘तबाह’ हो जाते है…
समाज के रस्मों-रिवाजों पर सवाल उठाती 'कलंक' जात-पात तथा धर्म के बंधनो से उपर ‘प्यार’ को रखने की बात शीखाती है. मुद्दा तो अच्छा है लेकिन फिल्म का स्क्रीनप्ले कई जगह ढीला पड जाता है जिसके चलते फिल्म बोर करने लगती है. पूरी फिल्म में केवल एक सीन है जिसमें चहेरे पर स्माइल आ जाती है, बाकी पूरी की पूरी फिल्म बोझिल लगती है. सभी किरदार गंभीर बनके, मुंह लटकाए हुए घूमते रहेते है. और हर कोई सामनेवाले को जिंदगी की फिलोसोफी के बारे में नसीहत देता रहेता है. डायलोग अच्छे होने के बावजूद (मुजे दो डायलोग सबसे अच्छे लगे. ‘पति और पत्नी का रिश्ता रिवाजों से नहीं, प्यार से बनता है’ और ‘कुछ रिश्ते कर्जे की तरह होते है, उन्हें निभाना नहीं चुकाना पडता है’.) ये बात खटकती है की हर केरेक्टर बडी बडी डिंगे हांकता नजर आता है. कहीं कहीं केरेक्टराइजेशन भी सही ढंग से नहीं किया गया. उदाहरण के तौर पे देखे तो, वरुण धवन को लोहार दिखाया गया है, जिसका कोई परिवार नहीं है, जो सडक पर पला बडा है, पढाई नहीं कर पाया है, फिर भी वो बंदा बिलकुल गुलजार-वाली शायराना बातें करता फिरता है. उसके बोलने का लहेजा भी किसी अच्छे से पढे-लिखे इन्सान जैसा है. ये वात कुछ हजम नहीं हुई, करनजी. ठीक उसी प्रकार वरुण के सिक्स पेक भी आखों को खटके. भाई, उस जमाने में किसीको पता भी नहीं था की एसी बोडी भी बन सकती है. अखाडे में पहेलबान हुआ करते थे जो दारा सिंग जैसी मांसल बोडी बनाते थे, सिक्स पेक वाली नहीं. एक हिन्दु की लाश को हमेशा समंदर, नदी या तालाब किनारे जलाया जाता है, या फिर समथल जमीन पर दाह-संस्कार किया जाता है. यहां डिरेक्टर ने पहाड की चोटी पर ले जाकर एक लाश का अंतिम-संस्कार करवाया है. भाई, कौन सी हिन्दु कोम में एसा होता है, बताओ तो? कुछ भी… एक सीन में हितेन तेजवानी के पेट में तलवार घोंपी जाती है. कोमेडी ये है की तलवार शरीर को टच भी करे उससे पहेले ही हितेन बेंड हो जाते है. है ना कमाल की मिस-टाइमिंग? हें…हें…हें…
फिल्म की स्टारकास्ट दमदार है और तकरीबन सभी ने अपने पात्र को न्याय दिया है. कहेने को तो फिल्म में 6 मुख्य कलाकार है, फिल्म के पोस्टर देखकर भी लगता है की इस मल्टिस्टारर फिल्म में सब का हिस्सा बराबर होगा, लेकिन ऐसा नहीं है. फिल्म का मुख्य किरदार आलिया भट्ट के हिस्से में आया है और कहानी उनके पात्र के इर्दगिर्द ही घूमती है, तो स्वाभाविक है की सबसे लंबा रोल भी उनका ही होगा. आलिया हमेशा की तरह क्यूट लगी. उन्होंने अभिनय भी बढिया किया है. वरुण धवन फिर एक बार अपने पात्र को पूरी तरह से न्याय देने में कामियाब हुए है. छोटे रोल के बावजूद सोनाक्षी सिंहा ने प्रसंशनीय काम किया है. उन्हें एक बार फिर से ‘लूटेरा’ जैसे गेटअप में काम करने का मौका मिला है और उस गेटअप में वो काफी खूबसूरत भी लगती है. माधुरी दिक्षित ने तकरीबन वैसा ही रोल निभाया है जैसा उन्होंने भणसाली की ‘देवदास’ में निभाया