Billo ki Bhishm Pratigya - 2 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा - 2

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बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा - 2

बिल्लो की भीष्म प्रतिज्ञा

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 2

गाड़ी आगे जैसे-जैसे बढ़ रही थी मन में बसी गांव की तस्वीर साफ होती जा रही थी। मगर सामने जो दिख रहा था वह बहुत कुछ बदला हुआ दिख रहा था। पहले के ज़्यादातर छप्पर, खपरैल वाले घरों की जगह पक्के घर बन चुके थे। लगभग सारे घरों की छतों पर सेटेलाइट टीवी के एंटीना दिख रहे थे। अब घरों के आगे पहले की तरह गाय-गोरूओं के लिए बनीं नांदें मुझे करीब-करीब गायब मिलीं। चारा काटने वाली मशीनें जो पहले तमाम घरों में दिखाई देती थी वह इक्का-दुक्का ही दिखीं। जब नांदें, गाय-गोरू गायब थे तो चारे की जरूरत ही कहां थीं? जब चारा नहीं तो मशीनें किस लिए? खेती में मशीनीकरण ने बैलों आदि चौपाओं को पूरी तरह बेदखल ही कर दिया है।

अब इन जानवरों की अनुपयोगिता के चलते ग्रामीणों ने इनसे छुट्टी पा ली है। हरियाली भी गांव में पहले जैसी नहीं मिली। हरियाली की जगह उस वक्त हर तरफ़ तन झुलसाती धूप का एकक्षत्र राज्य था। जीप में एसी के कारण मुझे काफी राहत थी। वह पेड़ भी मुझे करीब-करीब गायब मिले जो पहले लोगों के घरों के सामने हुआ करते थे। खासतौर से नीम, कनैल के फूल, अमरूद, केला, आदि के। पक्के मकानों के सामने इन पेड़ों की छांव की जरूरत लोगों ने नहीं समझी। मकान आगे तक बढ़ आए थे। और पेड़ गायब थे। घरों के दरवाजे बंद पड़े थे। मुझे गंवईपन गायब दिख रहा था। कई घरों के आगे जीप, कारें भी दिखीं। लेकिन पहले की तरह घरों के आगे पड़े मड़हे में तखत या खटिया पर हाथ का पंखा लिए कोई न दिखा।

यह हमारे लिए थोड़ा कष्टदायी रहा, क्योंकि कई जगह रास्ता पूछने की जरूरत पड़ी लेकिन बताने वाला कोई नहीं दिख रहा था। एक तरफ बंसवारी दूर से दिख रही थी। मुझे याद आया कि यह हमारे घर से थोड़ी ही दूर पर पश्चिम में दर्जियाने (दर्जियों का टोला) मुहल्ले में हुआ करती थी। मगर मन में यह संदेह था कि यह पता नहीं मैं जो समझ रहा हूं वही बंसवारी है या कहीं और तो नहीं पहुंच गया हूं।

शंभू को मैंने बंसवारी के पास ही चलने को कहा। वहां पहुंच कर पाया कि यह तो वही दर्जियान है जिसे मैं ढूंढ़ रहा हूं। मैं सही हूं। गांव का वह हिस्सा जहां मुस्लिम समुदाय के दर्जियों, जुलाहों आदि के घर थे। वहीं बीड़ी बनाने वालों, चुड़ियाहिरिनों के भी घर हैं। वहां वह कुंआ वैसा ही मिला जैसा बरसों पहले देखा था। हां उस की जगत और उसके वह दो पिलर जिस के बीच लोहे की गराड़ी लगी थी, वह बदले हुए मिले। वहीं उतर कर मैं सामने खपरैल वाले मकान के पास पहुंचा। इस मकान का पुराना रूप पूरी तरह नहीं खोया था।

