Karoge kitne aur tukde - 1 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | करोगे कितने और टुकड़े - 1

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करोगे कितने और टुकड़े - 1

करोगे कितने और टुकड़े

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 1

जिस विकट अंतर्द्वंद से आज गुजर रहा हूं, अपनी अब तक की पचहत्तर साल की उम्र में पहले कभी नहीं गुजरा था। तब भी नहीं जब देश में आपातकाल लगाया गया। और तब भी नहीं जब उन्नीस सौ चौरासी के सिख दंगों के बाद एक एकेडेमी का अध्यक्ष होने के नाते एक लेखिका को पुरस्कार देने से मना किया। क्यों कि वह उस पुरस्कार के योग्य नहीं थी। और कई प्रभावशाली नेताओं से बराबर दबाव डलवा रही थी। मैं उन सबसे बेहिचक एक पल गंवाए बिना कहता था कि उसकी किताब इस योग्य भी नहीं कि किसी छोटी-मोटी एकेडेमी का उसे सांत्वना पुरस्कार भी दिया जाए।

उस लेखिका को यह गुरूर था कि सबसे पुरानी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का, रूलिंग पार्टी के नेताओं का फ़ोन मुझे झुका देगा। कितने तो बड़े-बड़े स्वयंभू लेखकों के फोन आए थे। एक महोदय तो बिल्कुल भिड़ ही गए थे। तब मैंने गुस्से में आकर कह दिया था कि ‘महोदय आप उनकी पैरवी क्यों कर रहे हैं यह मैं खूब समझ रहा हूं। आप उनकी अयोग्यता के बावजूद उन्हें स्थापित करने की जिस तरह जी-तोड़ कोशिश में लगे हैं वह भी समझ में आता है। वह जिस तरह आप को कंपनी देती हैं, जिस तरह आपके साथ ना जाने कहां-कहां समय बिताती हैं , जाती हैं उसके बाद तो आपके पास उनके लिए यह सब करने, उन्हें स्थापित करने के अलावा कुछ रह भी नहीं जाता।’

यह पूरा साहित्य जगत जानता है कि आप किस तरह उनकी रद्दी में फेंकी जाने लायक ऊल-जलूल कहानियों को झाड़-पोंछ कर छापते आ रहे हैं। जो महिला अधिकारों के नाम पर अश्लीलता, फुहड़ता से भरी होती हैं। लेकिन आप पत्रिका का सर्वेसर्वा होने, संपादक होने का पूरा फायदा उठाते हैं। आपने पत्रिका को न जाने कितनी अयोग्य लेखिकाओं को स्थापित करने का हथियार बना लिया है। उन सबसे आपके संबंध भी जगजाहिर हैं। आपकी इस मठाधीशी के कारण कितनी ही अच्छी लेखिकाएं समय से अपना स्थान नहीं बना पा रही हैं। कहीं अंधेरे में चली जा रही हैं। इन सक्षम उत्कृष्ट लेखिकाओं के साथ जो अन्याय आप कर रहें हैं, आने वाला समय आपको माफ नहीं करेगा। आपके कुकृत्य सामने आएंगे। आप एक ऐतिहासिक पत्रिका को भ्रष्ट अनैतिक आचरण का अड्डा बना चुके हैं।’

खीझ के कारण मैं उन्हें एक सांस में ही यह सब बोल गया था। और तब उस पत्रिका के संपादक बिफर पड़े थे। फ़ोन का रिसीवर पूरी ताकत से पटका था। लेकिन मैं तब भी जरा भी असहज नहीं हुआ था। बल्कि मुझे संतोष हुआ, मैं खुश हुआ कि मैं एक बहुत बड़े मठाधीश, जो बड़ा साहित्यकार भी है उसके प्रभाव में भी नहीं आया। कोई गलत निर्णय नहीं लिया।

आपातकाल के समय तो मैंने और भी सहजता के साथ निर्णय लिया था। सरकार की तानाशाही के विरुद्ध तत्काल विरोध दर्ज कराने के उद्देश्य से पुरस्कार वापस कर दिया था। कहने को पुरस्कार राज्य सरकार का छोटा सा ही था। तब मेरा कद साहित्य जगत में कुछ ख़ास नहीं था। तब एक लेखिका ने भी यह किया था। लेकिन उन लेखिका और बाकी के विरोध में बड़ा फ़र्क था। वह शासक परिवार की सदस्या थीं। जब कि बाकियों के साथ ऐसा कुछ नहीं था। यह वह समय था जब कुछ भी बोलने वाला सीखचों के पीछे होता था। यातनाओं का दौर था। हत्याओं का दौर था। सरकार के खिलाफ बोलने वाला कहां गायब हो जाएगा, किस नदी, नाले में मिलेगा कुछ कहा नहीं जा सकता था।

भय से आक्रांत सभी लोगों के मुंह में से जैसे जबान ही खींच ली गई थी। इसी लिए तब साहित्य की दुनिया से पुरस्कार वापसी की कतिपय घटनाओं के अलावा कहीं कोई बड़ी हलचल नहीं हुई थी। ऐसे दौर में भी मेरा विरोध बिना समय गंवाए दर्ज हुआ था। भय नाम की कोई बात ही नहीं थी। मन में बस एक ही बात थी कि यदि जान जाती है तो जाए। कम से कम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा का प्रयास तो सुदृढ़ होगा। क्यों कि मेरा तब भी और आज भी यही मानना है, दृढ़ मत है कि कोई देश, समाज तभी तक सुरक्षित सुदृढ़ रहता है, विकास करता है जब तक वहां के नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली रहती है।

