Daag dil ke in Hindi Short Stories by Rachna Bhola books and stories PDF | दाग दिल के....

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दाग दिल के....

दाग दिल के....

'नहीं-नहीं’, छोड़ दो, मुझे और परेशान मत करो।’ मीरा ने झटके से पैर हिलाया और गोंगियाने लगी। नींद गहरी थी इसलिए सपना टूटने में भी समय लगा। जागी तो पता चला कि वह किसी सूखी नदी में नहीं, अपने बिस्तर पर थी। कैसा हैरतनाक और डरावना ख़्वाब था। वीरान बियाबान में कोई सूखी हुई नदी थी और उसमें तड़पते, रेंगते जलसर्प उसके पैरों से आ लिपटे थे। वे उन्हें झटक कर जितना दूर करने की कोशिश करती। वे उतनी ही तेज़ी से उसकी ओर बढ़े चले आते। धीरे-धीरे उसके आसपास सर्पों की संख्या बढ़ने लगी थी।
हरे रंग के उन साँपों के बीच दम साधे खड़ी मीरा ने नदी को ध्यान से देखा तो पता चला कि यह तो उसके सूखे हुए आंसुओं की नदी थी। वही आंसू, जो कभी बहे नहीं, छाती में जमा होते चले गए और जब वहाँ भी रहने को जगह न रही तो वे रोष दिखाते हुए, आंसुओं की सूखी हुई नदी में बदल गए। वहीं पास मंे उसके मन में जमा हो चुके रोष ने भी टीले का रूप ले लिया था और उस पर पसरा एक अजगर अपनी भयावह दृष्टि उसकी ओर लगाए, बस पास आने की तैयारी में था।
मीरा ने कोने में रखे पानी का गिलास उठाया और सारा पानी एक ही बार में पी लिया। गला अचानक इतना सूखने लगा मानो रेत ही रेत भर गई हो। कुछ प्यासों के नाम पानी नहीं रेत ही बदी होती है। देह में सरसराती रेत के समंदर में प्यास दीवानावार भटकती है। जिस प्यास को उसका किनारा मिल जाता है, फिर वह कभी नहीं दिखती।
उसने कंधों पर शाॅल डाला और लैपटाॅप खोल कर बैठ गई। जब अति भी अपनी सीमा पार कर जाए तो उसे शब्दों के सिवा कहीं दिलासा नहीं मिलता। उसने नोट्स वाला फोल्डर खोला और दो क्षण के लिए आँखें मूंद लीं।
उसने ख़ुद से वादा किया था कि कभी नहीं लिखेगी दुःख, उदासी और अकेलापन, वह कभी दुःख को किसी दामी घड़ी सा कलाई पर चमका कर, सबकी नज़रें चैंधियाने का गुनाह नहीं करेगी। कभी किसी के आगे दुःख के सुरों से सजा गीत सुना कर, भरी महफ़िल में वाहवाही नहीं लूटेगी...
...पर जब दुःख तमगे सा सजा हो छाती पर तो ऊँगलियों के पोरों से रिस-रिस कर टाइपराइटर कीज़ के रास्ते खुद़-ब-खु़द स्क्रीन पर टाइप होता चला जाता है। कंप्यूटर पर एक-एक कर उसके अकेलेपन को मरहम सा देते शब्द नगीनों से दमकने लगे।

..कभी-कभी मन करता है कि पत्थर हो जाऊँ। भीतर से मेरे कोने तीखे और नुकीले होते जा रहे हैं। पास आने की कोशिश करने वाला लहू-लुहान हो सकता है। पास मत आना। कोई दिल मत छूना। कोई मत जताना प्यार। कोई मत दिखाना सहानुभूति। मुझे चिढ़ है तुम्हारी सहानुभूति से! मुझे नहीं पालनी कोई आस तुमसे। तुम्हारे साथ की आस दिन-रात मेरे पत्थर की नोक तीखी करती जा रही है। उससे घिसता चूरा धीरे-धीरे जमा होते हुए कठोर शिला का रूप ले रहा है।’
..कहते हैं कि दुःख हमें माँजता है पर क्या ज़्यादा मँजी हुई चीज़ों पर खरोंचों के से निशान नहीं पड़ जाते? उस चमक के बीच कहीं उन निशानों की यादें भी हमेशा के लिए दिलो-दिमाग में बस जाती हैं। मन की उदास और अकेली रखी शिला भले ही चमचमाने लगे पर उस पर पड़ी वे रेखाएँ बार-बार याद दिलाती हैं कि उस चमकीले आवरण के पीछे जाने कितनी रातों और लम्हों की आहें और वेदना छिपी है। जाने कितने न कहे गए शब्दों का बोझ लिए डोलती है शिला। उसी शिला पर टूटे सपनों की किरचियाँ भी तो निशान छोड़ जाती हैं। पुराने रिश्तों की टूटन का भार सहती मन की शिला अहिल्या से भी होती है कठोर!! अहिल्या का उद्धार राम ने किया परंतु उस शिला का उद्धार किसी राम के भी वश में कहाँ?’

