आधी नज्म का पूरा गीत
रंजू भाटिया
episode 26
मैं तुम्हे फिर मिलूंगी
पर अगर आपको मुझे ज़रूर पाना हैतो हर देश के, हर शहर की, हर गली का द्वार खटखटाओयह एक शाप है, यह एक वर हैऔर जहाँ भीआज़ाद रूह की झलक पड़े— समझना वह मेरा घर है। रसीदी टिकट लगभग आज से कई साल पहले लिखी है और यह शायद महात्मा गांधी जी की आत्मकथा के बाद इतनी ईमानदारी, सच्चाई और निर्भीकता से लिखी गयी दूसरी आत्मकथा है |मैंने ज़िन्दगी में दो बार मोहब्बत की एक बार साहिर से और दूसरी बार इमरोज़ से अपने जीवन में इतनी निर्भीकता स्वीकारता रसीदी टिकट में दिखायी देती है और अक्षरों के साए में नेहरु -एडविना पर लिखी एक किताब का हवाला देते हुए वह कहती है मेरा और साहिर का रिश्ता भी कुछ इसी रोशनी में पहचाना जा सकता है -जिसके लम्बे बरसों में कभी तन नहीं रहा था सिर्फ मन था -जो नज्मों में धडकता रहा दोनों की...लेकिन अमृता जी को समझने के लिए सिर्फ इन दो आत्मकाथ्य को पढना ही बहुत नहीं होगा उन्हें और गहराई से समझने के लिए लाल धागे का रिश्ता, दरवेशों की मेहँदी और हरे धागे का रिश्ता पढा भी बहुत जरुरी है....यूँ यह पुस्तके अपना स्वंतत्र महत्व रखती है लेकिन एक तरह से यह अमृता की ही आत्मकथा का ही एक हिस्सा है इस में उनके अंतर जगत का वर्णन है और रसीदी टिकट में बाहरी जगत का थोड़े थोड़े अंतराल पर उन्हें के सपना आता रहा जिस में उन्हें एक मकान की दूसरी मंजिल पर खिड़की की तरफ देखता हुआ कोई नजर आता और वह कोई चित्र बना रहा होता कैनवास पर..जिस दिन अमृता कि ज़िन्दगी में इमरोज़ आये उसके बाद से वह सपना उन्हें कभी नहीं आया एक और सपना उन्हें उनके सपने से बाहर निकलने की और संकेत कर रहा होता जिस में उन्हें साहिर की पीठ दिखायी देती और सपने में ही पिता कहते पहचान सकती है उसको...? यह तेरी तक़दीर है......और साहिर साहब पीठ दिखा कर चले गए..साहिर साहब के गुजरने पर आंसुओं से लिखी अमृता की पंक्तियाँ है..अज्ज आपणे दिल दरिया दे विच्च मैं आपणे फूल प्रवाहे.........अमृता इमरोज़ के कुछ खत अमृता के खतों के साथ साथ आप रसीदी टिकट के अंश भी पढ़ते रहे हैं | किसी भी प्यार, उलहना का जिक्र एक के खतों से पुरा नही होता है, इमरोज़ भी बराबर अपनी माजा को ख़त के जवाब देते रहे | जब इमरोज़ ने अमृता के खतों का उल्लेख किया तो इमरोज़ को लगा की उन खतों का भी जिक्र होना जरुरी है ठीक वैसे ही जैसे काफ्का की महबूबा पर लिखी हुई एक प्रस्तावना में आर्थर कोस्लर कहता है ---काफ्का के लिखे हुए ख़त तो मिल गए, पर मिलेना के खतों के बिना काफ्का की पोट्रेट अधूरी रह गई है |वह मिलेना के खतों को मेरे जलते हुए सर पर वर्षा की बुँदे कहा करता था और वही वर्षा की बुँदे खो गयीं हैं लेकिन गनीमत है की इमरोज़ के अमृता को लिखे ख़त कहीं गम नहीं हुए वह अमृता के पास रहे जिसे इमरोज़ ने उस से उधार ले कर एक जगह अमृता के खतों के साथ ही रख दिया है | यह १९६१ के शुरू के ख़त हैं, जिन पर न कोई तारीख है, न कोई दस्तखत |उन्ही दिनों अमृता ने एक कहानी लिख कर मुझे भेजी थी.रौशनी का हवाका | इस में उसका एक ख़त था |फ़िर वह एक कविता लिख भेजी थी साल मुबारक | यह भी उसका एक ख़त थी |और फ़िर एक नावल भेजा आइनेरेंड का फाउन्टेन हेड |यह भी मैंने उसका एक ख़त समझकर पढ़ा था |यह ख़त जिन पर अमृता ने न तारीख लिखी है न अपना नाम..|उसने यह ख़त अपने गुस्से कि शिखर दोपहरी में लिखे हैं --शायद प्यार में ही नही गुस्से में भी न वक्त याद रहता है न नाम |आप ख़ुद ही पढ़े.."