मकान के दलान में कुछ महिलाएं बीड़ी बनाने में जुटी थीं। एक बुजुर्गवार ढेरा (लकड़ी का एक यंत्र, जो प्लस के आकार होता है। इसमें बीचोबीच एक सीधी गोल लकड़ी करीब नौ दस इंच की लगी होती है।) से सन की रस्सी बनाने में लगे थे। बुजुर्गवार गोल टोपी लगाए थे। उनकी पतली सी लंबी सफेद दाढ़ी लहरा रही थी। मूंछें साफ थीं। बगल में नारियल हुक्का था। चश्मा भी नाक पर आगे तक झुका था। सभी के चेहरे पर पसीना चमक रहा था। चेहरे आलस्य से भरे थे।

खाली चेकदार लुंगी पहने, नंगे बदन बुजुर्गवार सन की एक छोटी सी मचिया (स्टूल जैसी लंबाई-चौड़ाई वाली एक माइक्रो खटिया जो मात्र पांच छः इंच ऊंची होती है।) पर बैठे थे। मैं उनके करीब पहुंचा, हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। और अपने चाचा के घर का रास्ता पूछा। जीप के पहुंचने पर से ही वह बराबर हम पर नजर रखे हुए थे।

चाचा का नाम सुनते ही उन्होंने कहा ‘बड़के लाला खिंआ जाबा?’ हमने कहा ‘हां’। तो उन्होंने फिर पूछा ‘कहां से आए हअ बचवा।’ मैंने बताया ‘जौनपुर से। वो मेरे चाचा हैं।’ यह सुनते ही वह बोले ‘अरे-अरे भइया पहिलवें काहे नाहीं बताए।’ यह कहते हुए उन्होंने रस्सी बनाना बंद कर यंत्र किनारे रखा। दोनों हाथ घुटनों पर रख पूरा जोर देकर खड़े हो गए। दस बारह क़दम बाहर आकर रास्ता बताया। चलते-चलते पापा का नाम पूछ लिया। मैंने बताया तो पापा का घर वाला नाम लेकर बोले ‘तू उनकर बेटवा हअअ! बहुत दिना बाद आए हऊअ। तू सभे त आपन घरै-दुवार छोड़ि दिअ हअअ। अऊबे नाहीं करतअ। तोहार बबुओ कईयो-कईयो बरिस बाद आवत रहेन। चलअ तू आए बड़ा नीक किहैय।’

उन्होंने कई और बातें कहीं। जिनका लब्बो-लुआब यह था कि हमें अपने घर-दुआर से रिश्ता नाता बनाए रखना चाहिए। बुजुर्गवार अपनी जगह सही थे। लेकिन मैं उनको क्या बताता कि मेरे पापा भी इसी सोच के थे। वह तो रिटायरमेंट के बाद गांव में ही स्थाई रूप से बसने का सपना संजोए हुए थे। मगर चौथे नंबर के जो चाचा तब यहां सर्वेसर्वा बने हुए थे, वह संपत्ति के लालच में ऐसे अंधे हुए थे, कि सारे भाइयों के इकट्ठा होने पर नीचता की हद तक विवाद करते थे।

शुरू में तो कई बरस बाहर रहने वाले तीनों भाई बरदाश्त करते रहे। और हर शादी-विवाह,बड़े त्योहारों, जाड़ों और गर्मी की छुट्टियों में परिवार के साथ आते रहे। लेकिन आते ही यह चौथे चाचा जो तमाशा करते घर में, बाबा, दादी को भी अपमानित करते, उससे सभी का मन धीरे-धीरे टूट गया। फिर बाबा की डेथ हो गई। दादी को पापा अपने साथ लेते गए। फिर वह आजीवन साथ रहीं। बीच में कुछ दिनों के लिए दूसरे चाचा के पास कानपुर भी गईं।

