घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 4
वह आदमी मुझे गजब का चतुर और शातिर नज़र आया था। लाख कोशिश के बाद भी वह खुलता नहीं था। कोई उम्मीद ना देख झक मार कर मैं अपनी राह हो लेता था। पांववीं बार भी हाथ मलने के सिवा कुछ नहीं मिला। मन में झोपड़ी वाली कमला को लिए पूरी रात राधानगर वाली कमला के साथ बिताई थी। देर रात राधानगर वाली सो गई थी लेकिन मैं नहीं सो पाया। करीब सवा सौ किलोमीटर गाड़ी चला कर गया था। थका था फिर भी नहीं। थकान शायद कमला के साथ ने उतार दी थी।
मैं बेड के सिरहाने टेक लगा कर बैठा था। लाइट का टोटा और फतेहपुर का साथ जनम-जनम का है। इनवर्टर के सहारे पंखा धीरे-धीरे राहत दिए हुए था। निश्चिंत सी कमला बगल में लेटी थी। मैंने उसके चेहरे पर गौर से नज़र डाली। वहां मुझे वह निश्चिंतता नज़र नहीं आई जो झोपड़ी में कमला के चेहरे पर थी। कहने को इस कमला को शारीरिक रूप से सभी बल्कि मैं भी बहुत खूबसूरत कहूंगा। मगर इस खूबसूरती में मुझे उस स्वाभाविकता की कमी नज़र आ रही थी जो झोपड़ी में थी।
झोपड़ी वाली कमला के तन की वह दिमाग में पहुंच जाने वाली तीखी गंध मुझे ज़्यादा मादक लग रही थी इस सोई हुई कमला के कॉस्मेटिक सुगंध से।
इस सोई कमला के तन की अपनी मौलिक नैसर्गिक गंध तो कहीं से अपना अहसास करा ही नहीं रही थी। सारी नैसर्गिक ब्यूटी तो इसके कैमिकल वाले स्प्रे ने सोख ली थी। जिस नैसर्गिक ब्यूटी का मैं दीवाना हूं वह मुझे पूरी तरह से विशाखा में मिली थी। इसी लिए मैं उसका दिवाना बना और अब भी हूं और आजीवन रहूंगा। मुझे इस चीज का अच्छी तरह अहसास है कि अपने लिए मेरी इस दीवानगी का विशाखा पूरा फायदा उठाती है।
मेरी यह मनोदशा जब मैं सुबह लखनऊ के लिए चला तब भी बनी रही। मन में झोपड़ी वाली कमला के पास पहुंचने की जल्दी थी। जिससे मिलने की कोशिश महीने भर से कर रहा था। उस दिन मेरे भाग्य ने साथ दिया। मैं जब ग्यारह बजे उसकी झोपड़ी के सामने रुका तो वह उसी स्टूल पर बैठी मिली जिस पर उसका लंबू बांस सा सूखा पतला आदमी मिलता था। ऐस दुबला स्कैल्टन जैसा आदमी कभी कभार ही देखने को मिलता है।
कमला को देख कर मुझे बेहद खुशी हुई। जल्दी से गाड़ी खड़ी की, उसके करीब पहुंच कर मुस्कुराते हुए पूछा ‘कैसी हो कमला ?’ ‘हां ... ठीक हैयन हमका का भवा, अब का काम हवै।’ मुझे लगा शायद पहचान नहीं पाई। तो मैंने फिर कहा ‘कमला पहचाना नहीं क्या ?’ उसने सड़क की दूसरी तरफ देखते हुए कहा ‘रातिभर घरि मां राखेन औउर बतावति हौ पहिचानिव ना। आजऊ गाड़ी बिगरी हैय का?’
