जब वह मिला
प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 1
उस दिन जेठ महिने का तीसरा बड़ा मंगल था। इस दिन लखनऊ के सभी हनुमान मंदिरों पर विशेष पूजा-अर्चना होती है। सुबह से ही मंदिरों पर भक्तों का तांता लग जाता है। जगह-जगह भंडारों का आयोजन किया जाता है। जो देर रात तक चलता है। मैं पूजा-अर्चना किशोरावस्था में ही छोड़ चुका था। क्योंकि मैं पूरी तरह ईश्वरी सत्ता पर विश्वास नहीं कर पा रहा था। बीस का होते-होते आधा-अधूरा विश्वास भी खत्म हो गया था। ईश्वर है, ईश्वर की सत्ता है यह सब मुझे कोरी कल्पना लगते।
मैं किसी पूजा स्थान में न जाता। घर पर भी पूजा के समय हट जाता। माता-पिता ने कई बार ईश्वर की सत्ता, जीवन में उसके महत्व को लेकर समझाया। लेकिन मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ा। आखिर मैंने एक दिन कह दिया कि मैं विवश हूं। कहने भर को भी मेरा विश्वास नहीं है, तो पूजा-पाठ का आडंबर मैं कैसे कर सकता हूं? जिस दिन हो जाएगा उस दिन करने लगूंगा। इसके बाद पिता श्री ने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा।
भक्त टाइप के एक मामा जब भी वाराणसी से आते तो ज़रूर कहते कि ‘बेटा जब पड़ती है तो बड़े-बड़े विश्वास करने लगते हैं। सारी नास्तिकता क्षण भर में दूर हो जाती है।’ मेरे कई दोस्त भी ऐसा ही कहते। मैं सबको यही जवाब देता कि मैं कोई सोच समझ कर ऐसा नहीं कर रहा हूं। जिस दिन मन में विश्वास जागेगा उस दिन से करने लगूंगा। नहीं जागेगा तो नहीं करूंगा।
जीवन का पचीसवां साल पूरा करते-करते दो अवसर ऐसे आए जब मौत एकदम मेरे सामने आ खड़ी हुई। पहली बार तब जब वाराणसी से पटना रेलवे का एक एक्जाम देने जा रहा था। ट्रेन लेट थी. रात एक बजे तक उसके चलने की संभावना थी। मैं प्लेटफॅार्म पर बैग लिए खड़ा था। तभी यह एनाउंस हुआ कि ट्रेन प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर आएगी। मैंने देखा तमाम लोग जो उस ट्रेन से जाने वाले थे, वो सब फुटओवर ब्रिज से जाने के बजाए प्लेटफॉर्म से नीचे ट्रैक पर उतर गए और दो लाइनें क्रॉस कर अगले प्लेटफॉर्म पर जाने लगे।
मुझे ऐसा करना ठीक नहीं लगा, इसलिए फुट ओवर ब्रिज की तरफ बढ़ा। लेकिन दिन भर का थका होने के कारण और सबको शॉर्टकट से उधर पहुंचते देख कर मेरा मन क्षण भर में बदल गया। मैं जहां था वहीं रुक गया दो मिनट को। मन में कुछ हिचक तो आयी। पर आखिर हिचक पर शॉर्ट-कट ने विजय पा ली और मैं अपना बैग लेकर प्लेटफॉर्म से नीचे उतर गया।
मैं पहला ट्रैक क्रॉस करके आगे बढ़ा ही था कि पूरे स्टेशन की लाइट चली गई। अब तक जिनको उधर जाना था वो सब जा चुके थे। मैं अकेला था। अंधेरा होते ही मैंने कदम और तेज़ बढ़ाए, जल्दी से दूसरे प्लेटफॉर्म के पास पहुंचा। बैग प्लेटफॉर्म पर ऊपर रखा। प्लेटफॉर्म मेरी छाती तक ऊंचा था। मैं ऊपर चढ़ने की कोशिश करने लगा कि तभी दो लोगों ने मेरे दोनों हाथों को मेरे कंधे के पास पकड़ा और पूरी ताकत लगा कर जितना तेज़ हो सकता था, मुझे ऊपर खींच लिया।