तुम्हारे और मेरे नसीबों में बहुत फर्क है |तुम वह खुशनसीब इंसान हो, जिसे तुमने मोहब्बत कि, उसने तुम्हारे एक इशारे पर सारी दुनिया वार दी | पर मैं वह बदनसीब इंसान हूँ, जिसे मैंने मोहब्बत कि, उसने मेरे लिए अपने घर का दरवाजा बंद कर लिया |दुखं ने अब मेरे दिल कि उम्र बहित बड़ी कर दी | अब मेरा दिल उम्मीद के किसी खिलोने के साथ खेल नही सकता है |हर तीसरे दिन पंजाब के किसी न किसी अखबार में मेरे बम्बई बीताये हुए दिनों का जिक्र होता है बुरे से बुरे शब्दों में | पर मुझे उनसे कोई शिकायत नही है क्यूंकि उनकी समझ मुझे समझ सकने के काबिल नही हैं केवल दर्द इस बात का है कि मुझे उसने भी नही समझा.जिसने कभी मुझसे कहा था -- मुझे जवाब बना लो सारे का सारा |मुझे अगर किसी ने समझा है तो वह है तुम्हारी मेज की दराज में पड़ी हुई रंगों कि बेजुबान शीशियाँ.जिनके बदन में रोज़ साफ़ करती और दुलारती थी | वह रंग मेरी आंखों में देखकर मुस्कराते थे |क्यूंकि उन्होंने मेरी आँखों कि नजर का भेद पा लिया था | उन्होंने समझ लिया था कि मुझे तुम्हारी क्रियटिव पावर से ऐसी ही मोहब्बत है | वह रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श के लिएय तरसते रहे थे और मेरी आँखे उन रंगों से उभरने वाली तस्वीरों के लिए | वह रंग तुम्हारे हाथों का स्पर्श इस लिए माँगते थे क्यूंकि "दे वांटेड टू जस्टिफाई देयर एगिजेंट्स | मैंने तुम्हारा साथ इसलिए चाहा था कि तुम्हारी कृतियों में मुझे अपने अस्तित्व के अर्थ भी मिलते थे |यह अर्थ मुझे पानी कृतियों में भी मिलते थे, पर तुम्हारे साथ मिल कर यह अर्थ बहुत तगडे हो जाते थे | तुम एक दिन अपनी मेज पर काम करने लगे थे कि तुमने हाथ में ब्रश पकड़ा और पास रखी हुई रंग कि शीशियों को खोला मेरे माथे ने न जाने तुमसे क्या कहा, तुमने हाथ में लिए हुए ब्रश में थोड़ा सा रंग लगा कर मेरे माथे को छुआ दिया | न जाने वह मेरे माथे कि कैसी खुदगर्ज मांग थी, आज मुझे उसको सजा मिल रही है |आदम ने जैसे गेहूं का दाना खा लिया हो या सेब खा लिया था, तो उसको बहिश्त से निकाल दिया गया था....कल तुम्हारा ख़त मिला | जीती दोस्त ! मैं तुमसे गुस्सा नही हूँ ! तुम्हारा मेल दोस्ती की हद को छु गया |दोस्ती मोहब्बत की हद तक गई | मोहब्बत इश्क की हद तक गई | और इश्क जनून की हद तक | और जिसने जनून की हद देखि हो.वह कभी गुस्सा नही हो सकता |अगर अलगाव कोई सजा है.तो यह सजा मेरे लिए हैं.क्यूंकि यह रास्ता मेरा चुना हुआ नही हैं | मेरा चुना हुआ रास्ता मेल था | अलगाव का रास्ता तुम्हारा चुना हुआ है, तुम्हारा अपना चुनाव.इस लिए तुम्हारे लिए यह सजा नही है|यह मैंने कभी नही सोचा की तुम्हारी मोहब्बत पाक नही थी, लेकिन उस मोहब्बत में एक प्यास थी..इस प्यास को तुम्हे तृप्त करना होगा जीती ! तुम और मैं दोनों इस प्यास का भयानक रूप देख चुके हैं |तुम जैसे मुझ तडपती को छोड़ गए यह तुम्हारा रूप नही तुम्हारी प्यास का भयानक रूप है | तुम दस बरस जी भर इस प्यास को मिटा लो | फ़िर तुम्हारे बदन पर पड़े हुए सारे दाग में अपने होंठो से पोंछ लूंगी| और अगर तुमने फ़िर भी चाहा तो मैं तुम्हारे साथ जीने को भी तैयार रहूंगी और मरने को भी |एक जगह अमृता जी द्वारा बताया हुआ लिखा है कि..पहले कोई इमरोज़ से मिलना चाहता था तो मुझे फ़ोन करता था.पूछता यह अमृता जी का घर है..मेरे हाँ कहने पर वह फ़िर पूछता कि क्या इमरोज़ जी घर पर हैं..मैं हाँ कह कर इमरोज़ को छू के कहती..देखा आज कल लोग तुम्हे मेरे पते पर तलाश कर लेते हैं !!