Vaisi ladki in Hindi Moral Stories by Ravi books and stories PDF | वैसी लड़की

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वैसी लड़की

1

सब से सुना पन महसूस हो रहा है। इस फैले हुए आसमान से, धूप से। धरती सबसे छोटी हो चुकी है। जैसे इस धरती पर कोई है ही नहीं। हवा चेहरे को और भी ज़्यादा सूखा रही है। पता नहीं गीता को मेहंदी में ऐसा क्या दिखता है कि उसकी खुशबू भर से बेहद गंभीर हो बैठती है। उसने साफ कह रखा है कि मेहंदी उसकी शादी के लिए नहीं है बल्कि उसके मन में खोए हुए किसी रंग को तलाशती है। मेहंदी की खुशबू उसे सबसे अधिक प्रिय है। उसी से उदास भी हो जाती है।

गीता मेहंदी से अपने हथेली के बीच एक गोल आकार बना लेती और सारा दिन उसे सूंघते रहती। अपने शरीर के किसी हिस्से को महसूस करना उदासी क्यों लाता है। उस हिस्से में कोई भी चीज हो सकती है। मेहंदी गीता का वो हिस्सा हो चुका था जिसे वह खुदसे दूर नहीं करना चाहती थीं। उसे बिल्कुल मंजूर नहीं था मेहंदी के बिना रहना। और उस से पूरा हाथ भी नहीं भरना चाहती थीं।

"चल इमली तोड़े?" रमा ने कहा।

गांव से थोड़ी दूर एक पुराने खंडहर हो चुके घर के बरामदे में बैठे है। गीता शून्य में खोई हुई थीं। मेहंदी लगे हाथ को सूंघती और अपनी आँखें बंद करके महसूस करती। अपने बालों को हमेशा आखरी हिस्से से हल्का गिला रखती। उन्हें यूँ ही छोड़ देती। शायद कहती हो कि सारी दुनिया की मायूसी समेट लो। या अपने मन से कहीं भी चले जाओ और दिन भर खेलते रहो।

"चल न!" इस बार रमा ने कहा तो गीता को गुस्सा आ गया।

"नहीं तोड़नी!" गीता ने कहा और फिर कहीं खो गई।

"तुझे क्या हो जाता है! इमली खानी नहीं थी तो यहाँ क्यों लेकर आई!" रमा ने उस से उसी की शिकायत की।

गीता ने कई क्षण रमा की ओर देखा। उसकी एक जोरदार हँसी निकल पड़ी। रमा ने अपने दोनों हाथ कमर पर रख लिए।

"अच्छा! मैं अकेले तोड़ू!" रमा ने उसी अंदाज से कहा। सुनकर गीता और हँसने लगी।

रमा बीस बरस की है। गीता से तीन बरस छोटी। दिन भर दोनों अपनी मस्ती में गुम रहते। रमा पाँचवी और गीता मेट्रिक तक स्कूल गई है। गांव, शहर से शायद सौ साल पीछे है। लड़की को कैसे भी बस एक लड़का मिल जाए और घर बसा लें। इस से ज़्यादा फिक्र और कुछ नहीं होती। 

"चल मैं तुझे इमली तोड़कर देती हूं!" गीता ने कहा और इमली के पेड़ पर चढ़ने के लिए खुदको तैयार करने लगी। 

"इमली के पेड़ पर भूत होते है न!"
रमा ने मासूमियत से कहा। ये बात उसे इमली के पेड़ को देखकर याद आती है। और हर बार गीता उसे अनसुना कर देती है। गीता ने दुपट्टा कमर पे बांध लिया और पेड़ पर धीरे-धीरे चढ़ने लगी। इस पेड़ की एक भी डाली नीचे नहीं झूलती थी। इमली को चढ़कर ही तोड़ा जा सकता था। गीता को इमली तक जाने वाले सारे रास्ते पता थे।

