Ghuspaithiye se aakhiri mulakat ke baad - 3 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद - 3

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घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद - 3

घुसपैठिए से आखिरी मुलाक़ात के बाद

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 3

बस इसके बाद मैंने गिलास पानी मंगवाया आमने-सामने बैठ कर पी। मैं झटके से पीने में यकीन नहीं करता। खाने के साथ धीरे-धीरे पीता हूं। मगर वह गिलास में भरते ही एक झटके में गले में उतार देती। दो पैग पीने के बाद उसने बीड़ी भी जला ली। मुझे भी पकड़ा दी। मैंने जो सिगरेट खरीदी थी वह भीग कर बेकार हो चुकी थी।

बीड़ी पीना नहीं चाहता था लेकिन उसने इतना दबाव डाला कि कोई रास्ता ही नहीं बचा। उसकी हालत देख कर साफ था कि वह पक्की खिलाड़ी है। बाहर रह-रह कर बादल गरजते और बरसते भी जा रहे थे। इधर हम दोनों थोड़ी ही देर में पूरी बोतल गटक गए। उसने मुझसे एक पैग ज़्यादा पी ली थी। मैंने बोतल दो-दो पैग के इरादे से खोली थी। लेकिन कमला जैसी खिलाड़ी के सामने मेरी एक ना चली। हम दोनों को शराब चढ़ चुकी थी। मुझे डर था कि कमला पी कर कहीं बहके नहीं। लेकिन वह एकदम सामान्य ही दिखी। बस एक गड़बड़ कर रही थी कि बार-बार मेरे चेहरे को देखती। जब मैं देखता तो वह मुस्कुरा कर सिर नीचे कर लेती। अब मैं सोच रहा था कि यह अपनी चारपाई पर चली जाए तो मैं कमर थोड़ी सीधी कर लूं। दरअसल मैं मन में यह ठाने हुए था कि वहां सोऊंगा नहीं। मुझे विश्वास नहीं था। दूसरे मुझे दो और पैग की बड़ी सख्त जरूरत महसूस हो रही थी।

पिछले पांच-छः सालों से प्रेस क्लब की बैठकी और पैसों की इंकम के साथ-साथ पीने की मेरी आदत बहुत बढ़ गई थी। मैं कमला को अपनी चारपाई से जब उसकी चारपाई पर भेजने का रास्ता ढूढ़ रहा था। तभी मुझे लगा कि एक बार इस झोपड़ी से फिर बाहर जाना पड़ेगा। क्योंकि पेशाब जोर मार रही थी। मैंने कमला से वह पॉलिथीन फिर मांगी। सोचा कि खाली बोतल भी साथ ही बाहर फेंक आऊंगा। लेकिन कमला बेवजह फिर हंसी और बोली ‘काहे औऊर लाए का मन है का।’

उसकी बात सुन कर मैंने मन ही मन कहा इसने तो हद ही कर दी है। मैं मर्द हो कर भी अंदर-अंदर सशंकित हूं। यह औरत हो कर भी कैसे निश्चिंत है, बेअंदाज हुई जा रही है। ‘मैंने कहा नहीं। अब कुछ है ही नहीं। वो ... जरा पेशाब के लिए जाना है।’ तो वह बोली ‘तो ई बताओ ना। बाहर भीगै की कऊन जरुअत, ऐइसी चले जाओ।’ उसने झोपड़ी के एक कोने की ओर इशारा किया। उस कोने में मुझे लालटेन की नाम मात्र की रोशनी में एक टूटा पत्थर रखा दिखा और दीवार में एक नाली भी।

साफ था कि ऐसी स्थिति के लिए ही यह व्यवस्था थी। बाकी समय झोपड़ी के सदस्य बाहर ही जाते हैं। वहां पेशाब करना मेरे लिए बड़ा मुश्किल हो रहा था। क्योंकि जैसी व्यवस्था थी वैसे में बैठना पड़ता। तन पर मेरे खाली लुंगी थी। खाने के बाद अंगौछे से हाथ वगैरह पोंछा था। तो वह चारपाई पर ही पड़ा था। बाहर कीचड़, पानी, झोपड़ी के पीछे गढ्ढे, डरावना माहौल हो रहा था। अंततः किसी तरह अंदर ही निपट कर अपनी चारपाई पर बैठ गया।