अनुभा तब बहुत घबराई थी। बोली थी कि ‘तुम यह ठीक नहीं कर रहे हो। स्वनामधन्य सारे लेखक चुप हैं। तुम तो अभी नए-नए सिपाही हो, क्यों देश की खुंखार, निर्लज्ज तानाशाही से लोहा लेने में लगे हो। तुम्हें कुछ हो गया तो इन बच्चों का क्या होगा? मेरा क्या होगा? इन बच्चों को लेकर कहां जाऊंगी? हर तरफ डर इतना है कि कोई साथ नहीं देता। परिवार भी नहीं। देखते नहीं बाबू जी, जेठ जी, मेरे भाई भी मना करने के लिए चल कर यहां तक आए। पत्र लिख कर या फ़ोन करने की भी हिम्मत नहीं कर पाए। वह सब डरे हुए थे कि कहीं बीच में कोई देख, सुन न ले।

तुम्हारे कितने मित्र भी तो आ आकर कह चुके हैं कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के काले दिन चल रहे हैं। समझदारी इसी में है कि अभी शांत रहो। उचित समय की प्रतीक्षा करो। एक दिन यह अंधेरा छंटेगा ही। सही समय आ जाए तब जो कहना हो कहना।’ तब मैंने अनुभा से कहा था, कि ‘यह प्राण जाने के डर से घर के कोने में दुबक कर बैठने का समय नहीं है। सही समय तो तभी आएगा अनुभा जब इस गलत समय का चहुं ओर विरोध किया जाएगा। हो सकता है कई जानें चली जाएं। लेकिन कोई भी तानाशाही कितनी भी क्रूर हो, धूर्त, मक्कार, चालाक हो, वह जनाक्रोश को दबा नहीं सकती। रूस, फ्रांस में जनता ने ही क्रूर शासकों को नेस्तनाबूद किया है।’

यह कहते हुए मैं यह भूल गया था कि मेरी पत्नी इतिहास की ही लेक्चरर है। उसने झट कहा ‘लेकिन अभी तो यहां जनाक्रोश जैसा कुछ दिख नहीं रहा है। तुम अकेले क्या करोगे? फिर तुम लेखक हो, जननेता नहीं। कि सड़क पर उतरो। फ्रांस के रूसो, वाल्तेयर की तरह पहले ऐसा लिखो कि जनाक्रोश पैदा हो। और जब जनाक्रोश पैदा हो जाएगा तो तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी। जनता अपना काम स्वयं कर लेगी।

तुम्हारी लेखनी से उसके भीतर उपजा आक्रोश उससे सब करा लेगा। और उससे पहले तुम अपना काम कर चुके होगे। देखो मैं तो यह कहती हूं कि लेखक को अपनी कलम, लेखन छोड़कर सड़क पर तभी आना चाहिए जब वह चुक गया हो। उसके लेखन में प्राण बचे ही ना हों । और अपना उत्तरदायित्व, अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए उसके पास कोई विकल्प ही ना हो। मैं तो ऐसा नहीं समझती कि तुम्हारा लेखन चुक गया है।

बर्तोल्त ब्रेख्त की तरह ऐसा कुछ क्यों नहीं लिखते कि हिटलर की तरह यहां की तानाशाह भी हिल जाए। उसके पांव उखड़ जाएं। वह सही रास्ते पर आ जाए। तुम ये क्यों भूल रहे हो कि नेपोलियन बोनापार्ट जैसा सेना नायक, शासक भी लेखन, अखबार से घबराता था। यह सब जानते हुए तुम एक चुके हुए लेखक वाली हरकत क्यों कर रहे हो? कल को तुम्हारा लेखक समूह ही तुम्हें धिक्कारेगा, तुम्हारी खिल्ली उड़ाएगा। कोई तुम्हारे साथ खड़ा नहीं होगा।’

तब मुझे पत्नी की बातें बड़ी तीखी लगी थीं। मुझे लगा कि बाहर कोई आलोचना करे या ना करे, घर में पत्नी ने पहले ही कर दी है। कहते हैं ‘निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाए।’ मैं तो इस मामले में बहुत आगे निकल गया हूं। मैंने तो ‘निंदक नियरे राखिए आंगन पत्नी बनाए’ जैसी नई धारा शुरू की है। अपने इस आलोचक की आलोचना से तब मैं काफी विचलित हो गया था। मेरा निर्णय हिल उठा था। लेकिन किसी तरह मैंने अपने को संभाला था।

अपने निर्णय का बचाव करते हुए तर्क दिया था कि ‘देखो अनुभा मुझे लगता है कि तुम अपनी जगह सही हो। मेरी और बच्चों को लेकर तुम्हारी चिंता उचित हो सकती है। लेकिन मेरी बात, मेरी स्थिति को भी समझने का प्रयास करो। मैं अभी चुका नहीं हूं। मेरे लेखन की आग तो अभी धधकनी शुरू ही हुई है। लेकिन कई निर्णय परिस्थितियों को देख कर लिए जाते हैं। आपातकाल का यह अंधियारा देश में देखते ही देखते आ गया है। लेखन के जरिए जनाक्रोश पैदा करना, उसे दिशा देने के लिए अभी पर्याप्त समय नहीं है। तात्कालिक ज़रूरत यह है कि तुरंत ऐसा कुछ किया जाए कि इस तानाशाही के अत्याचार के खिलाफ तुरंत आग भड़क उठे।