मैं प्लेटफॉर्म पर पहुंचा ही था कि ट्रैन की बोगियां आगे निकलती चली गईं। गाड़ी यार्ड से प्लेटफॉर्म पर लाई जा रही थी। सबसे पिछला डिब्बा मेरी तरफ था। और इंजन बहुत आगे दूसरी तरफ, इसीलिए इंजन की लाइट, आवाज़ वगैरह कुछ देख सुन नहीं सका था। ट्रेन की बोगियां आठ-दस की स्पीड से मेरी तरफ खिसकती चली आई थीं। मेरी मौत बन कर। लेकिन उन दो अनजान लोगों ने आधे सेकेंड के अंतर पर मुझे मौत के सामने से खींच लिया था।
मेरा शरीर पेट, जांघों, घुटने के पास बुरी तरह छिल गया। पैंट भी फट गई थी। अब तक कई लोग मेरे इर्द-गिर्द जमा हो गए थे। सब भगवान की दुहाई देने लगे कि उन्होंने बचा लिया। इन दोनों लोगों ने देवता बन कर तुम्हें बचा लिया। बहुत भाग्यशाली हो भइया। मैं एकदम संज्ञाशून्य हो गया था। चेतना लौटी तो दर्द ने परेशान करना शुरू कर दिया।
अब तक लोगों ने मुझसे पूछताछ कर स्थिति जान लेने के बाद घर लौट जाने की सलाह दी। लेकिन जिद्दी स्वभाव का मैं नहीं माना। पटना जाने वाली ट्रेन पर चढ़ गया। जब ट्रेन चल दी तो बैग से एक पैंट निकाली, बाथरूम में जाकर पैंट बदल ली। क्योंकि वह घुटने के आस-पास बुरी तरह फट गई थी। पैंट बदलने से पहले रुमाल गीला कर घावों को साफ कर लिया था।
दूसरी बार मौत के सामने मैं तब पहुंच गया था जब एक बार चार-पांच मोटर साइकिलों पर दोस्तों के एक गुट के साथ पिकनिक के लिए निकला। साथ में मेरा फुफेरा भाई भी था। जो गांव से आया था। रास्ते में एक नहर पड़ी तो गुट रुक गया वहीं, जो लोग तैरना जानते थे वो नहर में तैरने लगे। मैंने गांव में ही दो-तीन बार हाथ आजमाए थे। तैराकी की ए.बी.सी.डी. से पूरी तरह वाकिफ नहीं था।
मगर दोस्तों के उकसाने में कूद पड़ा। तेज़ बहाव में बहने लगा। हुड़दंगी दोस्तों को जब तक मालूम होता तब तक मैं डूबने लगा। इस बीच अच्छे तैराक मेरे भाई की नज़र मुझ पर पड़ गई। फिर उसने किसी तरह मुझे बाहर निकाला। मैं बेहोश हो चुका था। दोस्तों ने अस्पताल पहुंचाया और मैं बच गया। मगर तब भी मेरे मन में अणु भर भी ईश्वर को लेकर कोई बात आई ही नहीं।
जब शादी का वक्त आया तो शर्त लगा दी कि जिसे जो करना हो करे लेकिन किसी तरह की रस्म अदायगी के नाम पर भी मुझसे कोई पूजा-पाठ ना कराई जाए। मेरी इस जिद पर पिता श्री दुर्वासा ऋषि बन गए। सबका यह ख़याल टूट गया था कि मैं शादी के नाम पर बदल जाऊंगा। अनुमान गलत निकलते ही सब बिफर पड़े थे। होने वाली ससुराल पक्ष के लोग भी हतप्रभ थे।
हालात ऐसे बने कि लगा रिश्ता हो ही नहीं पाएगा। मगर कन्या पक्ष ऐसा किसी सूरत में नहीं होने देना चाहता था। वह रास्ता निकालने में लगा हुआ था। इस बीच मेरा एक मित्र जो आज भी मेरे परिवार के सदस्य जैसा है। हर सुखःदुख का साथी है, उसने मुझसे एक ऐसी तीखी चुभती हुई बात कही कि अंततः रास्ता निकल आया। वह मुझे गाली देते हुए बोला- ‘साले एक से एक एहसानफ़रामोश कमीने देखे। मगर तुम्हारे सा कमीना दूसरा नहीं होगा।
