Him Sparsh - 68 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | हिम स्पर्श - 68

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हिम स्पर्श - 68

68

“तुम्हारे आने की, तुम्हारे पदचाप की ध्वनि सुनाई नहीं दी। जीप की ध्वनि भी नहीं सुनाई दी। मुझे ध्यान ही नहीं रहा तुम्हारे आने का।“ जीत ने द्वार की तरफ देखा। जीप वहाँ खड़ी थी।

“मैं कोई छुपते छुपाते नहीं आई। ना तो मेरे पदचाप मौन थे ना जीप की ध्वनि। कुछ भी असाधारण नहीं किया मैंने।“

“सब साधारण सा था तो फिर मैं ने कुछ भी सुना क्यूँ नहीं?”

“जीत,जब हमारे अंदर कोलाहल हो तो बाहर की ध्वनि नहीं सुनाई देती। जब अंदर की ध्वनि तीव्र हो तब हमारे कान दूसरी किसी भी ध्वनि को नहीं पकड़ पाते।“ वफ़ाई का उत्तर जीत को समझ नहीं आया। वह मुख पर प्रश्न लटकाए वफ़ाई को देखता रहा।

“लगता है, मेरी बात तुम्हें समझ नहीं आई।“

“मैं समझाती हूँ। अंदर का कोलाहल अर्थात तुम्हारे अंदर चल रहे विचारों की ध्वनि। मन के अंदर चल रहे द्वंद की ध्वनि। वफ़ाई लौटेगी या नहीं? वफ़ाई को आने में विलंब हो गया। वफ़ाई कहीं छोड़ कर चली तो नहीं गई? ऐसी कई बातें जब तुम्हारे अंदर चल रही थी तब तुम्हारे अंदर का कोलाहल प्रचंड था, प्रखर था। मेरी जीप उसकी स्वाभाविक ध्वनि से चलती हुई घर के द्वार तक आ चुकी थी। इस मरुभूमि के नीरव मार्ग पर हमारे पैरों की ध्वनि भी स्पष्ट सुनाई देती है वहाँ जीप की तेज और कर्कश ध्वनि ना सुनाई दे ऐसा हो नहीं सकता। किन्तु उस ध्वनि से भी तुम्हारे अंदर का कोलाहल अधिक तीव्र था। जो अधिक तीव्र हो वह सुनाई देता है जिसके कोलाहल में बाकी की ध्वनि दब जाती है।“

“तुम ठीक कह रही हो। कोलाहल, ध्वनि, प्रचंड तथा प्रखर ध्वनि। कितने बड़े बड़े शब्द हैं।“

“जब कोलाहल होता है तब कलरव नहीं सुनाई देता।“ वफ़ाई ने कहा। जीत समज गया कि वफ़ाई प्रसन्न मुद्रा में है। मुझे उस प्रसन्नता को बनाए रखना होगा।

“पत्रकार लोग शब्दों से खेलना अच्छी तरह जानते हैं। कोलाहल, कलरव। क्या बात है?” जीत हंस पड़ा।

“क्या यहीं खड़े खड़े ही सब बातें कर लेनी है?” वफ़ाई भी हंस पड़ी। एक ठंडी हवा बह गई।

“तुम जरा बैठो, यहाँ झूले पर। यात्रा से आई हो। थक गई हो। मैं तुम्हारे लिए पानी लाता हूँ।” जीत ने झूले की तरफ संकेत किया और अंदर चला गया।

वफ़ाई झूले पर जा बैठी। धीरे धीरे झूलने लगी। घर को देखने लगी। क्या कुछ बदला है इन बीते 36 घंटों में? वफ़ाई ने एक विहंग द्रष्टि चारों तरफ फैलाई। उसे कुछ भी तो नया नहीं दिखाई पड़ा। सब कुछ वैसा का वैसा था। वफ़ाई को समझ नहीं आया कि इस बात पर वह प्रसन्न हो या उदास। दोनों भावों ने उसके अंदर जन्म ले लिया।

