Thug Life - 6 in Hindi Fiction Stories by Pritpal Kaur books and stories PDF | ठग लाइफ - 6

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ठग लाइफ - 6

ठग लाइफ

प्रितपाल कौर

झटका छ

गाडी कनौट प्लेस के इनर सर्किल में पहुँच चुकी थी. अब तक चुपचाप बैठे अरुण ने ही पूछा, “सविता कहाँ खाना पसंद करोगी?”

सविता अब तक काफी संभल चुकी थी. फ़ौरन एक मशहूर और महंगे चायनीस रेस्तरां का नाम उसकी जुबान पर आ गया. अरुण ने मुस्कुरा कर डाइवर को गाडी डी ब्लाक की पार्किंग में लगाने को कहा.

रेस्तरां में आ कर बठने तक सविता का मूड कुछ संभल चुका था. मन पर छाई मनो उदासी की धूल छंटनी शुरू हो गयी थी. फिलहाल उसे एक ठिकाना मिल गया था और अपनी आदत के मुताबिक सविता ने उसी में सुकून की तलाश कर ली थी.

अरुण ने सिर्फ सूप लिया था जब कि सविता ने चिली चिकेन और फ्राइड राइस खाते-खाते अरुण को अपनी कहानी सुनायी थी. अरुण विचारमग्न हो कर सुन रहा था और सोचता भी जा रहा था.

उसे नंदिनी से सविता के भाग कर शादी करने की जानकारी तो मिली थी. उसने सोच लिया था कि सविता अब अपनी ज़िन्दगी में रच-बस गयी होगी. नंदिनी तीन साल पहले शादी कर के अमरीका के न्यू जर्सी में बस गयी थी सो फिर भाई-बहन के बीच सविता को लेकर कोई चर्चा नहीं हुयी.

अब अचानक यूँ सविता के अपने सामने इन हालात में नमूदार हो जाने और सविता की दर्द भरी दास्ताँ सुनने के बाद अरुण उदास हो आया था. वो सविता के हालात कमोबेश जानता था और यही वजह थी कि उसे उम्मीद थी कि सविता अपना घर ज़रूर बसायेगी और निभाएगी भी. लेकिन यहाँ भी सविता की किस्मत ने उसे धोखा दे दिया था. ये जान कर अरुण को बहुत अफ़सोस हुआ था और उसने ज़ाहिर भी किया था.

अब तक सविता अपना खाना खा चुकी थी. अरुण ने टेबल पर रखे सविता के हाथ पर अपना हाथ रखा और कहा, “सविता, यू आर लाइक नंदिनी फॉर मी. तुम फ़िक्र मत करो. अब यहीं दिल्ली में रहो. कुछ न कुछ हो ही जाएगा. अपनी डिग्रीज और दूसरे पेपर्स तो हैं न तुम्हारे पास?”

सविता की आँखें फिर नम हो आयीं. बरसों के बाद किसी ने प्यार से उससे बात की थी. रुंधे गले से उसने सिर्फ इतना कहा, “हाँ " और मुंह छिपा कर आंसू पोंछने लगी. एक बार फिर से अरुण के सामने ढह जाने का उसका इरादा नहीं था. अरुण मुस्कुरा दिया. अभी सिर्फ एक घंटा पहले यही लडकी उसके सीने से लग कर फूट-फूट कर रो रही थी. ज़ाहिर है, अकेली थी, भूखी थी, लाचार थी. दुनिया की ठोकर खाई हुयी थी. एक हल्का सा सहारा मिला तो आंसू छिपाने लगी है. उसका दिल एक ठहाका लगाने को किया लेकिन सिर्फ मुस्कुरा कर रह गया.

अगले कुछ दिन सविता ने खुद को सँभालने में लगाए. दिल्ली से लगे नॉएडा में अरुण का फार्म हाउस था वहीं उसने सविता के रहने की वयवस्था कर दी थी. सविता ने नया फ़ोन लिया, कुछ नए कपडे ख़रीदे. अब दिल्ली में रहना था तो दिल्ली के तौर तरीके से रहना था

काफी शौपिंग तो अरुण ने अपनी जेब से करवा दी सविता को. कुछ पैसा सविता का भी खर्च हुआ जब अरुण ने ड्राईवर के साथ उसे बाज़ार भेजा. ऐसा एक ही बार हुआ. उसके बाद सविता ने कह दिया कि उसकी शौपिंग पूरी हो चुकी अब अरुण उसे कोई नौकरी दिलवा दे तो वह खुदमुख्तार हो सके.

