चुनाव में खड़ा स्मग्लर
यश वन्त कोठारी
वे एक बहुत बड़े स्मगलर थे। समय चलता रहा। वे भी चलते रहे। अब वे समाज सेवा करने लग गए। सुविधाएं बढ़ने लगीं। उनके पास सभी कुछ था। शा नदार कार, कोठी, और कामिनी।
कोठी में सजा हुआ है डाइ्रग रुम और डाइंग रुम में आयातित राजनीति है।
बड़े अजीब आदमी है। चूना भी फांक लेते है। क्यों कि पुरानी आदत है, छूटती नहीं। पाइप भी पीते है, नई-नई आदत है, होंठ तक जल जाते हैं। सूट भी पहन लेते हैं। इधर खादी भण्डार से भी कपड़े खरीदने लगे हैं। खद्दर पहनकर निकलें। मैंने टोका-
क्या बात है ?
अरे भाई चुनाव के दिन आए।
तो क्या आप भी चुनाव लड़ेंगे ?
हम तो जनता के सेवक हैं। जैसा जनता जनार्दन चाहे।
मैं जानता हूं, जनता उनसे कब और क्या चाहती है। वे यह मांग जनता के हाथों करा देने में माहिर हैं। स्मगलर थे तभी से एक्सपर्ट हैं, वे इन महान जनता मार्का कार्यों में। उनके सिद्धान्त खादी के साथ नहीं टकराते। वे ही सिद्धान्तों से टकराते हैं, और परिणामस्वरुप सिद्धान्तों को बदल जाना पड़ता है। इस लड़ाई में वे सिद्धान्तों से मात नहीं खाते। मात तो वे चुनाव में भी नहीं खाते। लेकिन.....
वे अक्सर कहते .... मैं तो सिद्धान्तों के लिए सर कटा सकता हूं उनके सिद्धान्त हैं कि उनको सिर कटाने का मौका ही नहीं देते।
एक दिन मैंने पूछा।
आपके महत्वपूर्ण सिद्धान्त क्या हैं ?
हमेशा सत्ताधारी पार्टी के साथ रहना..... ।
मैं उनकी बात ध्यान से सुनता हूं, और साहित्य में इसे लागू करने की कोशीश करता हूं, लेकिन साहित्य में सत्ता या साहित्य एक ऐसी बहस बन जाती है कि मुझे अपना सिद्धान्त छोड़ना पड़ता है।
उन्होंने आगे कहा- इस महत्वपूर्ण सिद्धान्त से बड़ा फायदा होता है। मैं उनकी बात से सहमत हो गया। आवष्यक भी था। असहमति की कोई गुंजाइश वो नहीं छोड़ते।
फायदा होना भी किस्मत की बात है। आप सन् 2000 में सत्ता के साथ थे। सन् 2003 में भी सत्ता के साथ थे, सन् 2014 में भी सत्ता के साथ रहे और अब आगे भी सत्ता के साथ रहेंगे। यही एक षाष्वत सत्य है। सत्ता सत्यम् जगत मिथ्या।
उन्होंने अत्यन्त विनम्रता के साथ मेरी बात का अनुमोदन कर दिया, विनम्रता बड़ों को ही शो भा देती है। वे बड़े हैं, अतः सिद्धान्तों के मामलों में विनम्र और लचीले हैं। लचीलापन भारतीय राजनीति की खूबी है और वे राजनीति के तारे हैं, सूर्य बनने की चिन्ता में है।
अब देखो... वे आगे बोले.....सन् 2000 में कोठी की जमीन मिली। सन् 2003 में कोठी बनी, सन् 2014 में लानलगा और.... अब भगवान ने चाहा तो इस बार कोठी के रोड साइड वाले फूटपाथ पर एक तीन तारा होटल खोल लेंगे। आखिर बुढ़ापे के लिए भी तो कुछ करें।
हां हां क्यों नहीं। बुढ़ापा किसका नहीं आता।
इस बार की उपलब्धि और भी बड़ी होने की उम्मीद है।
-- सो कैसे।
भाई, तुम नहीं समझोगे, सिद्धान्तों का प्रश्न है। और सिद्धान्तों से उपलब्धियां होती हैं। जितना बड़ा सिद्धान्त उतनी बड़ी उपलब्धि।
मेरी समझ में आ गया। उन्होने धीरे से बताया। पार्टी को इस बार हम से ज्यादा योग्य उम्मीदवार मिलना ही नहीं है। टिकट हमें ही मिलेगा। लेकिन टिकट तो आपको हर बार मिला है।
-अरे भाई, वो वार्ड मेम्बरी के टिकट थे, फिर विधान सभा के मिले। हम हार गए, कोठी बन गई। अब इस बार भी का टिकट लेंगे। जीतेंगे और सिद्धान्तों की खातिर जमकर लड़ेंगे।
- और सोचो हम जीते या न जीते या जीतकर भी हार जाएं या हारकर भी जीत जाएं। देखो, बात बहुत साफ है। टिकट के साथ मिलने वाली रकम ही असली उपलब्धि है, जो इसे पा लेता है वही सच्चा कर्मयोगी है।
चु नावी कर्मकाण्ड के ये कर्मयोगी तैयार खड़े हैं। महाभारत में लड़ने को। जीते या हारे जीत इनकी है। क्योंकि ये हर बार सत्ता में हैं, हर बार रहेंगे, इन्हें कोई नहीं हरा सकता।
मैं भी चुनाव प्रचार में उनके साथ जाने के प्रश्न पर गम्भीरता से सोच रहा हूं लेकिन सिद्धान्त आड़े आ रहे हैं। मेरे सिद्धान्तों का क्या करुं। ये मेरे पीछे पड़े हैं। ०००
यश वन्त कोठारी 86, लक्ष्मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर,जयपुर -२ मो-९४१४४६१२०७