Aadhi najm ka pura geet - 24 in Hindi Fiction Stories by Ranju Bhatia books and stories PDF | आधी नज्म का पूरा गीत - 24

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आधी नज्म का पूरा गीत - 24

आधी नज्म का पूरा गीत

रंजू भाटिया

एपिसोड 24

अक्षरों की परछाईयाँ

साहिर से अमृता का जुडाव किसी से छिपा नही है |उन्होंने कभी किसी बात को लिखने में कोई बईमानी नही कि इस लिए यह दिल को छू जाता है और हर किसी को अपनी जिन्दगी से जुडा सच लगता है | अपनी लिखी आत्मकथा रसीदी टिकट में उन्होंने एक वाकया तब का ब्यान किया है जब उनका पहला बेटा नवरोज़ होने वाला था | उन्ही के शब्दों में, जिंदगी में एक समय ऐसा भी आया, जब अपने हर ख्याल पर मैंने अपनी कल्पना का जादू चढ़ते हुए देखा है..जादू शब्द केवल बचपन कि सुनी हुई कहनियों में कभी पड़ा था.पर देखा - एक दिन अचानक वह मेरी कोख में आ गया था.और मेरे ही शरीर के मांस की ओट में पलने लगा था |यह उन दिनों की बात है, जब मेरा बेटा मेरे की आस बना था १९४६ के अन्तिम दिनों की बात |अखबारों और किताबों में अनेक ऐसी घटनाएं पढ़ी हुई थीं - की होने वाली माँ कमरे में जिस तरह की तस्वीरे हो या जैसे रूप की वह मन में कल्पना करती हो, बच्चे की सूरत वैसी ही हो जाती है..और मेरी कलपना ने जैसे दुनिया से चिप कर धीरे से मेरे कान में कहा -अगर में साहिर के चेहरे का हर समय ध्यान करूँ.तो मेरे बच्चे की सूरत उस से मिल जायेगी..."

जो जिंदगी में नही पाया था, जानती हूँ यह उस पा लेने का एक चमत्कार जैसा यत्न था..इश्वर की तरह सृष्टि रचने का यत्न..शरीर का स्वंतंत्र कर्म.केवल संसकारों से स्वंतंत्र नहीं.लहू मांस की हकीकत से भी स्वंतत्र...दीवानगी के इस आलम में जब ३ जुलाई १९४७ को बच्चे का जन्म हुआ, पहली बार उसका मुहं देखा, अपने ईश्वर होने का यकीन हो गया, और बच्चे के पनपते हुए मुहं के साथ यह कल्पना भी पनपती रही की उसकी सूरत सचमुच साहिर से मिलती है..खैर, दीवाने पन एक अन्तिम शिखर पर पैर रख कर खड़े नही रहा जा सकता है, पैरों पर बैठने के लिए धरती का टुकडा चाहिए.इस लिए आने वालों वर्षों में इस का एक परी कथा की तरह करने लगी.. एक बार मैंने यह बात साहिर को भी सुनाई थी अपने आप हँसते हुए |उसकी और प्रतिक्रिया का पता नही, केवल इतना पता है कि वह सुन कर हंसने लगा और सिर्फ़ इतना कहा..वैरी पुअर टेस्ट !"

साहिर को जिंदगी का एक सबसे बड़ा काम्प्लेक्स है कि वह सुंदर नहीं है इसी कारण उसने पुअर टेस्ट की बात की |फ़िर इस बात को कई साल बीत गए |१९60 में जब मैं बम्बई आई तो उन दिनों राजेंदर सिंह बेदी बड़े मेहरबान दोस्त थे |अकसर मिलते थे | एक शाम बैठे बातें कर रहे थे की अचानक उन्होंने पूछा प्रकाश पंडित के मुहं से एक बात सुनी थी की नवराज साहिर का बेटा है..."'उस शाम मैंने बेदी साहब को अपनी दीवानगी की कहानी सुनाई थी और कहा यह कल्पना का सच है. हकीकत का नही |"

