Jab Vah Mila - 3 in Hindi Fiction Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | जब वह मिला - 3

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जब वह मिला - 3

जब वह मिला

प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 3

एक इंसान जो अब इस दुनिया में नहीं रहा उसके शरीर पर भी खिलवाड़, प्रतिशोध, वार। यह सोचते-सोचते मैं पुल के नीचे छाया में पहुंच गया। गोमती की धारा पुल से काफी आगे बीचो-बीच थी। वहां पांच-छः लोग और भी थे जो दीवार के सहारे टेक लगाए बैठे थे, ये गांजा, भांग, चरस, स्मैक का नशा करने वाले वह नशेड़ी टाइप के लोग थे, जो हनुमान सेतु मंदिर, इस पुल के बीच मंडराया करते हैं। मंदिर में आने वाले भक्तों से जो कुछ खाने-पीने को और पैसे मिल जाते है उन्हीं से पेट भरते हैं और नशे का जुगाड़ करते हैं। मैं उन सबसे चार क़दम पहले खड़ा सोच ही रहा था कि क्या करूं तभी देखा गोताखोर भी वहीं आ कर बैठ गया।

वह कुछ देर पहले ही दो मिनट से ज़्यादा समय तक डुबकी लगा कर खाली हाथ लौटा था। नाज़िम के घर वाले एकदम उसके पास पहुंचे थे। फिर उसने जो भी कहा हो उसके बाद फिर सब अपनी-अपनी जगह चले गए। मैं भी उसके पास पहुंचा, पूछा ‘क्या बात है, बॉडी क्यों नहीं मिल रही है?’ इस पर उसने मुंह ऊपर करके, आंखें तरेर कर एक नज़र मुझे देखा फिर कहा ‘वो मेरे सामने नहीं पड़ी है कि हम जाएं और उठा कर लेते आएं। इतनी गहरी, बड़ी नदी है। अंदर जाकर ढूंढ़ना पड़ता है। जान हथेली पर ले के जाता हूं। भूसे में सूई की तरह ढूंढ़ता हूं। हम कोई जानबूझ कर तो उसे नीचे ही छोड़ कर नहीं आ रहे। बार-बार गोता लगाने में मेरी भी जान को खतरा है। हमारा भी परिवार है।’ उसकी इस दबंगई से मैं गुस्से में आ गया।

बड़ी मुश्किल से अपने गुस्से को ज़ज्ब कर शांत रहा। सोचा कहीं बिगड़ गया तो नाज़िम के परिवार वाले गुस्सा होंगे। वह गोताखोर करीब दस मिनट वहां बैठा रहा फिर उठ कर नदी की धारा के किनारे-किनारे करीब डेढ़ सौ क़दम आगे चला गया। नाज़िम के परिवार के चार-पांच लोग भी उसी से कुछ बात करते हुए साथ-साथ गए थे। मैं उसे तब तक देखता रहा जब तक कि वह आगे जाकर फिर नदी में नहीं कूद गया।

जब वह कूदा तभी वहां बैठे नशेड़ियों में से एक बोला ‘साला नौटंकी कई रहा है। फिर खाली हाथ आई। गर्मी मां तैरे का मजा लई रहा है। अबै हाथ मां गड्डी थमाय दौ निकाल के सामने रखि देई।’ उसकी यह बात सुन कर मेरे कान खड़े हो गए। सोचा कि यह क्या कह रहा है? जो बातें अक़सर सुनता था क्या वह सच है कि ये सब बिना पैसा लिए डेड बॉडी नहीं निकालते। तो क्या लड़की वालों नेे पैसा तौल दिया था जो इसने दो घंटे में ही उसकी डेड बॉडी निकाल दी थी।

बात की तह तक जाने के लिए मैं उन नशेड़ियों के पास ही बैठ गया। जरा सी उन सब जैसी बात की तो वह सब खुल गए। बातचीत में सब ने साफ कहा अभी पांच-दस हज़ार हाथ पर रख दो, बस थोड़ी देर में सब काम हो जाएगा। देर करने से कोई फायदा नहीं। लाश अंदर सड़ जाएगी। जो जलीय जीव हैं नोच खा कर वो उसकी बुरी गति अलग बना रहे होंगे।