वह इतना तेज़ी से धधके कि तानाशाह की काली दुनिया उसमें भस्म हो जाए। जनता को उसका अधिकार मिले। वह खुली हवा में सांस ले सके। देखती नहीं हो संविधान में प्रदत्त सारे मौलिक अधिकारों को छीन लिया गया है। अब प्रतीक्षा का कोई कारण दिखता ही नहीं। इसलिए मेरा दृढ़ मत है कि मेरा क़दम उचित है। वह मेरे चुकने का प्रतीक नहीं है। हो सकता है मेरा यह क़दम बेहद छोटा हो, सूक्ष्म हो लेकिन शुरुआत तो होगी। दावानल की शुरुआत भी तो चिंगारी से ही होती है।

मेरा कदम शोला भले ही न साबित हो। लेकिन चिंगारी तो निश्चित ही साबित होगा। जन को जगाने के लिए पहले चिंगारी ही की ज़रूरत है। मेरी बातों या यह कहें कि मेरी जिद के आगे पत्नी शांत हो गई। और मैं बिना किसी संशय बिना किसी अनिर्णय की स्थिति का सामना किए बेधड़क पुरस्कार वापस कर आया था। यह अलग बात है कि तब चिंगारी चिंगारी ही बन कर रह गई थी। आपातकाल जैसी काली दुनिया में भी तरह-तरह के पुरस्कार प्राप्त लेखक, रंगकर्मीं, चिंतक, फ़िल्मकार, समाज सुधारक या तथाकथित समाज सेवी नहीं जगा। विरोधस्वरूप पुरस्कार वापस करने वालों की वैसी भीड़ नहीं जुटी जैसी आज जुटी है।

मुझे बड़ा आश्चर्य हो रहा है। बड़ा अचंभा हो रहा है कि आज देश में ना तो आपातकाल है। वास्तव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरे जैसी कोई बात ही नहीं है, बल्कि आज तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का जैसा प्रयोग हो रहा है वह इस अधिकार के दुरुपयोग का जीता जागता उदाहरण है। स्वच्छंदता है। सत्ता अपनी पसंद की नहीं है तो उसे उखाड़ फेंकने के लिए एक ऐसा क्षद्म वातावरण तैयार करने की कोशिश हो रही है मानो स्थिति आपातकाल से ज्यादा भयावह हो। अभी तुरंत कुछ न किया गया तो देश नष्ट हो जाएगा। ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि जैसे हर तरफ कत्लेआम मचा हुआ है। लेखकों, कलाकारों, चिंतकों, समाज सुधारकों को चुन-चुन कर मारा जा रहा है। जिन एक दो घटनाओं को आधार बनाया गया वह भी गलत निकलीं। षड्यंत्र निकलीं।

यदि कोई लेखक, समाज सुधारक वर्ग विशेष को अपमानित करने, अपनी प्रसिद्धि और बहुत बड़े सुधारकों की श्रेणी में शामिल हो जाने के शार्ट-कट के रूप में सिर्फ एक समुदाय विशेष को बराबर अपमानित करता रहेगा। हद यह कर दे कि खुलेआम मंचों से बार-बार समुदाय विशेष के आस्था के केंद्र, उसके भगवान की मूर्ति पर पेशाब करने की बात कहेगा तो क्या कठोर प्रतिक्रिया नहीं होगी? क्या यह मानवीय स्वभाव नहीं है कि जिसकी आस्था, जिसके भगवान की मूर्ति पर पेशाब करने की बात बार-बार जो करेगा उसके खिलाफ कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी? आखिर किसी मूर्ति पर पेशाब करने की बात करके कौन सा समाज सुधार किया जा सकता है? यह कैसी प्रगतिशीलता है? यह कैसी सभ्यता है?

इसे जाहिलियत से बढ़ कर किसी बर्बर, उजड्ड जंगली आतताइयों सरीखा कार्य नहीं कहा जाएगा क्या? जैसे अतीत में तमाम बर्बर जातियां आती थीं और छल-छद्म से हमला कर मूर्तियां तोड़तीं थीं। पैरों तले कुचलती थीं। लेकिन यहां तो जाहिलियत उससे आगे निकल गई है। सीधे पेशाब करने की बात की जा रही है। हंगामा करने वाला समूह बजाय इसकी आलोचना करने के इसे और बढ़ावा दे रहा है। और मीडिया के लिए तो खैर यह हॉट केक है ही। ऐसा हॉट केक जिससे उनकी टी. आर.पी. आसमान छूने लगे। कोई अभी तक इस बिंदू पर बात ही नहीं कर रहा कि मूर्तियों पर पेशाब करने की बात करने वाले जिन लेखक की मृत्यु हुई ,उन्हें किसने मारा इसका पता ही नहीं है।

बस आंख मूद कर मूर्ति पूजक समूह पर बिना किसी प्रयास के आरोप लगा कर बखेड़ा खड़ा कर दिया गया। इस तरफ कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा कि जिस राज्य में लेखक दिवंगत हुए उस राज्य में सबसे पुरानी पार्टी की सत्ता है। जिससे लेखक सुरक्षा देने की याचना करता रहा लेकिन सत्ता सोती रही। इस मनसा के साथ कि कुछ घटे तो फायदा उठाया जाए। करेगा कोई भी नाम उसी मूर्ति पूजक समूह पर ही लगेगा। सत्ता की इस असफलता, धूर्तता पर एक शब्द नहीं बोला जा रहा।