कमला अब भी वहीं बैठी थी मैंने घड़ी पर नजर डाली साढे़ बारह बज रहे थे। कमला पर नजर डाली तो वहां नींद नहीं, शराब की मस्ती, शुरूर नजर आ रहा था। मैंने कहा ‘साढ़े बारह बज रहे हैं लेकिन बारिश बंद होने का नाम ही नहीं ले रही है।’ मैं उसे अहसास कराना चाह रहा था कि टाइम बहुत हो गया है। मगर वह बैठी रही। मुझे लगा ये भी मेरी तरह सशंकित है, इसीलिए शायद यह भी जागते रहना चाहती है।

फिर वह अचानक ही उठी, मैंने देखा उसके कदम कुछ लड़खड़ा रहे हैं। मन में राहत मिली चलो यह अपनी चारपाई पर गई। अब कमर सीधी कर लूंगा। मगर क्षण भर में उम्मीदों पर पानी फिर गया। वह उसी नाली के पास गई, बड़ी फुहड़ता से निपट कर सीधे मेरे ही सामने आ कर फिर बैठ गई। उसी समय बाहर सड़क पर ट्रक जैसा कोई भारी वाहन बड़ी तेज़ आवाज़ करता हुआ गुजर गया। शायद उसका साइलेंसर कहीं से टूट गया था। इसलिए बहुत देर तक उसकी कर्कश आवाज़ सुनाई देती रही।

कमला को देख कर मुझे लगा चलो यह नहीं सोती है तो ना सोए। बैठी कुछ बतियाती रहेगी तो रात आसानी से कट जाएगी। नहीं तो इस को सोता देख कर मुझ पर नींद हावी हो जाएगी। मगर मैं गलत था। वह बातों का हां हूं जवाब देती। और बेवजह हंसती या मुस्कुराती एक बार तो बादल के गरजने पर वह ताली बजा कर खिल-खिला पड़ी। तभी मेरा ध्यान इस ओर गया कि हमारे उसके बीच जो दूरी थी वह आधी भी नहीं रह गई।

मैं लुंगी कभी पहनता नहीं। वह भी खाली लुंगी तो उसमें मैं असहज महसूस कर रहा था। उसकी बदलती हरकतें मुझे बहुत असहज करती जा रही थीं। मैं फालतू बातें किए जा रहा था। वह हां... हूं... मुस्कुराने के साथ-साथ मेरे घुटने पर भी हाथ रख दे रही थी। और फिर एक बार रखा तो हटाया ही नहीं।

उसके हाथ को हटाने के इरादे के साथ मैंने उसका हाथ पकड़ा लेकिन हटा ना पाया। मेरा हाथ जैसे उसके हाथ से ही चिपक गया। उसने मेरा सारा कंट्रोल बिगाड़ दिया। मैंने उसे हलके से अपनी ओर खींचा तो वह एकदम मुझपे ही आ पड़ी। जैसे ना जाने कब से इसी का इंतजार कर रही थी। बाहर गरजते बादल, बरसता पानी, विराने में अकेली झोपड़ी, झोपड़ी में टिम-टिमाती लालटेन का कहने भर का प्रकाश, मैं एक चारपाई पर अनजान महिला के साथ। मैंने लुंगी दूसरी चारपाई पर उतार कर फेंक दी। उसकी धोती बाकी कपड़े भी उसी पर फेंक दिए। और केवल दरी पड़ी उस चारपाई पर लेट गया। वह भी मुझसे चिपकी हुई थी। शराब के नशे में भी उसकी बगलों के तीखे भभके नथुनों को परेशान कर गए।