यह सब सुन कर मैं गोताखोर पर गुस्सा हो उठा। मुंह से कुछ गालियां निकल गईं तो एक नशेड़ी फिर बोला ‘बाबू जी इनका पुलिस वाले भी कुछ ना कर पहिएं। ई ऐइसे डुबकी लगाए-लगाए कहता रही कि नहीं मिली। मुर्दा की गति खराब करने से कोई फायदा नहीं। ज़्यादा टाइम होई जाई तो डूबकीयों लगाईब बंद कर देई चला जाई। कह देई लाश,कहीं बह गई। फिर कबहूं लाश ना मिली।’ यह सुन कर मैं घबरा गया कि नाज़िम की मां की ऐसे में क्या हालत होगी? क्षण भर में यह सोचते ही मेरा हलक सूख गया। मैंने सशंकित मन से कहा ‘लेकिन इतना टाइम हो रहा है, अब तक तो लाश फूल कर खुद ही उतराने लगती।’

नशेड़ियों में से फिर एक बोला ‘अरे! बाबूजी ये गोताखोर आने देगा तब ना।’ मैंने चौंकते हुए पूछा ‘क्या मतलब?’ तो वह बोला ‘ये सब लाश को नीचे पत्थर-वत्थर से दबा देते हैं या बांध देते हैं किसी चीज से। इनके इस काम का कभी किसी को पता नहीं चलता।’ उसकी इन बातों को सुन कर अचानक ही मेरे मुंह से स्वतः ही यह निकल गया कि ‘हे भगवान ये क्या हो रहा है? लाश का भी सौदा हो रहा है।’ इस तरफ ध्यान जाते ही मैं चिहुंक पड़ा कि मेरे मुंह से यह क्या निकल गया? मैंने तो ऐसा सोचा ही नहीं।

मैंने यह महसूस किया कि मन में ईश्वर पर आस्था का अथाह सागर लहराने लगा है। शरीर में ऐसी अजीब सी अनुभुति हो रही थी कि उसे अभिव्यक्त करने के लिए मैं कोई शब्द अभी तक नहीं ढूंढ़ पाया। उसी समय मुझे मारने की धमकी देने वाले अपने उसी मित्र की बात भी असमय ही याद आ गई। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि मुझे क्या हो रहा है। तभी मैंने दूर से नाज़िम के कुछ परिवारीजन के साथ गोताखोर को खाली हाथ आते देख लिया।

मन उसको लेकर क्रोध से उबल पड़ा लेकिन नशेड़ी की बात याद आई कि पुलिस भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैंने फिर खुद को संभाला और तय कर लिया क्या करना है। कुछ देर में वह फिर नशेड़ियों से कुछ दूर छाया में बैठ गया। नाज़िम के लोग अपने लोगों के पास चले गए। तब मैं उठ कर उसके पास जाकर बैठ गया। उसने एक नज़र मुझ पर डाली फिर सामने नदी की तरफ देखने लगा। उस को वहां मेरा बैठना खल रहा था। फिर मैंने सही बात जानने के लिए उससे उसके जैसे हो कर बात की तो वह कुछ खुला।

उसने अपना नाम कल्लू बताया। नाम सुन कर मैंने मन ही मन कहा कि ‘मां-बाप ने सही ही नाम रखा है। कल्लू। दिल का, तन का, विचारों का काला आदमी।’ मैंने उसे कुरेदते हुए पूछा ‘तुम अकेले कर लोगे यह काम।’ वह बोला ‘इस समय कई गोताखोर बाहर गए हैं, मैं फिलहाल अकेला हूं।’ मैंने कमाई के बारे में पूछा तो वह टाल गया। ‘अरे! साहब मौत हाथ पर लिए जाता हूं। लेकिन कमाई-धमाई क्या? कुछ नहीं। आज कल लोग काम तो तुरंत चाहते हैं। मगर सब मुफ्त में। काम होने के बाद कोई मुड़ कर देखता भी नहीं कि गोताखोर भी नदी से बाहर आ गया है कि नहीं।’ उसकी हां में हां मिलाते हुए मैंने कहा ‘तुम सही कह रहे हो। दुनिया है ही इतनी स्वार्थी। आखिर तुम लोगों का भी तो कोई वजूद है।

