करोगे कितने और टुकड़े
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग २
सही मायने में यह आजादी से पहले जब धर्मांधता के वशीभूत कुछ लोगों ने खिलाफत के लिए आंदोलन शुरू किया तो तब की सर्वेसर्वा बड़ी पार्टी, इससे देश को होने वाले नुकसान को लेकर आंखें मूंदे रही। उसे अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाने, सर्वेसर्वा बने रहने का जुनून था। लेकिन तब तक के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति जो धर्मांधता, सांप्रदायिकता के कट्टर विरोधी थे पता नहीं किस कारण से शांत रहने की बात छोड़िए बराबर इस आंदोलन की शुरुआत करने वाले अली बंधुओं को समर्थन देते रहे।
इसे गौ रक्षा से जोड़ दिया। मैं नहीं समझ पा रहा हूं कि महात्मा सरीखे महान व्यक्ति के सामने लोगों ने ऐसी कौन सी विवशता खड़ी कर दी थी कि वह देश के लिए नासूर बन जाने वाली तुष्टिकरण की नीति की शुरुआत कर बैठे। तब से यह बढ़ती रही। इसने देश के टुकड़े कर दिए। मगर स्वार्थी तत्व फिर भी इसको चिपकाए हुए हैं। छः सात दशक में इससे हो रहे नुकसान को अनदेखा किए हम आगे बढ़ रहे हैं। वोट के लिए तुष्टिकरण को हथियार की तरह प्रयोग करने की इन सब में होड़ लगी हुई है।
लेकिन मैं, मेरे जैसे अन्य वास्तविक धर्म निरपेक्ष चाहे जिस वर्ग के हों अपनी बात रखते जरूर हैं। ऐसे लोगों की संख्या कम है, इस लिए वो बराबर नुकसान भी उठाते हैं। मैं ऐसे लोगों में केरल के मौलवी चेकन्नूर को कैसे भूल सकता हूं? वहीं के प्रोफेसर टी.एस जोजेफ, गौ रक्षक प्रशांत पुजारी को कैसे भूल सकता हूं? जो सच कहने के कारण निर्ममता पूर्वक मार दिए गए। लेकिन मीडिया से लेकर ये असहिष्णुता का हाय तौबा मचाने वाला समूह कुछ बोला ही नहीं। चूं तक न की। मानो मारे गए लोगों के जीवन का कोई मोल ही नहीं है। वो इस देश के नागरिक ही नहीं।
मैंने अपने कुछ साथियों के साथ इस बात को सामने रखा लेकिन संचार माध्यमों ने हमारी बात अनसुनी कर दी। हर तरफ से कोशिश यही हुई कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। मैं इन बातों पर अपनी निष्पक्षता भारत माता के सामने रखना चाहता था। लेकिन मैं खुद को कमजोर महसूस कर रहा था कि नहीं हमारा प्रयास उतना नहीं था। जितना हम कर सकते थे। हमें दादरी प्रकरण पर अपनी पहल याद आई कि सोशल मीडिया से लेकर प्रिंट मीडिया तक इस घटना की कितनी निंदा की थी अभी भी कर रहा हूं। कि किस तरह वोट के लिए सच को छिपा कर झूठ को सच बना दिया गया। सरकारी खजाना मदद के नाम पर गलती करने वाले पर लुटा दिया गया।
इसी को मुद्दा बना कर इतना बखेड़ा पैदा किया गया कि हलचल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो गई। लेकिन फोरेंसिक रिपोर्ट में सच सामने आ गया तो सब चुप हैं।। मीडिया भी। इस तरह का कुकृत्य करने वाला किसी भी रूप में देश, समाज का भला नहीं कर रहा है। मैंने यह भी कहा था कि हर वर्ग के पूजा स्थलों से लाउड-स्पीकर तत्काल प्रभाव से हमेशा के लिए हटा दिए जाएं। इनके कारण अपराधी तत्व अप्रिय घटनाओं को आसानी से अंजाम देने में सफल हो जाते हैं।
यह ध्वनि विस्तारक यंत्र अराजक तत्वों की अराजकता का अक्सर एक सर्पोर्टिंग टूल बन जाते हैं। इस मुद्दे पर किसी भी वर्ग का यह तर्क पूरी तरह एक सिरे से नकार दिया जाए, खारिज कर दिया जाए कि उनका इसके बिना काम नहीं चल सकता। क्योंकि यह तर्क पूरी तरह से झूठ, मक्कारी छल-फरेब कुटिलता से भरा है। आखिर सारे वर्गों की पूजा तो तब भी खूब अच्छे से होती थी जब इस यंत्र का आविष्कार भी नहीं हुआ था। लेकिन इस बात पर मुझे फोन पर गालियां, धमकियां जरूर मिलीं। दादरी घटना पर हो हल्ला मचाने वालों ने चूं तक ना की।