उस चारपाई पर हम दोनों रात साढ़े तीन बजे तक रहे। शराब के साथ-साथ मैंने उसके तन की भी प्यास बहुत बड़ी पाई। तन की प्यास बुझाने में भी उसका फूहड़पन, बेलौस अंदाज मेरे लिए एकदम नया अनुभव था। तथाकथित सभ्य औरतों की तरह उसमें कोई बनावटीपन नहीं था। एक स्वाभाविक भूख के लिए बिल्कुल स्वाभाविक बिना किसी छल-कपट के सारी क्रिया-प्रतिक्रिया, बेहिचक पहल थी। तीन बार उसने सफलतापूर्वक शिखर पर चढ़ाई की। मुझे भी वहां तक पहुंचाया। एक अनजान महिला के साथ इतनी पूर्णता के साथ शिखर छूना मेरे लिए अचरज भरा अनुभव था। तीसरी चढ़ाई के बाद उसके चेहरे पर संतुष्टि की ऐसी गाढ़ी रेखा थी कि लगता इससे ज़्यादा संतुष्ट दुनिया में कोई होगी ही नहीं।

साढ़े तीन बजे वह जब चारपाई से नीचे उतरी तो लालटेन एकदम बुझने वाली थी। झोपड़ी में करीब-करीब अंधेरा था। उसने एक बोतल से केरोसिन तेल डाला तो वह फिर तेज़ हो गई। लेकिन उसका शीशा कार्बन से अब तक बहुत मटमैला हो चुका था। रोशनी में कोई चमक नहीं थी। बाहर बारिश अब भी हो रही थी लेकिन पहले सी तेज़ नहीं थी। मैंने उठ कर लुंगी पहनी और अपने भीगे कपड़ों को टटोला। उनका पानी तो निचुड़ चुका था। लेकिन अब भी वे पूरी तरह गीले थे।

कमला अपने कपड़े पहन कर दूसरी चारपाई पर बैठ गई थी। मैं अपनी पर बैठ गया तो उसने बीड़ी बंडल, माचिस उठाई और एक बीड़ी जला कर मुंह में लगाया और लंबा कश लेकर ढेर सा धुंआ उगल दिया। फिर बिना कुछ कहे बीड़ी बंडल, माचिस मेरे हाथ में थमाते हुए कहा ‘लेओ पिओ।’ मैंने भी एक बीड़ी सुलगा ली। इसके पहले मैंने स्कूली लाइफ में दोस्तों के साथ बीड़ी पी थी। जब शुरुआत की थी तब आठवीं में था। लेकिन कुछ दिनों बाद जब सिगरेट पर आ गया तो बीड़ी छोड़ दी। लेकिन उस दिन कमला के कहने पर मना नहीं कर पाया। एक बीड़ी सुलगा कर कश लेने लगा। मेरे मन में यह बात बराबर चल रही थी कि सुबह होते ही जो भी पहला साधन मिलेगा उसी से वापसी के लिए निकल लूंगा।

चार-पांच कश के बाद कमला ने चारपाई से हाथ नीचे कर बीड़ी जमीन में रगड़ कर बुझा दी फिर मुझे देखने लगी। मैंने भी बीड़ी बुझा दी थी। ना जाने क्यों मुझे बहुत खराब लगी। मैं कमला से चलने के बारे में बात करने की सोच ही रहा था कि वह फिर धीरे से हंसी। कत्थई दांतों की दो भद्दी सी लाइनें नजर आने लगीं। फिर वह बोली ‘बहुत पोढ़(मजबुत) मनई हौ।’ उसकी बात का आशय समझ कर मैंने उसे छेड़ा ‘तुम्हारे आदमी से भी ज़्यादा ?’ दरअसल मैं इसी के बहाने उससे उसके और उसके पति के बारे में भी विस्तार से जानना चाह रहा था। वह मेरी बात पर फिर मुस्कुराई और बोली ‘वहू है’ मगर फिर इसके आगे कमला चुप हो गई। लगा जैसे उसका कोई पुराना जख्म किसी ने कुरेद दिया। कुछ देर वह वैसे ही बैठी रही।

मैंने फिर कुरेदा तो बोली ‘हमैं नींद आय रही, हम सोवै जाइत है, तुम्हू सोइहो का?’ उसकी भावना को समझते हुए मैंने उसे और कुरेदना ठीक नहीं समझा।