अरुण भी यही चाहता था. उसने अपने घर पर अभी तक किसी को सविता के बारे में नहीं बताया था. वैसे उसका घर जाने और घर से गायब रहने का कोई तय नियम नहीं था इसलिए किसी की जानकारी में ये बात नहीं आयी कि इन दिनों अरुण ज्यादा वक़्त फार्म हाउस पर बिताने लगा था.

घर में अरुण के मम्मी पापा, एक पुराना गृह प्रबंधक और दो कुत्ते थे. अरुण ने शादी अभी तक नहीं की थी. दो साल पहले तक उसकी एक गर्लफ्रेंड थी महिका, जिसके साथ शायद वह आगे चल कर शादी करता लेकिन ये सम्बन्ध लम्बा चला नहीं. उसके बाद अरुण का कोई गंभीर सम्बन्ध किसी के साथ नहीं बन सका.

इस बीच अरुण ने अपने कई दोस्तों से सविता की नौकरी की बात की. लेकिन चार साल पहले बी.ए. कर चुकी हाउसवाइफ को नौकरी देने में सभी हिचक गए. अरुण नहीं चाहता था कि वह सविता को कोई छोटी मोटी नौकरी करने को कहे. आखिर वह उसकी बहन नंदिनी की बचपन की दोस्त थी और इन दिनों उस पर आश्रित थी.

खुद उसके अपने कारोबार में सविता के लिए कोई जगह नहीं थी. अरुण के परिवार के निजी खर्चों के लिए उनकी पुरखों की बनायी हुयी दिल्ली में फैली जायदाद थी. शौक के लिए वह एक आई. टी. कंपनी चलाता था. जिसमें सविता के लिए कोई गुन्जायिश नहीं थी.

दो हफ्ते इसी तरह बीत चुके थे. दिन भर सविता अरुण के साथ दिल्ली की सड़कों पर तफरीह करती. घूमती-फिरती खाती-पीती और शाम ढले दोनों फार्म हाउस आते, अरुण कुछ देर बैठता और फिर अपने घर चला जाता.

उस रोज़ दिन में जब वे हौज़ खास के एक रेस्तरां में खाना खा रहे थे तब सविता ने कहा , “अरुण, यार मैं पूरी शाम बोर हो जाती हूँ. तुम तो चले जाते हो. नौकरी ही मिल जाती तो मैं बिजी हो जाती. और मैं कब तक तुम्हारे फार्म हाउस पर पडी रहूँगी? मुझे अपना इंतजाम करना चाहिए."

अरुण ने सोचा आखिर सविता भांप ही गयी कि अरुण इस रूटीन से उकताने लगा है और शायद सविता खुद भी उकताने लगी थी. अरुण को रोजाना सविता को अपने साथ रखना बंधन लगने लगा था. वह चाहता था कि सविता खुद अपना ख्याल रखना शुरू कर दे. लेकिन ये हो नहीं पा रहा था. जिस रोज़ भी सविता के लिए अरुण गाडी नहीं भेजता या उसे लेने नहीं जाता सविता फ़ोन कर के उसे बुला लेती और वह ना नहीं कह पाता.

“हाँ, मैं भी सोच रहा हूँ. कई जगह बात चल रही है.”

"ह्म्म्म" सविता ने कहा था. दोनों चुपचाप खाना खाते रहे थे. सविता सोच रही थी कि आगे क्या बोले और अरुण सोच रहा था कि किस तरह सविता को समझाए कि आखिर उसे खुद को संभालना होगा. अरुण इतना ज्यादा वक़्त उसे नहीं दे सकता.

अरुण ने आगे कहा था,” मुझे लगता है फार्म हाउस काफी दूर पड़ जाता है सेंट्रल दिल्ली से. मैं सोच रहा हूँ तुम्हारा यहीं कहीं रहने का इंतजाम कर दूं.”

“हाँ ठीक है.’ सविता ने कहा था.

और इस बात-चीत के तीन दिनों के अन्दर अरुण ने साउथ एक्सटेंशन में तीसरे माले पर एक दो बेडरूम का फर्निश्ड घर सविता के लिए किराये पर ले लिया था. वह खुद उसे उसके अब तीन हो चुके सूटकेस के साथ वहां छोड़ आया था.

उस शाम भी दोनों ने खाना साथ ही खाया था, ग्रीन पार्क में और अरुण नीचे ही उसे छोड़ कर अपने घर आ रहा था.