अच्छा एक बात बताओ इस काम में तुम कल से लगे हो। लड़की की डेड बॉडी दो घंटे में ही निकाल दी। लड़के की भी ढूंढ़ ही रहे हो। निकाल ही दोगे। कल उन लोगों ने काम होने के बाद कुछ दिया-विआ की नहीं। कि बस काम बनते ही चलते बने।’ मेरी इस बात पर गहरी सांस ली फिर बोला ‘जाने भी दीजिए बाबूजी क्या करना है। मिल गया तो ठीक है नहीं तो कोई बात नहीं।’ उसकी मंशा भांपते हुए मैंने कहा ‘देखो कल्लू बुरा नहीं मानना। लड़की वालों ने तुम्हें दिया कि नहीं मैं नहीं जानता और सच यह है कि जानना भी नहीं चाहता। मैं तुमसे एक बहुत ज़रूरी बात कहना चाहता हूं। सुनो मैं बाद की कोई बात ही नहीं रखना चाहता हूं। ये पांच हज़ार तुम अभी लो और लड़के को अब बाहर ले आओ, बाद में और हो सका तो वो भी देखेंगे।’ अचानक ही मेरे द्वारा पैसा एकदम उसके हाथ पर रख देने से वह चौंक सा गया। बोला ‘मगर साहब घर वाले तो कुछ बोल ही नहीं रहे हैं। आप क्यों ये सब कर रहे हैं। आप उसके घर के तो नहीं लगते।’

मैं बातों में उलझना नहीं चाहता था। इसलिए कहा ‘छोड़ो ये सब बातें बाद में हो जाएंगी। अभी तो जैसे भी हो जल्दी से काम पूरा कर दो।’ इस के बाद उसने नशेड़ियों के झुंड में किसी को इशारा किया। उनमें एक अजीब सी चाल में लगभग दौड़ता आया। गोताखोर ने उसकी मुट्ठी में नोट थमाते हुए ना जाने कौन सी बात भुन्न से कही कि मैं सुन नहीं पाया। मगर वह नशेड़ी सुनते ही उसी गति से वहां से भाग गया। नशेड़ियों के झुंड में वापस नहीं गया। बल्कि सीधा ऊपर बंधे वाली सड़क पर चढ़ कर मंदिर की ओर जाते भक्तों की भीड़ में ओझल हो गया।

उसके ओझल होने के बाद मेरा ध्यान गोताखोर की ओर गया। मैंने उसकी तरफ देखा ही था कि वह बोला ‘घबराइए नहीं साहब,जी-जान लगा दूंगा। जैसे भी हो निकाल कर लाऊंगा।’ इतना कहते हुए वह उठ कर चला गया। मैं इस वक़्त अपने को बड़ा ठगा हुआ सा महसूस कर रहा था। वह नशेड़ी इसी गोताखोर का आदमी था। इतना करीबी इतना विश्वसनीय कि उसने उसे बिना हिचक सारे पैसे दे दिए। मैं उससे कुछ पूंछ सकूं इसके पहले ही वह गोता लगाने चल दिया।

बोल ऐसे रहा था जैसे इससे सज्जन आदमी कोई दूसरा नहीं होगा। पैसा लेकर जाने वाले नशेड़ी ने ही मेरे कान तक यह बात पहुंचाई थी कि पांच-दस हज़ार दे दो, अभी निकाल कर रख देगा। यह सुन कर ही मेरा दिमाग इस ओर गया था। और मैंने यह सोचा यदि पैसा देकर ही काम बन जाता है तो दे देते हैं। नाजिम का शव उसके परिवार को तो मिल जाएगा। एक मां के वह आंसू तो बंद हो जाएंगे जो शव न मिलने के कारण बह रहे हैं। ठगे जाने के अहसास से दोनों पर बड़ी गुस्सा आ रही थी। मैं वहीं बैठा था। तभी देखा नाज़िम के परिवार के लोग उस जगह तक आगे चले गए थे जहां वह गोताखोर गया था।