जान से मारने की धमकियां मुझे इस बात के लिए अब भी मिल रही हैं जब मैंने यह कह दिया कि सीमांत क्षेत्रों सहित पूरे देश में जिस तरह से भारी संख्या में पूजा स्थल बेतहाशा बनाए जा रहे हैं, और किलेनुमा बनाए जा रहे हैं वह निकट भविष्य में देश के लिए गंभीर समस्या बनेंगे। इनको देख कर लगता ही नहीं कि ये पूजा के लिए बनाई जा रही हैं। इन के पीछे छिपी कुटिलता, छल, कपट साफ नजर आता है। जांच एजेंसियां भी बार-बार इससे आगाह करती आ रही हैं। मैंने स्पष्ट मत रखा था कि ऐसा कानून बने कि एक निश्चित जनसंख्या पर उस जगह एक निश्चित आकार का ही पूजा स्थल बन सकेगा। ऐसा कर के ही संभावित खतरे से निपटा जा सकता है।
मैं उनसे यह भी कहना चाह रहा था कि मैं तब भी हतप्रभ था। जब हापुड़ में एक मुस्लिम महिला और उसके हिंदू पति की हत्या कर दी गई। हिंदू से महिला ने शादी क्यों कर ली? छोटी सी छोटी घटना को तूल देने को तैयार रहने वाले तथाकथित बहुरूपिए सेकुलर समूह के कानों पर जूं तक ना रेंगी। हालांकि खाप पंचायतों के लिए ये बहुरूपिए हर दम लठ्ठ भांजते दिखते हैं मगर सिर्फ भांजते ही हैं। वहां भी ये अपना नफा-नुकसान देखकर ही हाथ डालते हैं।
मैं मां को यह बताना चाह रहा था कि हे मां मैं हर उचित अवसर पर कहता हूं कि हे महान सेकुलरों, हे महान समाज सुधारकों, हे महान जागरूक लेखकों, कलाकारों, समाज सेवियों, खंडित देश को बार-बार अखंड भारत कहने वाले हे महान ढपोरशंखियों, देश की अखंडता की रक्षा करने का दंभ भरने वाले दंभियों, हमेशा न्याय हो सबके साथ जैसे जुमले भाखते रहने वाले भांडों ज़रा यह तो बताओ कि जब इस आज़ाद देश में सबको सामान अधिकार दिए गए हैं तो एक राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देकर देश की नींव खोखली करने वाली धारा 370 को समाप्त करने के लिए तुम सब क्यों नहीं बोलते? मैं यह सब बोलने के लिए हिम्मत जुटा ही रहा था कि मां क्रोधित हो बोलीं जब तुम बोलने की भी हिम्मत नहीं रखते हो तो लेखक बनने की ज़रूरत ही क्या थी? जब तुम साफ कहने में हिचकते हो तो तुम्हें कोई अधिकार नहीं था लेखक बनने का।
लेखक की ज़िम्मेदारियां बहुत होती हैं। तरह-तरह की होती हैं। बहुत पवित्र होती हैं। क्या तुम्हें नहीं मालूम कि लेखक एक पथप्रदर्शक होता है। समाज को देश को वह दिशा देता है। वह इन्हें सभ्य बनाता है। सुसंस्कृत बनाता है। क्या तुम्हें नहीं मालूम कि जो समाज श्रेष्ठ बना है। मज़बूत बना है। सुसंस्कृत बना है। उसका साहित्य बहुत उच्चकोटि का रहा है। उससे समाज को जीवन मिला है। समाज जीवंत बना है। दुनिया में वह समाज अपनी श्रेष्ठता साबित कर सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा है। तुम सब उस देश को जो कभी विश्वगुरु की पदवी पर था। जिसके पास ज्ञान का भंडार था। जिसे झुठलाने में, उसका अपमान कराने में ही तुम लोग अपनी विद्वतता समझते हो। दुनिया के आदि ग्रंथ वेदों का माखौल उड़ाते हो। उसके आगे क्या उनकी छाया के बराबर भी कुछ लिखा गया? तुम्हारा यह आचरण क्या ऊपर मुंह कर थूकने जैसा नहीं है।