वह चौथे चाचा की बदतमीजियों उनके अपमानजनक उपेक्षापूर्ण व्यवहार से इतना दुखी इतना आहत थीं कि गांव छोड़ते वक्त फूट-फूट कर रोई थीं। चौथे चाचा का नाम ले कर कहा था ‘अब हम कब्बौ ई देहरी पर क़दम ना रक्खब।’ और दादी ने अपना वचन मरकर भी निभाया। वह दुबारा लौट कर जाने को कौन कहे फिर कभी गांव का नाम तक नहीं लिया। और जब दादी चली आईं तो पापा और बाकी दोनों भाइयों ने भी गांव जाना लगभग बंद कर दिया।

उन बुजुर्गवार को क्या बताता कि चौथे चाचा की बदतमीजियों से जब दादी हमेशा के लिए घर छोड़ कर चली गईं, वह दादी जी जो पहले पापा और दूसरे चाचा के यह कहने पर कि ‘अम्मा चलो कुछ दिन हम लोगों के साथ रहेा।’ तो कहती थीं, ‘नाहीं, चाहे जऊन होई जाए, हम आपन घर दुआर छोड़ि के कतो ना जाब।’ ऐसे में यहां हम लोगों के आने का कोई स्कोप कहां रहा। वही चाचा जो संपत्ति के लिए अंधे हुए थे। भाइयों का हक मार-मार कर प्रयाग में और इस गांव में भी अलग एक और मकान बनवाया था। बाद में उनका जीवन बहुत कष्ट में बीता। सबसे हड़पी संपत्ति पांच लड़कियों की शादी में चली गई।

यह पांच कन्या रत्न उन्हें पुत्र रत्न के लोभ में प्राप्त हुईं थीं। पुत्र रत्न उनकी सातवीं या आठवीं संतान थी। और आखिरी भी। जिन दो कन्या रत्नों ने शिशुवस्था में ही स्वर्गधाम कूच कर दिया था उनके लिए चाचा-चाची कहते। ‘हमार ई दोनों बिटिये बड़ी दया कई दिहिन। नाहीं तअ शादी ढूढ़त-ढूढ़त प्राण औऊर जल्दी निकल जाई।’ बुजुर्गवार के बताए रास्ते पर चल कर मैं अपने सबसे छोटे चाचा पांच नंबर वाले के घर के सामने रुका। उन्होंने भी अपना अच्छा खासा बड़ा मकान बनवा लिया है। घर के लॉन में मोटर साईकिल खड़ी थी। दरवाजे खिड़की सब बंद थे। गर्मी ने सबको कैद कर रखा था। अब गांव में यही एक चाचा रह गए हैं।

जीप से उतर कर मैंने दरवाजे को कुछ समयांतराल पर खटखटाया। दो बार कुंडी खटखटाते वक्त बचपन का वह समय याद आया जब बाबा थे। और बड़े से घर में सारे दरवाजों में बड़ी-बड़ी भारी सांकलें लगी थीं। बेलन वाली कुंडियां नहीं। करीब दो मिनट बाद छब्बीस सताइस वर्षीया महिला ने दरवाजा खोला। मैं उसे पहली बार देख रहा था। वह शायद सो रही थी।

मेरे कारण असमय ही उसकी नींद टूट गई थी। इसकी खीझ उसके चेहरे पर मैं साफ पढ़ रहा था। खीझ उसकी आवाज़ में भी महसूस की जब उसने पूछा ‘किससे मिलना है?’ मैंने चाचा का नाम बताया तो बोली ‘वो सो रहे हैं। बाद में आइए।’ तो मैंने कहा ‘उन्हें उठा दीजिए। मैं जौनपुर से आ रहा हूं। वो मेरे चाचा हैं।’ मैंने उसे परिचय दे देना उचित समझा। चाचा कहने पर वह थोड़ी सतर्क हुई और अंदर जाकर जो भी कहा हो करीब पांच मिनट बाद चाचा का छोटा लड़का बाहर आया। मुझे उसे भी पहचानने में थोड़ा समय लगा।