वापसी में अपने घर आते हुए अरुण ने एक ठंडी सांस ली थी कि अब शायद सविता की काफी ज़िम्मेदारी उसके सर से उतर गयी थी. हालाँकि वह समझ नहीं पाया था कि सविता उसकी ज़िम्मेदारी क्यूँ थी. लेकिन एक बात उसे समझ आ गई थी कि सविता की पर्सनालिटी में ही कुछ ऐसी बात थी कि वह सामने वाले को अपने दुःख-दर्द और रख-रखाव के लिए ज़िम्मेदार बना लेती थी.

यही सब सोचता हुआ अरुण अभी रिंग रोड पर पहुंचा ही था कि सविता का फ़ोन आ गया. आज अरुण खुद ड्राइव कर रहा था. उसने ब्लूटूथ स्विच के ज़रिये फ़ोन रिसीव किया तो गाडी में सविता की सिसकियों की आवाज़ गूँज गयी. अरुण घबरा गया और परेशान भी हो गया. अब क्या हुआ?

रोते रोते ही सविता की आवाज़ आयी, “अरुण प्लीज आ जाओ. मुझे यहाँ अकेले बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा.”

अरुण ने बहुतेरा उसे समझाने की कोशिश की. बताया कि वह काफी दूर निकल चुका है लेकिन सविता कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी. उसका कहना था कि अकेले उजाड़ से घर में उसे डर लग रहा है. वह रात कैसे काटेगी? हार कर अरुण ने अगले ट्रैफिक सिग्नल से यू टर्न लिया और बीस मिनट के अन्दर वह सविता के सामने था. सविता दरवाज़ा खोले उसका इंतज़ार कर रही थी.

दोनों अंदर दाखिल हुए तो सविता ने जल्दी से दरवाज़ा बंद किया और अरुण से लिपट गयी. अरुण कुछ समझ नहीं पाया. उसने सविता को बाहों में लिया और अपने जिस्म की निकटता से तसल्ली दी. और पूछा, “क्या हुआ सविता? क्या प्रोब्लम है?”

सविता कुछ नहीं बोली. वह अरुण के सीने पर सर रख कर खडी रही. काफी वक़्त बीत गया तो अरुण ने उसे खुद से अलग करना चाहा. सविता हट कर उसके सामने खडी हो गयी. वह सामने खडी हो कर अरुण की आँखों में देखने लगी. अरुण हैरान भी था और कुछ अकबकाया भी. देर तक दोनों इसी तरह खड़े रहे. एकाएक अरुण को जाने क्या सूझी कि उसने सविता का चेहरा अपने हाथों में लिया और अपने होंठ उसके होटों पर रख दिए. सविता को भी इसी का इंतज़ार था जैसे.

वो रात सविता के लिए सुकून का एक झोंका ले कर आयी. उसकी तपती देह पर अरुण ने अपनी देह से जो मरहम लगाया वह अब तक की अरुण की सविता की सारी देख-भाल से बढ़ कर था. सविता ने जी भर के अरुण को जिया. अरुण ने भी अपने मन की बात मानी. एक जवान औरत की मांग पर अपने मर्द होने का फ़र्ज़ अदा किया.

रात गहराती रही और हजारों लाखों दूसरे कमरों की तरह इस एक कमरे में भी औरत और मर्द ने एक दुसरे को पहचानने की कोशिश में हथियार डाल दिए. एक सुरक्षा की दीवार जो दिन के उजाले में लोगों की मौजूदगी या फिर उस मौजूदगी के एहसास से उनके बीच रहती थी, आज गिर गयी थी. उसी दीवार के मलबे पर सविता और अरुण के जिस्मानी कारोबार ने अपना खाता खोल लिया.

सुबह जब अरुण की आँख खुली तो सविता शायद बाथरूम में थी. अरुण फौरन उछल कर बिस्तर से उठा, कपडे पहने और दूसरे कमरे में जा कर बाथरूम इस्तेमाल किया. मुंह धो कर जब वह बाहर निकला तो सविता चाय का मग ले कर सामने खडी थी. उसके चेहरे पर जीत के भाव थे. अरुण कुछ बोल नहीं पाया. उसने फ़ौरन लिविंग रूम में कॉफ़ी टेबल पर रखी अपनी घड़ी, वॉलेट और चाबी उठायी और दरवाजे की तरफ लपका.

सविता ने रोकना चाह, “ अरुण, चाय.”

“नहीं, मैं चलता हूँ.” अब तक वह दरवाजे का हैंडल दबा चुका था.

“कब आओगे.” सविता की आवाज़ ने उसका पीछा किया. लेकिन अरुण ने उस आवाज़ को दरवाजे के आधे खुले हुए पल्ले के सहारे रोका और दरवाजे को बंद करते हुए उस आवाज़ को लौटा दिया.