उन्ही दिनों एक दिन नवरोज़ ने भी पूछा था जब उसकी उम्र कोई तेरह साल की होगी की मामा एक बात पूछूँ, सच सच बताओगी ?हाँ क्या मैं साहिर अंकल का बेटा हूँ ?नहीं पर अगर हूँ तो बता दो सच | मुझे साहिर अंकल बहुत अच्छे लगते हैं "'हाँ बेटे अच्छे तो मुझे भी लगते हैं, पर अगर यह सच होता तो मैंने तुम्हे जरुर बता दिया होता सच का अपना एक बल होता है बच्चे को यकीन आ गया सोचती हूँ कल्पना का सच छोटा नही था, पर केवल मेरे लिए था इतना की वह सच साहिर के लिए नही"|कल्पना की दुनिया सिर्फ़ उसी की होती है.जो इसे सिरजता है, और जहाँ इसे सिरजने वाला ईश्वर भी अकेला होता है |आख़िर यह तन मिटटी का बना है.उस मिटटी का इतिहास मेरे लहू की हरकत में है -सिर्ष्टि.. की रचना के समय जो आग का एक गोला हजारों वर्ष जल में तैरता रहा था.उसमें हर गुनाह को भस्म करके जो जीव निकला.वह अकेला था | उस में न अकेलेपन का भय था.न अकेलेपन की खुशी |फ़िर उसने अपने ही शरीर को चीर कर.आधे क पुरूष बना दिया, आधे को स्त्री और इसी में से उसने सृष्टि को रचा

तसव्वुर की खिड़की से तुम्हे मैं देख रहा हूँ | तुम खामोश हो, सर झुकाए हुए |तुम तो तब भी मुझसे सब बात कर लिया करती थी, जब मैं तुम्हारा कुछ नही लगता था | अब तो मैं तुम्हारा बहुत कुछ हूँ | जन्म से तुम्हारा अपना.सिर्फ़ कुछ दिनों से कुछ गैर | एक खामोशी एक अंधेरे की तरह मेरे तसव्वुर पर छा जाती है कई बार.कितनी कितनी देर तक खिड़की में से कुछ नही दिखायी देता है | कब तुम मुझे नज़र भर कर देखोगी.और कब मेरी रौशनी मेरी तरफ देखेगी ? कब मैं और मेरा तसव्वुर रोशन होंगे ?२१ -११- ६० सुबह यह ख़त इमरोज़ ने अमृता को लिखा था | जाने कितने दर्द के कितने एहसास लिए, जब किसी की आंखों के सामने तसव्वुरात की परछाई उभरती है, तो कौन जान सकता है, की उस कितने सितारे आसमान पर भी बनते हुए दिखायी देते हैं और टूटते हुए भी...उन्ही टूटते बनते सितारों की राख से जब कुछ परछाइयां उभरती हैं, तो वह खामोशी से भी उतरती हैं, और कभी कभी अक्षरों से भी...और शायद वही आलम होगा जब साहिर ने लिखा होगा...जवान रात के सीने में दुधिया आँचल मचल रहा है किसी ख्वाबे - मरमरीं की तरह हसीं फूल, हसीं पत्तियाँ, हसीं शाखें लचक रही है किसी जिस्में-नाजनीं की तरह फिजा में घुल गएँ हैं उफक के नार्म खुतूत जमीन हसीं है.ख्वाब की सरजमीं की तरह तसव्वुरात की परछाइयां उभरती है...खुदा ने साहिर को जाने कितनी तौफीक दी होगी, कि वे अपने तसव्वुरात की परछाइयां अक्षरों में उतार पाए..और यही परछाइयां देखते -बुनते वे न जाने किस आकाश में खो गए..वह नही जानते थे कि उनके अक्षरों में उतरने वाले, कितनी परछाइयों से घिर जाते हैं, और फ़िर खामोश हो जाते हैं...यही इमरोज़ के हाथों से रचने वाले रंग भी कहते होंगे...!! "तूने इश्क भी किया तो कुछ इस तरह जैसे इश्क मेंह है और तुम्हे भीगने का डर है !"

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