उससे मिले भी बहुत समय बीत गया था। इसके पहले मैं उससे तब मिला था जब वह हाईस्कूल में था। दाढ़ी-मूंछें शुरू ही हुईं थीं। अब वह पौने छः फीट का लंबा चौड़ा युवक था। उसने पहचानते ही पैर छुआ और कहा ‘आइए भइया।’ दरवाजे के अंदर क़दम रखते ही हम ड्रॉइंगरूम में थे। लगभग बीस गुणे पचीस का बड़ा सा कमरा था। जो ड्रॉइंगरूम की तरह मेंटेन था। एक तरफ सोफा वगैरह पड़ा था। दूसरी तरफ तखत पर चाचा सोते दिखाई दिए। बीच में एक दरवाजा भीतर की ओर जा रहा था। दरवाजे पर पड़े पर्दे की बगल से जैसी तेज़ लाइट आ रही थी उससे साफ था, कि उधर बरामदा या फिर आंगन था।

मुझे सोफे पर बैठने को कह कर चचेरे भाई, जिसका नाम शिखर है ने अपनी पत्नी को मेरा परिचय बताया। तो उसने भी मेरे पैर छुए। साथ ही उलाहना देना भी ना भूली कि ‘भाई साहब आप लोग शादी में भी नहीं आए इसीलिए नहीं पहचान पाए।’ मेरी इस भयो यानी छोटे भाई की पत्नी ने ही दरवाजा खोला था। उसकी शिकायत उसका उलाहना अपनी जगह सही था। उसने जिस तेज़ी से उलाहना दिया उससे मैं आश्चर्य में था। क्योंकि वह उलाहना दे सकती है मैंने यह सोचा भी नहीं था। लेकिन मैं यह भी सोचता हूं कि मैं भी अपनी जगह सही था।

उसके ही सगे श्वसुर और मेरे इन्हीं छोटे चाचा ने एक बार रिवॉल्वर निकाल ली थी अपने बड़े भाइयों पर। जब बाहर रहने वाले तीनों भाइयों ने चौथे नंबर वाले चाचा को समझाने का प्रयास करते हुए कहा था कि ‘हम लोग तो रहते नहीं। तुम दोनों यहां जो कुछ है आधा-आधा यूज करते रहोे। आगे जब कभी हम लोग आएंगे तब देखा जाएगा। कम से कम रिटायर होने तक तो हम लोग आ नहीं रहे।’

इस पर चौथे चाचा बिफर पड़े थे कि ‘मेरा परिवार बड़ा है। सारी प्रॉपर्टी की देखभाल, मुकदमेंबाजी सब मैं संभालता हूं। चाहे कुछ भी हो जाए। धरती इधर से उधर हो जाए लेकिन मैं आधा नहीं दूंगा।’ सबने सोचा कुछ हद तक यह सही कह रहे हैं। छोटे चाचा वैसे भी महीने में पांच-छः दिन ही रहते हैं। बाकी दिन तो यह इलाहाबाद में अपनी नौकरी में रहते हैं। तो सबने सलाह दी कि चौथे का कहना सही है। पैंसठ-पैंतीस के रेशियों में बांट लो तुम दोनों।

बस इतना कहना था कि यही चाचा बमबमा पड़े थे। बिल्कुल इसी गांव के बम-बम पांड़े की तरह। जो अपनी खुराफातों से पूरे गांव को परेशान किए रहते थे। परिवार को भी। एक होली में भांग में मदार के बीज ना जाने किस झोंक में पीस गए। ज़्यादा मस्ती के चक्कर में ऐसा मस्त हुए कि यह लोक छोड़ कर परलोक चले गए। मगर पीछे किस्से बहुत छोड़ गए। इन्हीं की आदतों से इंफेक्टेड यही चाचा तब अपनी पत्नी का नाम लेकर चिल्लाए थे ‘निकाल लाव रे हमार रिवॉल्वर, देखित हई अब ई बंटवारा कैइसे होत है। हम छोट हैई त हमके सब जने दबइहैं। लाओ रे जल्दी।’

