फ्यू -फाइन्ड इटर्निटी विदिन
A collection of liveable thoughts
© Sanjay V. Shah
प्रथम संस्करण
जनवरी, 2019
मूल्य 80.00
डिजाइन, प्रकाशक
मांगरोल मल्टीमीडिया लिमिटेड
बी-603, सहयोग अपार्टमेंट,
एस. वी. रोड, सेंट्रल बैंक के ऊपर,
कांदिवली (प), मुंबई - 400 067
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वितरक
मुद्रक
१) रोने ना दीजिएगा, तो गाया ना जाएगा - समीर
जीवन मिलते ही पहला काम क्या करना होता है? रोना पड़ता है। जो रोया नहीं, वो जिंदा नहीं। आँसू और आस, दोनों शब्दों में समानता भी तो है। लेकिन कितना रोएंगे, कब रोएंगे, क्यूँ रोएंगे, इसकी मात्रा तय करनी है। गायक-गीतकार विज खलीफा ने ठीक ही कहा है, किसी बात पर रोना ही है, तो जी भर के रो लीजिए, लेकिन यह भी तय कर लीजिए कि उसी बात को लेकर फिर कभी नहीं रोएंगे। अच्छा जीवन जीना वही है, जिसमें रोने को दृढ़ होकर, “ना जी,” यानी कि “जी नहीं” कह दिया जाये। आवेश, भावनाओं एवं सोच पर थोड़ा काबू रखने से आँसू कम बहते हैं और मशक्कत भी कम होती है। थोड़ा-सा सुधार लाना पड़ता है, थोड़ा मजबूत बनना पड़ता है। थोड़े को लेकर जो समझौता कर बैठते हैं, वो बहुत ज्यादा रोते हैं। जो रोते हैं, वो खोते हैं, जीने का आनन्द और हँसने के सुनहरे मौके भी। और हम वो नहीं हैं, जो अच्छे मौके गवाँ दें।
२) चल अब जिंदादिली की बात कर
कब तक रटा हुआ बोलता जाएगा - हितेन आनन्दपरा
पहले के लोग अलग थे। सिद्धान्तों के लिए, महत्त्वाकांक्षाओं के लिए उनमें जिद होती थी और असामान्य कार्य करने के लिए नित्य उत्सुक रहते थे। आज सबको सुरक्षा चाहिए। अच्छे क्रमांक से उत्तीर्ण होने के बाद अच्छी नौकरी के लिए भागना... फिर तरक्की की चिन्ता। फिर पेंशन की चिन्ता। इसी चिन्ता में कईं लोग अपनी प्रतिभा को नज़रअंदाज कर बैठते हैं। ये तक भूल जाते हैं कि साहस दिखाने के लिए सर्वश्रेष्ठ समय जवानी है। जवानी में जी भरकर जीने के बजाय, “एक बार सेटल हो जाऊँ, फिर तो बहुत कुछ करूँगा” ऐसी बहानेबाजी का क्या अर्थ है? सच तो ये है कि जीवन में सेटल ही नहीं होना है, जीवन को हमें अपने तरीके से सेट करना है। किसी ने दिखाया, किसी ने सुझाया, किसी ने डराया... इस किसी के पीछे ही हमारा सारा जीवन व्यर्थ चला जाता है। यदि इस तरह का रोना नहीं रोना है, तो जिंदादिली दिखानी ही पड़ेगी। जीत उसी से हासिल होगी।
३) चार जनवरी 1900 में अमेरिका के लॉस एंजेलिस शहर में स्वामी विवेकानंद ने “कर्म और उसके रहस्य” पर भाषण दिया था। उन्होंने कहा था, “हम सब भिक्षुक हैं। हम जो कुछ भी करते हैं, उसके बदले में कुछ ना कुछ पाने की इच्छा रखते हैं। हम सभी बनिये हैं, हम जिंदगी का व्यापार करते हैं। धर्म का भी व्यापार करते हैं। अरे रे! हम प्रेम का भी व्यापार करते हैं।” इंसान की फितरत है - एक हाथ से ले, दूजे हाथ से दे। क्यों? फिर भी क्या परिवर्तन सम्भव नहीं है? सम्भव है। गाँधीजी ने कहा था कि जो परिवर्तन आप विश्व में देखना चाहते हैं, वो पहले स्वयं में लाएँ। आज की सोच, आज का व्यवहार ही कल का इतिहास है। हमें कैसा इतिहास मिला, उसे जाने दें, हम कैसा इतिहास रच सकते हैं, इस पर ध्यान दें। रोज एक अच्छा काम करने की आदत डालें। रोज किसी एक बुरे काम से बचने का नियम पालें। चमत्कार होकर ही रहेगा।