बहुत बड़े नास्तिक बने हो। अपनी ऐंठ के लिए मां-बाप, भाई-बहन, पूरे घर की खुशी में आग लगा रखी है। तुमसे पूजा करने को कौन कह रहा है। सबकी ख़ुशी के लिए थोड़ी सी रस्मों का आडंबर भी नहीं कर सकते। ये अच्छी तरह सुन लो कि एहसानफ़रामोसों को देख कर मेरा खून खौलता है। आज के बाद मेरी नज़रों के सामने भी न पड़ना। क्योंकि पड़ गए तो छोड़ूंगा नहीं।’ इतना कह कर उसने बाइक स्टार्ट की और ऐसे भागा कि जैसे पीछे मौत पड़ी है। मैं एकदम सन्नाटे में उसे देखता रह गया।
मेरी कल्पना से परे था उसका यह व्यवहार। दरअसल बरसों से वह मेरे परिवार में इतना घुलमिल चुका है, मेरे मां-बाप की इतनी सेवा करता है, मानता है कि देखने वालों को लगता है मानों वह सगा बेटा है। मेरे मां-बाप भी उसे अपने बेटे सा ही प्यार देते हैं। उनका यही बेटा अपने इस मां-बाप के कष्ट से बिफर पड़ा था। मुझे पीटने की धमकी देकर चला गया था। मैं हक्का-बक्का शाम को ऑफ़िस से जानबूझ कर देर से घर पहुंचा।
दोपहर से ही दोस्त की गालियां, धमकी भरी बातें दिमाग को मथे जा रही थीं। मैं आश्चर्य में था कि किसी से भी मामुली बात पर भी मरने-मारने को उतारू हो जाने वाला मैं आखिर ऐसा क्या हुआ कि उसकी इतनी गालियों, पीटने की धमकी को सुनता चुपचाप खड़ा रहा। मुझमें जरा सी जुंबिश तक नहीं हुई। इतने घंटे हो गए लेकिन अभी तक उसके लिए गुस्से जैसी कोई बात मन में आई ही नहीं। देर रात तक इस उलझन में नींद नहीं आई।
मन में कुछ आया तो बस यही कि दोस्त सही ही तो कह रहा है। मेरी इस एक बात से कितने लोगों के हृदय टूट रहे हैं। यदि शादी टूटती है तो उस लड़की पर क्या बीतेगी जो एंगेजमेंट के बाद से ही कितने ही सपने संजोए बैठी होगी। पूरा परिवार किस तरह बार-बार हाथ जोड़ रहा है, छटपटा रहा है। घर में भी सबके चेहरे पर कितना तनाव कितना संत्रास दिख रहा है। सबके चेहरे पर यातना की कितनी गाढ़ी लकीरें दिख रही हैं। यह सारी लकीरें मेरे द्वारा कुछ रस्में अदा कर देने भर से खुशी की लकीरों में बदल जाएंगी। और फिर यही हुआ। जब सुबह मैंने छोटे भाई और बहनोई को फ़ोन करके कहा कि जैसा आप लोग करना चाहते हैं करें। मैं सारी रस्में पूरी करने को तैयार हूं। इस तरह घर में अचानक ही खुशी बरस पड़ी।
जिसके कारण यह खुशी बरसी मैंने फिर अपने उस दोस्त को फ़ोन किया। छूटते ही मैंने कहा- ‘साले गाली, धमकी देके गया था ना। बड़े जोश में था। उसके बाद क्या हुआ पता किया एक बार भी।’ वह अब भी ताव खाए हुए था। बोला-‘अबे धमकी नहीं दी थी समझे, जो कहा था सही कहा था। और सुन, तुम जो बताने वाले हो वो मुझे मालूम है कि तुम लाइन पर आ गए हो। तभी तुम्हारी काल रिसीव की नहीं तो करता ही नहीं। तुम इसी से सोच लो कि इस जरा सी बात से सब घर भर कितना खुश हैं। जिसमें तुम आग लगाए हुए थे।’