था. बढती उम्र उनके चहेरे पर साफ दिखाई देती है, लेकिन फिर भी वो दमदार लगी. (बेगम बहार का रोल पहेले श्रीदेवी निभानेवाली थी, लेकिन…) संजय दत्त निराश करते है. वो अपने पात्र में मिस-फिट लगे. हर कोई आके उन्हें खरी-खोटी सुना जाता है, उन्हें नीचा दिखा के चला जाता है. (दत्त न हुआ मंदिर का घंटा हो गया!! सब बजाते रहेते है!!!) पूरी फिल्म में दत्त थके-हारे से नजर आए. उनकी जगह अनिल कपूर होते तो शायद इस केरेक्टर का परिणाम बहेतर होता. नेगेटिव रोल में कुनाल खेमू ने ठीकठाक काम किया है. बाकी के कलाकार— कियारा अडवानी, क्रिती शेनोन(एक गाने में), हितेन तेजवानी, अचिंत कौर— भी ओके है. लेकिन सबसे बढिया परफोर्मन्स दिया है आदित्य रोय कपूर ने. वो कहीं भी ओवर नहीं हुए है. एक सोबर, पढे-लिखे, संस्कारी युवा के पात्र को उन्होंने पूरे कन्ट्रोल में रहकर उभारा है. शाब्बाश!!!
पात्रो के बीच की केमेस्ट्री अच्छी है. आदित्य-वरुण नदी किनारे बैठकर बातें करते है वो सीन सबसे अच्छा लगा. आदित्य-सोनाक्षी के बीच का प्यार सच्चा लगा. वरुण-आलिया ने भी पर्दे पर रोमान्स जगाने में महेनत की है. माधुरी-संजय दत्त के बीच एक ही सीन है, जिसमें माधुरी बाजी मार ले जाती है. बिना संवाद के 2-3 सीन बहोत जचे. एक सीन में पत्नी (आलिया) को देर रात को घर आते देख पति (आदित्य) कुछ बोलते तो नहीं, केवल घडी की तरफ देखकर चले जाते है. उसी प्रकार पार्टी से लौटे पति-पत्नी घर में घूसते ही अलग अलग बेडरूम में चले जाते है, वो सीन भी अच्छा लगा.
मनीष मल्होत्रा की कोस्च्युम डिजाइन जबरदस्त है. उन्होंने सभी कलाकारों के पहेनावे पे खासा ध्यान दिया है और उनकी महेनत पर्दे पर दिखती है. केसरी, गुलाबी और ग्रे शेड्स का काफी अच्छा इस्तेमाल किया गया है लेकिन एक हकीकत को नजरअंदाज किया गया है की उस जमाने में भारतीय परिधानों में पेस्टल कलर्स (इंग्लिश शेड्स) नहीं होते थे, बलकी चट्टक-गाढे रंगो का इस्तेमाल होता था. फिल्म के सेट्स अद्भुत है और दर्शकों को उस जमाने में पहुंचा देते है लेकिन यहां भी तवायफ की हवेली के बहार जो तालाब या नदी या नहेर जैसा जो कुछ भी दिखाया गया है वो वास्तविक नहीं लगता. दशहरे के त्यौहार पे ‘रामलीला’ की प्रस्तुति भी काफी बनावटी, काफी थियेट्रिकल लगी. बिनोद प्रधान की सिनेमेटोग्राफी फाइव स्टार है.
प्रितम का संगीत बस एवरेज सा ही है. गानों को भव्यता से शूट किया गया है, जिस वजह से पर्दे पर देखना अच्छा लगता है. लेकिन बडी निराशा होती है माधुरी दिक्षित को ‘तबाह हो गए…’ जैसे गाने पर नाचते हुए. हैरानी की बात तो ये है की सरोज खान जैसी दिग्गज कोरीओग्राफर ने इतने बकवास स्टेप्स माधुरी को दिए..! निर्विवाद तौर पर माधुरी की पूरी करियर का ये सबसे घटिया डान्स नंबर है. सरोजजी का काम भी इतना कमजोर कभी नहीं रहा. बाकी के गानों की कोरिओग्राफी रेमो डिसोजा ने की है जो की अच्छी है. आलिया ने ‘घर मोरे परदेशिया…’ में अच्छा डान्स किया है.
