Him Sparsh - 66 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | हिम स्पर्श - 66

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हिम स्पर्श - 66

66

संध्या ढलने को थी। समय, एक लंबी यात्रा करके सूरज को पश्चिम दिशा तरफ ले जा रहा था। जीत ने आँखें खोली तब गगन के रंग बदल गए थे। स्वच्छ नीले गगन पर कहीं कहीं सफ़ेद हिम जैसे बादलों की टोली घूम रही थी। कोई पंखी दूर दूर उन बादलों को स्पर्श करने की अपेक्षा लिए ऊंचे, अधिक ऊंचे उड़ रहा था। जीत की द्रष्टि ने उस पंखी का पीछा किया। पंखी अत्यंत ऊपर तक जा पहुंचा, जीत की द्रष्टि भी।

कुछ क्षण तक वह उस ऊंचे उड़ते पंखी को, भागते बादलों को, रंग बदलते गगन को देखता रहा।

“क्या रंग निखारे हैं गगन ने? वफ़ाई, देखो तो।“जीत बोला।

किसी ने उत्तर नहीं दिया। जीत पीछे मुडा, कक्ष की तरफ अपेक्षा से देखने लगा। वहाँ कोई नहीं था। वह निराश हुआ।

जीत, उठो और जा कर गगन के इस द्रश्य को केनवास पर उतार दो। तुम तो...।

जीत चौंक गया।

यह किसके शब्द थे? वफ़ाई के? नहीं, नहीं। वफ़ाई तो यहाँ है ही नहीं। तो फिर?

जीत ने नयन बंध कर दिये। दाहिना हाथ बायीं छाती पर रख कर ह्रदय के स्पंदनों को सुनने लगा। धीरे धीरे सब शांत होता गया। पुन: वही शब्द उसे सुनाई पड़े। वह शब्द स्पष्ट थे। वह वफ़ाई की ध्वनि नहीं थी। वह ध्वनि उसके ही ह्रदय से आई थी। जीत ने अपने ह्रदय की ध्वनि को माना, केनवास पर गगन के उस अप्रतिम द्रश्य को उतार दिया।

जीत कैनवास के चित्र को देखने लगा। गगन में देखा। गगन के कैनवास पर जो चित्र कुदरत ने रचा था वही चित्र जीत के कैनवास पर भी था। जैसे बिम्ब और प्रतिबिंब!

जीत प्रसन्न हुआ। बड़े दिनों के पश्चात उसने गगन की तस्वीर को कैनवास पर उतारा था। जीत ने कुछ और चित्र गगन के बना डाले। दूर क्षितिज में सूरज डूब गया। गगन ने फिर रंग बदल लिया, जीत के कैनवास ने भी।

चन्द्र निकल आया।

आज कल चन्द्र अल्प समय के लिए निकलता है, डूब जाता है। यह शुक्ल पक्ष का चन्द्र भी मेरे मन की भांति ही है। मेरे मन में जीवन की अभिलाषा जाग जाती है, छोटी छोटी बातें जीने की लालसा जगाती है, लालसा बढ़ाती है और उस लालसा को समझूँ, अनुभव करूँ उससे पहले ही वह हाथों से छुट जाती है। कितनी अल्पजीवी है यह लालसा? कितनी चंचल है यह आशाएँ? जैसा आज कल का चन्द्र।

देखते ही देखते चन्द्र अस्त हो गया। पश्चिम के उस कोने में जाकर ओझल हो गया जहां कुछ क्षण पहले सूरज भी डूब गया था।

अब ना तो सूरज है ना चन्द्र। केवल खुला गगन, जिसके आँचल में कुछ भी नहीं है। ना तारे हैं ना बादल। यह गगन भी कितना अकेला था? बिलकुल मेरे भांति।

अकेला? मैं अकेला हूँ?

वफ़ाई के यहाँ आने के पश्चात यह प्रथम अवसर है कि वफ़ाई नहीं है। इतने दिनों पश्चात अकेलेपन का अनुभव कितना सताने लगा है, डराने लगा है।

नहीं, मुझे डरना नहीं है।

तुम अकेले हो। वफ़ाई कहीं नहीं है इस बात को स्वीकार कर लो।

वफ़ाई नहीं है तो क्या हुआ? वफ़ाई के होने की अनुभूति तो मेरे साथ है।

कहाँ है वह अनुभूति?