 "वो वहाँ!" नीचे से रमा ने कहा।

"पता है मुझे!" गीता ने उसकी बात का जवाब दिया।

"इतनी बहुत है?" गीता ने पूछा।

"हाँ..! अभी नीचे आ, बाकी बाद में तोडेंगे!" रमा ने कहा।

गीता ने नीचे उतरकर उसे इमली दी। दोनों पेड़ के नीचे छांव में बैठ गए। 

"नमक-मिर्च तो भूल ही गई!" रमा ने बिगड़े हाव-भाव से गीता को देखते हुए कहा।

"आज ऐसे ही खा ले!" गीता ने एक इमली को साफ करते हुए कहा।

"तेरा हाथ दिखा..!" रमा एक हाथ से इमली खाते हुए और दूसरे हाथ से गीता का हाथ पकड़ते हुए बोली। गीता ने उसे अपनी मेहंदी दिखाई जो गोल आकार की है। 

"तू बड़ी हो गई न! बड़ी लड़कियां मेहंदी लगाती है!" रमा ने कहा।

"तू भी तो बड़ी हो गई! अब लगा सकती है! तू एक काम कर आज घर में घुसते ही बड़ी आवाज़ से कहना 'मैं बड़ी हो गई हूं। अब मेरे हाथों में मेहंदी लगवा दो।' कहेगी न!" गीता ने मंद-मंद मुस्कुराते हुए कहा।

"कहूंगी!" रमा ने इमली की बीज को थूकते हुए कहा।

"तू पूरे हाथ में क्यों नहीं लगाती!" रमा ने फिर पूछा।

"मुझे इतनी ही पसंद है! जब शादी होती है न! तब पूरे हाथ में लगाते है।" गीता ने कहा।

"तो तू शादी क्यों नहीं करती!" रमा ने कहा तो गीता एक पल के लिए खामोश हो गई और शून्य में देखने लगी। बीस साल में गांव की सारी लड़कियां समझदार हो जाती है। और उनमें बड़प्पन आ जाता है। लेकिन रमा दिखने में बीस साल की थीं पर समझ में पंद्रह साल की। 

"चल! घर चले!" रमा ने उठते हुए कहा। 

गीता और रमा को दुनियादारी की उतनी समझ नहीं थी। रमा को अभी ठीक से होश नहीं आया था। और गीता फरवरी-मार्च के बीच का वो वक्त था जिसमें शीत का ऊष्मा में प्रवेश होता है। इन लड़कियों को सोने-चांदी से बने जेवर नहीं पसंद थे इन्हें कच्चे आम, इमली, और बेर का भोला पन और सादा पन भाता था।

रास्ते में रमा कभी खेतों में घुसकर मिट्टी को उछालती तो कभी नए-नए कच्चे आम में बदलते फूलों को गिराने की कोशिश करती। उसके और गीता के घर पर बैलगाड़ी, भैंसे, और कई सारी मुर्गें-मुर्गियां है। दोनों के घर मिट्टी के बने है। दोनों के बीच तीन-चार घरों का फासला है। गांव की लड़कियों को जलते चूल्हे से निकलते हुए धुएं से तकलीफ नहीं होती बल्कि उनकी आँखें साफ हो जाती है। 
और उनमें से जो पानी बहता है वो परिपक्व होने की ओर जाने के संकेत है।

गीता और रमा अपने-अपने घर आ गए। गीता के पिता एक मेहनती किसान है। रमा के पिता गांव की ही किसी औरत के साथ भाग गए थे। रमा का एक भाई है जो घर में खाने के लिए पैसे कमा कर लाता है। गीता भी उसे कुछ-न-कुछ ज़रूरत का सामान देती रहती है। 

गीता ने एक टिन के छोटे भगौने में चाय बनाई। चीनी के दो छोटे कपों में चाय भरी एक कप माँ को दिया और एक खुद लेकर बैठ गई। 

"माँ! मुझे भी शादी करना पड़ेगी?" गीता ने पूछा।

"तुझसे कौन शादी करेगा! दिन भर यहाँ-वहाँ होती रहती है। तुझसे लड़कियों की तरह नहीं रहा जाता!" गीता की माँ ने हाथ को नचाते हुए कहा।

