Chooti Galiya - 13 in Hindi Fiction Stories by Kavita Verma books and stories PDF | छूटी गलियाँ - 13

Featured Books
Categories
Share

छूटी गलियाँ - 13

  • छूटी गलियाँ
  • कविता वर्मा
  • (13)

    "हैलो पापा कैसे हैं आप ? कितने दिनों बाद फोन किया आपने, आपको हमारी याद नहीं आती?"

    "ऐसा नहीं है बेटा बस समय नहीं मिल पाता।" 'हमारी याद' अब मैं उसके एक एक शब्द पर ध्यान देने लगा था। "मम्मी कैसी है? तुम कैसे हो? पढ़ाई कैसी चल रही है?"

    "मम्मी ठीक हैं पापा लेकिन बहुत बिज़ी रहती हैं।" उसके स्वर में उत्साह था, "सुबह स्कूल फिर मार्केट सब जगह के काम वो अकेले करती हैं ना। मुझे नहीं करने देती अकेले कहीं नहीं जाने देती। आप यहाँ होते तो बाहर के काम आप कर लेते। मम्मी बहुत अकेली पड़ जाती हैं सब करते हुए।"

    "ठीक कहते हो बेटा लेकिन क्या करें मैं यहाँ इतनी दूर हूँ, चिंता मत करो तुम्हारी मम्मी सब स्मार्टली हैंडल कर लेती हैं। तुम बताओ तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है एक्साम्स कब से है?" मम्मी के बारे में और बातें करने में मैं थोड़ा असहज होने लगा।

    "एक्साम्स अगले महीने हैं मेरी पढाई अच्छी चल रही है।"

    "तो मेरा बेटा क्लास में फर्स्ट आएगा ना?"

    वह थोड़ा हिचकिचाया, फर्स्ट तो नहीं पापा लेकिन फर्स्ट टेन में जरूर आऊँगा। "

    "अरे फर्स्ट टेन ने क्यों अच्छा फर्स्ट फाइव में, आप तो हमेशा से ब्रिलिएंट स्टूडेंट रहे हो ना?"

    "आपको पता है पापा" वह चहक उठा।

    "हाँ हाँ पता क्यों नहीं होगा।"

    कुछ देर चुप्पी छाई रही फिर उसने कहा "पापा एक बात पूछूँ?" उसके स्वर में झिझक थी, मेरी धड़कनें तेज़ हो गयीं कान से लपटें निकलने लगीं, तो परीक्षा की वह घड़ी आ गयी, मैंने थूक गटका।

    "हाँ हाँ पूछो" लाख कोशिशों के बाद भी मेरी आवाज़ में कम्पन था।

    "आप सच में मुझे प्यार करते हैं ना? आप वापस आएंगे ना?"

    "मेरा गला सूख गया, दिमाग जैसे सुन्न हो गया, क्या जवाब दूँ इस बात का? कोई झूठा वादा करके उस बच्चे का विश्वास नहीं तोड़ना चाहता था मैं।"

    "हाँ बेटा मैं तुम्हे बहुत प्यार करता हूँ बहुत ज्यादा। तुम मेरे प्यारे से बेटे हो बहुत प्यारे," मैंने भरसक उत्साह से कहा और वह पूरा सच था।

    "आप वापस कब आएंगे मेरे पास?"

    "बेटा ऐसा है मैं संजीदा हो गया, वापस आने के बारे में अभी मैं कुछ नहीं कह सकता लेकिन जब भी संभव होगा मैं आऊँगा लेकिन कब, नहीं कह सकता।"

    "लेकिन पापा…… "

    "देखो बेटा मेरी बातों को समझो मैं सच में तुमसे बहुत प्यार करता हूँ।" मेरा गला रुँध गया, "लेकिन मैं मजबूर हूँ।" अचानक मुझे अपना शिकागो वाला अनुबंध याद आ गया, मैंने बिना कुछ सोचे समझे कह दिया, "मैंने एक कंपनी से अनुबंध किया है इसलिए अब पाँच साल मैं देश छोड़ कर नहीं जा सकता।"

    "पाँच साल .... उसकी आवाज़ बुझ गयी।

    "हाँ बेटा मुझे भी अब लग रहा है कि मैंने गलत अनुबंध कर लिया, मैं फँस गया हूँ लेकिन अब कुछ किया नहीं जा सकता।"

    "आप बीच में वापस आ जायेंगे तो क्या होगा?"