इन वैदिक साहित्य का अपमान करने वाले तथाकथित विद्वानों, जरा विचार करो, इस वैदिक साहित्य ने तो अपने समय के समाज, देश को सुसंस्कृत किया। सभ्य बनाया। दिशा दी, विश्वगुरु बनाया। तुम सबने क्या किया? क्या है तुम्हारा साहित्य? यही कि लोग उनसे दूर भागते हैं। उन्हें कोई पढ़ने वाला नहीं है। तुम्हें पाठकों को जबरदस्ती पकड़ कर उन्हें अपना लिखा-पढ़ने के लिए विवश करना पड़ता।
वह वैदिक साहित्य जो आज भी पढ़ा जा रहा है बिना विवश किए। जिसे तुम्हारी सर्वोच्च वैज्ञानिक संस्था इसरो श्रेष्ठ ज्ञान कह रही है। धरोहर कह रही है। उसे अपमानित करते तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती। तुम लेखकों ने जैसी निर्लज्जता के साथ अकारण ही अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए देश को भ्रमित किया हुआ है। उसकी नींव हिला रहे हो। क्या यह तुम्हारी अयोग्यता का प्रमाण नहीं है। और अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिए तुम सब ऐसी उजड्डता, ऐसा गैर ज़िम्मेदारी भरा आचरण कर रहे हो।
मुझे कभी आज़ादी ना मिली होती यदि तब के साहित्यकार तुम जैसे होते। उन्होंने वह साहित्य रचा जिसने तब देश को दिशा दी। और मैं आज़ाद हो सकी। मगर मुझे अब दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि तुम सबकी हरकतों के कारण मैं अपनी आज़ादी खतरे में महसूस कर रही हूं। तुम सब इस योग्य भी नहीं निकले कि आजादी से पहले के साहित्यकारों की परंपरा को आगे बढ़ा पाओ। उससे ज़्यादा उत्कृष्ट लिखने की योग्यता तो मुझे तुम सब में दूर-दूर तक नहीं दिखती। मैं चिंतित हूं यह सब देखकर।
मुझे यह कहना पड़ रहा है कि वो साहित्यकार युग दृष्टा जरूर रहे। मगर युग सृष्टा शायद नहीं थे। या उन्हें समय नहीं मिल पाया कि वो आगे आने वाले युग की रूप- रेखा सुनिश्चित कर जाते। मगर समस्या तो तब भी होती। क्यों कि तुम सब जिस विचार के हो उसी के अनुसार कार्य करते। उसे भी नकारते। उसे भी भ्रष्ट करते। आखिर तुम सब चाहते क्या हो? यह देश जनता को जनार्दन कहता है। यदि तुम यह समझते हो कि वह कभी तुम्हारे दुराचरण को समझ नहीं सकता तो यह तुम्हारी मूर्खता है। तुम्हारा मानसिक दिवालियापन है। जनता-जनार्दन एक दिन सब समझ जाएगी। फिर तुम्हारी हालत बहुत दयनीय होगी। वह तुम्हें देश के आखिरी छोर तक नहीं बल्कि दुनिया के ही आखिरी छोर के बाहर खदेड़ कर दम लेगी।
मुझे अभी से इस बात को लेकर बड़ा भय महसूस हो रहा है। तब की तुम्हारी दयनीय स्थिति का अंदाजा लगाकर ही मैं उलझन में पड़ जाती हूं। क्योंकि आखिर तुम सब भी तो मेरे ही होे। मेरे ही अंग हो। मेरा कोई भी अंग कटेगा, कष्ट में होगा, तो मुझे दर्द होगा ही। इस लिए मैं तुम्हें जनता-जनार्दन के क्रोध से बचने के लिए आगाह कर रही हूं, समय रहते सब कुछ सही कर लेने के लिए। सच के रास्ते पर ही चलने के लिए। अपना दायित्व ठीक से निभाओ अन्यथा जनता-जनार्दन लेखक वर्ग को साजिशकर्ता, जटिल, कुटिल, ईर्ष्यालु, अवसरवादी, लालची, स्वार्थी, स्वार्थ के लिए नैतिकता को बेच देने वाला कहेगी, उससे नफरत करेगी।
भारत माता बोलती जा रही थीं और मैं हिम्मत जुटाने में लगा रहा कि मैं उन्हें उनकी बातों का जवाब दूं। उन्हें बताऊं कि मैं क्या कर रहा हूं। मैं उन्हें बताना चाह रहा था कि हे मां मैंने इस असहिष्णुता की कुटिल तुच्छतापूर्ण मुहिम के सूत्रधार लेखक को बहुत लताड़ा था। मैंने साफ कहा था कि जब तथाकथित एक कम्यूनल योगी से सम्मान लेते हुए शरणागत हुए जा रहे थे। मानो लेट ही जाओगे। उस समय भी यही हालात थे जो अब हैं, तो क्यों विरोध स्वरूप सम्मान लेने से मना नहीं किया? बाद में भी सम्मान लेने चले गए?