"ये देखो मेहंदी!" गीता ने हाथ दिखाते हुए कहा।

"मेहंदी पूरे हाथ में लगे तो अच्छा है। लोग चार बातें करते है। ऊंट सरिकी की हो गई है अक्ल अब तक नहीं आई। क्यों फिरती रहती है पागलों सी..!" गीता की माँ ने थोड़ा सा गुस्सा जताते हुए कहा।

"क्यों कि मैं तुझसे दूर नहीं जाना चाहती!" गीता ने माँ से लिपटते हुए कहा।

"दूर नहीं जाना चाहती! अब तू बड़ी हो गई है। अपना अच्छा-बुरा समझती है। तुझे देखने आएंगे तो इन कपड़ों में सामने आएगी! ये सलवार सूट कितना गंदा हो गया है।" माँ ने उसके कपड़ों को देखते हुए कहा।

"मेरे पास ये एक ही सलवार सूट है।" गीता ने परे देखते हुए कहा।

माँ ने उसे घूरकर देखा और उठकर पलंग के नीचे रखे पुराने कपड़ों में से एक नया सलवार सूट निकाला।

"ये क्या है!" माँ ने उसके सामने रखते हुए कहा।

"ये क्यों निकाला!" गीता तिलमिला उठी। 

"क्या करेगी इसका..तीन महीनों से एक ही कपड़े पहने हुए है तूने!" माँ ने जोर देते हुए कहा।

"मुझे नए कपड़े मिलते ही कहां है माँ! ये दो कपड़े लिए हुए भी पूरा एक साल हो गया है!" गीता ने कहा और मुड़कर दरवाजे से बाहर देखने लगी।

"तेरे पिता से कहूंगी तुझे हर महीने एक सलवार सूट दिलाए!" माँ ने कहा तो गीता के चेहरे पर मुस्कान आ गई। 

"एक मेहंदी का पैकेट भी! मैं सुबह नहा चुकी हूं! अब कपड़े बदल लेती हूं।" कहते हुए गीता नए सलवार सूट को लेकर छोटे से बाथरूम में चली गई।

रमा को परिपक्व होने में अभी समय था। वह गीता का वो वाला हिस्सा है जिसमें गीता को उम्र से कम होने का मौका मिलता है। गीता बेहद खूबसूरत नहीं है। उसे चाँद सा नहीं कहा जा सकता। उसे पसंद नहीं आएगा कोई उसे परियों सा कहे। गीता गीता सी भी नहीं है। कुएं से पानी निकालने वाली लड़की को क्या कहा जा सकता है। हरियाली को हरा कहे तो ही बेहतर है। 

रमा का भाई उसे किसी चीज की कमी नहीं होने देता। पूरे गांव में उन्हीं के घर के सामने एक बाइक खड़ी रहती। गांव गरीबी से जूझ रहा है। किसी पहल की ज़रूरत थी। गांव में ऐसा कोई नहीं था जो गांव की दशा-दिशा बदल सके। गीता के पिता को गीता की फिक्र है। एक तरफ फसलों के कम दाम की चिंता और फसल में लगाई रकम के दुब जाने का डर। साथ ही गीता के कन्यादान का इंतज़ार। 

गीता प्रेम जो जीना चाहती थीं। अपने हर अंग को महसूस करती थीं। मेहंदी से उसका लगाव इस बात को जोर देता है कि उसका मन परिपक्व है। उसकी मुस्कान में एक तस्वीर है जिस में मांडा गया है कि उस से प्रेम करने वाला कभी प्रेम का भूखा नहीं होगा। गीता शारीरिक प्रेम से निकल कर रूह के प्रेम में समा रहीं थीं। बिना किसी प्रेमी के। उसका प्रेमी मेहंदी है। मेहंदी की महक उसके माथे पर चुम्बन है, और मेहंदी का लगाना खुद में प्रवेश करते किसी चेतना का दंश है।

2

गीता ने भागकर दरवाजा खोलना चाहा तो गांव के दबंग लड़के ने उसका हाथ पकड़ कर वापस पलंग की ओर धकेल दिया। गीता को घर में अकेला पाकर घुस आया था। इस तरह की हज़ारों घटनाएं होती है। हज़ार बार दलील दी जाती है। हज़ार बार आँखें रोती है। और हज़ार बार गीता सी किसी लड़की को इस शर्मनाक हरकत का सामना करना पड़ता है।