मैंने कहा ‘नहीं तुम सो जाओ। अब चार बजने को है। मैं कुछ देर बाद बाहर देखूंगा कोई साधन मिले तो वापस चलूं।’ इस पर वह अलसाई सी बोली ‘सवेर होए से पहिले कुछ नाहीं मिले वाला हिआं। पानी अबहिनु बरस रहा, तौ औऊर देर लागी, अबै दुई घंटा टाइम है, तुम्हू सोए लेओ।’ मुझे लगा वह सही कह रही। उसकी बात ने मेरी भी नींद बढ़ा दी। थकान से मेरा बदन टूट रहा था। तो मैं भी लेट गया अपनी चारपाई पर।

मुझे बस एक ही डर था कि कहीं देर तक सोता ही ना रह जाऊं। भूले भटके इसका आदमी आ गया तो क्या होगा? मुझे लेटे हुए पांच मिनट भी नहीं हुए थे कि वह उठी और मेरे बगल में चिपक कर सो गई। वह उठ कर ऐसे आई थी मानो नींद के कारण होश में ही नहीं है। मुझे बड़ा अटपटा लगा। अब क्या माजरा है। उसका दाहिना हाथ मेरी छाती पर निर्जीव सा पड़ा था। वह ऐसे चिपकी थी कि मेरा हिलना-डुलना मुश्किल था। वह बेधढ़क अस्त-व्यस्त निश्चिंत सो रही थी। उसकी इस नींद के कारण मैंने जो डेढ़-दो घंटे सोने का इरादा बनाया था वह ध्वस्त हो गया। उसके तन से उठती अजीब सी बदबू मुझे अब ज़्यादा परेशान कर रही थी।

मेरे दिमाग में यह बात मथने लगी कि आखिर मुझे क्या हो गया था कि ऐसी विकट स्थिति में भी मैं इस महिला के साथ सोया। बिना उसके बारे में कुछ पूछे-जांचे, जाने-समझे मैंने कैसे इसके साथ अति की सीमा तक बिस्तर साझा किया। खाया-पिया साथ में ऐसे कि जैसे ना जाने कितनी पुरानी यार हो। और इसको भी देखो इसे ना जाने क्या हुआ है? ऐसे चिपकी है जैसे बरसों बाद मिले पति से कोई बीवी निश्चिंत हो चिपक जाती है।

मैं गुत्थी को सुलझाने में लगा रहा। लेकिन कोई सिरा पकड़ नहीं पा रहा था। जब उसकी देह गंध ने नाक में दम कर दिया तो उसे धीरे से अलग किया और उठ कर टट्टर के पास आ गया। टट्टर चेन से बंद था। ताला जकड़ा हुआ था। मैंने झिरी से बाहर देखा। पौ फटने के संकेत मिल रहे थे। बारिश रात भर बरस कर मानो थक चुकी थी। हल्की-हल्की बूंदा-बांदी बड़ी थकी हुई लग रही थी। मैंने वापस अपने कपड़ों की हालत देखी वे अब भी मुझे तकलीफ देने के लिए भीगे हुए थे।

मैं दूसरी चारपाई पर बैठ गया। कुछ देर बाद ही मुझे सड़क पर आवाज़ें सुनाई देने लगीं। वाहनों का छुट-पुट आना-जाना शुरू हो गया था। कोई ट्रैक्टर ट्राली जैसी सुविधा की आस में मैंने गीले कपड़े ही पहन लिए। साढ़े पांच बजने जा रहे थे। मैंने फिर कमला को उठाया। कई बार उठाने पर वह उठी थी। उसकी आंखें, चेहरा सूजे हुए लग रहे थे। कभी मुझे गीले कपड़ों में देखती तो कभी अपने आस-पास की चीजों को। मेरी तरह उसका भी नशा करीब-करीब खतम हो चुका था। मगर खुमारी जबरदस्त थी।