सविता उस बंद दरवाजे के पीछे अकेली रह गयी तो अरुण की आँखों के सामने पिछली रात का वाकया तेज़ी से गुज़र गया.

वह कुछ समझ नहीं पा रहा था. सविता नंदिनी की दोस्त थी, उसके अलावा पिछले दो हफ़्तों से वह उस पर आश्रित थी. फिर ऐसा क्या हुआ कि सविता के आमंत्रण को स्वीकार करने में उसे एक पल भी नहीं लगा? क्या सविता का निमंत्रण एक बेसहारा स्त्री का उसके प्रति आभार प्रदर्शन था? तो फिर खुद अरुण ने क्या किया? क्या उसने भी अपने एहसानों का बदला ले लिया? क्या सविता की देह का आमंत्रण उसके लिए इतना आकर्षक था?

अरुण ने सोचा तो पाया कि सविता एक साधारण स्त्री थी. न बला की खूबसूरत और ना ही गज़ब की बुद्धिमान. इन दोनों ही तरह की तेज़-तर्रार स्त्रियों से उसका साबका अक्सर पड़ता रहता था. उनसे वह प्रभवित भी होता था और आकर्षित भी. लेकिन इस तरह सविता के एक ही इशारे पर उसके साथ हमबिस्तर हो जाना ? ऐसा उसके साथ कभी नहीं हुया था. वह ठगा हुआ और असंतुष्ट महसूस कर रहा था.

सुबह का वक़्त था. ट्रैफिक नहीं के बराबर. जल्दी ही घर पहुंचा और सीधे अपने कमरे में जा कर बाथरूम में दाखिल हुया. शावर के नीचे सर देते हुए उसने फैसला किया सविता से आज के बाद कभी नहीं मिलना है. अलबत्ता उसे नौकरी दिलवानी है. किसी भी तरीके से. जितनी जल्दी हो सके. ताकि उसकी ज़िम्मेदारी से पूरी तरह आज़ाद हो सके. कल रात जो हुया उसके बाद वह खुद को सविता के लिए और भी ज्यादा ज़िम्मेदार समझने लगा था.

इधर सविता समझ नहीं पा रही थी कि कहाँ गलती हुयी. अरुण का इस तरह चले जाने से उसका दिल बैठा जा रहा था. कल रात के बाद तो अरुण पर उसका हक बढ़ गया था. लेकिन अरुण तो उसे सिरे से नकार कर चला गया था.

सविता ने अरुण का फ़ोन मिलाया तो वह बंद था. निराश और हताश सविता आ कर सोफे पर बैठ गयी. उसे लगा ये सहारा जो उसने अर्जित किया था यह भी हाथ से निकल गया. सविता ने कभी भी ज़िंदगी में अपने फैसले लेते वक़्त आने वाले वक़्त के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा था. इस बार भी वह यही यही कर बैठी थी.

अपनी ही दोस्त के बड़े भाई के साथ हमबिस्तर होते वक़्त उसने दोबारा नहीं सोचा. ख़ास तौर पर उस इंसान के साथ जो उस वक़्त उसे सहारा दे रहा था जब सारी दुनिया उसके खिलाफ हो गयी थी. सविता ने एक बार भी नहीं सोचा था कि जब नंदिनी से सामना होगा तो क्या कहेगी. उसे सिर्फ अपने आज की चिंता थी.

इस वक़्त भी सविता को यही चिंता सता रही थी कि पूरा दिन इस दडबे जैसे घर में कैसे रहेगी. और फिर जब पैसे ख़तम हो जायेंगे तब क्या करेगी? उसे लगा था कि अरुण अब कभी मुड कर उसकी खोज-खबर नहीं लेगा. ये सहारा उसके हाथ से निकल गया लगा सविता को.

मगर इतना सा संतोष उसके दिल में था कि इस फ्लैट का तीन महीने का किराया और दो महीने का एडवांस डिपाजिट के रूप में अरुण ने दे दिया था. तो कुछ दिनों के लिए रहने की निश्चिन्तता थी.

सविता ने चाय पीते पीते सोचा कि अब वह दिल्ली में किसे फ़ोन कर सकती है जो उसके किसी काम आये. यही सोचते-सोचते उसने बालकनी से नीचे दखा तो गार्ड नज़र आया. उसने गार्ड से काम वाली बाई के बारे में पूछा तो गार्ड ने दिलासा दी कि जैसे ही एक बाई आयेगी, जो काम के बारे में पूछ रही थी, वह उसे भेज देगा. सविता अन्दर आ कर अलमारी में अपने कपडे सहेजने लगी. उसका दिमाग किसी और ही उलझन में था.