"यहां से चले जाओ, मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूँ!" गीता ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।

"करने दे न एक बार! क्या चले जाएगा तेरा!" उसने गीता पर झपटते हुए कहा।

"मैं शोर मचाऊंगी!" गीता ने कहा।

"तो चिल्ला न!" उसने गीता की छाती पर हाथ मारते हुए कहा। गीता का मुंह हाथों से दबा लिया गया था। उस जानवर की गंध से उसका मन विचलित हो रहा था। एक तरफ मेहंदी की प्यारी महक थी और एक तरफ ये गंध थी जो उसके नाक को गंदा कर रही थी। उसे उल्टी आ रही थी। खुदको उस दरिंदे की पकड़ से छुड़ाने की कोशिश में उसका माथा पसीने से भीग गया था। वह आखरी दम तक खुदको समर्पित करना ही नहीं चाहती थीं। किसी भी कीमत पर।

"छोड़ो!" गीता ने उसके चेहरे पर नोचने की नाकाम कोशिश की।

"खोल न जल्दी!" उस लड़के ने गीता को एक थप्पड़ मारते हुए कहा। तभी दरवाजा खटखटाने की आवाज़ आई जिसे सुनकर लड़के ने एक क्षण के लिए अपनी पकड़ ढीली करदी जिसका फायदा उठाते हुए गीता उसकी पकड़ से झट से अलग हुई और जाकर दरवाजा खोल दिया। दरवाजे पर गीता के पिता खड़े थे।

"तूने तो कहा था कोई नहीं आएगा!" उस लड़के ने पहले गीता को फिर गीता के पिता को देखते हुए कहा। 

"ये झूठ बोल...!" इससे पहले कि गीता की बात पूरी हो पाती उसके गाल पर पिता द्वारा एक भरपूर थप्पड़ पड़ चुका था। लड़का शर्ट पहनते हुए वहां से चला गया।

पिता सिर पकड़कर वहीं ज़मीन पर बैठ गए। जैसे सबकुछ समाप्त हो चुका था। माँ सिर पर लकड़ी का भार लेकर पहुँची ही थी कि पिता ने उसे जैसे किसी के मरने की खबर सुनाई। गीता को मुजरिम घोषित कर दिया गया था। बिना उसकी बात सुने। गांव में दुपहरी का समय। एक घर में मातम सा सन्नाटा। 

"अब जी कर क्या करेगी ये! कौन करेगा इस से शादी!" पिता ने आंसू पोछते हुए कहा।

"सारा गांव हम पर हँसेगा! पहले ही कोई शादी करने को तैयार नहीं था! ऊपर से अपना मुँह काला कर लिया!" माँ ने कोसते हुए कहा।

"उसने मेरे साथ जबरदस्ती..!" 

"चुप रे रंडी!" माँ ने गीता को बोलने से रोक दिया।

"इस से पहले की सारे गांव में ये बात फैल जाए, हम इसी वक्त गांव छोड़ कर चले जाएंगे।" पिता ने कहा।

"वो लड़का अपनी बहादुरी का किस्सा पूरे गांव में बतियाता फिरेगा! जब घर में ही कलमुँही हो तो बाहर के लोगों को क्या मुंह दिखाए!" माँ ने पलंग के पास ज़मीन पर बैठी गीता को देखते हुए कहा। 

रास्ते में गीता, माँ-पिता से पीछे चल रहीं थीं। सिर पर बर्तनों का भार था। हवा उसके बालों को उड़ा रही थी। उसके बाल अब भी हल्के गीले थे। पुराने खंडहर के पास से गुज़रते हुए इमली के पेड़ को देखकर उसे रमा याद आई। रमा अब उसे कहाँ मिलेगी। सिर पर रखे हुए बर्तन एक कपड़े में बंधे हुए थे। गीता ने उन्हें एक हाथ से संभाला और दूसरे हाथ में मेहंदी से बने गोल आकार को सूंघ लिया।