अब भी सारे हालात वैसे ही हैं तो यह वापसी का पाखंड क्यों? मेरे विरोध पर उसने बात काट दी। इसके तुरंत बाद ही जिस लेखिका ने ऐसा किया मैंने उनसे भी भरपूर विरोध जताया था। मैंने साफ कहा कि आप प्रधानमंत्री रहे किसी व्यक्ति की भांजी हैं यह ऊंगली पर गिन लिए जाने भर के बराबर ही लोग जानते थे। आप लेखिका हैं इस बारे में भी यही हाल था। लेकिन पुरस्कार वापसी के पाखंड ने आपको रातों-रात मीडिया के जरिए तमाम लोगों तक पहुंचा दिया। आप तो प्रसिद्ध हो गईं। क्या आप पुरस्कारों में मिली धनराशि और उससे जो प्रसिद्धि मिली थी वह भी लौटा सकेंगी । आपने तो एक पार्टी की राजनीतिक मौत को इस पाखंड से स्थगित कर दिया है। मगर इससे देश के साथ जो घात हुआ है उसका क्या जवाब देंगी?
मैं भारत माता से अपनी बात पर उस लेखिका की कुटिल रहस्यमयी मुस्कुराहट के बारे में भी कहना चाह रहा था। साथ ही यह भी कहना चाह रहा था कि हे मां मैंने लेखक होने का कर्तव्य तब भी पूरा किया और बराबर करता आ रहा हूं जब ये बहुरुपिए सेकुलरिस्ट, विदेशी टुकड़ों पर पलने वाले तथाकथित एनजी.ओ, समाजसेवी, निर्दोषों का कत्ल करने वाले, विकास के हर रास्ते को बंद करने वाले नक्स्लियों की मुठभेड़ में मौत होने, आतंकवादियों की मौत होने पर हायतौबा मचाते हैं। घडियाली आंसू बहाते हैं। मोमबत्तियां जलाते हैं। लेकिन देश के फौजियों के शहीद होने पर आश्चर्यजनक ढंग से चुप रहते हैं। कमरों में व्हिस्की के जाम के साथ जश्न मनाते हैं। हे मां मैं तब भी चुप नहीं बैठा था जब दक्षिण में राजनीतिक लाभ के लिए वर्ग विशेष की बहुलता वाले क्षेत्रों को मिलाकर मलप्पपुरम नगर बना दिया गया।
मैं बराबर इस बात का विरोध करता आ रहा हूं कि वीरभूमि, दुर्गापुर साहित ऐसी हर उस जगह पर देश के बहुसंख्यक समुदाय के अल्पसंख्यक हो जाने पर वहां बहुसंख्यक बने वर्ग के लोग दूसरे वर्ग की दुर्गापूजा, तांडव नृत्य, महा आरती वगैरह त्यौहारों को मनाने नहीं दे रहे हैं। असम सहित कई राज्यों में घुसपैठियों के कारण देशवासियों के अल्पसंख्यक हो जाने, जांच आयोगों की रिपोर्टों कि यदि घुसपैठ रोकी नहीं गई तो राष्ट्र रक्षा खतरे में है, के बावजूद कोई कार्यवाई न होने पर भी एतराज करता रहा हूं।
मैं जोरदार शब्दों में यह कहना चाह रहा था कि हे मां एक नेता जो कभी प्रधानमंत्री पद की दौड़ में था। बुरी तरह परास्त हो गया। फिर प्रदेश के चुनाव में जुगाड़ कर जीता। उसकी उस हरकत का भी कड़ा विरोध किया जब आज़ादी से पहले अपने स्वार्थों के लिए जिन्ना ने धर्म के आधार पर जो क़दम उठाए थे वही वह भी करने करने लगा।
मैं यह साफ-साफ कहना चाह रहा था कि इन्हीं क़दमों के कारण मुझे दक्षिणपंथी कम्यूनल कह-कह कर अपमानित किया जाता है। अलग-थलग रखने की कोशिश की जाती है। लेकिन मैं पलभर को भी विचलित नहीं होता। अपना उत्तरदायित्व निभाता आ रहा हूं। कई बार ऐसा हुआ कि मैं सारी बातें कहना शुरू ही करने वाला होता कि मां फिर कुछ कहने लगतीं। और मैं जितना आगे बढ़ता वहां से वापस फिर प्रारंभ बिंदु पर पहुंच जाता।
लेकिन कहते हैं न कि बार-बार के प्रयास अंततः सफलता दिला ही देते हैं तो अंततः मैं भी सफल हो गया। अवसर मिलते ही मैंने अपनी यह सारी बातें कह दीं। इनमें मैंने देश के राष्ट्रपति की बात पर भी अपने स्टैंड को बताया जिसमें उन्होंने असहिष्णुता का ढोल पीटने वालों को लताड़ा था। और यह भी बताया कि फ़िल्म इंडस्ट्री के उस बीमार मानसिकता के एक अभिनेता नाचने गाने वाले के इस बयान पर भी उसे लताड़ा था, जिसमें वह पाखंडी बोल रहा था कि उसकी पत्नी डर गई है। देश छोड़ने की बात कर रही है।
मैंने कहा जरा यह भी तो बताओ कि किस देश में जाने का निर्णय लिया है? और कि क्या वहां इसी देश की तरह खाली नाच गा के, स्वांग भर के अरबों कमा लोगे? वहां कि जनता तुम्हें ऐसे ही सिर-आंखों पर बैठाएगी? और तुम इसी तरह आराम से अव्वल दर्जे का कुटिलता भरा, झूठा? देश द्रोह से भरा बयान देकर मुस्कुराते हुए चलते रहोगे? अरे तुम यहां सिर आंखों पर बैठाए जाते हो, देशद्रोही बयान देकर भी मुस्कराते रहते हो, सहिष्णुता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या चाहिए?
