film review the tashkent files in Hindi Film Reviews by Mayur Patel books and stories PDF | ‘द ताशकंद फाइल्स’ फिल्म रिव्यूः इतिहास का वो अनसूलझा पन्ना

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‘द ताशकंद फाइल्स’ फिल्म रिव्यूः इतिहास का वो अनसूलझा पन्ना

दोस्तों, फिल्म के रिव्यू की ओर जाने से पहेले थोडा इतिहास-दर्शन कर लेना जरूरी है, तभी इस फिल्म में जिस मुद्दे को पेश किया गया है वो समज में आएगा.

1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ था जिसमें पाकिस्तान की बुरी तरह हार हुई थी. दोनों देशो के बीच एक समझौता तय किया गया था जिस पर हस्ताक्षर करने के लिए भारत के तत्कालिन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री पूर्व सोवियत यूनियन की राजधानी ताशकंद गए थे. समझौता साइन करने के बाद ताशकंद में ही उनकी मौत हो गई थी. दुनिया को ये कहा गया था की शास्त्रीजी की मौत दिल का दौरा पडने की वजह से हुई थी (इस से पहले भी उनको दो बार हार्टएटेक हो चुका था), लेकिन कुछ लोगों का मानना था की शास्त्रीजी की हत्या हुई थी, उन्हें जहर देकर मार दिया गया था.

इसी मुसद्दे पर बनी है फिल्म ‘द ताशकंद फाइल्स’. एक अखबार की युवा रिपोर्टर रागिनी फूले को कोई भी सनसनीखेज न्यूज-स्टोरी लाने का अल्टिमेटम दिया जाता है. स्टोरी की खोज कर रही रागिनी को एक रहस्यमय फोन कॉल आता है और उसे भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमय मौत की छानबीन करने का सूचन किया जाता है. रागिनी इस स्टोरी पर रिसर्च करना शुरू कर देती है. उसकी PIL पर सरकार एक कमिटी नियुक्त करती है जो इस पूरे मामले पर चर्चा शुरु करती है. अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए रागिनी को किस मुश्किलों का सामना करता पडता है, वही कहानी है ‘द ताशकंद फाइल्स’ की.

इस मुश्किल विषय पर फिल्म बनाना आसान नहीं था, और डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री का काम देखकर वाकई में लगता है की ये काम आसान नहीं था. स्वाभाविक है की इस फिल्म में कोई मनोरंजक तत्व नहीं है. पर फिल्म डोक्युमेन्ट्री न बन जाए इसका डायरेक्टरने अच्छा ख्याल रख्खा है. एतिहासिक तथ्यों के साथ फिल्म में ड्रामा भी डाला गया है जो देखने में मजा आता है. दुनिया भर की किताबों में दर्ज सबूत पेश करके फिल्म को इस नतीजे पे ले जाया गया है की शास्त्रीजी की हत्या जहर देकर ही की गई थी. शास्त्रीजी के पार्थिव शरीर का पोस्टमार्टम क्यों नहीं किया गया था? उनका शरीर काला क्यों पड गया था? क्या सच में उनके मृत्यु के पीछे भारत की कोंग्रेस पार्टी और रशिया की जासूसी संस्था KGB का षडयंत्र था? ये सारे सवाल दर्शकों के सामने रख दिए गए है. बिना किसीका नाम लिए.

अभिनय में श्वेता बसु प्रसाद का काम बढिया है. (‘मकडी’ और ‘इकबाल’ में बाल-कलाकार की सशक्त भूमिका निभानेवाली छोटी सी लडकी यही श्वेता थीं) उनके हावभाव कमाल के है. मेथड होने के बावजूद उनका अभिनय बहोत ही स्वाभाविक लगता है, ये एक अभिनेत्री के रूप में उनकी उपलब्धि है. राजनेता के पात्र में मिथुन चक्रवर्ती का काम प्रसंशनीय है. नसीरुद्दीन शाह, पंकज त्रिपाठी, पल्लवी जोशी, मंदिरा बेदी और राजेश शर्मा जैसे कलाकारों ने भी अपने अपने किरदार में जान डालने की पूरी कोशिश की है, और वो सब अच्छा अभिनय करने में कामियाब भी हुए है, लेकिन उनके पात्र कुछ अधकचरे से रह गए मालूम होते है.

फिल्म में संगीत का कोई स्कोप नहीं था और जो एकाद-दो गाने बेकग्राउन्ड में बजते है वो कोई भी असर नहीं छोडते. बेकग्राउन्ड म्युजिक कहीं कहीं पर बहोत अच्छा है तो कहीं कहीं जरूरत से ज्यादा लाउड हो जाता है. केमेरा वर्क अच्छा है.

राजनीतिक फिल्में भारत में ज्यादातर बनती नहीं है, और जो बनती है वो भी कुछ खास दिलचस्पी नहीं जगा पाती है, क्योंकी उन में दिखाई गए कथा-प्रवाह को ड्रामेटिक लिया गया होता है और प्रस्तुत किये गए तथ्य किसी न किसी विचारशैली या एक एंगल से प्रभावित होते है. ‘द ताशकंद फाइल्स’ भी एसी ही एक फिल्म है. फिल्म में तीन खामीयां है. पहेली ये की ये फिल्म निष्पक्ष नहीं है. फिल्म देखते ही साफ हो जाता है की अगले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर इसे एक खास एजन्डे के तहद बनाया गया है. दूसरी ये की इस फिल्म में एकसूत्रता (कन्सिस्टन्सी) का अभाव है. फिल्म की शुरुआत में मेइन लीड रागिनी को बडी ही केर फ्री इटिट्युड वाली एक आम युवा भारतीय दिखाया गया है जिसको मोरल्स/एथिक्स से खास लेनादेना नहीं है, पर शास्त्रीजी की कहानी पे काम करना शूरु करते ही वो एकदम से सच्चाई की पूजारन बन जाती है, और सच की तह तक पहुंचने के लिए अपनी जान तक जोखिम में डालने के लिए तैयार हो जाती है. रागिनी के पात्र का ये जो ड्रामेटिक परिवर्तन दिखाया गया है वो हजम नहीं होता. तीसरी और सबसे बडी खामी ये है की, पूरी फिल्म में बहोत सारे सबूत पेश करने के बाद (जिन्हें देखकर दर्शक ये मानने लग ही जाते है की शास्त्रीजी की हत्या जहर देखर करवाई गई थी और किसने करवाई थी) आखिर में डिस्क्लेमर आ जाता है की जो तथ्य फिल्म में दिखाए गये है वो प्रामाणित नहीं किए जा सकते. डायरेक्टर ने अपने आपको कानूनी सिकंजे से बचाने के लिए एसा डिस्क्लेमर रख्खा होगा लेकिन ये तो तय हो ही जाता है की वो खुद फिल्म में दिखाए गए प्रवाह को ही सच मानते है.

कुछ खामीयो के बावजूद मेरा मानना है की प्रत्येक भारतीय को ये फिल्म देखनी चाहिए, ताकी सबको ये पता चले की आज तक हमसे कितने सारे जूठ बोले गये है और कितना सारा सच छुपाया गया है. पिछली सरकारों का कच्चा चीठ्ठा खोलनेवाली इस पोलिटिकल ड्रामा को मेरी ओर से 5 में से 3 स्टार्स.