और मूर्ख चाची ने भी अंदर कमरे से रिवॉल्वर निकाल कर चाचा को थमा दी थी। ये अलग बात है कि ये चाचा उस रिवॉल्वर का कुछ प्रयोग करते उसके पहले ही गश खाकर गिर पड़े। बंटवारे की बात जहां शुरू हुई थी। वहीं खत्म हो गई। इसके बाद तीनों भाई तभी गांव पहुंचे जब इन दोनों भाइयों के बच्चों का शादी ब्याह हुआ या ऐसा ही कोई भूचाल आया। अन्यथा भूल गए अपना गांव, अपना घर, संपत्ति। फिर इन दोनों ने अपने मन का खूब किया। जो चाहा खाया-पिया, बेचा। जो चाहा अपने नाम कर लिया।

बाकी भाइयों के नाम बस वही खेत, बाग बचे रह गए। जो कानूनी अड़चनों या भाइयों के हाजिर होने की अनिवार्यता के कारण बेच या अपने नाम नहीं कर सकते थे। यहां तक कि पड़ाव पर की छः दुकानों में से पांच फर्जी लोगों को खड़ा कर बेच ली और पैसे बांट लिए। जिसका पता दसियों साल बाद चल पाया। और मैं ऐसे ही चाचाओं में से एक सबसे छोटे वाले से मिलने के लिए उन्हीं के ड्रॉइंगरूम में बैठा था।

अपने रिवॉल्वर वाले चाचा से। वो सो रहे थे। लड़के ने मेरे मना करने के बावजूद उन्हें जगा दिया। उन्होंने आंख खोली तो उसने मेरे बारे में बताया। सुनकर वह उठ कर बैठ गए। उन्हें उठने में बड़ी मुश्किल हुई थी। दोनों हाथों से सहारा लेते हुए मुश्किल उठ पाए थे। उनके उठने से पहले मैं उनके पास पहुंच गया था। उनके बैठते ही मैंने उनके पैर छुए। उन्होंने सिर ऊपर उठा कर एक नजर देखकर कहा ‘खुश रहो।’

फिर सिरहाने रखे चश्में का बॉक्स उठाया। चश्मा निकाल कर पहना। मैंने देखा वो पैंसठ की उम्र में ही अस्सी के आस-पास दिख रहे थे, बेहद कमजोर हो गए थे। मुझे हाथ से बगल में बैठने का संकेत करते हुए जब उन्होंने बैठने को कहा, लेकिन मैं संकोच में खड़ा ही रहा तो बोले ‘बैइठअ बच्चा।’ कांपती आवाज़ में इतना भावुक होकर वह बोले की बिना देर किए मैं बैठ गया।

वह मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोले ‘बेटा हम मानित हई कि हमसे बहुत गलती भयबा। एतना कि भुलाए लायक नाहीं बा। का बताई, ओ समय जैइसे मतिए (दिमाग) भ्रष्ट होइगा रहा। तीनों भइया के साथे बहुत अन्याय किहे। बचवा ओकर (उसकी) हम बहुत सजौ(सजा,दंड) पाय चुका हई। तीनों भाई लोग हम्मै एक दमैं त्याग दिेहेन।

ए बच्चा हम बादे में बहुत पछताए। मगर तब ले बहुत देर होय चुकी रही। मुठ्ठी से सारी रेत निकरि कै जमीने मा बिखर चुकी रही। तीनों भाइन से माफियू (माफी) मांगे के हिम्मत नाय रहि गई रही। भगवान एतनै सजा से शांत नाय भयन। अम्मा (अम्मा, मां) रिशियाय (गुस्सा) कै चली गईन। फिर लौटिन नाय कभौ। आखिर जीतै (जिवित) जी ओन्हें फिर देईख नाय पाए। ई तअ तीनों भाइयन के कृपा रही कि उनके मरै पर खबर दैई दिहेन तअ आखिर दर्शन कई लिहै।’ चाचा इतना कहते-कहते फ़फ़क कर रो पड़े। वह सब एक सांस में बोलते चले गए थे।

