ठग लाइफ
प्रितपाल कौर
झटका तीन
सविता को ज़िंदगी ने कई रंग दिखाए हैं. उसका बचपन रिश्तेदारों के रहमो-करम और हॉस्टल की डोरमेट्री में गुज़रा है. सविता का जब जन्म हुआ तो उसकी माँ गिरिजा देवी लगभग मरते-मरते बचीं. उससे पहले गिरिजा देवी के एक पांच साल का बेटा भी था जिसकी डिलीवरी में कोई परेशानी नहीं हुयी थी. इस बार जब ये सब हुआ तो उसके पति यानी सविता के पिता ने बच्ची की जनम कुंडली उसी दिन बनवा डाली.
ज्योतिष शास्त्री के अनुसार सविता का जनम माता के ही नक्षत्र में हुआ था. ऐसे बच्चे माँ पर भारी माने जाते हैं. ऐसे बच्चों की माँ या तो जन्म देते समय या उसके बाद जल्दी ही अकाल मृत्यु को प्राप्त होती है. जिंदा रहे भी तो तरह-तरह की तकलीफें उठाती है. सो माँ ने सिजेरियन ऑपरेशन के तीसरे दिन जब कुछ होश संभाला तो सविता को दूध पिलाना तो दूर उसे देखने से भी इनकार कर दिया. नवजात बच्ची पांच दिन माँ के पास पालने में तो रही लेकिन उसकी देखभाल का ज़िम्मा हस्पताल की नर्सों ने ही संभाला.
एक हफ्ते बाद जब जच्चा और बच्चा घर गए तो गिरिजा देवी ने साफ़ कह दिया कि बच्ची की ज़िम्मेदारी वो नहीं उठायेगी. उसका पिता जो चाहें वो करें. हार कर पिता कुंदन लाल मेहंदीरत्ता ने जो खुद यूनिवर्सिटी में जीव विज्ञान के प्रोफेसर थे, बच्ची को उसकी आया के साथ गाडी में डाला और भोपाल से दिल्ली ले आये. बच्ची की नानी के पास.
यहीं सविता की परवरिश छह साल तक नानी, मामी और मौसियों के घरों में हुयी. जहाँ अक्सर उसे कभी दया से सहेजा जाता तो कभी अनचाही नज़रों का सामना करना पड़ता. बहुत छोटी उम्र में ही सविता ने सीख लिया था कि ज़िन्दगी में जो चाहों उसे छीन कर या लड़ कर या चोरी से हासिल करना होता है. और अगर लोग आपके बारे में अच्छी बातें नहीं कहते हैं तो उनकी रत्ती भर भी परवाह नहीं करनी होती. क्यूंकि आप जो कर रहे हैं वो जिंदा रहने के लिए ज़रूरी है और जिंदा रहना सबसे बड़ा फ़र्ज़ है.
माँ क्या होती है, उसने नहीं जाना. कभी कभी छुट्टियों में वह माँ-पापा के घर भी भेजी जाती लेकिन जल्दी ही वहां से फिर वह मौसी या बुआ के घर रवाना कर दी जाती ताकि माता-पिता अपने बेटे के साथ छुटियाँ मनाने पहाड़ों पर या समंदर के किनारे जा सकें.
छह साल की कच्ची उम्र में ही उसे भोपाल के पास एक बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया गया जहाँ अक्सर दीवाली और बड़े दिनों की छुटियों में वह हॉस्टल में ही पडी रहती. सिर्फ गर्मियों की लम्बी छुटियों में उसे वहां से रिहायी मिलती. वह कई रिश्तेदारों के घरों में भेजी जाती. इसी तरह रुकते, ठहरते कई रिश्तों के उधडे और नंगे पेंच देखते हुए सविता जवान हुयी थी.
इस दौरान किस कजिन ने उसे कहाँ और कैसे छुआ और किस अंकल ने किस तरह उसे बरगलाना चाहा, इसका कच्चा चिटठा उसके मन में दर्ज है.