हवा में तैरती इन बातों की तरफ भी कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा कि एक समूह यह कह रहा है, कि हालात का फायदा उठाने के लिए ही पार्टी विशेष ने ही लेखक की जान ली है। कि लेखक ऐसी बातें कर रहा है ऐसे में शक सीधा मूर्ति पूजकों पर ही जाएगा। इससे बने माहौल से केंद्र की सत्ता उखाड़ी जा सकेगी।

इस बात का भी कोई जवाब नहीं कि राज्य सत्ता जानबूझ कर हत्यारे या हत्यारों को गिरफ़्तार नहीं कर रही जिससे कि ज़्यादा से ज़्यादा फायदा उठाया जा सके। ऐसे बनावटी धोखाधड़ी से खड़ी की गई समस्या के पक्ष में बल्कि यह कहें कि उसे और बड़ी और विराट रूप देने के लिए योगदान करने हेतु मुझ पर यह वर्ग दबाव डाल रहा है।

महीने भर से रात दिन यही कहा जा रहा है कि यही सही समय है तानाशाह को उखाड़ फेंकने का। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि जिसे तानाशाह के नाम पर शैतान कहा जा रहा है, उसे तो दुनिया में लोकतंत्र के बड़े-बड़े अलंबरदार शासक देश भी हाथों-हाथ ले रहे हैं। उसके स्वागत में पलक पांवड़े बिछा रहे हैं। उसे अपने यहां आमंत्रित कर रहे हैं। उसे उदारमना सशक्त शासक कह रहे हैं। मुझसे कहा जा रहा है कि आप इस समय एक बड़ी प्रभावशाली एकेडेमी के अध्यक्ष हैं, उस पद से इस्तीफा दे दें। अपने सारे अवॉर्ड वापस कर दें।

अब आपको इनकी ज़रूरत भी क्या है, इन्हें अलमारी में रखे रहने का कोई मतलब है क्या?अरे फायदा तो यह है, इनकी अर्थवत्ता तो यह है कि इन्हें विरोध प्रदर्शित करते हुए वापस कर दें। इससे एक बार आप फिर चर्चा में आ जाएंगे। मीडिया में छा जाएंगे। वैसे भी अब ना आपकी कोई रचना आनी है, न कोई अवॉर्ड मिलना है। दो महीने बाद ही इस एकेडेमी से भी रिटायर हो जाएंगे। यह सत्ता आपको कहीं कुछ बनाने वाली नहीं। इन लोगों से मैं कैसे कहता कि धूर्तता पाखंड मेरी फितरत में नहीं है। मेरे आचरण में नहीं है। जीवन के पचहत्तर साल सिद्धांतों पर चलकर ही बिताए हैं। हालात जैसे बताए जा रहे हैं, उसकी छाया भी होती तो भी मैं चुप नहीं बैठता।

मेरा लेखक मन, मेरा अंतर्मन इस षड़्यंत्री लेखक, कलाकार चिंतक समूह को लेकर बहुत व्यथित है। बहुत चिंतित है कि जब इनकी धूर्तता का मुखौटा समय उतार देगा तब ये समय, समाज, देश, दुनिया, को क्या मुंह दिखाएंगे? किस मुंह से सामना करेंगे ये इन सबका। ये मुझे जिस तरह खत्म हुआ कह रहे हैं सच तो यह है कि यह सब खुद चुके हुए हैं। ना जाने कितने वर्षों से इन सबकी न तो कोई रचना आई है, न कोई काम आया है। ना कोई विचार।

एक विचारधारा के कट्टर अनुयायी, इन लोगों को यह पता है कि सत्ता की विचारधारा दूसरी है तो इन्हें मलाईदार कोई पद भी नहीं मिलने वाला। यह सब करने पर गैर ज़िम्मेदार शक्तियां, विरोधी शक्तियां हाथों-हाथ लेंगी। पूरी संभावना है कि इस समूह पर विदेशी शक्तियां कुछ थैलियां उछालने लगें । और इन्हें मलाई चाटने को मिल जाए। जैसे तमाम विदेशी ताकतें यहां के तमाम तथाकथित समाज सेवकों, समाजसेवी संस्थाओं को पैसा देती हैं, कि हर सरकारी योजनाओं को पर्यावरण, मानवाधिकार के नाम पर रोक सकें। इसमें वे बड़े स्तर पर सफल भी हो रही हैं।

मुझे चुका हुआ या अपनी तरह पलिहर वानर समझने वाला यह समूह यह बताने तक का समय नहीं दे रहा है कि मेरा पांच खंडों में करीब डेढ़ हज़ार पृष्ठों का उपन्यास ‘करोगे कितने और टुकड़े’ बस पूरा ही हो चुका है। जिसे मैं डेढ़ दो महीने में छपने के लिए देने जा रहा हूं। जिसे लिखने में मैंने आठ वर्ष से ज़्यादा समय लगाया है।

पता नहीं इन पलिहर वानरों को क्यों यह समझ में नहीं आता कि खुशवंत सिंह पिचानवे वर्ष से ज़्यादा की उम्र तक लिखते रहे हैं, आखिरी उपन्यास इस उम्र में लिखा। मैं तो अभी पचहत्तर का हुआ हूं। और पूर्णतः सक्रिय हूं। सक्षम हूं। अभी बहुत सा लेखन मुझमें बाकी है। इसी लिए मेरे पास षड़्यंत्र, अवसरवादिता के लिए समय क्या, सोचने का भी समय नहीं है। यदि ऐसी स्थिति बनेगी तो मैंने आपातकाल में जैसा क़दम उठाया था वैसा क़दम उठाने से नहीं हिचकूंगा। मगर हालात कुछ ऐसे हों तब ना।