वफ़ाई की अनुभूति इस झूले में, इस कैनवास में, इस भीत में, इस कक्ष में, इस घर में, इस रसोई में, इस हवा में, इस रेत के कण में, मौन दिशाओं में है।

“जीत, कहाँ खो गए हो?” जीत के बिलकुल समीप बैठते हुए वफ़ाई ने पूछा।

“मैं तो बस यूं ही...।”

“तुम मेरे विचारों थे ना?” वफ़ाई हंस पड़ी। उसका स्मित मरुभूमि की शांत दिशाओं में व्याप गया। दिशाओं ने उसकी प्रतिध्वनि जीत के कानों में डाल दी। जीत ने दिशाओं की तरफ देखा। दिशाएँ बिलकुल शांत थी। कहीं कोई ध्वनि नहीं थी, ना ही प्रतिध्वनि थी।

जीत ने झूले को देखा। वहाँ कोई नहीं था।

अभी तो यहीं थी, कहाँ गई वफ़ाई?

जीत तुम बावले हो गए हो। यहाँ कोई नहीं है। वफ़ाई भी नहीं है। तुम अकेले ही हो, बिलकुल अकेले।

तो फिर यह स्मित किसका था? कौन मेरे पास आकर मुझसे प्रश्न कर गया? कोई तो था? कौन था वह?

वह तुम्हारा भ्रम था, भ्रम।

ओह, भ्रम था तो क्या हुआ? था तो मीठा सा, सुंदर सा, मोहक सा।

भ्रम तो भ्रम ही होता है, ना मीठा, ना सुंदर और ना ही मोहक। जिस बात का भ्रम होता है उस बात का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। उसका स्मित, उसका प्रश्न, कुछ नहीं होता।

तो फिर यह सब क्या था? क्यूँ बार बार मुझे वफ़ाई के यहाँ मेरे पास होने की, मेरे साथ होने की अनुभूति हो रही है? क्यूँ उसकी बनाई हुई रसोई आज अधिक मीठी लगती है, भिन्न लगती है, स्वादिष्ट लगती है? क्यूँ ऐसा लगता है कि क्षण क्षण वह मेरे साथ है, मुझ से बात कर रही है? जैसे वह कहीं गई ही ना हो। क्या यह सब मेरा भ्रम है?

अब तो यह भ्रम भी नहीं रहा।

तो क्या है?

यह सब प्रेम है। प्रेम, प्रेम है, प्रेम।

प्रेम? जीत ने अपने दोनों हाथ अपनी छाती पर रख दिये।

हाँ जीत हाँ। यह प्रेम है।

यह प्रेम क्या होता है?

जब कोई व्यक्ति हम से दूर होता है, तब वह हमारे सबसे निकट होता है। किसी के होने से भी अधिक किसी के ना होने की अनुभूति सुंदर लगने लगे तब जो होता है, उसे प्रेम कहते हैं।

तुम्हारी यह बात सुनकर मेरा ह्रदय कहीं कोई स्पंदन चूक ना जाए।

जीत ने दोनों हाथ छाती पर दबा दिये। आँखें बांध कर ली। मौन सा बैठा रहा। झूला धीरे धीरे चलता रहा।

जीत ने जब आँखें खोली तब रात्रि लंबी यात्रा कर चुकी थी। भोर होने को थी। गगन फिर से रंग बदल रहा था। वह झूले पर पड़े पड़े गगन को देखता रहा। गगन के बादलों को देखता रहा, बादलों के बदलते आकारों को देखता रहा।

कितना अधीर होता था मैं इन बादलों के बदलते आकारों के लिए? उसे अपने कैनवास पर उतार लेता था। और आज देखो, इतने सारे आकार बदल रहे हैं यह बादल, और मैं उसे सोते सोते ही देख रहा हूँ। कितना उत्कंठ था मैं तब? और अब? कहाँ गई वह उत्कंठा? मैं नहीं जानता।

जीत झूले पर से उठा। धीरे धीरे कैनवास की तरफ बढ़ा। पुराने कैनवास को हटाया और नया लगा दिया। वह उसे देखता रहा। सफ़ेद कैनवास। पूर्ण सफ़ेद। कोई रंग नहीं, कोई रेखा नहीं, कोई चित्र नहीं और ना ही कोई दाग।

“कितना सुंदर लग रहा है?” जीत ने केनवास से कहा। “सुंदर तो लग रहे हो किन्तु पूर्ण रूप से अकेले लग रहे हो कैनवास जी। अकेले में क्या सुख? यदि मैं तुम पर कुछ रेखाएँ खींच दूँ तो? तुम्हारा एकांत भी दूर हो जाएगा और तुम रंगो से भी भर जाओगे। कैसा लगेगा? खींच दूँ कुछ लकीरें? डाल दूँ कुछ रंग?” जीत ने पुछ लिया। उत्तर में कैनवास मौन ही रहा। वह और कर भी क्या सकता था?