ये तो कोई अंधा भी बता सकता है की ‘कलंक’ पूरी तरह से संजय लीला भणसाली के हेंगओवर में बनी है. फिल्म की शुरुआत में आलिया भट्ट के पात्र के अलहडपन को देखकर ‘हम दिल दे चुके सनम’ की नंदिनी (ऐश्वर्या राय) याद आ ही जाती है. ‘रजवाडी ओढनी’ गाने में भी वो ‘भणसाली की एश्वर्या’ ही दिखती है. जहां ‘फर्स्ट क्लास है…’ गाने में ‘रामलीला’ के ‘ततड ततड…’ की साफ झलक दिखती है वहीं ‘घर मोरे परदेशिया…’ में ‘दिवानी मस्तानी…’, ‘ऐरा गैरा…’ में ‘शीशे से शीशा टकराए…’ और ‘तबाह हो गए…’ में ‘मार डाला…’ की परछाइयां देखने को मिलती है. फिल्म के सेट्स के लेकर कोस्च्युम्स, केमेरा वर्क से लेकर डायलोग्स और कोरियोग्राफी… सब कुछ भणसाली की कोई न कोई फिल्म से उठाया-चुराया गया लगता है. कुल मिलाकर देखे तो ‘कलंक’ काफी हद तक एक भणसाली-मिक्स है, एक ऐसा मिक्स जो बहोत कोशिशो के बावजूद स्वादिष्ट न बन सका, फिका ही रह गया. निर्देशन अभिषेक वर्मन ने इससे पहेले ‘टु स्टेट्स’ जैसी बढिया फिल्म बनाई थी. उनसे निवेदन है की वैसी ही फिल्म बनाते रहे, भणसाली बनने का प्रयास न करें. क्यूंकी भणसाली बनना सबके बस की बात नहीं है.
‘कलंक’ की कमजोरी इसकी लंबाई है. इतनी गंभीर फिल्म को कोई 2 घंटे 48 मिनट तक कैसे सह सकता है. टाइट एडिटिंग की जरूरत थी, जो की नहीं हुई. वरुण धवन की बुल-फाइट बाला सीन तो फिल्म में बिलकुल भी जरूरी नहीं था. उस सीन में जो VFX दिखाए है वो निहायती थर्ड-क्लास है. न तो वो सांढ रियल लगता है और न वरुण के साथ उसकी भीडंत. एसे तो कई सीन और गाने है जिनको कांट-छांट कर फिल्म को 2 घंटे में समेटा जा सकता था, पर अफसोस की ये हो न सका. फिल्म में इन्सानी-जिस्मानी रिश्तों की बरबादी की बहोत बातें दिखाई गई है, उसी तर्ज पर कहे तो जब किसी की बरबादी तय होती है तो उसे कोई नहीं बचा सकता. ‘कलंक’ को भी कोई नहीं बचा सकेगा.
इतनी सारी खामीयों के चलते कहा नहीं जा सकता की ‘बाकी सब फर्स्ट क्लास है…’ फिल्म इतनी खराब नहीं है. अच्छी है, लेकिन इसकी अच्छाई उभर के नहीं आ पाती. सब कुछ देखा हुआ, सुना हुआ लगता है… तो फिर इस फिल्म को देखें ही क्यों..? 80 करोड के बजेट में बनी फिल्म शायद अपनी लागत तो रिकवर कर लेगी लेकिन दर्शकों का दिल नहीं जीत पाएगी. ढाई घंटे की इस (सिनेमेटिक) तबाही (और दर्शकों के समय की बरबादी) को मैं दूंगा 5 में से 3 स्टार्स.