मुझे अपने लेखक होने के कर्तव्यों का, सरोकारों का पूरा ज्ञान है। भटके हुए तो तुम लोग हो, चुके हुए तो तुम लोग हो। तुम्हारे कृत्य कुकत्य हैं। देश, देशवासियों के साथ घात है। तुम सब के कारण मैं महिने भर से कैसे अंतरद्वंद से गुजर रहा हूं वो तुम्हें क्या बताऊं? अनुभा से भी यह सब अब मैं नहीं कहता क्यों कि अब वह हृदय रोगी है, तनाव में ना आए। तनाव उसके लिए जानलेवा है। अकेले ही तुम्हारे षड़्यंत्रों के चलते परेशान हूं। चिंता के कारण सो नहीं पा रहा हूं।

सोता हूं तो बार-बार एक ही सपना दिखाई देता है। कि एक विशाल श्वेत रथ पर, धवल श्वेत वस्त्रों को धारण किए भारत माता चली आ रही हैं। क्रोध के कारण उनके नयनों से अंगारे बरस रहे हैं। वह मुझ से प्रश्न पर प्रश्न पूछ रही हैं। मेरे दायित्वों के निर्वहन के बारे में पूछ रही हैं।

उनके रथ में जुते सातों शेर केसरिया रंग के हैं, क्रोध से वे भी गुर्रा रहे हैं। रथ के शिखर पर रक्तवर्ण की विशाल पताका भयानक रूप से फड़फड़ करती हुई ऐसे लहरा रही है मानो भयंकर तुफानी हवाएं चल रही हों। वे रोज मेरे सपने में आकर पूछती हैं कि जब यह हुआ तब तुम लेखकगण कहां मटरगस्ती कर रहे थे? जब यह हुआ तब क्यों सो रहे थे? जब यह हुआ तब क्या लिखा? जब यह हुआ तब क्या वापस किया? उनके एक भी प्रश्न का मेरे पास कोई संतोष जनक उत्तर नहीं होता है।

जब उत्तर नहीं दे पाता तो भारत माता बहुत नाराज होती हैं। अपना क्रोध प्रदर्शित करती हुई अंतरध्यान हो जाती हैं, अगले दिन आने के लिए। मेरा अगला चौबीस घंटा यह अनुमान लगाने में निकलता है कि भारत माता का अगला ज्वलंत प्रश्न क्या होगा? उसका मैं क्या उत्तर दूंगा? इसके दूसरी तरफ तुम सबके फ़ोन, तुम्हारे संदेश, तुम्हारे हरकारे आकर मुझे परेशान करते हैं कि मेरा निर्णय क्या है? मैं अपने अवॉर्ड कब वापस कर रहा हूं। मैं उन उजड्ड हरकारों को क्या बताऊं कि मैं भेड़चाल में चलने वाला नहीं हूं। कुंए में गिरी एक भेड़ के पीछे-पीछे आंख मूंद कर उसमें गिरने वाली भेड़ों की तरह नहीं हूं।

एक-एक तथ्य आंकड़ों का विश्लेषण करता हूं, फिर निर्णय लेता हूं कि क्या करना चाहिए। इस समय भी तुम सब द्वारा की जा रही हरकतों, बातों का निरंतर विश्लेषण कर रहा हूं और निर्णय लेने के करीब हूं कि तुम सबके साथ रहूं, या उस वर्ग के साथ जो तुम्हारे काम को देश के साथ किया जाने वाला घात कह रहें हैं। रैलियां निकाल रहे हैं। जैसे ही यह निर्णय ले लूंगा। वैसे ही जो क़दम उठाना होगा वह उठाऊंगा। पल भर का भी समय नहीं लगाऊंगा। मेरा ज़्यादा समय तो अभी भारत माता के द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने में लगता है। वास्तव में उन प्रश्नों के मैं जो उत्तर दे पाऊंगा उन्हीं के आधार पर ही मेरा निर्णय आएगा। मैं तय कर पाऊंगा कि मुझे क्या करना है।

भारत माता का पहला प्रश्न वास्तव जितना मेरे लिए है उतना ही तुम सबके लिए भी है। बल्कि मैं यह कहूंगा कि मुझसे ज़्यादा तुम सबके लिए, क्यों कि अवॉर्ड को हथियार बनाकर अपने निहित स्वार्थों के लिए क्षद्म वातावरण तुम सबने बनाया है। मैंने नहीं। तुम सबने पलभर को यह नहीं सोचा कि तुम्हारा यह छल-कपट, स्वार्थ देश को गर्त में ले जाने का काम करेगा। करेगा क्या बल्कि कर रहा है।

पड़ोसी देश यह सब देखकर कैसे खुशी से झूम रहा है कि जिस काम को अरबों रुपए खर्च कर, चार युद्ध कर के, दशकों आतंकी कारवाई में लाखों को मौत के मुंह में धकेल कर वह ना कर सका, अपने षड़्यंत्र से वह कुकृत्य करने में तुम सब ने कुछ दिन में ही सफलता पा ली। जो काम वह आधी सदी से नहीं कर पा रहा था उसे तुमने चंद दिनों में थाल में सजा कर उसे दे दिया। घर के चोर को कौन रखा सका है। आस्तीन के सांप, भितरघाती गद्दार कुछ समय के लिए तो सफल हो ही जाते हैं।