यहीं से उसने अपने लिए रास्ते भी बनाने सीख लिए थे. वह कुछ देती, कुछ अपने पास ही रोकती. अपनी निजी ज़रूरतें और शौक इसी तरह पूरे करते-करते एक दिन उसे लगा कि उसे एक लड़के से प्यार हो गया. वह उसकी ज़िन्दगी का पहला इश्क था. लेकिन गौर तलब बात ये है कि वह उस वक़्त तक वर्जिन नहीं रह गयी थी.
उस वक़्त सविता बीस साल की हो चुकी थी और ग्रेजुएशन के फाइनल इयर में थी, पटना के एक कॉलेज के हॉस्टल में. किसी तरह पढ़ाई पूरी की और इससे पहले कि माता-पिता या नानी या फिर किसी भी और रिश्तेदार को बताती और उनकी सहमति लेती, वह प्रेग्नेंट हो चुकी थी.
निहाल सिंह भी डर के मारे अपने घर में बात नहीं कर सका. वह खुद अपने पिता के कारोबार में संलग्न था. ज़ाहिर है उसकी कोई स्वतंत्र हैसियत नहीं थी. दोनों ने बैठ कर सोचा और निहाल सिंह के इस सुझाव को सविता ने सिरे से ख़ारिज कर दिया कि वह गर्भपात करवा ले.
सविता को इस मौके में अपना एक घर बनता हुआ नज़र आया. उसे दिखाई दिया एक सपना पूरा होता हुआ जो वह बचपन से ही देखती आयी थी. खुद अपने एक परिवार का सपना जो आज तक कभी पूरा नहीं हुआ था. वह सिर्फ दूसरों के परिवारों में एक अवांछित उपस्थिति की तरह बर्दाश्त की जाती थी. कुछ उसकी स्थिति की वजह से और कुछ उसकी लालची आदतों की वजह से. इस वक़्त उसे लगा कि उसका अपना घर होने का सपना बस पूरा होने ही वाला है.
सविता ने गर्भपात करवाने के निहाल के प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो निहाल सिंह को मजबूरन गुरूद्वारे में सविता से शादी करनी पडी.
जब मई के एक रविवार की सुबह वे दोनों शादी कर के निहाल के घर पहुंचे तो निहाल की माँ ने कोहराम मचा दिया. इस हादसे के लिए सविता तैयार तो थी लेकिन उसे लगता था कि शुरुआती झटके के बाद उसे स्वीकार कर लिया जाएगा. इसकी एक बड़ी वजह सविता के मुताबिक उसकी ख़ूबसूरती थी. सविता को लगता था कि उसके सभी ऐब ढक लेने का दम उसकी बेहद गोरी देह और खूबसूरत तीखे नैन-नक्श में था.
लेकिन यहाँ आ कर जो उसने जो पाया तो सविता का अपना एक घर होने का सपना एक बार फिर जन्म लेने से पहले ही ध्वस्त हो गया. पहले झटके के बाद निहाल की माँ और पिता, दोनों ने ही बेहद अनमने मन से नयी बहू को घर में स्वीकार किया.
निहाल तो प्रेम में बावला था सविता के. जो वो कहती मान लेता. जवानी के दिन थे. रिश्तों पर शारीरिक मदहोशियों और बवालों का बवंडर छाया था. लेकिन इस घर में आ कर सविता ने जल्दी ही समझ लिया था कि यहाँ भी वह परिवार का हिस्सा नहीं है.
कुछ तो उसकी इमेज घर से भागी हुयी बागी लडकी की थी. दूसरे उसके माता-पिता ने उसकी ज़िंदगी से अब भी कोई ताल्लुक रखने की ज़हमत नहीं उठायी थी. शादी की खबर मिलने पर एक बार उसके पिता आये. होटल में ठहरे. शाम को आधे घंटे के लिए आ कर औपचारिक भेंट बेटी के पति और ससुराल वालों से की. कुछ कपडे, गहने, मिठाई और नकदी बेटी की सास के हाथों में सौंप कर चले गए.
सामान देख कर जो खुशी सविता की सास को हुयी थी सविता के पिता के बर्ताव से काफूर हो गयी. आगे कुछ मिलने की उम्मीद सविता के पिता के रूखे वयवहार से टूट गयी. बहू भी मनपसंद नहीं थी सो सास के मन से सविता बिना चढ़े ही उतर गयी.