इश्क समतल सपाट भूमि का नाम है न ही घटना रहित जीवन का सूचक जब यह भूमि होता है तब इसके अपने मरुस्थल भी होते हैं जब यह पर्वत होता है तब इसके अपने ज्वालामुखी भी होते हैं जब यह दरिया होता है तब इसके अपने भंवर भी होते हैं जब यह आसमान होता है तो इसकी अपने और अपनी बिजीलियाँ भी होतीं है यह खुदा को मोहब्बत करने वाले की हालत होती है जिसमें खुदा के आशिक को अपने बल पर विद्रोह करने का भी हक भी होता है और इनकार करने का भी पर यह ऐसे हैं जैसे की खुले आकाश के नीचे जब कोई छत डालता है वह असल आकाश को नकारता नही है....यह बात अमृता ने अपने एक इंटरव्यू के दौरान तब कही जब उनसे पूछा गया की कभी आपने लिखा था..मेरी उम्र से भी लम्बी है मेरी वफ़ा की लकीरें और शब्दों की दौलत के बिना भी वफ़ा है अमीर या मोमबत्ती यह प्राणों की रात भर जलती रही..पर आपकी इस अवस्था को क्या कहूँ जब आपने लिखा की इश्क का बदन ठिठुर रहा है, गीत का कुरता कैसे सियूँ ख्यालों का धागा टूट गया है.कलम सुई की नोक टूट गई है और सारी बात खो गई है .मैं तुझे फ़िर मिलूंगीकहाँ किस तरह पता नहीशायद तेरी तख्यिल की चिंगारी बनतेरे केनवास पर उतरुंगी या तेरे केनवास परएक रहस्यमयी लकीर बनखामोश तुझे देखती रहूंगीया फ़िर सूरज कि लौ बन कर तेरे रंगो में घुलती रहूंगीया रंगो कि बाहों में बैठ करतेरे केनवास से लिपट जाउंगीपता नहीं कहाँ किस तरहपर तुझे जरुर मिलूंगीअमृता जी अपने आखरी दिनों में बहुत बीमार थी, जब इमरोज़ जी से पूछा जाता की आपको जुदाई की हुक नही उठती ? वह आपकी ज़िंदगी है, आप उनके बिना क्या करोगे ? वह मुस्करा के बोले जुदाई की हुक ? कौन सी जुदाई? कहाँ जायेगी अमृता ? इसे यहीं रहना है मेरे पास, मेरे इर्द गिर्द..हमेशा !!हम चालीस साल से एक साथ हैं हमे कौन जुदा कर सकता है ? मौत भी नही !मेरे पास पिछले चालीस सालों की यादे हैं.शायद पिछले जन्म की भी, जो मुझे याद नहीं, इसे मुझ से कौन छीन सकता है...और यह बात सिर्फ़ किताबों पढी नही है जब मैं इमरोज़ जी से मिलने उनके घर गई थी तब भी यह बात शिद्दत से महसूस की थी कि वह अमृता से कहीं जुदा नही है...वह आज भी उनके साथ हर पल है..उस घर में वैसे ही रची बसी..उनके साथ बतयाती और कविता लिखती...क्यूंकि इमरोज़ जी के लफ्जों में मुझसे बात करते हुए एक बार भी अमृता थी नही आया.अमृता है यहीं अभी भी आया...एक बार उनसे किसी ने पूछा की मर्द और औरत् के बीच का रिश्ता इतना उलझा हुआ क्यों है ? तब उन्होंने जवाब दिया क्यूंकि मर्द ने औरत के साथ सिर्फ़ सोना सीखा है जागना नही !"" इमरोज़ पंजाब के गांव में पले बढे थे वह कहते हैं कि प्यार महबूबा की जमीन में जड़ पकड़ने का नाम है और वहीं फलने फूलने का नाम है !""जब हम किसी से प्यार करते हैं तो हमारा अहम् मर जाता है, फ़िर वह हमारे और हमारे प्यार के बीच में नही आ सकता...उन्होंने कहा कि जिस दिन से मैं अमृता से मिला हूँ हूँ मेरे भीतर का गुस्सा एक दम से शान्त हो गया है मैं नही जानता यह कैसे हुआ.शायद प्यार कि प्रबल भावना इतनी होती है कि वह हमे भीतर तक इतना भर देती है कि हम गुस्सा नफरत आदि सब भूल जाते हैं.हम तब किसी के साथ बुरा व्यवहार नही कर पाते क्यूंकि बुराई ख़ुद हमारे अन्दर बचती ही नही...महात्मा बुद्ध के आलेख पढने से कोई बुद्ध नही बन जाता, और न ही भगवान श्री कृष्ण के आगे सिर झुकाने से कोई कृष्ण नही बन जाता ! केवल झुकने के लिए झुकने से हम और छोटे हो जाते हैं ! हमे अपने अन्दर बुद्ध और कृष्ण को जगाना पड़ेगा और यदि वह जाग जाते हैं तो फ़िर अन्दर हमारे नफरत.शैतानियत कहाँ रह जाती है ?""यह था प्यार को जीने वाले का एक और अंदाज़...जो ख़ुद में लाजवाब है..
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