Pale insaniyat jisme mai vo daalana ho jau in Hindi Motivational Stories by Rakesh Kumar Pandey Sagar books and stories PDF | पले इंसानियत जिसमें मैं वो दालान हो जाऊं

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पले इंसानियत जिसमें मैं वो दालान हो जाऊं

१-

"पले इंसानियत जिसमें मैं वो दालान हो जाऊं"

तमन्ना है तेरे सजदे में मैं,कुर्बान हो जाऊं,

चले जो पीढ़ियों तक,वो बना दीवान हो जाऊं,

ये क्या हिन्दू, ये क्या मुस्लिम,हैं सब बेकार की बातें,

पले इंसानियत जिसमें,मैं वो दालान हो जॉऊँ।।

फिक्र किसको है रिश्तों की,सब अपने आप में उलझे,

है कैसा स्वार्थ का जाला,सुलझकर भी जो ना सुलझे,

न मुझको दीद की चाहत,न जन्नत की तमन्ना है,

मैं था इंसान, रहूँ इंसान,और इंसान हो जाऊं।।

मेरी खुशियों की चादर भी,तू उनको सौंप दी ईश्वर,

कफ़न हैं बांध निकले,वो माँ के मस्त दीवाने,

भला कैसे चुकाएंगे है उनका,कर्ज जो हमपर,

बदौलत उनकी किलकरी,है गूँजे द्वार दालाने।।

२-

"बस इतना सा तू ज्ञान दे दाता"

पुराने पेड़ की बगिया, हमें हरदम पुकारेगी,

कोई आके भगीरथ तार दे, आँखें निहारेगी,

बचा लूँ इस धरा को, ऐसा तू वरदान दे दाता,

नहीं कुछ चाहिए बस इतना सा तू ज्ञान दे दाता।।

गली है मौन वो आएगी तब झाड़ू लगाएगी,

हमारे स्वार्थ का कूड़ा,वो आ करके उठाएगी,

गिरूं ना अपनी नजरों में, न बच्चों को गिराऊं मैं,

नहीं कुछ चाहिए मुझको, यही श्रमदान दे दाता।।

क्या लौटेंगे जो दिन बीते, हमारी बुढ़िया काकी के,

धरा है माँ कभी कहते थे कुर्ता पहन खाकी के,

अब वो दिन हैं जो माँ रहती है वृद्धाश्रम के आंगन में,

मेरी मुस्कान के बदले उसे मुस्कान दे दाता।।

जो थे रक्षक बने भक्षक, है जाने कैसी लाचारी,

सिसकती है गली में प्यारी सी बिटिया की फुलवारी,

यहां सब एक से, किसको कहूँ कि कौन सच्चा है,

धरा के बूथ पर आकर तू ही मतदान दे दाता,

नहीं कुछ चाहिए, बस इतना सा तू ज्ञान दे दाता।।

३-

"बूढ़ा बाग"

गाँव के बिल्कुल किनारे एक अकेला बाग हूँ,

सदियों की यादें संजोए, करुणा की आवाज हूँ।।

जो बिताते थे समय बचपन का,सब वो खो गए,

छोड़कर के साथ मेरा, किस गली में सो गए,

पीढ़ियों का ले संदेशा, द्वार तेरे काग हूँ,

गाँव के बिल्कुल किनारे एक अकेला बाग हूँ।।

कोपलें कुम्हिला रही हैं, टहनियाँ क्रंदन करें,

ना बचेगी छाँव मेरी, मन ही मन चिंतन करें,

काजलों के प्यार का, माथे सजा वो दाग हूँ,

गाँव के बिल्कुल किनारे, एकअकेला बाग हूँ।।

मैं रहूँ या ना रहूँ, बस इतनी सी अरदास है,

लोरियां कानों में गूँजे, आँखों में ये प्यास है,

बनवाकर चौखट लगाना, पाया पालने का बनाना,

मैं तेरा ही भाग हूँ,

गाँव के बिल्कुल किनारे एक अकेला बाग हूँ।।

४-

"आईये बचपन को फिर से जीते हैं"

कहूँ क्या जिंदगी बचपन के दिन वो याद आते हैं,

कसक है लौट आएं दिन, हमें हरपल सताते हैं।।

सनी वो धुल में जांघिया, कबड्डी और कितकित्ता,

बनी लिखों पे टायर से पहुंचना रोज कलकत्ता,

जामुन के डाल पर लखनी दीवाने याद आते हैं,

कसक है लौट आएं दिन हमें हरपल सताते हैं।।

चढ़ी उस दोपहर में बाग़ में जामुन का फल खाना,

मिला जो आम का पन्ना, अजब सा स्वाद का पाना,

वो माँ की डाँट खाकर मुस्कुराना, याद आते हैं,

कसक है लौट आएं दिन हमें हरपल सताते हैं।।

लगा वो गाँव में मेला, रुपइया पाँच का पाना,

पहन फूलबाँह का कुर्ता, सभी सँग जाके इतराना,

लगा नोटों का है बंडल, नहीं सुख नैन पाते हैं,

कसक है लौट आएं दिन, हमें हरपल सताते हैं।।

धन्यवाद-

राकेश कुमार पाण्डेय"सागर"

आज़मगढ, उत्तर प्रदेश