मैंने उससे कहा ‘कमला जो मदद तुमने की वह जीवन भर नहीं भुलूंगा। मैं अब जल्दी वापस जाना चाहता हूं। ये ताला खोल दो।’ वह मेरी बात पर मेरे चेहरे को एकटक देखती रही। ना जाने कुछ देर तक क्या सोचती रही फिर थकी सी उठी। अपना चेहरा दूसरी तरफ कर अपनी अस्त-व्यस्त धोती, बाकी के कपड़े ठीक किए। दूसरे कोने में रखी बाल्टी से पानी निकाल कर हाथ-मुंह धोया और धोती के आँचल से ही पोछा। दूसरी चारपाई के बिस्तर के नीचे रखी चाबी निकाल कर ताला खोल दिया।

मैंने बाहर झोपड़ी की दीवार के सहारे बाइक खड़ी की थी। बाहर निकलते ही पहले उस पर नजर डाली। उसे देख कर बारिश पर बड़ी गुस्सा आई। कीचड़ में स्टैंड स्थिर नहीं रह सका था। और मेरी प्यारी बाइक पलटी पड़ी थी। ईंट वगैरह से टकराने के कारण उसकी हेड लाइट भी टूट गई थी। और टंकी से पेट्रोल भी बाहर बह गया था। उसे उठा कर किसी तरह खड़ी किया। संयोग से पांच मिनट बाद ही एक ट्रैक्टर ट्रॉली ही आती दिखाई दी। आयशर ट्रैक्टर की फट्-फट् करती आवाज़ मैंने दूर से ही पहचान ली और उसे हाथ दे कर रोका। वह बछरांवा तक जा रहा था। मुझे और गाड़ी ले चलने को तैयार हो गया।

मेरे सामने पैसे की भी समस्या आ खड़ी हुई। रात में मैंने सारे पैसे तो कमला को दे दिए थे। मैं उसके पास फिर झोपड़ी में पहुंचा, वह झोपड़ी से बाहर नहीं आई थी। सीधा कहा ‘कमला एक मदद और कर दो। मुझे सौ रुपए उधार दे दो। मैं हर हफ्ते इधर से निकलता हूं। तुम्हें ब्याज सहित दो गुना दे दूंगा।’ उसने एक नजर मुझ पर डाल कर कहा ‘लैई जाओ। हम कब ब्याज मांगित, चाहे दियो चाहे ना दियो। है तो तुम्हरै। मदद मांगि-मांगि जब हम ही का लई लियो तो ई पइसन मां का धरा।’ यह कहते-कहते उसने सौ रुपए की नोट मुझे थमा दी। मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा ‘कमला अगर तुम गुस्सा हो तो इसे रख लो। मैं जाने के लिए कुछ और इंतजाम कर लूंगा। मुझ पर तुम्हारा बड़ा अहसान है कमला। मैं कहने भर को भी तुम्हें दुखी नहीं कर सकता।’

मैंने नोट सहित उसकी मुट्ठी बंद कर दी। बाहर ट्रैक्टर वाला इंतजार कर रहा था। चलने को हुआ तो उसने अधिकारपूर्वक रुपया मेरी जेब में डाल दिया। कहा ‘रखि लेयो, यहू मदद है। ब्याज का मूलो ना चाही। मगर हमरे मनई के सामने हमरी छायौ कै पास ना आयो। हमार तुमार कौउनो रिश्ता थोड़े आय, जाओ।’ उसके जाओ कहने में घृणा नजर आई।

मैं आगे कुछ बोले बिना ड्राइवर की बगल में ट्रैक्टर के पहियों के भारी मॅडगॉर्ड पर बनी सीट पर बैठ गया। मेरी नजर झोपड़ी के टट्टर से हटी नहीं थी। वह फिर पहले की तरह बंद हो गया था। मैं बछरांवा तक इस रहस्यमयी महिला की गुत्थी सुलझाने में लगा रहा। मगर फिर वही दोहराना पडे़गा कि सिरा ही नहीं पकड़ पाया था।