उसका इस तरह टेढ़ा बोलना मुझे खल गया। मैंने कहा ‘नहीं तुमसे जो पैसे उधार लिए थे वह देने आया हूं।’ यह कहते हुए पांच सौ की नोट उसकी तरफ बढ़ा दी। उसने बिना एक पल देर किए नोट लेकर ब्लाउज में अंदर तक खोंस लिया। फिर सड़क पर ऐसे देखने लगी जैसे देख रही हो कि कोई देख तो नहीं रहा। मुझे उम्मीद थी कि वह पांच सौ देख कर कहेगी कि यह तो ज़्यादा हैं। दो सौ की बात हुई थी। लेकिन वह तो ऐसे ले कर बैठ गई कि मानो बरसों से वह इतने ही का इंतजार कर रही थी। और फिर मिलने की उम्मीद खो चुकी थी। लेकिन अचानक ही मिल गया।
उसके व्यवहार ने मेरे उत्साह पर घड़ों पानी डाल दिया। फिर भी मैंने कहा ‘कमला मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूं।’ इस पर वह बड़ी बेपरवाही से बोली ‘काहे, हमार तुमसे कऊन रिश्ता जऊन हमसे बात करै चाहत हौ। पानी मा भीगौ ना। मार हाथ जोड़ै जात रहो तौ घरि मां ठौरि दई दिन्हीं, तौ तुम हमहिन का लूटि लियो, ना जाने कइस बतियात रहौ कि हम समझिन ना पाएंन। वहि पर ऐसि दारू पियाओ कि हम बौराय गैयन। ना जाने कऊंन मंतर टोना मारेव कि हम समझेन ना पाएन। जब ले जानेन तब लै तौ तुम भागि लिनिहो रहे। अब इत्ते दिन बाद फिर आए हौ। देखेव अकेलि बैठि बस मन लहराय गवा। ठारि होइगेव आए कै। चलो फिर लूटौ यहिका ...। मुला बार-बार थोड़ौ बउरैइब। होइगा याकि बार होइगा। अब ठारि काहे, हौ जाओ। वहिकै आवै का बखत होइ रहा। जाओ। आज गाड़ियु नाय बिगरी। पानिऊ नाय बरिस रहा, जाओ।’
कमला ने अप्रत्याशित रूप से यह ऐसा विस्फोट किया कि मैं कांप उठा। पैरों तले जमीन खिसक गई। पसीने-पसीने हो गया। वह इतना भरी होगी अंदर-अंदर मैंने कल्पना तक ना की थी। मैंने उसके साथ छल किया, लूटा। अकेला जान नशे में करके उसे यूज किया यह ऐसे इल्जाम थे जो असहनीय थे। और यह भी कि मुझे बरसों बरस जेल की हवा खिला सकते हैं। मैंने महसूस किया कि मैं अंदर से कांप रहा हूं। कुछ क्षण अवाक सा उसे देखने के बाद मैंने गाड़ी स्टार्ट की फिर जितना तेज़ वहां से चल सकता था चल दिया। बीच में कहीं गाड़ी नहीं रोकी। सीधे लखनऊ घर पर रुका।
मैं हफ्तों परेशान रहा उसकी बातें याद कर-कर के। उसने महज संयोगवश हुई सारी बातों को बड़ी खूबसूरती से एक साजिश का रूप दे दिया था। स्वयं पहले से नशे में धुत्त थी। अंदर से काफी देर तक मुझे देख कर, बात करके, तसल्ली करने के बाद दरवाजा खोला था। साजिश तो स्वयं की। और साजिशकर्ता मुझे कह रही थी।
इस बीच राधानगर की कमला से बात करता रहा लेकिन वहां भी वही डर कहीं मन में बैठ गया कि कहीं यह भी किसी दिन ऐसे ही आरोप ना मढ़ दे। आए दिन ऐसे केस आ रहे हैं कि दो-दो, तीन-तीन साल बाद यौन शोषण का आरोप लगा-लगा कर बहुत सी औरतें लोगों को तबाह कर दे रही हैं। जेल भिजवा दे रही हैं। फैसला देने वाले न्यायमुर्ति तक नहीं बच रहे। यह डर मुझे इस कदर सताने लगा कि मैंने तय कर लिया कि राधानगर वाली कमला से भी तौबा। वह भी कौन सा मुझ पर जान छिड़कती है।
जिस दिन पति के आने का प्रोग्राम होता है, उस दिन आने से तो सख्ती से मना करती ही है। फ़ोन पर दो मिनट बात भी नहीं करती। उसके प्यार मोह में उस बारिस की रात मरते-मरते बचा। कितने नखरे दिखाती है। उन्हें जितना उठाता हूं उतना विशाखा के उठाऊं तो वह तो हाथो-हाथ लेगी। इन उलझनों के बीच रह-रह कर मुझे बेटे और विशाखा की याद अब बहुत ज़्यादा कचोटने लगी। फिर एक दिन सारे अहं, सारे शक हटा कर विशाखा के पास पहुंचा। पहले तो वह सख्त बनी रही लेकिन बच्चे के भविष्य और बेटे की बार-बार मेरे पास चलने की जिद, गाड़ी को पटरी पर ले आई।