जैसे ना जाने उनको कितने बरस से इसका इंतजार था कि कोई मिले जिससे वह अपना पश्चाताप, पछतावा मन का दुख-दर्द कह सकें। वह बिलख कर ऐसे रोने लगे कि मुझसे भी देखा नहीं जा रहा था। मैं भावुक हो रहा था। मैंने प्यार स्नेह से उनके कंधों को पकड़ कर कहा ‘चाचा जी शांत हो जाइए, जीवन में इस तरह की बातें हो ही जाती हैं।’ मैंने समझाने के लिए कहा ‘हम लोगों के हाथ में तो कुछ है नहीं। समय जो चाहता है करा लेता है। अपने को आप इतना दोष देकर परेशान मत होइए। जो होना था वह हो गया। अब शांत हो जाइए।’

इस पर वह हिचकते हुए बोले ‘नाहीं बच्चा, जऊन नाय होय के रहा ऊ.. होइगवा। इहै नाते हमै एतना दुख बा कि अब जिय कै मन तनको नाय करत। भगवान जाने कब उठैइहें..।’ वह फिर हिचक पडे़ तो मैंने समझाते हुए कहा ‘चाचा इस तरह सोचने की कोई जरूरत नहीं है। अभी आप को बच्चों के साथ बहुत दिन रहना है। फिर कहता हूं जो हुआ भूल जाइए। हर घर में ऐसा होता ही रहता है। अब इतनी पुरानी बातों को लेकर परेशान होने का कोई मतलब नहीं है।’

मुझे लगा कि बात को दूसरे ट्रैक पर लाए बिना यह शांत नहीं होंगे। तो बात बदलते हुए कहा ‘शिखर पानी लाओ बहुत गर्मी हो रही है।’ मेरी बात सुनते ही उसकी पत्नी अंदर गई और करीब दस मिनट बाद चार गिलास पानी, एक प्लेट में पेठा लेकर आई। मैं इस बीच चाचा को दूसरे ट्रैक पर ला चुका था। पूछने पर मैंने बता दिया कि घर पर बीवी, बच्चे सब ठीक हैं। मां की तबियत बराबर खराब रहती है। डॉक्टर, दवा के बिना कोई दिन नहीं जाता। पापा की डेथ के बाद से अब तबियत ज़्यादा खराब रहती है। दोनों छोटे भाई भी ठीक हैं। पानी आने पर मैंने अपने हाथों से उन्हें एक पीस पेठा खिलाकर पानी पिलाया।

पानी पीने के बाद बोले ‘बच्चा सही गलत के जब तक ठीक से समझे तब तक सब बिगड़ चुका रहा। सब जने घर छोड़-छाड़ के जाय चुका रहेन। हमहिं ईहां अकेले पड़ा हई। केऊ बोले बतियाय वाला नाहीं बा। बस ईहै दुअरिया, ईहै तखत औउर सबेरे उहै हनुमान जी का मंदिर। इहै बा हमार कुल दुनिया। बाबू ई मंदिरवा ना बनवाए होतेन तअ इहो कुछ ना होत। हनुमान जी से हमें बहुत शिकायत बा। समय रहते हमै कुछ चेताएन नाहीं। बुधिया (बुद्धि)एकदमैं भ्रष्ट कई दिहे रहेन। हम सबै जने से लड़ि-लड़ि कै सबके दुश्मन बनाए लिहे। एतना दुश्मन बनाए लिहे कि बचवा जब तोहार चाची मरिन केऊ भाई, भतीजा दुआरी तक नाई आवा।