मैं उस दिन समय से लखनऊ पहुंचने के बाद भी अगले दिन ऑफ़िस नहीं गया। इतना थका था कि सात-आठ घंटा घोड़ा बेच कर सोया। उसके पहले बाइक ठीक कराई। एक काम चलाऊ सस्ता-मद्दा मोबाइल लिया। संयोग से दोनों सिम सूखने के बाद काम करने लगे थे। दोपहर में ही फतेहपुर वाली कमला से बात की। वह छूटते ही ताव दिखाने लगी कि ‘आने को कह कर घर क्यों नहीं आए? फ़ोन तक नहीं किया, रातभर परेशान रही, सो नहीं पाई। इतनी लापरवाही अच्छी नहीं।’खैर जब वह शांत हुई तो मैंने उसे सारी घटना बता दी। कहा कि शायद तुम्हीं ने कमला बन के गांव की उस झोपड़ी में मेरी मदद की।

मैंने इस कमला को यह नहीं बताया कि उस अनजान रहस्यमयी महिला ने रात भर अपने तन के जरिए जो मदद की या यह कहें कि ली वह इस जीवन में कभी नहीं भूलेगी। मैं उस की मदद को यह सोच कर कभी छोटा नहीं करूंगा कि उसने पानी से बचने में जो मदद की उसके बदले अपने तन की तपिश मेरे तन से शांत की। यह अलग बात थी कि मैं तो भूत-पिशाच निकट नहिं आवैं ... करता सहमा सा खुद में सिमटा जा रहा था। मेरी हिम्मत ही नहीं थी उसे छूने की। वह ना बढ़ती तो मैं उसकी ओर देखे बिना झोपड़ी के किसी कोने में पड़ा रहता।

मैं उस दिन बड़ी देर तक दोनों कमला और पत्नी विशाखा को लेकर उलझता रहा। पत्नी बिना बात की बात पर चार साल के मेरे बेटे हिमांक को ले कर करीब आठ महीने से तब मायके में रह रही थी।

झगड़ा बस इस बात को लेकर शुरू हुआ और बढ़ा कि स्कूल में मैं बेटे का नाम हिमांक सिन्हा ही रखना चाहता था। लेकिन वह डेव बेखम सिन्हा लिखाना चाहती थी। मैंने कहा ‘तुम उसे घर में तो बेखम बुलाती ही हो। स्कूल में हिमांक चलने दो।’ मगर वह भिड़ गई। मैंने कहा ‘मैंने कभी तुम्हें रोका नहीं जब चाहती हो चर्च जाती हो। सारे त्योहार जैसे चाहती हो मनाती हो। मैं भी उसमें खुशी-खुशी शामिल होता हूं। जबकि तुम हमारे कई त्योहारों को मनाने से कतराती हो।

कायस्थों की कलम-दवात की पूजा की तुम खिल्ली उड़ा चुकी हो। सरनेम भी तुमने अपनी मर्जी से बदला। खुद को विशाखा सिन्हा कहा। मैंने कभी नहीं कहा कि मेरा सरनेम जोड़ो। तुम्हारे कहने पर मैंने अपना घर, मां-बाप, भाई सब छोड़ कर अलग रहने लगा। लेकिन तुम्हें इस पर भी संतोष नहीं। तुम मेरा परिचय मेरा अस्तित्व ही मिटाने में लगी हो।’ ऐसे आरोप-प्रत्यारोप उस दिन खूब हुए थे। फिर अगले दिन वह मायके चली गई थी। तब से बात ही नहीं कर रही थी। बेटे से भी बात नहीं करने देती थी। मैंने मन जानने के लिए एक बार तलाक की भी बात उठाई लेकिन उसने कोई उत्तर ही नहीं दिया। बेटे का नाम स्कूल में डेव बेखम जेवियर लिखवाया था। इतना ही नहीं सिंगिल पेरेंट बन गई। फादर नेम लिखा ही नहीं। मिसनरी स्कूल में वह अपने मन की करने में सफल रही।

अगले चार-पांच दिन मेरे पहले जैसे ही बीते। कुछ अलग था तो इतना कि फतेहपुर चलने की जल्दी ज़्यादा थी। पहली कमला यानी झोपड़ी वाली कमला से मिलने की उत्कंठा मैं ज़्यादा पा रहा था। मैं जल्दी से जल्दी उसके पैसे वापस करना चाहता था। दूसरी बात यह कि तीन दिन पहले ही मेरे कमीशन के पचास हज़ार मुझे मिले थे। वह जेब में उछल रहे थे। सैलरी के सहारे इतना उछलना हो ही नहीं पाता। फिर सैलरी मिलती ही कितनी थी। हमेशा तीन-चार हफ्ते देर से मिलती थी।