मगर विशाखा अब भी कहीं अहं के दायरे से पूरी तरह बाहर नहीं आ पाई थी। तो गाड़ी पटरी पर दौड़ सके यह सोच कर मैंने कहा नाम ‘वगैरह जो जैसा चाहो करो मगर ऐसी बातों के लिए जीवन नीरस ना बनाओ। सिंगिल पैरेंटिंग तपता रेगिस्तान सरीखा है। जिसकी तपिस जीवन भर जलाती है और जला-जला कर ही खत्म कर देती है।’ उसकी शर्तों को सुनकर मैंने कहा ‘हम एक परिवार हैं विशाखा,कोई पोलिटकल पार्टीस का समूह नहीं कि मिनिमम साझा प्रोग्राम के तहत परिवार चलाएं।’ कई बार की कोशिशों के बाद अंततः मैं उसे साथ लाने में सफल हो गया।’
घर आने से पहले मेरी इस बात को उसने बचकानी हरकत कहा था कि ‘धार्मिक आस्था हमारे बीच टकराव बन रही है तो क्यों न हम दोनों अपना-अपना धर्म छोड़ कर कोई तीसरा धर्म अपना लें ।’ उसके घर आने के बाद बेटे हिमांक के साथ मुझे लगा जैसे स्वर्ग मिल गया। मैं उस वक़्त चौंक गया जब मैं सदैव की भांति अकेले ही मंगल के दिन हनुमान जी की पूजा कर रहा था तो वह स्वयं ही बेटे के साथ उसमें शामिल हो गई। उसके बदले रूप ने मुझे ऐसा बदला कि मैंने राधानगर वाली कमला को फ़ोन करना भी बंद कर दिया।
मुझे लगा यह सब कर के मैं अपने ही हाथों से अपने घर संसार में आग लगा रहा हूं। सबसे बड़ी बात यह कि यह सब होने के बाद मुझे अपनी ज़िंदगी बड़ी स्मूथ लगने लगी। इस बीच मेरे लिए एक अच्छी खबर और रही कि दिल्ली के एक जिस बड़े अखबार में जाने की कोशिश मैं बहुत दिनों से कर रहा था। एक केंद्रिय मंत्री से पूरा जुगाड़ लगाया था। वह काम करीब-करीब हो गया था। अच्छी सैलरी बड़ा अखबार दोनों थे। मंत्री जी की कवित्री पत्नी ने इस काम में अहम भूमिका निभाई थी। अपनी इस नौकरी से दो-चार दिन में इस्तीफा देने का निर्णय कर चुका था। यह निर्णय मैंने विशाखा से विचार-विमर्श कर किया था।
इस्तीफे का निर्णय लेने के बाद मेरा मन नहीं लग रहा था। इसी बीच एक दिन पहुंचा तो सीनियर रिपोर्टर एक रेड की बड़ी रिपोर्ट लेकर हाजिर हुआ। एस.टी.एफ. ने एक बड़ी रेड बन्नांवा के पास ही कर हाथियारों और बम बनाने के सामान के साथ कुछ लोगों को गिरफ्तार किया था। शुरुआती जांच में गिरफ्तार लोग बंग्लादेशी घुसपैठिए निकले थे। रिपोर्ट पर एक नजर डाल कर मैंने रिपोर्टर से कहा ‘क्या जरूरत है इस मुददे पर इतनी मेहनत करने की। जानते तो हो यह सब अपने अखबार में छप नहीं सकता।’ उसने तर्क दिया ‘लेकिन सर यह आज की बहुत बड़ी खबर है। देखिएगा कल यह सारे अखबार की सबसे बड़ी खबर होगी। अपने में ना फर्स्ट लीड सेकेंड लीड खबर तो जानी ही चाहिए।’ उसने एक के बाद एक तमाम तर्क दे डाले। वह अपनी मेहनत जाया नहीं होने देना चाहता था। मैंने कहा ‘अच्छा ठीक है, देखता हूं। फर्स्ट लीड लायक रही तो फर्स्ट लीड ही बनेगी।’