पिछले 36 घंटों में जीत ने क्या किया होगा? मेरे बारे में ही सोचता रहा होगा? कुछ काम भी किया होगा? मेरे पर विश्वास किया होगा? संदेह किया होगा? मैं लौटकर ना आऊं तो? भोजन भी किया होगा अथवा वैसे ही पड़ा होगा? चल रसोई में जाकर देखती हूँ।

वफ़ाई घर में प्रवेश कर गई। जीत अभी भी पानी भरने के लिए बर्तन ढूंढ रहा था। वह एक गिलास तक नहीं ढूंढ पाया।

“इस तरह तो मैं तृषा से ही मर जाऊँगी, श्रीमान चित्रकार।“ वफ़ाई के शब्दों ने जीत को चकित कर दिया।

“अरे यहीं तो कहीं रखा था, मैं लाता हूँ न गिलास में पानी भरकर। तुम बैठो न झूले पर।” जीत गिलास ढूंढ नहीं पाया।

“छोड़ो, तुमसे न होगा यह। मैं ही ...।” वफ़ाई ने एक विहंग द्रष्टि दौड़ाई पूरे कक्ष में।

“यह रहा। यह यहाँ पर है।“ दोनों एक साथ गिलास की तरफ बढ़ते हुए बोले। दोनों एक साथ गिलास तक पहोंचे, एक साथ गिलास उठाया। दोनों की टक्कर हो गई। दोनों को एक दूसरे का स्पर्श हुआ, अच्छा लगा। दोनों की द्रष्टि भी टकराई, और स्थिर हो गई एक दूसरे पर। देर तक दोनों एक दूसरे को देखते रहे। चार आँखों में नयी तृषा जागी, तृषा बढ़ने लगी।

जीत ने स्वयं को संभाला। उसने द्रष्टि झुका ली, हाथ छुड़ा लिया और पीछे हट गया।

“तुम स्वयम ही पानी भरकर पी लो। तुम्हारी तृषा तृप्त करने का सामर्थ्य ही नहीं मुझ में।“ जीत कक्ष से बाहर चला गया। वफ़ाई ने अपने तृषातुर नयन झुका लीये।

वफ़ाई पानी पीकर बाहर आई। जीत झूले के पास खड़ा था, मौन। वफ़ाई झूले पर जा बैठी। वह भी मौन हो गई। दोनों के मौन ने समय को बितने दिया, समय बीतता रहा।

सूरज पूरा ढल गया। आधा सा चन्द्र निकल आया, अपनी मध्धम सी चाँदनी लेकर। चंद्रमा की चाँदनी कैनवास पर बरसने लगी। वफ़ाई ने उस पर टंगे चित्र को देखकर मौन तोड़ा, ”जीत, यह तुमने क्या कर दिया?”

“कुछ भूल कर दी क्या?”

“ध्यान से देखो। कुछ तो है। कुछ विशेष ही है यह चित्र। इन आँखों के भाव अदभूत लग रहे है। गालों के खंजन, अधरों का यह स्मित, गाल और कान के बीच एक नटखट लट, खुले बालों का कंधों पर लहराना, वर्षा से भरे मेघ जैसी छाती।“ वफ़ाई एक क्षण रुकी, जीत की तरफ घूमी, “तुमने अब तक जीतने भी मेरे चित्र बनाए हैं उन सब में यह श्रेष्ठ है, सुंदरतम है।“

“नहीं, तुम असत्य कह रही हो। मैं इस चित्र को श्रेष्ठ ही बनाना चाहता था किन्तु मेरे ही मन के भावों ने इसे ...।”

“क्यूँ? क्या हुआ?”

“इस में एक दाग लग गया है। तुम्हें लौटने में विलंब हुआ तो मेरे मन के अंदर तुम्हारे लिए धृणा के भाव जाग गए इसलिए मैं तुम्हारी इस छवि को विकृत कर देना चाहता था। मैंने काले रंग में डुबोई तूलिका भी हाथ में ले ली थी और इस छवि को विकृत करने ही वाला था कि तुम आ गयी और तुमने मुझे जकड़ लिया। मेरे हाथ से तूलिका गिर पड़ी। गिरते गिरते वह कैनवास को स्पर्श कर गई, अपने अंदर भरे काले रंग को छवि पर डालती गई।“ जीत ने दीर्घ सांस ली।

“और छवि को विकृत कर गई। हैं न?”