मुन्नन भइया एतना रिसियान रहेंन, ऐइसन दुश्मनी निभाएन कि बगलिए में रहि के नाहीं आएन। पूरा परिवार किंवाड़ी (दरवाजा) बंद किए पड़ा रहा। तोहरे चाची के अर्थी उठी, गांव पट्टीदार के लोग आएन। मगर ऊ दरवाजा नाहीं खोलेन। ए बच्चा करेजवा एकदम फटि गअअ, कि एतना बड़ा परिवार, इतना मनई घरे में, मगर केऊ आय नाहीं रहा। आपन केऊ नाय रहा। बच्चा तब बहुत बुरा लागि रहा। मगर बाद में सोचे, ना हम लड़ित सब से, ना ऐइसन दिन देखेक पड़त।’ चाचा फिर भावुक होते जा रहे थे।

बहू को शायद अच्छा नहीं लग रहा था। या जो भी रहा हो वह बोल उठी ‘बाबू भइया के थोड़ा आराम करे दा। कुछ खा पी ले दा। फिर बतियाए।’ चाचा को बहू की बात से जैसे ध्यान आया कि अभी ऐसी बातों का समय नहीं है। वह तुरंत बोले-.. ‘हां.. हां...। लइ आओ कुछ बनाय कै।’ इतना सुनकर वह अंदर चली गई। मैं अब भी चाचा के बगल में ही बैठा था। शिखर जो बड़ी देर से चुप खड़ा था वह बोला ‘भइया आइए इधर आराम से बैठ जाइए।’ उसके कहने पर मैं सोफे पर आराम से बैठ गया। लेकिन गर्मी से हाल-बेहाल था। पसीने को कानों के बगल में रेंगता महसूस कर रहा था। चाचा की बात सुनते-सुनते रुमाल निकालना भूल गया। ड्रॉइंगरूम में दो-दो सीलिंग फैन लगे हुए थे।

लेकिन उनके सहित टीवी वगैरह सब बंद पड़े थे। बिजली नदारद थी। शिखर से मैंने हाथ वाला ही पंखा मांगा जो एक चाचा के पास और एक उनके पीछे रखी छोटी सी एक मेज पर पड़ा था। शिखर ने खुद हवा करने की सोची लेकिन मैंने उसके हाथ से पंखा ले लिया। थोड़ी देर में उसकी पत्नी सूजी का हलुवा, पानी लेकर आई। नाश्ता करते हुए पूछने पर मैंने बता दिया, कि ‘मैं अपने सारे खेत बेचने आया हूं।’ फिर मैंने सारी घटना बताते हुए कहा ‘मैंने सोचा कि जब आया हूं तो आप सब से मिलता चलूं।’

चाचा बोले ‘बहुत बढ़िया किहे बच्चा। अब आवा-जावा किहे। अब हम ज़्यादा दिन के मेहमान नाहीं हई। हमार ता मन इहै बा भइया कि हम बड़ लोग जऊन गलती किहे। सारा परिवार कभौ मिलके नाहीं रहा। अब कम से कम तू सब जनै आपस में रिश्ता बनाए रहा। बाप-दादा जऊन लड़ेन-भिड़ेन, गलती किहेन अब हम बच्चा चाहित हई कि लड़िका बच्चा ओसे मुक्ति पाय जाएं। मिल-जुल कै रहें। जाने बच्चा, रिश्ता बनाए राखे। मिल-जुल के रहे में बहुत खुशी बा। सारी खुशी इहे में बा।

बच्चा आपन अनुभव हम बतावत हई कि हम लड़ि-भिड़ के, अलग रहिके देख लिहे। सिवाय घुट-घुट के जिए, भीतर-भीतर तड़पै, अपने के गलाए के अलावा कुछ नाहीं मिला। सोचा बच्चा हम केतना अभागा हई कि अपने भतीजन, भतीजी, भानजी, भानजों के बारे में भी कुछ नाहीं जानित। कऊन कहां बा। का करत बा, कइसन बा। अब तोहके देइख कै तुरंते नाहीं पहिचान पाए। बतावा केतना बड़ा अनर्थ हऊवे कि हम अपने भतीजा के नाहीं जानित।’