और फिर उस दिन जब मैं निकला फतेहपुर को तो जेब में दस हज़ार रुपए डाल कर निकला। ज़्यादा पैसे ले जाने की वजह यह थी कि वहां मैं अगले दिन एक टैक्सी किराए पर लेकर कमला के साथ महर्षि भृगु की तपो स्थली भिटौरा में बनी शंकर जी की विशाल मूर्ति के दर्शन को जाना चाहता था। कमला कई बार वहां चलने को कह चुकी थी। उसी से मुझे यह पता चला था कि गंगा नदी काशी, हरिद्वार के बाद यह तीसरा स्थान है जहां उत्तरमुखी भी होती है। उसके साथ मैं रेन्ह गांव के करीब यमुना नदी के किनारे भी पिकनिक मना चुका था।

तब उसने कहा था ‘मालूम है तुम्हें हम लोग भगवान कृष्ण के भाई बलराम की ससुराल में पिकनिक मना रहे है। पापा कहते थे महाभारत के समय का यह बड़ा पवित्र गांव है। यहां भगवान कृष्ण के चरण पड़े थे।’ दरअसल वहीं पर यह तय हुआ था कि इन स्थानों पर मैं एक बढ़िया फीचर लिखूं। और अपने अखबार में छापूं। इसी क्रम में वह मुझे खजुआ गांव के उस सैकड़ों वर्ष पुराने इमली के पेड़ के पास भी ले गई थी। जिस पर स्वतंत्रता सेनानी जोधा सिंह अटैया और उनके इक्यावन साथियों को कर्नल क्रिस्टाइल ने 28 अप्रैल 1858 को फांसी दे दी थी।

तब से इमली के इस पेड़ को बावनी इमली कहा जाता है। प्रसिद्ध शहीद स्थल अभी भी उचित सम्मान रख-रखाव, विकास की प्रतीक्षा कर रहा है। उसके साथ मैं यहां की वह विशिष्ट रामलीला, दशहरा मेला भी देख चुका था जो भादो महिने में होती है, और यह रावण को मारने के बजाय पूजते हैं। वह भी राम से पहले। लखनऊ से टैक्सी ले जाना ज़्यादा महंगा पड़ता इसलिए धीरेन्द्र से कह कर एक टैक्सी मैंने पहले ही बुक कर ली थी।

उस बार मैं मोटर-साइकिल की बजाय अरूप की एल.एम.एल. वेस्पा स्कूटर ले गया था। यह सोच कर कि कम से कम पंचर होगी तो इसकी स्टेपनी तो काम आ जाएगी। हालांकि अरूप ने स्कूटर देते वक़्त जो बात कही उससे मैंने यह तय कर लिया कि इसके बाद उससे स्कूटर नहीं लूंगा। और अगला कहीं किसी का कोई काम-धाम कराने का पैसा मिला तो एक स्कूटर भी लूंगा। हालांकि उसने मजाक में ही कहा था कि ‘अबे भाभी को ले आ। इधर-उधर भटक रहा है किसी दिन धोखे में पड़ जाएगा।’

लेकिन उस की यह बात मुझे पर्सनल मैटर में इंटरफियर लगी थी। मैं करीब सात बजे बन्नावां गांव वाली कमला की झोपड़ी के सामने फिर रुका। सामने दो स्टूल पर दो आदमी बैठे बीड़ी पी रहे थे। पंचर का सारा सामान लगा था। बांस पर मोटर साइकिल के दो-चार नए टायर-ट्यूब टंगे थे। कमला कहीं नहीं दिख रही थी। मैंने हवा चेक करने को कहा तो उसमें से एक उठा और हवा चेक कर दी। मैंने थोड़ा रुकने की गरज से उससे फतेहपुर तक की सारी जानकारी पूछ डाली। ये भी कहा थक गया हूं क्या थोड़ी देर बैठ जाऊं। उसने मेरी बात पर कोई ध्यान दिये बिना स्कूटर की तरफ इशारा कर दिया कि उसी पर बैठो, फिर दोनों गप्पें मारने लगे।