अरुण ने उस दिन बहुत सोचा. अपने लगभग सारे कॉन्टेक्ट्स को टटोला और अंत में अपने एक दोस्त के ज़रिये एक ऐसे शक्स तक पहुंचा जो एक राष्ट्रीय न्यूज़ चैनल का मालिक था. दोस्त का एक पुराना एहसान इस शख्स पर बकाया था. उसे भुनाया गया और अगले हफ्ते से सविता को इस चैनल में गेस्ट कण्ट्रोल एग्जीक्यूटिव की नौकरी मिल गयी.

अब सविता खुश थी. उसके पास काम था. रहने को घर था. जेब में पैसे थे. दिल्ली की शामें थीं. पीने को शराब थी. खाने को कबाब. जल्दी ही उसने दोस्तों का एक जमघट अपने आस-पास इकठा कर लिया था. बेटी जसमीत का कभी ख्याल आता तो व्हिस्की का एक और पेग लगा लेती. निहाल सिंह की याद आती तो गलियाँ बकती और अपने दोस्तों में से किसी को ले कर लम्बी ड्राइव पर निकल जाती.

सेक्स के मामले में सविता एक बार फिर वही सविता बन गयी थी जो निहाल से शादी के पहले थी. सविता ने छोटी उम्र में जिस तरह अपनी देह को इस्तेमाल कर के अपने छोटे-बड़े काम निकालने का हुनर हासिल किया था, अब इस वक़्त जब कि दुनिया के अथाह समंदर में वह बिलकुल अकेली पड़ गयी थी, यही हुनर उसके काफी काम आ रहा था.

पैसे की कीमत उसने बचपन से ही जानी थी. अपनी तनख्वाह में से वह बहुत कम खर्च करती. उसके लगभग सारे खर्चे उसके कद्रदान और दोस्त उठाते. अगले पांच साल में सविता ने अपने चैनल में अपना सिक्का जमा लिया था. रुतबा बढ़ गया था, साथ ही पैसा भी.

चैनल के हेड और एडिटर इन चीफ से उसके घनिष्ठ सम्बन्ध हो गए थे. दूसरे लोग उससे भय खाते थे और जलते भी थे. अपनी यूनिट की वो चीफ हो गयी थी. इन पांच बरसों में सविता ने अपनी हर साल मोटी होती जाती तनख्वाह से तो पैसा बचाया ही था, उसके अलावा उसने राजनीतिक सौदेबाजी का काम भी संभाल लिया था.

दरअसल कुछ न्यूज़ चैनल खबरें दिखाने का काम तो करते ही हैं, ख़बरें छिपाने के काम को भी बखूबी अंजाम देते हैं. कुछ ऐसी ख़बरें भी होती हैं जो दिखाई नहीं जातीं बल्कि उनको ना दिखाए जाने की फीस सम्बंधित पार्टियों और व्यक्तियों से वसूली जाती है.

सविता का चेहरा और नाम दोनों ही दिल्ली में अजनाने थे और वह बिज़नस के दांव-पेंच समझती थी, इसके अलावा एडिटर इन चीफ के साथ घनिष्ठ संबंधों के चलते यह काम आसानी से सविता के सुपुर्द आ गया.

और इस तरह वो सविता जो एक दिन पहाड़गंज के एक सस्ते होटल में दो सूटकेस रख कर, बैंक में कुल दो लाख रुपये जमा करा कर बेसहारा खडी अरुण के गले लग कर फूट फूट कर रोई थी, वही सविता अब नॉएडा में एक पांच सौ मीटर का प्लाट, गुडगाँव में दो थ्री बी.एच.के. फ्लैट्स की मालकिन थी और हौंडा सिटी ड्राइव कर के हौज़ ख़ास से दफ्तर आती-जाती थी जहाँ वह अपने सहयोगी अमित मलिक के साथ रह रही थी.

सविता की रंग बिरंगी ज़िंदगी में उन दिनों बहार ही बहार थी, जब उस दिन उसे सुबह ऑफिस पहुँचते ही चैनल के मालिक विशम्भर मित्तल ने अपने केबिन में बुलवाया था.

वो दिन भी एक नया तूफ़ान ले कर आया था सविता की ज़िन्दगी में. सविता उस दिन के बारे में सोच ही रही थी कि अचानक ब्रेक लगने से वर्तमान में लौट आयी. रेचल ने हंस कर कहा था, “सविता जी. हम घर आ गये हैं.”

***