४) नाक और दिमाग में कुछ कमाल की समानताएँ हैं। दोनों शरीर के बहुत ही महत्त्वपूर्ण अंग हैं, लेकिन दोनों को सँभालने के लिए न्यूनतम कष्ट उठाना पड़ता है। आप जागते रहते हैं या सो जाते हैं, नाक साँस लेने और छोड़ने की क्रिया को जारी रखती है। आप चाहें या न चाहें, दिमाग कुछ ना कुछ सोचता ही रहेगा। सोचने में दिमाग का आखिर जाता भी क्या है? अगर किसी का कुछ जाता भी है, तो सोचने वाले का जाता है।
दिमाग को नाक से काफी कुछ सीखने जैसा है। नाक को आखिर नाक होती ही कहाँ है कि वो जगह या किस्म देखकर साँस ले? नाक इतनी मनमौजी है कि वो तो बस साँसे लेते ही जाती है। हवा स्वच्छ हो या दूषित, देशी हो या विदेशी, किसे परवाह है? नाक स्वार्थ की एक परम प्रतीक है। तभी तो उसमें जीवन को गर्व के साथ अनवरत काम करने की क्षमता है। दिमाग भी अगर ऐसा ही होता, तो जीवन में नाटकीय परिवर्तन आ सकता है। क्या विचार है आपका, इस विचार के बारे में?
जरा सोचिए, दिमाग तो अपना ही होता है, लेकिन उसमें विचार दूसरों के बारे में ही चलते रहते हैं। विचार भी ज्यादातर विकारों वाले यानी स्वार्थ, द्वेष, अहित आदि से परिपूर्ण होते हैं। प्रेम, करुणा और भलाई के विचार तो कम ही जन्म लेते हैं दिमाग में। एक मित्र दूसरे से कहता है, “एक साल में आयुष के जैसी ही कार लेनी है,” तो एक व्यापारी दूसरे से कहता है, “एक साल में मुझे अपने व्यापार को अपने प्रतियोगी से दोगुना करके दिखाना है।” अगर यह दिमाग फितूर नहीं, तो और क्या है? अपनी जैसी भी स्थिति है, उसमें संतुष्ट नहीं रहना और दूसरों की स्थिति देखकर दुःखी होना अयोग्य नहीं तो क्या है? मछली और मगरमच्छ दोनों ही पानी में रहते हैं, लेकिन मछली कभी मगरमच्छ बनने के बारे में सोचती भी नहीं, फिर इंसान क्यूँ वो ही बनना चाहता है, जो दूसरे होते हैं? विचार करने के पैसे नहीं लगते, लेकिन बुरे और निरर्थक बातें सोचने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। इतनी बड़ी कीमत कि जो जीवन की दिशा और दशा दोनों को गलत राह पर ले जा सकती है। इसीलिए क्या सोचना है, कब सोचना है, कितना सोचना है और किसके बारे में सोचना है, ये अपने आप में बेहद महत्त्वपूर्ण बात है। हमारे हर विचार का सीधा सम्बन्ध हमारे निजी जीवन और जीवन के लक्ष्य से होना चाहिए। साँस का कार्य उम्र में वृद्धि करना है, तो विचार का कार्य है जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाना। विचार, सुख, संतोष और सहकार्य के बैंक बनें, ना कि पीड़ा का टैंक, इस बात की चौकसी सदैव रखनी चाहिए। नाक में दूषित हवा जाएगी तो उसकी त्वरित प्रतिक्रिया होगी। इसी तरह अगर गलत विचार आएंगे, तो देर-सवेर से ही सही, लेकिन उनकी गम्भीर प्रतिक्रिया होगी। अब कहिए, आपके मन में कैसे विचार चल रहे हैं? बुद्ध बनना है या बुद्धू, इस बात पर गम्भीरतापूर्वक विचार आपको ही करना पड़ेगा। अच्छा और आदर्श इंसान बनना है, तो अच्छा सोचिए और अच्छे के लिये सोचिए। कुँए में कोई पत्थर फेंके तो भी कुँआ पानी ही देता है, बदले में वो कभी पत्थर नहीं उछालता। हमें भी अपने सुख और अपनी अच्छाई के लिए हर पत्थर का जवाब अच्छा ही देना है। विचारों में छुपे भेद से बढ़कर कोई शास्त्र या वेद नहीं है। इस वेद को अगर समझ पाये तो उन्नति होगी ही और वो भी सर्वश्रेष्ठ।