आने वाली अपनी फ़िल्म के प्रचार के लिए यह गद्दारी, यह जाहिलियत, यह जलील हरकत की है। मगर मैं तुमसे इससे ज़्यादा की उम्मीद भी नहीं करता क्योंकि तुम तो वह स्वार्थी इंसान हो जो अपनी पत्नी का नहीं हुआ। कुछ पैसा पाते ही अपनी पहली पत्नी को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया। एक विदेशी महिला को फंसाया, गर्भवती बनाया फिर ठोकर मार कर उसे भी भगा दिया। वह अपने बिना बाप के बच्चे को लिए जीवन गुजार रही है। मगर तुम्हारी धोखेबाजी रुकी नहीं। ढूंढ़ कर एक ऐसी दूसरी महिला को फंसा लिया जिसके सहारे सफलता की सीढ़िया चढ़ सको। तुम तो इतने लिजलिजे इंसान हो कि अपनी षड्यंत्र से भरी इस बात को कहने के लिए भी पत्नी के कंधे का सहारा लिया।
संसद में इसी मुद्दे पर वोट के सौदागरों की हठ पर भी मैंने अपनी प्रतिक्रिया बता दी। मैं संतोष महसूस कर रहा था कि मां मेरी सारी बातों को बड़े ध्यान से सुन रही थी। मुझे बोलने का पूरा समय दे रही थी। और मेरी सारी बातों को सुनने के बाद मेरे कार्यों पर संतुष्टि व्यक्त की। मगर साथ ही यह भी कहा कि नकारात्मक शक्तियां तो अपनी गलत बातों का ढोल इतना पीटती हैं, झूठ को इतना तेज़ कहती हैं कि सच छिप जाता है। झूठ सच लगने लगता है। ऐसा सिर्फ़ इसलिए होता है कि तुम लोग एक बार प्रतिक्रिया देकर अपने कर्तव्यों की इति श्री समझ लेते हो।
सकारात्मक वर्ग का यह परम कर्तव्य है कि वह अपना प्रयास तब तक जारी रखे जब तक कि नकारात्मक शक्तियों का मुखौटा उतर न जाए। सब के सामने उनका असली चेहरा उजागर ना हो जाए। इस दृष्टि से तुम सफल नहीं हो। मैंने जो कहा यदि तुम सब वैसा कर रहे होते तो असहिष्णुता के नाम पर जैसा विषैला माहौल यह सब बनाने में सफल हुए यह हो ही ना पाता। वह सफल रहे तुम सब असफल। अब तक जो किया ठीक है। मगर वातावरण में असहिष्णुता का जो छद्म विष फैला हुआ, जिससे देशवासी आतंकित हैं। उस विष को दूरकर देशवासियों को स्वच्छ, सुखकारी, निर्मल वातावरण देने के लिए क्या कर रहे हो? ऐसा क्या है जिसे सुनकर मैं निश्चिंत हो जाऊं कि हां भितरघातियों के भितरघात से मेरी सुरक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था है। मुझे नुकसान पहुंचाने का प्रयास करने वाले असफल रहेंगे।
मैं भारत मां के इन प्रश्नों का तत्काल कोई उत्तर नहीं दे सका। क्यों कि इस स्तर पर मैंने कोई विचार नहीं किया था। और जब विचार ही नहीं किया था तो किसी उत्तर का कोई प्रश्न ही नहीं था। मैं निरुत्तर था। शर्मिंदगी से सिर स्वतः ही झुक गया। मां कुछ क्षण मुझे ऐसी स्थिति में देखने के बाद बोलीं। क्या किसी लेखक को इतना लापरवाह इतना गैरज़िम्मेदार होना चाहिए? तुम जैसे सारे लेखकों के कारण मैं निराश हूं। मैं व्याकुल हूं। मैं अपने भविष्य को लेकर बहुत चिंतित हूं। सोचती हूं कि क्या मैंने तुम लोगों से कुछ ज़्यादा ही अपेक्षा कर ली है। इतनी ज़्यादा कि तुम लोग उस पर खरे उतरने के योग्य ही नहीं हो। पूर्ण रूपेण अक्षम हो। संभवतः मुझे और विकल्पों पर पहले ही ज़्यादा भरोसा करना चाहिए था।
