व्यंग्य--
चुनाव ऋतु –संहार
यशवंत कोठारी
हे!प्राण प्यारी .सुनयने ,मोर पंखिनी ,कमल लोचनी,सुमध्यमे , सुमुखी कान धर कर सुन और गुन ऐसा मौका बार बार नहीं आता ,इस कुसमय को सुसमय समझ और रूठना बंद कर ,चल आ जा ,मइके से लौट आ वहां रहने की ऋतुएं तो और भी आ जायगी .लेकिन हे मृग नयनी यह जो चुनाव रुपी बसंत आपने बाणों के साथ हिमालय से उतर कर पूरे आर्याव्रत में महंगाई की तरह बढ़ रहा है ,ऐसा सुअवसर बार बार नहीं आता है.इसका स्वागत करने के लिए तू मेके से लौट आ.
देख! बाहर खिड़की से बाहर देख ,कैसी हवा चल रही है .वृक्षों,पेड़ पौधों ,मैदानों ,पहाड़ों और नदी नालों पर यह जो इंद्र धनुषी रंग छा गया है ,यह आकरण नहीं है.जरूर इसका राज है और राज की निति है और नीति का राज है.जो समझे है वे इस चुनावी वैतरणी को पार पा लेंगे. और जो नासमझ है वे सदा की तरह इस भंवर में डूब जायंगे.
हे! सुमुखी, सुनो चारों ध्वनि विस्तारक यंत्रों के कारण कैसा शोर व्याप रहा है.दिग दिगंत गूँज रहे हैं.ये मंगल स्वर अवश्य ही किसी कारण विशेष से आ रहे हैं.जरा देखो बाहर नव ऋतुराज चुनाव तो अपनी प्रत्यंचा पर बान नहीं चढ़ा रहा है.प्रत्येक नगर की हर दिवार पर लगे ये नाम पट्ट बिल, पोस्टर ,आदि किस पुन्य चीज का समरण करा रहे हैं?हे, सखी तू देख तो सही बाहर आमों के बाग में ये कैसी कोयालियाँ –मत दो,वोट दो कूक रहीं है.बिचारे पपीहे इस मौसम में सर्दी गर्मी की परवाह किये बगेर कैसे बरसाती मेंढकों की तरह टर्र टर्र कर रहे हैं ,जरूर कोई विशेष बात है,क्यों सखी?
और देख,सदा सूखा रहने वाला नगरपलिका का यह नल हवा की जगह पानी दे रहा है,नगर निगम की लाइटें ठीक हो रही है.सड़कों की मरम्मत व् मत दाताओं की हजामत एक साथ हो रही है,जरूर कुछ अघटनीय घट रहा है.देख पार्टी दफ्तरों के सामने ये लम्बी और सघन क्यू क्यों लग रही है?टिकिट के आकांक्षी मृत प्राय मुर्दे भी सहारा लेकर क्यू में खड़े हो रहे हैं. चारों और अभिसारों की ,मनुहारों की मानापमानों की , कम्पन की, आशा की ,निराशा की ,भाषा मौन की पिने पिलाने की असीम कोशिशें जारी है .ये किसी बड़े उत्सव की पूर्व वेला है.कही अबोला है तो कही अघोरी है ,तो कही तांत्रिको का डेरा है तो कहीं ज्योतिषी का फेरा है ऐसे अपूर्व क्षण अकारण नहीं आते ,सखी तू भी बहती गंगा में हाथ धो ले.तेने कभी सोचा कि ये नव कुबेर ,नवराजा तेरी झोपडी पर आये और करबद्ध खड़े रहे ,देख यह कोई सपना नहीं है,साक्षात् वोटों के भिखारी तेरे द्वार पर खड़े हैं,जैसे –तेरे द्वार खड़ा रे जोगी भगत भर दे रे वोटों की झोली.
प्राण प्रिये !देख यह रा जा प्रजा पर कम्बल,मदिरा ,धन धान्य ,आश्वासनों की कैसी निरंतर वर्षा कर रहे हैं?इस सुखद घडी को देख आकाश से देवता पुष्प वर्षा कर अपने जीवन को सार्थक कर रहे हैं.
सुनयने,तुम तो वाक्विलास में जगत प्रसिद्द हो ,चूको मत और वार करो.इस कठिन परीक्षा में अगर तुम पास हुईं तो सिंहासन और मंत्री पद चरण चूमेंगे ,यदि यह न हो सका तो हारा हाथी सवा लाख का ,तुम ढाई लाख की हो जा ओगी .
हे प्राणवल्लभे ,दिग दिगंत गूँज रहे हैं,सेकड़ों कृष्ण सेकड़ों अर्जुनों को चुनावी गीता का उपदेश देकर इस महाभारत में उतरने का आव्हान कर रहे हैं.सोशल मीडिया के वैज्ञानिक रिपुदल का नाश करने में दिन रात लगे हुए हैं,और विशेषज्ञ आंकड़ों के माया जाल से सबको भ्रमित कर रहे हैं ,ऐसी मनोहारी बेला में आओ हम भी इन योद्धाओं को प्रणाम करे और अपना जीवन कृतार्थ करें.
हे सुभद्रे ,देख चारों और मतों के बारे में क्या क्या भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं,यह पेसठ्वी कला पूर्ण रूपेण भारतीय है,जो सब कलाओं. में श्रेष्ठ है.सभी प्रकार के आसन,प्राणायाम,योग सी ख कर योद्धा इस मैदान में आये है.
ऋतु वर्णन के इस मौके पर कालिदास,पद्माकर,बिहारी को भूलना असंभव है .कालिदास ने तो ऋतु वर्णन के नाम पर क्या क्या लिख दिया है.ऐसी दीपमालिका तो उज्जैन के रा जा के वक्त भी नहीं हुयी होगी.
देखो सखी,दिल्ली का क्या वर्णन करूँ दिल्ली तो बस दिल्ली है ,इस बिल्ली के गले में घंटी कौन बंधे.इधर पिछले वायदों की याद जनता को उसी तरह आरही है जिस तरह प्रेमियों की याद विरहनियों को आती है.सत्ता और कुर्सी के विरह में डूबे नेताओं को अपनी नौका के खवेय्या की तलाश है.
चुनावी कामदेव भी इस बार पांच फूलों के बान छोड़ रहे हैं.और बेचारे नेता जनता के चरणों में साष्टांग दंडवत कर रहे हैं.
अस्तु,हे सुनयने,सुमुखी,प्राणवल्लभे,मृग लोचिनी,घने ,लम्बे,काले केशों की स्वामिनी,सिंह वाहिनी तू मेके से लौट आ मुझे तुम्हारे कुवारे हाथों से लिखे भाषण की अत्यंत आवश्यकता है.
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यशवंत कोठारी,८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी बाहर ,जयपुर -३०२००२मो-९४१४४६१२०७