उसके जाने के बाद मैंने रिपोर्ट ध्यान से पढ़ी। उसकी बात सही थी बड़ी खबर थी। टी.वी. चैनलों पर दोपहर से ही यह खबर चल रही थी। सबसे पहले दिखाने के दावे के साथ। लेकिन हमारे रिपोर्टर ने कई ऐसी बातें कहीं थीं जो किसी चैनल पर नहीं थीं। रिपोर्ट पढ़ कर मैं भीतर-भीतर डर गया। रेड वहीं पड़ी थी जहां बारिस में मैंने पूरी रात कमला के साथ बिताई थी। जिसे कमला जाना समझा था वह कमला नहीं कुलसुम थी। उसका बांस सरीखा सुखैला पति श्याम लाल नहीं लियाकत खान था। उसके साथ पकड़े गए लोगों का पूरा नेटवर्क आस-पास के जिलों से लेकर लखनऊ और असम तक था। कुलसुम को लियाकत पश्चिम बंगाल के एक जिले से भगा कर लाया था।
उसका पति मीट शॉप चलाता था। उसके चार बच्चे थे। लियाकत ने वहीं संपर्क साधा और कुलसुम को फुसला कर भगा लाया था। कुलसुम और उसका पति एक बार घुसपैठिए के तौर पर पश्चिम बंगाल में ही पकड़े गए थे। लेकिन जल्दी ही एक स्थानीय नेता ने मामला रफा-दफा करा दिया था। उसी घुसपैठिया कुलसुम के घर लियाकत ने घुसपैठ की और उसे भगा लाया।
लियाकत पर आगजनी, लूटपाट के कई केस वहां दर्ज थे। इसीलिए वहां से भाग निकला था। रिपोर्ट में रिपोर्टर ने कई प्रमाणों के साथ सरकार की समय-समय पर स्वीकारोक्तियों को कोट करते हुए स्पष्ट लिखा था कि सरकार ने सदन में ही यह माना था कि 2001 में ही इनकी संख्या दो करोड़ से ऊपर है। फिर उसने लिखा कि आज 2015 में तमाम रिपोर्टों, गैर सरकारी आंकड़ों की मानें तो करीब पांच करोड़ से ज़्यादा घुसपैठिए देश भर में फैले हुए हैं।
असम, पश्चिम बंगाल में इनकी संख्या इतनी ज़्यादा हो गई है कि यह कई जगह स्थानीय मूल के लोगों को लूटते रहते हैं। बस्तियों पर कब्जा कर रहे हैं। जला रहे हैं। मार रहे हैं। दंगे इतने बड़े पैमाने पर इतने भयावह हो रहे हैं कि सेना लगानी पड़ रही है। तमाम सीटों पर ये निर्णायाक संख्या में वोटर बन गए हैं। पश्चिम बंगाल में तो ये करीब 38 सीटों पर निर्णायकों की हैसियत में हैं। इसलिए कई राजनीतिक दल इनका वोट बैंक की तरह प्रयोग कर रहे हैं। उनके राशन कार्ड, वोटर कार्ड सब बनवा रहे हैं। वे नाराज न हों इसके लिए देशद्रोह जैसे उनके कामों को अनदेखा कर रहे हैं। इससे उनकी हिम्मत आसमान छू रही है।
कई भयावह तथ्यों के साथ यह भी जोड़ा था कि हालात इतने बिगड़ गए हैं कि सर्वाेच्च न्यायालय को बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। और एक-दो नहीं असम और पूर्वोत्तर के पूरे छब्बीस छात्र संगठनों ने मिल कर पूर्वोत्तर छात्र संगठन का गठन कर देश के लिए आंदोलन चला रखा है। रिपोर्टर ने बड़ी बेबाकी से यह भी लिखा कि इन घुसपैठिए चूहों में से यदि एक, एक दिन में आधा किलो आनाज खा रहा है। तो पांच करोड़ घुसपैठिए देश के सवा सौ करोड़ लोगों के हिस्से का डेली करीब ढाई करोड़ किलो आनाज चट कर जा रहे हैं। यहां का खा भी रहे हैं और पत्तल में छेद भी कर रहे हैं। यहीं के कुछ भेदियों के संग मिल कर जहां मौका पाते हैं वहीं सवा सौ करोड़ हिंदुस्तानियों के खून के प्यासे बन जा रहे हैं।
रिपोर्टर ने बड़ी खोजबीन के साथ तथ्य सहित यह बताया था कि औसतन सात-आठ लोगों का इनका परिवार गली-सड़कों में दिन में करीब पांच कुंतल कूड़ा बीनते हैं। जो औसतन छः सौ रुपए कुंतल के हिसाब से कबाड़ी खरीदता है। इस तरह से महीने में करीब नब्बे हज़ार रुपए कमाते हैं। बीस हजार खर्चें के निकाल कर सत्तर हजार महीना बचाते हैं। साल भर में नौ-दस लाख रुपया इकट्ठा कर छोटा-मोटा मकान बनाते हैं। फिर चोला बदल कर यहीं के लोगों में घुल-मिल जाते हैं। इतना ही नहीं ये सब कमला, विमला, श्याम लाल, राम लाल, राधे श्याम जैसे नाम रख पहचान छिपाए रहते हैं।