चाचा बोलते ही जा रहे थे। पश्चाताप की आग में बुरी तरह तड़प रहे अपने चाचा को देख कर मैंने सोचा कि आखिर आदमी को अपनी गलतियां आखिरी समय में ही क्यों याद आती हैं। जब गलतियां लगातार करता रहता है तब उसे अपनी गलतियों का अहसास क्यों नहीं होता। चाचा अब जो आंसू बहा रहे हैं क्या उनके पास तब सोचने-समझने की ताकत नहीं थी जब बड़े-भाइयों पर रिवॉल्वर तान रहे थे। उस समय क्रोध में, आवेश में गोली चल भी सकती थी। किसी भाई की जान भी जा सकती थी। मैंने सोचा आखिर मैं आया ही क्यों? इन्होंने जो किया उसके बाद तो कोई रिश्ता बरसों-बरस से था ही नहीं।

गांव मैं सिर्फ़ खेत बेचने आया था। मन में तो इस तरफ आने की कोई बात थी ही नहीं। फिर खरीददार के मर जाने के कारण उसके यहां गया। वहां सब का रोना-पीटना देखकर ही अचानक याद आई थी इन चाचा की। और फिर कदम जैसे अपने आप ही इस तरफ बढ़ते चले आए थे। वह भी इन चाचा के लिए जो खेत, मकान, दुकान के बंटवारे के प्रकरण पर मेरे फादर से भी बराबर बदतमीजी से पेश आए थे।

मेरी मां, हम भाई-बहनों को भी क्या-क्या नहीं कहा। आखिर क्या हो गया मुझे, कि मैं इनके बारे में सोच बैठा। और क़दम इधर ही बढ़ते चले आए। क्या इसे ही कहते हैं कि खून खींचता है।.....चाचा की बातें उनकी बहू को शायद अच्छी नहीं लग रही थीं। वह फिर बोल पड़ी ‘बाबू भइया सफर में थक गए होंगे। उन्हें आराम करने दिजिए।’ चाचा को उसकी बात ठीक नहीं लगी। वह थोड़ा रुक कर बोले, ‘अरे तू तअ हमके बोलेन नाहीं देत हऊ।’ फिर तुरंत ही बोले ‘हां भइया सही कहत बा। थका होबा आराम कई ला।’ मैंने देखा लड़का शिखर बातों में ज़्यादा शामिल नहीं हो रहा था। लगा जैसे वह खिंचा-खिंचा सा रहता है अपने पिता से। बहू भी थोड़ी तेज़ लग रही थी। सलवार सूट पहने, दुपट्टा गले में लपेटे थी।

मेरे दिमाग में बचपन की कुछ बातें याद आ गईं। छुट्टियों में आने पर यही़ चौथे,पांचवे चाचा अम्मा दोनों चाचियों के घूंघट ना निकालने पर नाराज होते थे। बाबा, दादी से शिकायत करते थे कि ‘बबुआइन लोगन के देखत हैंय, लाज-शरम तअ जइसे धोए के पी गईंन हैं। भइया लोग खोपड़ी पै चढ़ाए हैयन। शहर मां का रहैय लागिन है खोपड़ी उघारे चले की आदत पड़ि गै बा।’ बाबा कुछ ना बोलते। दादी बार-बार कहने पर मौन रह कर अपना विरोध प्रकट कर देतीं। गांव की कोई भी महिला आ जाए तो भी यह लोग नहीं चाहते थे कि मां, चाची लोग उनके सामने आएं। अब देख रहा था वही चाचा कैसे कितना बदल गए हैं। सबसे छोटी बहू एक तरह से उन्हें डपट रही थी। घूंघट की तो बात ही छोड़िए। सलवार सूट में है। दुपट्टा है तो लेकिन उसका प्रयोग फ़ैशन के लिए था। गले में लपेट रखा था। बोलने में कोई हिचक नहीं थी।

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