भारत माता का पहला प्रश्न ही यही है कि तुम सब की अंर्तआत्मा तब कहां थी, सक्रियता तब कहां थी जब तुम्हारे ही देश के तुम्हारे ही भाई-बंधु कश्मीरी पंडितों का बरसों कश्मीर में कत्लेआम होता रहा। समूह के समूह काट डाले गए। गोलियों से भून दिए गए। जिंदा जला दिए गए। धर्म बदल दिया गया। जो ना माना उसके परिवार सहित टुकड़े कर दिए। स्त्रियों की इज्जत तार-तार होती रही। सरकार की ज़िम्मेदारी उठाने वाले डुगडुगी बजाते रहे।

ऑपरेशन ब्लू स्टार के लिए जो सख्ती, सक्रियता दिखाई गई यदि उसकी आधी भी बर्बर आतंकियों, भाड़े के गुर्गों के खिलाफ दिखाई जाती तो कश्मीरी पंडितों से पूरा कश्मीर खाली ना हो जाता। लाखों की संख्या में कश्मीरी पंडित अपने ही देश में दशकों से शरणार्थी का नारकीय जीवन ना जी रहे होते। पूरी कश्मीरी अर्थव्यवस्था का कभी सर्वेसर्वा रहा यह समुदाय शरणार्थी कैंपों में कुछ किलो अनाज के लिए लाइन में खड़ा ना दिखता, धक्के ना खा रहा होता।

सही तो यह है कि इनके साथ पूरी कश्मीरी सभ्यता धक्के खा रही है। क्यों कि इनके बिना तो कश्मीरी सभ्यता है ही नहीं। उसका असितत्व ही नहीं है। कोई सभ्यता अपनी जड़ से कटकर कहां पूर्ण रह पाई है। कश्मीरी पंडित कश्मीरियत की जड़ हैं। तना हैं,कली हैं ,फुल हैं, पत्ती हैं। इनके बिना इस सभ्यता की कल्पना भी मूर्खता है। इस सभ्यता को बचाने के लिए, इनके साथ हो रही इस अमानवीय, बर्बर ज़्यादती के खिलाफ तब से लेकर अब तक तुम सब ने क्या किया? तुम सबने कितनी बार यह कहा कि इनके अधिकार इन्हें मिलें। इनका घर बार इन्हें वापस मिले। क्या ये भारतीय नहीं हैं। क्या संविधान में इनके लिए कोई मौलिक अधिकार नहीं है।

तुम सब ने कितनी बार इन सबके लिए कुछ बोला, किया, लिखा। भारत माता की इन बातों के सामने मैं निरुत्तर था। सच तो यही था कि कभी कुछ किया ही नहीं। कश्मीरी पंडित समूहों में मारे जाते रहे और मैं भी शांत रहा। कोई जुंबिश तक ना हुई। आज तक भी कुछ नहीं किया।

डेढ़ हज़ार पृष्ठों का उपन्यास लिख डाला। ना जाने कितनी कहानियां लिख डालीं। कितने व्याख्यान दे डाले। लेकिन अपने इन देशवासियों के लिए कुछ ना बोला, डेढ़ पन्ने भी न लिखा। आज तक सोचा भी नहीं। दिमाग में बात तक नहीं आई। एक लेखक होते हुए भी अपनी ज़िम्मेदारी से, समाज, देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व से मैं विमुख रहा। सही मायने में मेरा यह एक गैरज़िम्मेदाराना, लापरवाही भरा कृत्य नहीं अक्षम्य कुकृत्य है।

मैंने भारत माता के समक्ष नतमस्तक हो अपनी अक्षम्य गलती के लिए क्षमा मांगी। और मां ने माफ कर दिया। आखिर वह मां है। भारत मां है। जिसने अपने टुकड़े करने वाले सत्तालोलुप स्वार्थियों को भी माफ कर दिया था। मेरे पश्चाताप के आंसू निकलने लगे थे। तभी मां का हाथ आशीर्वाद की मुद्रा में उठा और वह अंतरध्यान हो गईं। मेरी नींद खुल गई। उठकर बैठ गया। सामने दिवार पर लगी घड़ी में देखा एक बज रहे थे। अनुभा सो रही थी। तभी मेरा ध्यान अपनी आंखों की ओर चला गया, साथ ही हाथ भी। वह वाकई आंसुओं से भरी थीं। पल भर में पूरा सपना आंखों के सामने चलचित्र सा चल गया।

बेचैनी बढ़ी तो उठकर घर में ही टहलने लगा। घर बहुत बड़ा लग रहा था। यही घर तब छोटा लगता था जब सारे बच्चे यहीं थे। मगर पढ़ाई-लिखाई फिर कॅरियर जिसको जहां ले गया सब वहीं चले गए। लड़कियां ससुराल में खुश हैं। लड़के अपनी नौकरी, अपने परिवार के साथ अपने घरों में। और यह घर एकदम से बड़ा हो गया। इस बड़े घर में हम पति-पत्नी एकदम अकेले हैं। बहुत याद आती है बच्चों की। इस समय सब यहां होते तो अपनी यह व्यथा उनसे साझा करता। अपनी बेचैनी दूर करता। यूं व्यर्थ टहलता नहीं। काफी देर मैं यूं ही टहलता रहा और दोबारा पानी पी कर फिर बेड पर लेट गया। मगर नींद ना आई। बार-बार भारत माता के प्रश्नों का जवाब ढूढ़ता रहा। मुझसे बतौर लेखक कब-कब समाज, देश के प्रति कहां गलतियां र्हुइं यही सोचता रहा। जब भोर होने को हुई तभी नींद लग गई।