मैंने दाल गलती न देख जल्दी-जल्दी सिगरेट फूंकी और चल दिया फतेहपुर वाली कमला के पास।

वहां पहुंच कर पहले अपने मित्र धीरेंद्र धीर के पास पहुंचा। वह कमला के ही घर में ऊपर किराये पर रहता था। मैं उसी से मिलने कई साल पहले तब गया था जब वह ट्रांसफर होकर फतेहपुर पहुंचा था। वहीं मैं उसकी मकान मालकिन कमला से मिला। धीरेंद्र ने ही परिचय कराया था। कमला का हसबैंड वेटनरी डॉक्टर है। और पड़ोस के ही जिले कौशांबी के एक गांव में तब तैनात था। वह हर सेकेंड सैटरडे को घर आता था। गांव की राजनीति के झमेले के चलते वह ज़्यादा निकल नहीं पाता था। मेरा पहला परिचय बस यूं ही था।

दूसरी बार मिला तो मुझे ना जाने क्यों ऐसा लगा कि उसमें कुछ ख़ास कशिश है। और वह बातचीत में इंट्रेस्टेड भी है। इस सोच के आते ही मैं हर हफ्ते पहुंचने लगा। फिर कुछ ही दिन में फ़ोन पर हमारी बड़ी देर तक बातें होतीं और देर रात तक होतीं। सीधा-साधा धीरेंद्र इसे गलत मानता था। लेकिन फिर उसने अपने को तटस्थ कर लिया। किसी तरह की कोई समस्या न हो इसलिए पहले मैं धीरेंद्र के कमरे में पहुंचता। उसके बाद कमला के पास, जब उसके दोनों बच्चे सो जाते।

इस बार भी मैंने ऐसा ही किया। फिर अगले दिन धीरेंद्र के साथ ही निकला उसे पहले उसके ऑफ़िस में छोड़ा। वह रेलवे में था। राधानगर की उस कॉलोनी से उसका ऑफ़िस ज़्यादा दूर नहीं था। इसके बाद कमला के साथ टैक्सी में तय सारी जगहों पर हो आया। फिर शाम को उसे घर छोड़ कर मैं सीधा लखनऊ आया। इस बार मैं कमला के पास से लौट कर ना जाने क्यों अजीब सी उलझन में पड़ गया था। मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लग रहा था कि जितनी देर मैं कमला के साथ रहा। उतनी देर बन्नावां गांव वाली कमला हम दोनों के बीच रही।

मैं कमला के साथ तन से तो जुड़ा रहा लेकिन मन भटक रहा था। बार-बार झोपड़ी वाली कमला के पास चला जा रहा था। और बीच-बीच में विशाखा के पास भी। यह उलझन मेरी पूरे हफ्ते नहीं गई थी। समय के साथ बढ़ती रही। झोपड़ी वाली कमला से एक बार मैं खुल कर यह बात साफ-साफ करना चाहता था, कि वह वैसे डरावने माहौल में एक अनजान पर पुरुष के साथ इस तरह क्यों पेश आई? एकदम निसंकोच, एकदम निडर होकर। और फिर जाने के समय ऐसे पेश आई कि जैसे कुछ घटा ही नहीं। एक दूसरे को देखा ही नहीं।

रोज-रोज की इस बढ़ती उलझन के बीच मैं महीने भर में चार बार गया। मगर दुर्भाग्य से हर बार वही सूखा बांस सरीखा लंबा आदमी ही मिलता। मैं हर बार वहां रुकता हवा चेक कराने के बहाने। हर बार पूरी कोशिश करता, इस आस में दरवाजे पर नज़र डालता कि शायद वह खड़ी दिख जाए। इस चक्कर में उस सूखे बांस से फालतू की बातें करता। सिगरेट भी पिलाता मगर नतीजा जीरो।

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