अगले करीब आधे घंटे तक मैं वहीं बैठा रहा। बड़ी कसमकस, बड़ी उधेड़बुन में बीता यह समय। भगवान के लिए बेसाख्ता ही मेरे मुंह से जैसे शब्द निकल गए थे वह मेरे लिए अचरज भरा था। ऐसी कौन सी अदृश्य ताकत थी जिसके प्रभाव से यह हो गया। मुझे अहसास यह होने के बाद हुआ। नाज़िम के लिए जिस तरह से सुबह से परेशान हूं उसके लिए तो मुझे अचरज जैसा कुछ नहीं लगा, क्यों कि मेरे मित्र की बात ने जो बरसों-बरस पहले कही थी केवल परिवार के संबंध में वह जाने-अनजाने मेरी प्रकृति बन गई थी। कि दूसरे की खुशी भी कभी देख लिया करो। आदत में परिवर्तन ऐसा हुआ था कि किसी की मदद या उसकी खुशी के लिए क़दम खुद ब खुद बढ़ जाते हैं। इसी में मुझे खुशी मिलती है। या यह कहे कि इसी में मैं अपने लिए खुशी पाता था।

अचानक मेरे कानों में नाज़िम के परिवार के उन सदस्यों की तेज़ रोने की आवाज़ सुनाई दी। जो गोताखोर के पीछे गए थे। मैं भी उठ कर तेज़ी से भाग कर वहां पहुंचा। वहां का दृश्य देख कर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। आंखें भर आईं। गोताखोर कल्लू एक युवक की अच्छी खासी फूल चुकी डेड बॉडी दोनों हाथों में लिए किनारे आ चुका था। यह निश्चित ही नाज़िम था। उसका बदन अकड़ा हुआ था। चेहरा बेहद डरावना वीभत्स हो रहा था। दोनों आंखों की जगह बड़े गढ्ढे से नज़र आ रहे थे। मांस, चमड़ी छितरा चुकी थी। हाथों पैरों में भी कई जगह जलीय जन्तुओं द्वारा काटे जाने के वीभत्स निशान थे।

कपड़े शरीर से एकदम तने हुए थे। शर्ट की बटन लगता था कि बस अब टूट ही जाऐगी। बॉडी देख कर यह साफ था कि युवक अच्छा खासा लंबा था। कल्लू ने नाज़िम के शरीर को जैसे ही रेतीली जमीन पर रखना चाहा उसके पहले ही नाज़िम की बड़ी बहन ने चीख कर कहा ‘रुको भइया।’ कल्लू एकदम से ठिठक गया। इसी बीच बहन ने अपना दुपट्टा झटके से उतार कर जमीन पर फैला दिया कि उसके दिवंगत भाई का शव यूं ही जमीन पर ना रखा जाए।

शव को संभालना कल्लू के लिए भारी पड़ रहा था। दुपट्टा पूरी तरह बिछा भी ना पाई थी कि कल्लू ने शव को उसी पर लिटा दिया और हांफते हुए दो क़दम पीछे हट गया। शव को देख कर परिवार की तीन महिलाएं जो उसकी बहन के साथ आई थीं वो भी बहन के साथ पछाड़ खा-खा कर गिरी जा रही थीं। पुरुष सदस्य भी फ़फ़क पड़े थे।

सभी शव के इर्द-गिर्द बैठ गए थे। इसी बीच दो कांस्टिेबल भी वहां आ धमके। उनके पीछे-पीछे चार-पांच लोग नाज़िम की मां को बिल्कुल पस्त हालत में लेकर पहुंच गए। वह बेटे को देखते ही बेहोश हो गईं। साथ की महिलाओं ने समय पर न संभाल लिया होता तो वह धड़ाम से रेतीली जमीन पर चित्त पड़ी होतीं। सभी का रोना, करूण कृंदन ऐसा था कि मानो कलेजा ही फट पड़ेगा। मैं अपने लोगों के बीच कठोर हृदय व्यक्ति के रूप में जाना जाता हूँ । लेकिन उस दृश्य को देख कर मेरी भी आंखें भर आईं। मुझ से रहा नहीं जा रहा था। मैंने सोचा अब चलूं यहां से नाज़िम का शव मिल गया है। उसके परिवार के सारे लोग उसके साथ हैं। मुझे तो कोई जानता भी नहीं। अब मेरा यहां क्या काम? तभी मुझे कल्लू से कही बात याद आई कि शव बाहर ले आओ फिर और हो सका तो करते हैं।