“हाँ।“

“मुझे तो इस छवि में कोई विकृति दिखाई नहीं दे रही। तुम दिखाओ भला।“

“इधर आओ, निकट आओ। दूर से सब कुछ सुंदर ही दिखता है। विकृति तो तब दिखती है, जब हम अत्यंत निकट होते हैं।“ जीत छवि के बिलकुल निकट गया, वफ़ाई भी।

“यह अधर, नीचे वाला आधार देखो। इस दाहिने छोर को देखो। क्या दिख रहा है?”

“कुछ विशेष नहीं। केवल एक काला सा बिन्दु दिख रहा है। तुम इसी की बात कर रहे हो क्या?” वफ़ाई ने पूछा।

“हाँ, वही। देखो इतने सुंदर होंठों पर यह काला बिन्दु, कितना विकृत लग रहा है?” जीत निराश हो गया।

“जीत, मुझे तो इस में कुछ विकृति नहीं दिख रही। बल्कि मैं तो कहूँगी कि यह काला बिन्दु ही इन होंठों की शोभा बढ़ा रहा है। गोरे होंठों पर एक काले तिल सा। हाँ, यही इस होठों की अप्रतिम सुंदरता है।“ वफ़ाई उत्साहित गई।

“किन्तु तुम्हारे अधरों पर तो ऐसा तिल नहीं है ना? तो फिर यह विकृत ही हो गया ना?”

“तुमने कैसे जाना कि मेरे अधरों पर तिल नहीं है? तुमने कभी देखे हैं मेरे अधरों को?” वफ़ाई ने दोनों अधर आपस में भीड़ दिये।

“नहीं, मैंने कभी नहीं देखा।“

“तो फिर तुम कैसे कह सकते हो?”

“बस, यूं ही मान लिया।“ जीत सफाई देने लगा।

“तुम यही भूल करते हो। अपने मन में कुछ धारणा बना लेते हो और उस को ही सत्य मान लेते हो। कभी सत्य तक जाकर उसे परखने का साहस तो कर लेते।“

“अब इतना साहस कहाँ बचा है मेरे अंदर? मुझ से ना होगा यह।”

“ऐसा नहीं है। आज तो तुम्हें ऐसा साहस करना ही होगा। देखना चाहोगे मेरे अधर?”

“न, ना...।” जीत दुविधा में पड गया।

“कभी तो खुलकर बोला करो, कभी तो खुलकर जिया करो। आओ मेरे पास।“ वफ़ाई ने जीत को अपने अधर दिखाये।

“वफ़ाई, यह कैसा विस्मय है? तुम्हारे नीचे वाले अधर पर एक काला तिल है। वह ठीक उसी स्थान पर है जहां तुम्हारे इस चित्र में है। क्या यह कोई संयोग है? अथवा किसी संकेत का संकेत है? जीत विचार में पड़ गया।

“क्या हुआ श्रीमान?” वफ़ाई ने कहा।

“मेरा विश्वास करो, मैंने कभी तुम्हारे अधरों को नहीं देखा। यह जो भी हुआ है अनायास ही हुआ है। एक अकस्मात ही है। संयोगवश ही हुआ है। मैं, मेरा..।“ जीत के शब्द और विचार कांपने लगे। जीत का मुख पीला पड़ने लगा, जैसे कोई चोरी करते हुए चोर को रंगे हाथ पकडा गया हो।

“मैंने कब कहा कि तुमने यह सब देखकर किया है? चिंतित मत हो, विचलित मत हो। मुझे तुम पर पूरा विश्वास है। शांत हो जाओ।“ वफ़ाई के शब्दों ने जीत को कुछ शांत कर दिया।

“यदि यह एक अकस्मात ही है, तो यह एक सुंदर अकस्मात है। आनंद आ गया श्रीमान चित्रकार। कुछ बात तो है तुम में कि तुम अपनी तीसरी आँख से ही उस बात को देख लेते हो जो तुम्हारी दोनों आँखों ने कभी देखि ही नहीं। मान गए गुरु।“ वफ़ाई नटखट हो गई।

वफ़ाई की इन बातों ने जीत को संभलने में सहायता दी।

अभी भी एक और बात उसे व्यथित कर रही थी। वह दुविधा में रहा,’इस बात का उल्लेख करूँ अथवा रहने दूँ?’