‘मैंने कहा-‘सही कह रहे हो यार, अकसर जिद के कारण नुकसान उठाता रहता हूं।’ ‘तो ऐसा करो कि अब जिद छोड़ दो। घर वालों, बीवी आ जाए तो उसकी भी सुनो। अपनी खुशी से पहले दूसरे की खुशी के बारे में सोचोगे तो हमेशा खुश रहोगे, हाथों -हाथ लिए जाओगे।’ अपने उस मित्र से ऐसी गंभीर अर्थ-पूर्ण बातें भी सुन सकता हूं, यह कभी कल्पना भी नहीं की थी। उसकी बात सुन कर मैंने कहा -‘ठीक है फिलॉसफर भाई याद रखूंगा।’ इस पर वह जोर से हंसा, बोला ‘शाम को घर होते हुए जाना।’ इसके बाद शादी-ब्याह सब हंसी-खुशी निपट गया। लेकिन ‘दूसरे की खुशी के बारे में सोचोगे तो हमेशा खुश रहोगे’ यह बात दिमाग से नहीं निकली। यह दिमाग में ऐसी बैठी कि किसी को मेरे कारण कष्ट तो नहीं हो रहा मन इसी विश्लेषण में लगा रहता।
कई महीने बाद लगा कि यह तो मेरा स्थाई भाव बन गया है। बड़े क्लियर कांसेप्ट वाली बीवी ने छः-सात महीने बाद ही यह कह दिया कि ‘रोज आप हनुमान सेतु मंदिर के सामने से निकलते हैं। दो मिनट रुक कर पूजा कर लिया करेंगे, हर मंगल को प्रसाद चढ़ा दिया करेंगे तो बड़ा अच्छा होगा। हमें बल्कि हम सबको बड़ी खुशी होगी।’ उसकी बात सुन कर मैं उसका चेहरा देखने लगा। ऐसी बात कही थी जो मेरे लिए किसी सजा से कम नहीं थी। मगर उसकी सबकी खुशी इसी में छिपी थी। और मेरी आदत सी होती जा रही थी दूसरे की खुशी देखने की। मुझे एकटक खुद को देखते पाकर बीवी बोली- ‘अगर आप को अच्छा नहीं लग रहा है तो कोई बात नहीं।’
नई-नई बीवी जो कुल मिला कर मेरी उम्मीदों से ज़्यादा अच्छी थी। उसकी खुशी का मामला आ पड़ा तो मैं जाने लगा। दो-चार दिन की कोशिश के बाद ही मैं यह शुरू कर पाया। और जब दो हफ्ते बाद मंगल को प्रसाद चढ़ा कर लौटा तो बीवी को जो खुशी मिली वह तो मिली ही मां-बाप की खुशी तो रोके नहीं रुक रही थी। पिता श्री ने पीठ पर धौल जमाते हुए कहा- ‘वाह बेटा,मैं बीसों साल कहता रहा तो नहीं समझ में आया, बीवी ने दो दिन में समझा दिया।’ यह सुन कर बीवी मुस्कुरा कर चली गई भीतर कमरे में। पिता श्री को देख कर लग रहा था कि जैसे बरसों बरस बाद उनकी ना जाने कितनी बड़ी मनोकामना पूरी हो गई। इधर मैं पहले दूसरों की खुशी का ध्यान रखते-रखते कब अपने जिद्दी स्वभाव से दूर हो गया इसका अहसास मुझे बहुत बाद में हुआ।
मेरे दोस्त के एक सेंटेंस ने मेरा जीवन बदल दिया था। मेरा घर परिवार बदल गया था। मंदिर जाना मेरी आदत में आ चुका था। मगर सच यह भी था कि विश्वास कोई बहुत प्रगाढ़ नहीं था। जब पहला बेटा हुआ तो उसे भी ले कर गया। बराबर जाने लगा। देखते-देखते शादी के आठ साल बीत गए बेटा पांच साल का हो गया। एक और संतान के लिए बीवी व परिवार का दबाव बराबर पड़ रहा था। तर्क यह कि एक औलाद यानी कानी आंख।
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