.....मन की असीम चुप्पी के बीच उसके एक शब्द का मरहम जाने कितने पुराने टीस से भरे घावों पर लेप कर जाता है। कभी-कभी लगने लगता है कि ये घाव बरसों-बरस चुपचाप अपने भीतर इसलिए ही बने रहते हैं कि उन्हें उस एक शब्द का मरहम, उस एक शब्द का आसरा मिलेगा तो वे अपने गंतव्य की ओर बढ़ेंगे। फिर धीरे-धीरे जैसे उनका साथ ही नियति बन जाता है और शब्द के मरहम की तलाश में रिसते, लहू टपकाते घावों के घिसटते पैरों की आवाज़ लगातार खुट-खुट सी मन-महल की दहलीज़ों पर लगी कंुडियों को खटकाती रहती है।’
लिखते-लिखते मीरा ने देर से घनघना रहे अलार्म पर हाथ दे मारा मानो मन का सारा आक्रोश उस पर ही निकाल देना चाहती हो. मन इतना भारी है जैसे किसी ने मनों भारी पत्थर रख दिया हो. एक-एक साँस ऐसे आ रही है जैसे उस पर कोई एहसान जताना चाहती हो. आँखों की कोरों पर पिछली रात के आँसुओं के दो कतरे जैसे विदा लेते-लेते ठिठक गए. किसी की गमी में उसे यूँ अकेला छोड़ देना भला अच्छा लगेगा. शायद यही सोच कर गालों से छूते हुए बहने का लोभ संवरण कर गए होंगे.
आजकल उसका रोने का बहुत मन रहता है। जी करता है कि बस कहीं भी, कभी भी, मौका पाते ही रोने लगे। अभी आॅफ़िस में कल की ही तो बात है। मिसेज शर्मा ने गले से लगा कर प्रमोशन की बधाई क्या दी। उसका दिल चाहा कि उनके गले लग कर रोने लगे। उनके स्पर्श की ऊष्मा पाते ही आंसू उमड़ आए और उसके लिए उन्हें छिपाना भारी हो गया। पता नहीं, इतना रोना भीतर कहाँ छिपा रहता है...
कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि जिस तरह हम खाना खाने रेस्त्राँ जाते हैं, पूजा-पाठ करने को मंदिर बने हैं। फ़िल्में देखने को थियेटर बने हैं। उसी तरह मन का गुबार हल्का करने को, रोने के लिए भी कोई जगह तो होनी चाहिए। बस किसी के कंधे, छाती या पीठ के सहारे की ज़रूरत ही महसूस न हो। आप रोना चाहते हैं, उस जगह पर जाएँ। अपने लिए निर्धारित जगह पर बैठंें और अपनी मनोदशा के अनुसार चीख कर, गला फाड़ते हुए, ज़ार-ज़ार बहते हुए या फिर भीतर ही भीतर दबे आंसुओं के साथ अपना मन हल्का कर लें। आपसे आपके रोने की वजह न पूछी जाए। आपके आसपास बैठे लोगों के पास अपना ही इतना रोना हो कि उन्हें दूसरों के रोने की वजह जानने का न तो कोई कौतूहल और न ही इच्छा। काश! वह भी किसी ऐसी जगह का पता पा जाती।
आज उसका अपने पति अवि से अबोला हुए चार दिन बीत गए पर दूर- दूर तक कहीं भी आपसी सुलह के हालात नहीं दिख रहे जैसे वो इन पलों को भरपूर जी रहा हो. अपने पौरुष की विजय के मद में चूर. कौन कहता है कि अब खुलेआम जंग नहीं होती. इंसान सभ्य हो गया है, अब उसे मैदान में लहूलुहान शवों को देख कर तृप्ति पाने की आस नहीं रही पर ये प्यास ज्यों की त्यों है. अब भी उसे इसी तरह दूसरे को अपने आगे झुकाने, उसे एड़ियां रगड़ने को विवश करने का चाव है बस अंतर केवल इतना है कि यह सब हथियारों के साथ नहीं होता. तलवारें नहीं चलतीं, तोपें नहीं दागी जाती, केवल छोड़े जाते हैं शब्दभेदी बाण, जिनकी मार किसी भी नाभिकीय हथियार से भी कहीं गहरी और मर्मभेदी होती है. फिर जब अरमानों का लहू बहता है तो उसे देख अपनी जीत का उल्लास दुगना हो उठता है. ख़ैर ऑफ़िस तो जाना ही होगा.
मन मार कर उठी और घर का सारा काम निपटाने लगी. रसोई में झूठे बर्तनों का अंबार लगा था। अवि अपने-आप ही नाश्ता करके निकल गया था। इन दिनों जैसे मीरा की शक्ल भी देखना पाप हो गया था।
फ़ोन पर धीमे सुर में जगजीत सिंह धीमी मखमली आवाज़ में उसके आंसुओं पर मरहम लगाने की कोशिश कर रहे थे:

नहा कर शीशे के आगे तैयार होने आई तो काम करने वाली बाई पोंछा लगाने वहीं आ गई.
दोनों ने कनखियों से एक-दूसरे को देखा। काम वाली बाई भी पिछले कुछ दिनों से उनके घर के बदले हुए हालात को देख रही थी। हालांकि उसका काम बोलने का नहीं था इसलिए चुपचाप काम करके लौट जाती लेकिन हमेशा की खिलंदड़ मीरा का मुरझाया हुआ चेहरा उससे छिपा तो नहीं था।
मीरा क़ी नज़र अचानक बाई के बाजू पर पड़ी. पति की मार के निशान लाल दाग के रूप में उभर आये थे जिन्हें छिपाना लगभग नामुमकिन था. ब्लाउज के बाजू से झलकते वे निशान, बेहरमी से मरोड़ी गई बाजू की गवाही दे रहे थे। बस उसे देखने भर से पूरे घटनाक्रम का अनुमान लगाया जा सकता था।
नेहा के चेहरे पर घनी उदासी के बीच भी मुस्कान खेल गई. दिल की चोट तो बड़े आराम से छिपाई जा सकती है कम से कम ये दाग कहीं दिखाई तो नहीं देते. उसके हाथ तेज़ी से सूजी हुई आँखों के नीचे पफ फिराने लगे.


© रचना भोला ‘यामिनी’