मां अपनी बातें कहते हुए बहुत क्रोधित होती जा रही थीं। उनके चेहरे पर तरह-तरह के भाव आते जा रहे थे। पीड़ा का भाव गाढ़ा होता जा रहा था। उनकी इस पीड़ा से मैं तड़प उठा। मैं उन्हें पल भर को भी कष्ट में बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। मैंने तुरंत तय किया कि मां से कहूं कि हे मां मैं अपनी गलती के लिए शर्मिंदा हूं। क्षमा प्रार्थी हूं। मुझे बस एक दिन का समय दे दें। मैं अपने अगले क़दमों के बारे में एक विस्तृत योजना आपके सामने रख दूंगा, कि मैं ऐसा क्या करूंगा। जिससे आप भितरघातियों की तरफ से निश्चिंत हो सकें। वातावरण में फैला छद्म असहिष्णुता का विष समाप्त हो जाएगा। लेकिन मां इतनी निराश, इतनी क्रोध में थीं कि पलक झपकने भर में विराट रूप धारण कर अंतरध्यान हो गईं।
उनके अंतरध्यान होते ही मेरी नींद टूट गई। मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। पूरा घर अकेला था। सांय-सांय कर रहा था। अनुभा सो रही थी। पिछले कई दिनों से उसकी तबियत ठीक नहीं चल रही थी। बीपी, कोलेस्ट्रॉल बढ़े हुए थे। उसकी एक आंख की रोशनी तेज़ी से कम होती जा रही थी। वह पहले ग्लॉकोमा से पीड़ित थी। किसी तरह डॉक्टरों ने छः साल पहले ऑपरेशन करके आंख बचा ली थी। लेकिन अब रोशनी के तेज़ी से कम होते जाने को डॉक्टर रोक नहीं पा रहे थे।
उसका तेज़ी से गिरता स्वास्थ्य मेरी बड़ी चिंता थी। किसी एक को तो पहले जाना ही होता है। लेकिन मैं इस कल्पना से ही व्याकुल हो उठता हूं, तड़प उठता हूं कि कहीं अनुभा मुझसे पहले न चली जाए। क्यों कि मैं उसके बिना अपने एक दिन के जीवन की भी कल्पना नहीं कर पाता। सिहर उठता हूं यह सोचकर ही कि वह पहले चली जाएगी। पचास साल का साथ पल में टूट जाएगा। आखिर जीवन में यह पल आता ही क्यों है? मैं अनुभा को बड़ी देर तक देखता रहा। लेकिन दिमाग में भारत मां की बातें बार-बार कौंध रही थीं कि हम अक्षम हैं। उन्होंने हमसे ज़्यादा अपेक्षा कर ली। वह विवश हैं किसी दूसरे विकल्प के बारे में सोचने के लिए।
यह बातें मुझे बहुत विचलित करने लगीं। और अनुभा के बारे में सोचना कहीं दूर-दूर होता गया। मैं उसके कमरे से ड्रॉइंगरूम में चला आया। लाइट ऑन की और सोफे पर बैठ गया। सामने दिवार पर मेरी बड़ी लड़की की बनाई दो पेंटिंग लगी हैं। बाई तरफ महा राणा प्रताप की जो अपने इतिहास प्रसिद्ध घोड़े चेतक पर सवार हैं। हाथ में भाला लिए। ऊपर घूमी हुई मूंछे, तेज़ से चमकता चेहरा। बेटी ने दूसरी पेंटिंग अंग्रेजी साम्राज्य की चूलें हिला देने वाले सुभाष चंद्र बोस की बनाई थी। उन्हें भी घोड़े पर सवार दिखाया था।
पेंटिंग ऐसी बनी हैं, ऐसे लगी हैं, मानो भारत मां के दोनों लाल, दोनों महान सेनानी जंग के मैदान में खड़े भारत मां के दुश्मनों पर हमला करने से पहले कुछ सलाह मसविरा कर रहे हैं। पेंटिंग पर से बड़ी देर तक मेरी नजर नहीं हटी। मैं खोता गया उन्हीं में कि इन सपूतों ने किस प्रकार अपने राष्ट्र अपनी भारत मां के लिए अपना घर परिवार जीवन सब कुछ न्यौछावर कर दिया। इतिहास में अमर हो गए हैं। और चेतक! एक जानवर होकर। बल्कि उसे जानवर कहना उसका अपमान है। कहने के लिए वह घोड़ा था लेकिन जिस धरती पर जन्म लिया उसके लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। शायद ही दुनिया के किसी भी देश के इतिहास में इंसान के बाद किसी अन्य जीव को वह स्थान प्राप्त है जो चेतक को!