“जीत, अब क्या है?”

“अभी भी एक बात इस चित्र की है जो मुझे उचित नहीं लग रही।“ जीत चित्र की तरफ बढ़ा।

“अभी भी कुछ बचा है कहने को? चलो वह भी बता दो।“

“इसे देखो, तुम्हारे माथे पर यह ..।”

“माथे पर फैले बाल और बिखरी लटें तो बिलकुल सही है। कितनी सुंदर है! वास्तविकता से भी सुंदर। आ...हा..। क्या बात है, जीत?” वफ़ाई उत्साहित थी। माथे पर बिंदी चित्र में होती है।

जीत अभी भी मौन था, चित्र को देख रहा था, चित्र के माथे को देख रहा था।

जीत से कोई प्रतिभाव ना पाकर वफ़ाई जीत की तरफ मुड़ी।

“तुम कुछ कहोगे भी अथवा अपने ही द्वारा सर्जित चित्र के बालों और लटों से प्यार हो गया है जिसमें कहीं खो गए हो? यदि इन बालों में, इन लटों में ही उलझना है तो चित्र को क्यूँ देख रहे हो? मेरी तरफ देखो। मैं जीवित हूँ, चित्र की भांति स्थिर अथवा निश्चल नहीं हूँ।“ वफ़ाई थोड़ी अधिक चंचल हो गई। वफ़ाई ने एक घातक मुद्रा से अपने बंधे हुए बाल खोल दिये। खुले बाल वफ़ाई के कन्धों पर फेल गए। गगन में चन्द्र को एक बदरी ने थोड़ा सा ढँक दिया। कुछ आवारा लटें गालो पर लहराने लगी। हवा की मंद लहरों से वह गालों पर नर्तन करने लगी।

जीत दुविधा में पड़ गया। क्या अधिक सुंदर है? यह चित्र या स्वयं वफ़ाई? वह निर्णय नहीं कर पाया। वह देखता ही रहा, कभी वफ़ाई को, कभी वफ़ाई के चित्र को।

वफ़ाई ने अपने माथे को झटका, खुले बाल हवा में लहराते हुए जीत को स्पर्श कर गए। जीत एक क्षण के लिए विचलित हो गया। वफ़ाई की तरफ आकृष्ट हो गया। कुछ पूरी तरह जीत को अंदर से घायल कर गया। जीत ने वफ़ाई के बालों पकड़ा, खेलने लगा उससे। बालों के मार्ग से जीत के हाथ वफ़ाई के कंधों से थोड़े ऊपर कंठ तक जा पहुंचे। वफ़ाई की खुली ग्रीवा का स्पर्श जीत को रोमांचित कर गया। जीत से भी अधिक रोमांच वफ़ाई के अंदर बहने लगा। वफ़ाई का अंग अंग उमंग से भर गया। वह आँखें बंध कर के उस क्षण को जीने लगी। उस क्षण के आनंद को अनुभव करने लगी। उस क्षण के भीतर उतरने लगी। वह क्षण उसे गहराई की तरफ खींचता चला जाता था और वह गहरी, और गहरी उतर रही थी। मन ही मन वह प्रसन्न हो रही थी। एक ऐसी अनुभूति को वह पा रही थी जो शायद अदभूत थी, अलौकिक थी।

वफ़ाई ने अपनी सांसें रोक दी। साँसो की ध्वनि भी बंध हो गई। एक समग्र शांति फ़ेल गयी। कोई ध्वनि नहीं, कोई व्यवधान नहीं। जीत का स्पर्श वफ़ाई को भावनाओं के समंदर के मध्य में खींच गया। वह उठती, बहती, छूती और शांत हो जाती प्रेम की लहरों में डूबती जा रही थी।