    "तो कंपनी को बहुत सारा पैसा देना होगा, इतना सारा कि हमारी सारी सेविंग्स ख़त्म हो जाएगी।"

    "पापा मुझे आपकी बहुत याद आती है मुझे आपसे मिलना है, मैंने कब से आपको नहीं देखा। आपकी सारी फोटो भी बहुत पुरानी हैं पापा आप अपना लेटेस्ट फोटो भेजिए ना।"

    "फोटो… हाँ ठीक है कोशिश करूँगा। अच्छा बेटा मैं बंद करता हूँ मुझे कुछ जरूरी काम है।" अब मैं उसके किसी और प्रश्न का सामना करने से कतरा रहा था। इन दो प्रश्नों के जवाब देने में ही मीलों चलने सी थकान महसूस होने लगी। पता नहीं मैं अपने जवाब से उसे कितना संतुष्ट कर पाया लेकिन मैं खुद संतुष्ट नहीं था। ये झूठ बोलने का अपराध बोध था या एक बच्चे की उम्मीद तोड़ने का बोध मैं मायूसी के गहरे सागर में डूब गया और कुछ देर उसका सामना करता तो इस प्लान को आगे बढ़ाने का हौसला टूट जाता। हालांकि अब चिंता होने लगी थी कि इस झूठ की मंज़िल क्या है? इसे कब तक चलाना होगा? क्या इसका अंत सुखद होगा? आज की बातचीत के बाद इसकी संभावना बहुत क्षीण लग रही थी। राहुल की मायूसी महसूस कर रहा था मैं।

    ***

    आज सनी के केस का फैसला है। मन को उदासी ने घेर रखा है। खुद को हारा हुआ सा महसूस कर रहा हूँ। कपूर के बार बार विश्वास दिलाने पर भी मन टूटा सा है। राहुल की उम्मीद तोड़ने का दर्द कहीं गहरे पैठ गया है, चाह कर भी उससे उबर नहीं पा रहा हूँ। मैंने कुछ गलत कर दिया है बहुत गलत यह एहसास हावी हो गया था। नेहा से भी बात नहीं हो पाई, उसे फोन करने की हिम्मत ही नहीं हो रही थी। जाने वह मेरे बारे में क्या सोच रही होगी? कहीं वह भी तो मुझे एक असफल पिता नहीं समझ रही होगी? सोच सोच कर मेरे दिमाग की नसें फटने लगीं। मैं जितना खुद को समझाता, अपने किये की पैरवी करता उतनी ही नकारात्मकता मुझे घेर लेती।

    उस दिन सनी का बारहवीं का रिजल्ट आया था। उसकी तृतीय श्रेणी देख कर गीता रो पड़ी थी। रोते रोते उसने सनी से अपनी आदतें सुधारने की अनुनय की। सनी अपने स्कूल छूटने, अपने दोस्तों का साथ छूटने खराब रिजल्ट, भविष्य की चिंता में दुखी था ही उस पर गीता का रोना उससे देखा ना गया वह बाइक ले कर निकल गया और बेख्याली में एक्सीडेंट कर बैठा। दो ही बातें उसके पक्ष में रहीं एक तो उसकी उम्र उस समय अठारह साल से दो महीने कम थी दूसरे उसने उस समय शराब नहीं पी रखी थी। इस आधार पर उसे चेतावनी दे कर छोड़ दिया गया। चूंकि अब वह अठारह का हो चुका था इसलिए उसे बाल संरक्षण गृह नहीं भेजा जा सकता था।

    उस एक पल को मैं सारे दुःख सारे अवसाद भूल गया। मैंने सनी को सीने से लगा लिया। हम दोनों देर तक अपने आँसुओं से एक दूसरे को दिलासा दिलाते रहे।

    "बधाई हो सहाय साहब" वकील कपूर की आवाज़ ने मुझे मेरी स्थिति का भान करवाया।

    "आपको भी बधाई हो कपूर साहब" मैंने हाथ मिलाते हुए कहा।

    "और बरखुरदार आपको भी बधाई हो।" कपूर ने सनी का कंधा थपथपाते हुए कहा। तुम्हारे पापा ने बहुत मेहनत की है तुम्हारे लिए, ठीक होकर कुछ अच्छा करो। ऑल द बेस्ट।"