मैं अगले पूरे दिन भीतर ही भीतर बहुत अशांत रहा। कई लेखकों के फोन आते रहे। कि आपकी क्या राय बन रही है। लोगों के बीच, सोशल मीडिया पर भी चर्चा है कि आप पद से इस्तीफा दे रहे हैं। अवॉर्ड वापस कर रहे हैं। इन सब को मैं एक ही जवाब देता रहा। जो भी होगा समय पर सामने आ जाएगा। चिंता ना करें मैं अन्याय के साथ कभी नहीं रहूंगा। अपना कर्तव्य निभाना अच्छी तरह जानता हूं। घर पर भी अनुभा के साथ खाने पर अन्य बातें होती रहीं। रोज की तरह बच्चों से फ़ोन पर बातें भी कीं। नाती-पोतों बच्चों की बातों में अपने को उलझाए रखने की कोशिश की। मगर सारी कोशिशों के बावजूद मन का एक छोर भारत माता के साथ जुड़ा रहा। वह रात भी पिछली रात सी बीती।

भारत माता अपने भव्य रूप में सामने आईं। पहले ही की तरह पूरे क्रोध में थीं। उनके एक हाथ में देश का संविधान था। उसे मुझे दिखाते हुए कहा जब यह पवित्र संविधान बना तब भी कई स्वार्थी लोगों ने अपना हित साधने का प्रयास किया था। संविधान के लागू होने के बाद भी यह प्रयास बंद नहीं हुए। बल्कि और तेज़ हुए। भारत माता ने पूछा क्या तुम्हें इस बात की जानकारी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मैंने संविधान में सभी को एक समान दी थी। लेकिन इसका गला बाद में घोंटा गया। वह भी लागू होने के एक वर्ष बाद ही। 1951 में ही। मेरे लिए यह अबूझ पहेली सा था।

मैं पहली बार सुन रहा था कि अभिव्यक्ति की जो आजादी मिली थी उसे साल भर बाद ही कुतर दिया गया था। मेरे जैसे लेखक को यह जानकारी तो होनी ही चाहिए थी। दर्ज़नों किताबें लिखीं। विराट उपन्यास लिख डाला। और अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर कितना कुछ लिखा। आज इसी मुद्दे को ही तो लेकर सब बखेड़ा खड़ा किए हुए हैं। मैं भी उसके एक पक्ष में हूं। उसे पक्ष कहूं या विपक्ष लेकिन हूं तो सही एक पक्ष में । और मुझे जानकारी ही नहीं।

आखिर मैं कैसे तय कर पाऊंगा कि किस आधार पर मुझे अपना पक्ष तय करना है। अपनी अनभिज्ञता प्रकट करते हुए मैंने भारत माता से कहा पूजनीय मां मुझे इस बात की जानकारी नहीं कि किसने कब ऐसा किया। क्यों किया ? कृपया मार्गदर्शन दें। मैं नतमस्तक हाथ जोड़े खड़ा रहा। अपनी नादानी, मूर्खता का अहसास कर मैं थर-थर कांप रहा था।

मेरी बात सुनकर मां का क्रोध और बढ़ गया। कुछ पल मुझे आग्नेय दृष्टि से देखती रहीं। मानो कह रही हों कि वस्तु-स्थिति को जाने बिना ही भेड़ों की तरह कुएं में गिर रहे हो। फिर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा 1951 में ही लाए गए पहले संविधान संशोधन का उल्लेख किया। मामला अभिव्यक्ति का ही था। एक पत्रिका की बिक्री किसी भी सूरत में प्रधान मंत्री नहीं चाहते थे। मामला कोर्ट में गया।

सरकार सर्वोच्च न्यायलय में भी हार गई। इससे सत्ता तड़प उठी। क्रोध से बिफर पड़ी। यह सहन नहीं हो पा रहा था कि वह मद्रास सरकार बनाम रोमेश थापर मामले में हार गई। लोकतंत्र की सत्ता बिफर उठी। वह तानाशाह बन बैठी। फिर एक नहीं तीन-तीन संसोधन ले आई। और आईपीसी की धारा 153 ए बनाई गई। जिसके जरिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को डस लिया गया।

भारत माता ने प्रश्न किया कि जिस स्वतंत्रता के लिए इतना भीषण रक्तपात हुआ। इतना समय लगा। उसे आजादी मिलते ही कुतर दिया गया। तब आखिर यह समूह क्यों सो रहा था? क्या आजादी की लड़ाई की थकान उतार रहा था? और यादि थकान उतर गई हो तो इस धारा को समाप्त करने के लिए बात क्यों नहीं होतीं? क्यों अभी तक आजादी के बड़े-बड़े पैरोकार मुंह सिले हुए हैं?