“अकेला तो मैं भी हूँ। अब मैं तुम पर कुछ लकीरें खींच कर, कुछ रंग डाल कर वफ़ाई का चित्र बनाता हूँ, तब देखना एक साथ हम दोनों का एकांत दूर हो जाएगा।“ जीत ने फिर से कैनवास से बात की।

हवा की एक लहर आई और कैनवास एक छोर से मूड गया, जैसे जीत की बात से सहमत हो।

जीत ने कैनवास ठीक किया।

वफ़ाई की कौन सी मुद्रा को कैनवास पर उतारूँ?

जीत सोचने लगा। वह बीते हुए प्रत्येक क्षण को पुन: जीने लगा।

कितनी सारी मुद्राएं है वफ़ाई की? हर मुद्रा सुंदर, हर मुद्रा अप्रतिम, हर मुद्रा मेरे ह्रदय के निकट।

पर तुम्हें किसी एक को पसंद करना होगा। नहीं तो यह कैनवास कोरा ही रह जाएगा, अकेला ही रह जाएगा। और साथ में तुम भी तो अकेले ही रह जाओगे।

कौन सी मुद्रा को तस्वीर में उतार लूँ?

वह तुम जानो। जो भी करना है उसे शीघ्र करना। दोपहर होते होते तो वफ़ाई लौट आएगी।

तो क्या होगा?

ज्यादा कुछ नहीं। फिर तुम अकेले नहीं रह जाओगे। वफ़ाई तुम्हारे सामने होगी किन्तु यह कैनवास अकेला रह जाएगा।

तो?

हो सकता है यह कैनवास रूठ जाय।

नहीं यार, कैनवास को रूठने नहीं दूंगा। मैं कोई न कोई मुद्रा ....।

जीत पुन: सोचने लगा। देर तक सोचने के पश्चात जीत तस्वीर बनाने लगा।

कैनवास पर लकीरें बनती रही, रंग घुलते रहे और कोई तस्वीर उभरने लगी। तस्वीर पूरी हो गई। जीत ने

तूलिका को डिश में रखा, बनी हुई तस्वीर को देखने लगा।

“वाह, क्या बात है। यह तो बिलकुल वैसी ही है। तब वह बिलकुल ऐसी ही दिखती थी। यही मुद्रा, दो हाथों का इसी तरह ताली बजाना, यही मुख, मुख पर यही स्मित, मुक्त झरने की भांति बहता उसका स्मित, हवा में उड़ती वह लट, मुख पर बालक से विस्मय के भाव। हाँ बिलकुल यही तो थी तस्वीर जब वह पहली बार मेरे सामने आई थी। मैं यहीं पर था, धरती पर झुक कर रंग और तूलिका समेट रहा था, कैनवास जमीन पर गिरा पड़ा था, एक बड़ा सा धमाका हुआ था और वह ना जाने कहाँ से आकर कैसे छत पर पहुँच गई थी। वह छत पर थी। वहाँ, हाँ, बस वहाँ ही थी, मुझे देख रही थी, हंस रही थी, मैं क्रोधित था। किन्तु मेरे क्रोध का उस पर कोई प्रभाव नहीं था। वह हँसे जा रही थी। वह छवि, वह मुद्रा। उफ़्फ़, क्या मुद्रा थी? अदभूत! ह्रदय के आर पार निकल जाने वाली वह मुद्रा। वह प्रथम मिलन, वह प्रथम दर्शन, कोई कैसे भूल सकता है?” जीत स्वयं से बातें करता रहा। कुछ दूर कैनवास पर ताजी जन्मी वफ़ाई की तस्वीर जीत को देख रही थी। जीत पर हंस रही थी।

जीत भी उस तस्वीर को देखता रहा। उसे आनंद प्राप्त हो रहा था। कुछ समय तक ऐसे खड़े रहने पर जीत थक गया। उसने कैनवास को झूले की तरफ मोड दिया, झूले पर जाकर बैठ गया। झूले से तस्वीर को देखता रहा, झूले पर झूलता रहा। मन में थोड़ा विषाद, थोड़ी आशा थी। वह संतुलित था।

सूरज माथे पर आ गया था। मध्धम शीतल हवा और सूरज की मध्धम किरने। ना उष्णता, ना शीतलता। जैसे दोनों का संतुलित संमिश्रण।