उन दो पेंटिंग में खोया मैं अचानक खुद से पूछ बैठा इन्होंने ने तो इतना कुछ किया अपनी भारत मां के लिए। अमर कर गए अपने-अपने मां-बाप परिवार सबको। और मैं! मैंने क्या किया? रंगने को हज़ारों पन्ने रंग डाले लेकिन किस काम के? वो भारत माता के किस काम आ रहे हैं? मेरे अब तक के लिखे की अर्थवत्ता क्या है? बीते इतने दशकों में इतनी बातें होती रहीं जब मुझे अपने लेखक होने का धर्म निभाना चाहिए था। लेकिन मैं पन्ने रंगने में ही लगा रहा। मन में महान लेखक बनने का सपना लिए पन्नों पर स्याही उडे़लता रहा। कि एक दिन दुनिया में मेरे लेखन पर चर्चा होगी। मुझे युगदृष्टा लेखक कहा जाएगा। हर किताब पूरी करते ही मूर्खों की तरह कैसे ख्यालों में खोने लगता हूं कि यह नोबेल दिला सकती है। नोबेल न सही कम से कम बुकर या ज्ञानपीठ तो निश्चित ही।
इस विराट उपन्यास को पूरा करने के करीब पहुंचते ही कैसे दिवास्वप्न देख रहा हूं कि मेरा यह विराट उपन्यास नोबेल निश्चित दिलाएगा। अमूमन सारे लेखकों को यह बड़ी उम्र में ही मिला है। अब तो मेरी भी उम्र हो चुकी है। निश्चित ही मेरी लालसा ने मुझे अपने कर्तव्यों को समझने उसका निर्वहन करने से विमुख कर दिया। मैं वाकई अपना कर्तव्य निभा नहीं सका। भारत मां का मुझ पर गुस्सा होना उचित ही है।
सच तो यही है कि लेखक पुरस्कारों से बड़ा नहीं होता। बड़े से बड़ा पुरस्कार उसे बड़ा नहीं बना सकता। मैं तो अब यह दृढ़ता से कहना चाहूंगा कि पुरस्कार लेखक की आत्मा को ही नष्ट कर देता है। अजर-अमर अविनाशी कही जाने वाली आत्मा को। पुरस्कार ग्रहण कर लेखक अपनी कलम गिरवी रख देता है। वह अपने सरोकारों के साथ न्याय नहीं कर पाता। उस की कलम बंधक हो जाती है। सच नहीं लिख पाती।
ज्यांपाल सार्त्र ने यही कारण बताते हुए ही तो पलक झपकते ही नोबेल ठुकरा दिया था। मगर जो कद उनका है क्या वह जॉर्ज बर्नाड शा का भी है। जिन्होंने पहले नोबेल लेने से मना किया लेकिन अंततः लालसा उन पर भारी पड़ी और उन्होंने स्वीकर कर लिया। सही मायने में ये पुरस्कार मृगमरीचिका से हैं। अपनी ओर खींच ही लेते हैं। इनकी धनराशि ललचाती है। पूर्व सोवियत संघ के बोरिस पास्तरनाक कम्यूनिस्ट शासकों की सख्त मनाही के कारण नोबेल ठुकरा देते हैं। मगर जैसे ही हालात बदले उनके उत्तराधिकारियों ने स्वीकार कर लिया।
मुझे लगा कि जैसे ड्रॉइंगरूम में हर तरफ से चीखती हुई यह आवाजें आ रही हैं कि तुम भी लालची हो। ऐसे ही लालच ने तुम्हें अपने सरोकारों से विमुख कर दिया। तुम्हारी क़लम पूर्णतः आज़ाद कहां रही। यदि ऐसा ना होता तो तुम अपने कर्तव्यों को निभाने में असफल नहीं होते। तुम भी वाल्तेयर, रूसो, ब्रूनो बन सकते थे। लेकिन तुम भी भीड़ में शामिल एक चेहरा बन कर रह गए। निरर्थक ही जीवन गंवा दिया। तुम असफल हो, कुछ नहीं कर सकते। कुछ नहीं कर सकते। इन चीखती आवाजों ने मुझे हिला कर रख दिया। झकझोर दिया। मैं सोफे पर उठ खड़ा हुआ यह बुदबुदाते हुए कि नहीं मैं असफल नहीं हूं। र्मैं असफल नहीं हूं। मैं असफल नहीं हूं। मैं बेटी की बनाई दोनों पेंटिंग के सामने खड़ा हो गया। बुदबुदाहट अब भी चल रही थी। कि मैं असफल नहीं हूं।