एक बार मैं फिर निरुत्तर था। मेरे पास सिवाय सिर झुकाए खड़े रहने के और रास्ता नहीं था। मैं क्या कहता उनसे, किस मुंह से कहता। मेरी चुप्पी पर भारत माता ने सख्त नाराजगी प्रकट की। कहा यह तुम्हें याद नहीं है मान लेती हूं। लेकिन महिलाओं की आज़ादी उनके अधिकारों के लिए चिल्लाने वाले तुम लोग क्या कर रहे हो अब तक? कितनी सुरक्षित हैं महिलाएं यहां पर? और मुस्लिम महिलाओं की आजादी उनके मौलिक अधिकारों के बारे में तुम्हारे समूह के मुंह पर पड़े ताले आखिर क्या कहते हैं? उनको संविधान से मिले अधिकारों को भी वोट की घिनौनी राजनीति करने वालों ने कुतर दिया। इसका विरोध तुम सबने क्यों नहीं किया? क्या तब भी तुम्हारी आंखों पर पट्टी बंधी थी? क्या तुम्हारे कानों में रूई ठुंसी हुई थी? क्या मुस्लिम महिलाएं इंसान नहीं हैं? क्या उनके लिए तुम सबकी संवेदनाएं मर गई हैं?

बाकी वर्ग की महिलाओं के लिए बड़ी-बड़ी पोथी लिख डालने वाले, गला फाड़-फाड़ कर भाषण देने वाले तुम सबकी नजर में क्या इनके लिए कोई जगह नहीं है? इनके अधिकारों को कुचलने के लिए संविधान संशोधन के वक्त की तुम सबकी चुप्पी कब टूटेगी? तुम्हारी अंतर्रात्मा कब जागेगी?

भारत माता के क्रोध के आगे मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं कुछ बोलूं। उनसे कहूं कि मैंने आवाज़ उठाई थी। मैंने कहा था यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। संविधान के साथ खिलवाड़ है। देश के साथ धोखाधड़ी है। मुस्लिम महिलाओं के साथ धोखाधड़ी है। उनकी तकलीफ को और बढ़ाना है। मैं उनसे बोलना चाहता था कि तब तमाम मुस्लिम विद्वानों, संगठनों ने भी मेरी तरह शाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया था। कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भारतीय अपराध दंड विधान की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता पाने का अधिकार है। सन् 1985 में मुस्लिम सांसदों ने भी स्वागत किया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री भी खुश थे।

लेकिन तभी कट्टरपंथी, वामपंथी वोट के कारण अचानक ही पिल पड़े। हम जैसे सारे लोगों को इन सबने चीख-चीख कर दक्षिणपंथी, कम्यूनल कह-कह कर सच को झूठ कर दिया।

वोट के लोभ में प्रधानमंत्री ने भी घुटने टेक दिए। रेंग गए बिल्कुल जमीन पर। इतना अफना उठे कि साल भर में ही 1985 में ही संविधान संशोधन कर डाला। तलाक पर रक्षा का अधिकार अधिनियम बना डाला। मुस्लिम महिलाएं, संविधान, न्याय व्यवस्था ठगी की ठगी रह गईं। मुस्लिम महिलाएं फिर से भाग्य भरोसे छोड़ दी गईं। मीडिया भी चुप था चुप है। हमें कम्यूनल कह कर मुंह बंद करने को कहा गया। अंततः हम भी तटस्थ हो गए। यह हमारा अपराध है। मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए भी हमें बराबर सक्रिय रहना चाहिए था। हम यह कर्तव्य पूरी तरह नहीं निभा सके, यह जघन्य अपराध भी हमसे हुआ है। ऐसे ही इसी श्रेणी में एक अपराध और हुआ जा रहा है।

न्यायालय ने अभी तलाक, पति के दूसरे निकाह पर विचार करने की जरूरत भर बताई और धर्मांध फिर बिफर पड़े कि हमारे मामलों में हस्तक्षेप है। हम बर्दाश्त नहीं करेंगे। न्यायालय हद से बाहर जा रहा है। मगर सुधारवादी चुप हैं। चौबीस घंटा हाय तौबा मचाए रखने वाला मीडिया तौबा किए बैठा हुआ है। इसकी प्रतिक्रिया में जब दूसरा समुदाय कहता है कि संविधान में हिंदू विवाह अधिनियम की जगह भारतीय विवाह अधिनियम की व्यवस्था क्यों नहीं की गई? तब नहीं की गई तो अब क्यों नहीं की जा रही है?

यह बहुसंख्यक समुदाय को ठगने के प्रयास का एक छल-कपट पूर्ण तर्क है कि बहुसंख्यक समुदाय को पहले उदाहरण पेश करना चाहिए। लेकिन कब तक? वह तो सत्तर सालों से करता आ रहा है। बाकी कब करेंगे। सबके लिए समान नागरिक संहिता क्यों नहीं होती? इस पक्ष द्वारा यह बात रखते ही मीडिया, तथाकथित सुधारवादी फिर हायतौबा मचाने लगते हैं। मेरे मन में यह सारी बातें क्षण भर में आ गईं। लेकिन भारत माता के रौद्र रूप के सामने मेरी घिघ्घी बंधी रही।

मैं वटवृक्ष के पत्तों सा कांपता, हाथ जोड़े खड़ा, रहा। मेरी जुबान ने यह कहने के लिए मेरा साथ नहीं दिया कि मैं उनसे कहता कि हे हर पल स्मरणीय भारत मां मैं बराबर यह प्रश्न खड़ा करता हूं कि इस तरह की हर कार्रवाई तुष्टिकरण की नीचतापूर्ण हरकत है। देश-देशवासियों के साथ विश्वासघात है। इसके कारण देश के टुकड़े हुए। मगर स्वार्थ को साधने के लिए यह गंदा घिनौना कार्य अब भी चल रहा है।

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