    मैं सनी को लेकर गणपति मंदिर गया, प्रसाद चढ़ाया फिर हमने एक रेस्तरां में खाना खाया। रास्ते में एक मॉल से उसके लिये दो टी शर्ट्स लीं। उसने बड़े उत्साह से अपने लिए टी शर्ट्स पसंद कीं। मैं उसे उस दिन अपने साथ घर ले जाना चाहता था लेकिन सनी ने मना कर दिया।

    "नहीं पापा अब मैं बिलकुल ठीक होकर ही घर लौटूँगा, आप चिंता ना करें मैं जल्दी ही आऊँगा।" उसने कहा पापा "मैं बारहवीं की परीक्षा फिर से देना चाहता हूँ आप फॉर्म भरवा दीजिये और मुझे मेरी बुक्स ला दीजिये।"

    "तुम यहाँ रहकर पढ़ लोगे?"

    "हाँ पापा अब एक और साल खराब नहीं करना है मुझे।"

    मैंने उसे आश्वस्त किया और उसकी किताबों के बारे में उससे जानकारी ली।

    आज का सारा दिन व्यस्तता भरा रहा। सुबह की हताशा, निराशा की धुंध छँट गई थी। मैं थका हुआ था लेकिन खुश था आराम कुर्सी पर निढ़ाल सा बैठ गया मेज़ पर प्रसाद का डिब्बा रखा हुआ था सामने गीता और सोना की तस्वीर थी। "गीता देखो तुम्हारे बेटे को छोड़ दिया गया है जल्दी ही वह अपनी पीने की आदत पर काबू पा लेगा और घर आ जायेगा। सोना बेटी तुमने ठीक कहा था सनी को मेरी जरूरत है, मैं हूँ उसके पास लेकिन तुम कहाँ हो बेटा तुम्हारे बिना ये घर घर नहीं लगता।" धुंधली आँखों से तस्वीर ओझल होते होते सोना सामने दिखाई देने लगी। सोफे के आस पास घूमते सनी और सोना एक दूसरे को पकड़ने के लिए दौड़ते हुए चिल्ला रहे थे। गीता डाइनिंग टेबल के पास खड़ी मुस्कुरा रही थी।

    पापा देखो ना भैया को, मेरी टॉफी नहीं दे रहा है खुद की टॉफी खा ली चीटर कॉक। मम्मी पकड़ो ना भैया को और मेज़ की ठोकर खा कर वह गिर पड़ी मैं उसे उठाने के लिए लपका एकदम कुर्सी से उठ खड़ा हुआ तभी फोन की घंटी ने मुझे यथार्थ में खींच लिया। सनी और सोना वहाँ नहीं थे गीता झिलमिलाती आँखों से मुझे देख रही थी।

    "हैलो नेहा जी कैसी हैं? राहुल कैसा है? कल वह बहुत परेशान तो नहीं था? कुछ कहा उसने? वह ठीक तो है ना?"

    "हाँ वही बताने के लिए फोन किया था, राहुल ठीक तो नहीं है कल से बहुत गुमसुम है। कल रात तो रोते रोते सो गया आज भी सुबह से बहुत उदास है।"

    "हाँ कल वह अपने पापा के वापस आने के बारे में पूछ रहा था, मैंने उससे कहा कि पाँच साल नहीं आ सकता।" मैं फिर अपराध बोध से घिर गया।

    "हाँ बताया उसने, इसी बात पर बहुत रोया वह, कहने लगा मम्मी मुझे लगता है पापा अब कभी वापस नहीं आएँगे।" नेहा की आवाज़ काँपने लगी।" नेहा जी आप रो रही हैं प्लीज़ रोइये नहीं। देखिये मुझे लगता है मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। मुझे इतने लम्बे समय तक नहीं आने की बात नहीं करना थी। मैं वाकई बहुत शर्मिंदा हूँ।"

    "सही क्या और गलत क्या? उसकी उम्मीद तो एक ना एक दिन टूटनी ही है। बस उसको देख कर परेशान थी इसलिए आपको फोन लगा लिया। हाँ आज सनी के केस का फैसला था ना, क्या रहा?"

    अपनी खुद की परेशानी के बावज़ूद भी नेहा को सनी का केस याद रहा। बच्चों के साझा दुःख ने हमें एक दूसरे से जोड़ दिया था। "हाँ ठीक रहा उसे बरी कर दिया गया है।" संक्षेप में उसे सारी बात बताई, उसने मुझे बधाई दी।

    ***