जीवन बीत गया तो क्या इतिहास तो पल भर लिखे जाते है। पल में बदल जाती है दुनिया। एक निर्णय से बदल जाता है इतिहास। जैसे गांधी जी ने अपने इस निर्णय से कि देश का बंटवारा उनकी लाश पर होगा, से पीछे हटने का निर्णय लिया वैसे ही भारत के बंटने का रास्ता साफ हो गया। बदल गया इतिहास। बंट गया देश। तो मैं भी ऐसा कुछ कर सकता हूं। कुछ ऐसा कि भारत मां निश्चिंत हो सके। असहिष्णुता के छद्म विष से विषाक्त माहौल स्वच्छ हो सके। देश के साथ छल-कपट करने वाले बेनकाब हो सकें। हर नागरिक इन बहुरूपियों को पहचान सके। इनके बरगलाने में ना आए। देश के लिए जिए-मरे।
मेरी नजर बार-बार दोनों पेंटिंग पर जाती रही। कि इन दोनों ने भी तो आततायी ताकतों की दिशा मोड़ दी थी। अकेले ही चले थे। मुझे भी अकेले चलना है। अकेले ही। मैं बड़ी देर तक दोनों पेंटिंग देखता खड़ा रहा, मुझे लगा कि जैसे दोनों पेंटिंग से मुझे आगे क्या करना है? इस बात का संदेश दिया जा रहा है। यह संदेश कुछ ही देर में पूरा भी हो गया। ऐसा महसूस होते ही मैं फिर सोफे पर आकर बैठ गया। और तय कर लिया कि क्या करना है।
ब्रूनो को अपनी बात कहने के ही कारण उसके देश के धर्मांधों ने उसे जिंदा जला दिया था। लेकिन मैं अपनी बात कहने के लिए। बहुरूपियों को बेनकाब करने के लिए खुद को स्वयं अग्निदेवता के हवाले कर दूंगा। कल ही कर दूंगा। यही एक रास्ता बचता है जो तत्काल पूरी दुनिया तक मेरी बात पहुंचा देगा। देखते-देखते छद्म असहिष्णुता समाप्त हो जाएगी। देश की जनता बहुरूपियों को पहचान लेगी। उन्हें उनके अंजाम तक पहुंचा देगी। इसमें यही मीडिया ही काम आएगा। जब इसे कल सुबह यह खबर मिलेगी कि बहुरूपियों को बेनकाब करने के लिए बहुत सी किताबें लिखने वाला, बहुत से महत्वपूर्ण पुरस्कारों से सम्मानित एक पचहत्तर वर्षीय लेखक ने शहर में सुभाष मूर्ति के नीचे आत्मदाह कर लिया।
इन सारे चैनल्स को, मित्रों, बहुरूपियों को बेनकाब करने वाली सारी डिटेल्स वहीं चलकर मेल कर दूंगा। पहले कर दिया तो भीड़ इक्ट्ठा हो जाएगी। मैं फिर असफल हो जाऊंगा। मैंने इसके लिए अपना लैपटॉप ऑन किया। तमाम जरूरी चीजें तैयार कीं जो तब मेल करनी थीं। फिर निश्चिन्त हो कर सोफे पर बैठ गया। मैं खुद में युवावस्था से ज़्यादा जोश उत्साह महसूस कर रहा था। मगर मन में तभी एक बात आई कि इसी बहाने अनुभा के पहले जाने के दर्द को बर्दाश्त करने की पीड़ा से बच जाऊंगा। और मेरा विराट उपन्यास वह भी इससे जबरदस्त प्रसिद्धि पा जाएगा। इस बाज़ारवाद के युग में ऐसी बातें रातोंरात कुछ का कुछ कर देती हैं। यह सोचते हुए मैंने सोचा थोड़ा सो लूं। कल दस बजे तक निकलना है। बेड पर मैं जब फिर लेटा तो मेरे दिमाग में कल मेल की जाने वाली मेल की हैडिंग घूम रही थी। ‘हमारा भारत है हमारा संविधान, हमारा संविधान है हमारा भारत।’
[ समाप्त ]