मैंने सोचा चलो उसको हज़ार पांच सौ और दे कर निकलूं यहां से, घर चलूं। थक गया हूं। मेरी नज़र कल्लू को ढूंढ़ने लगी लेकिन वह नदारद था। मैं आश्चर्य में पड़ गया कि पुलिस ने इतनी जल्दी उसे क्यों निकल जाने दिया। अब तक आस-पास सौ के करीब लोग इकट्ठा हो चुके थे। कल्लू पर मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था। उसकी हरकत पर गालियां निकलने लगीं मुंह से।

जिस तरह पैसे मिलने के बाद उसने देखते-देखते शव निकाल दिया था। उससे यह साफ था कि उसने पैसों के लिए ही जानबूझ कर शव को दबाया था। जिस की वजह से पूरा परिवार चौबीस घंटों से खून के आंसू रो रहा है। एक शव पानी में सड़ रहा था। जलीय जीव-जन्तु उसे नोच खसोट रहे थे। वह कुछ हज़ार रुपयों के लिए यह सब कर रहा था। यह क्रूरता, हृदयहीनता की निशानी नहीं है तो इसे और क्या कह सकते हैं? मेरा चित्त बिल्कुल फट गया।

नाज़िम के परिवारीजन के रोने बिलखने की आवाज़ अब भी आ रही थी। पुलिस अपनी कार्यवाई में लग चुकी थी। तभी मेरे दिमाग में आया कि बचे हुए पांच हज़ार रुपए नाज़ि़म के परिवार केा दे दूं। उनके इस गाढ़े वक़्त में ये कुछ तो काम आ ही जाएंगे। अभी पोस्टमार्टम और ना जाने क्या-क्या कानूनी कार्यवाइयों के झमेले भी झेलने हैं इस परिवार को। बदनसीब का अंतिम संस्कार आज भी नहीं हो पाएगा। मिट्टी की दुर्गति अलग होगी।

मैंने किसी तरह पूछताछ कर नाज़ि़म के बहनोई को यह कहते हुए पांच हज़ार रुपए दे दिए कि ‘ये रखिए, कुछ काम से नाज़िम ने मुझे दिए थे। नाज़ि़म का सुना तो चला आया। कल घर आऊंगा।’ मेरी इस बात से उनको लगा कि मैं शायद नाज़िम का दोस्त या कोई परिचित ही हूं। मैंने ऐसा यह सोच कर कहा कि कोई किसी अनजान से पैसा ऐसे भला क्यों लेगा? वो आगे कुछ पूछेताछे उनके परिवार को रोता-बिलखता छोड़ कर मैं घर आ गया।

घर पर उस दिन सामान्य से ज़्यादा चहल-पहल थी। लेकिन मेरा मन किसी चीज में नहीं लग रहा था। देर रात तक सब खा-पी कर सो गए। मैं बेड पर पीछे तकिया लगाए बैठा था। बगल में ही पत्नी भी अस्त-व्यस्त पड़ी थी। निश्चिंत सो रही थी। उसके सुमेरू पर्वत करीब-करीब पूरे खुले हुए थे। लेकिन मेरा मन फिर भी मित्र की इस बात का विश्लेषण कर रहे थे कि ‘कभी किसी दूसरे की खुशी के बारे में भी सोच लिया करो।’

मुझे लगा कि उसके इस एक सेंटेंस ने किस तरह मेरा मूल चरित्र ही बदल दिया है। अब किसी का कष्ट देखना संभव नहीं बन पा रहा है। लोगों को यदि नाज़ि़म की घटना बताऊंगा तो शायद इसे वो मेरा पागलपन ही कहेंगे। तभी स्कूली जीवन में पढ़ा प्रताप नारायण मिश्र का एक निबंध ‘बात’ याद आने लगा। जिसमें बात के प्रभाव का विश्लेषण था।

आखिर एक बात ने ही तो मुझे कहां से कहां पहुंचा दिया। तभी घनघोर गहरी नींद में सो रही मेरी पत्नी का एक हाथ मेरी जांघों पर आ गिरा। मेरी विचार श्रृंखला टूट गई। और दुबारा नहीं जुड़ पाई। मैं लेटने के बाद भी देर तक जागता रहा। आखिर सोता भी कैसे? बरसों-बरस बाद अनायास ही दिन में मुंह से भगवान का नाम निकल आया। उनमें पूरी आस्था प्रकट हो चुकी थी। अब मुझे कहीं किंतु-परंतु नज़र ही नहीं आ रहा था।

[ समाप्त ]