उस दिन अपने सीनियर रिपोर्टर के काम की तारीफ किए बिना मैं नहीं रह सका। उसने सप्रमाण यह भी बताया कि लखनऊ शहर में ही इन चूहों की संख्या लाखों में है। लेकिन वोट के खेल के चलते पार्टियां चुप हैं। देश को भीतर-भीतर कुतर रहे इन चूहों की तरफ से मुंह मोडे़ हुए हैं। सुरक्षा एजेंसियों की सारी रिपोर्ट्स कूड़े-कचरे में डाल दी जाती हैं। उसकी रिपोर्ट के इन हिस्सों को पढ़ते हुए मुझे कुछ माह पहले एक बड़े, विख्यात लेखक, पत्रकार विभांशु दिव्याल का उपन्यास ‘गाथा लंपट तंत्र की’ याद आ गई। उन्होंने उपन्यास में लखनऊ में इन घुसपैठियों की स्थिति का एक हल्का सा खाका खींचा था।
मैं पूरी रिपोर्ट पढ़ कर दंग रह गया कि देश किस तरह खतरे के मुहाने की तरफ बढ़ता जा रहा है। और सब चुप हैं। अपने-अपने स्वार्थ के आगे मुंह सीए हुए हैं। कुछ बोलते हैं तो सिर्फ बोल कर ही इतिश्री कर लेते हैं। बिना वजह की बात पर भी चीख पुकार करने वाला मीडिया भी चुप है। वह मीडिया जिससे नेपोलियन बोनापार्ट भी थर्राता था। मेरे अखबार में तो खैर पहले ही कई मुद्दों पर खामोश रहने की हिदायत थी। उसमें यह मुद्दा भी शामिल था। लेकिन उस समय मैंने यह तय कर लिया कि आजकल में इस्तीफा तो देना ही है।
चाहे जो हो यह रिपोर्ट और बेहतर करके छापुंगा। कार्यवाई पर सारी जिम्मेदारी खुद पर लेते हुए इस्तीफा दे दूंगा। मैंने एकदम आखिर समय में उसे लीड न्यूज के तौर पर प्रिंट होने भेज दिया। अगले दिन जैसा अनुमान था वही हुआ। प्रबंधन ने क्लास ली तो मैंने दबने के बजाय इस नीति को अखबार के लिए घातक बताते हुए इसे पेपरहित में उठाया क़दम बताया था। और यह भी कहा कि अगर मैनेजमेंट इसे गलत समझता है तो मैं सहमत नहीं हूं। रिपोर्टर की कोई जिम्मेदारी नहीं है। इसलिए मैं इस्तीफा दे रहा हूं। ऐसी स्थितियों में काम करना संभव नहीं है। मैनेजमेंट को मुझसे ये उम्मीद नहीं थी। सो वो अवाक् थे। लेकिन मुझे निकलना था तो निकल लिया।
रिपोर्टर को समझा दिया कि निश्चिन्त रहे कुछ नहीं होगा। मैं उस वक्त बड़ा संतोष महसूस कर रहा था कि चाहे जैसे हो, मैं अपना कर्तव्य कुछ हद तक पूरा कर सका। उस रात और अगले कई दिनों तक मैं यह सोच-सोच कर परेशान होता रहा कि मैंने न सिर्फ पूरी रात एक घुसपैठिए के साथ, देश को कुतरने वाले के साथ बिताई, बल्कि शारीरिक संबंध भी पागलपन की हद तक बनाए। और इतना ही नहीं देश के इन विरोधियों के खिलाफ गुस्सा तो खूब भरा है। सबको दोष भी दे रहा हूं। लेकिन जांच टीम के पास खुद जाकर पूरा वाकया बताने की हिम्मत नहीं कर पा रहा हूं।
इससे जांच टीम को शायद कुछ मदद मिल जाए। लेकिन मेरे क़दम हर बार थम जाते हैं यह सोच कर कि यह क़दम उठाने पर शारीरिक संबंधों की भी पोल खुलेगी। तब जो होगा वह होगा लेकिन विशाखा क्षण भर को यह सहन नहीं कर पाएगी। मैं इस असमंजस में दिल्ली जाने की तैयारी में लग गया, कि अपना घर बचाऊं या अपने सवा सौ करोड़ देशवासियों के हित भी देखूं। समझ नहीं पा रहा हूं कि जाने कभी इस असमंजस से बाहर निकल पाऊंगा, जांच टीम के सामने पहुंच कर सारी बात कह भी पाऊंगा या नहीं।
समाप्त