सविता का दिनोंदिन भारी होता हुआ गर्भ भी सास को एक बोझ लगने लगा था. सविता दिन भर बिस्तर पर पडी रहती और तरह तरह के खानों की मांग करती. सास मरती क्या न करती की हालत में उसकी मांगें पूरी करवाती.
किसी भी काम में देरी हो जाती तो सविता नौकरों पर चिल्लाने लगती. घर का माहौल सविता के गर्भ के कारण तुनक मिजाज़ हो जाने से बेहद खराब हो गया था. किसी तरह राम-राम करते डिलीवरी हुयी. सास और रिश्ते की एक ननद ने हस्पताल और घर दोनो जगह संभाले और सविता को पांचवें दिन ही बच्ची की पूरी ज़िम्मेदारी संभलवा कर अपने हाथ झाड लिए.
सविता के अभी एपिज़ियोटपी के टाँके भी नहीं सूखे थे. वह दर्द से कराहती रात भर जागती, बच्ची के नैपकिन बदलती. सूजे हुए स्तनों और टीसते निप्पलों से किसी तरह जूझती, रोती हुयी बच्ची को दूध पिलाती. निहाल बेखबर दूसरे कमरे में सोया रहता. कभी सविता उसे उठाने जाती तो उसका जवाब होता कि माँ ने चालीस दिन तक तुमसे दूर रहने को कहा है.
सविता अपना सर पीट लेती. फिर संभल कर तल्ख़ हो कर कहती कि उसे निहाल की ज़रुरत खुद के देह सुख के लिए नहीं बल्कि बच्ची की देख-भाल के लिए है तो उसका टका सा जवाब होता कि हमारे यहाँ ये काम औरतें करती हैं, मर्द नहीं करते.
सविता ने हार कर आया रखने को कहा तो निहाल का कहना था कि अभी तक पारिवारिक कारोबार में वह इतनी कमाई नहीं कर रहा कि जिसकी बदौलत वह ऐसी विलासिता पाल सके. अब तो बच्ची के खर्चे भी जुड़ गए हैं, सविता के भी और हस्पताल का बिल भी उसके पिता ने ही भरा है. उसे अब ज्यादा मेहनत से काम करना होगा और पैसे की मांग तो वह अपने पिता से हरगिज़ नहीं कर सकता जब तक कि वह कारोबार में कमाई न बढ़ाए.
अपने पिता से वैसे भी सविता को कोई उम्मीद नहीं थी. वे एक बार फिर एक घंटे के लिए आये थे. बच्ची को देखा था, गोद में लिए बिना. कुछ रुपये, मिठाई और कपडे दे कर चले गए थे.
माँ ने तो कई बरसों से सविता का चेहरा नहीं देखा था. बच्ची को देखने वो क्या आती? ससुराल के इस परिवार से भी जल्दी ही सविता का मोह-भंग हो गया था. वह और उसकी बच्ची जसमीत लावारिसों की तरह इस बड़े से घर में बिना प्यार-दुलार पाए भूतों की तरह इधर से उधर डोलते रहते. गौरतलब ये कि सविता कभी इस परिवार का हिस्सा भी नहीं बन पायी.
इन्हीं परिस्थितयों के मद्देनज़र अब सविता ने सोच विचार कर के अपना पैंतरा बदला. जैसे-जैसे बच्ची बड़ी होने लगी सविता ने घर परिवार में अपनी जगह मज़बूत करने के लिए ज़बरदस्ती दखल देने शुरू कर दिए.
वह पार्टियों में निहाल के साथ जाती और वहां अक्सर मर्दों के बीच बातचीत में शामिल होती. कारोबार में दिलचस्पी लेती. जो उसकी सास को नागवार गुज़रता. शायद उन्हें लगता सविता इस तरह उनसे आगे निकल कर अपनी एक ख़ास जगह बाहर की दुनिया में बना लेगी. वो जगह जो अपने घर में उसने सविता को नहीं हासिल करने दी थी.
और फिर वही हुआ जो इन हालात में होना था. अहिस्ता अहिस्ता निहाल पर माँ की बातों का असर होने लगा था. कुछ सविता के जिद्दी व्यवहार से भी वह उखड़ने लगा था. शादी का बासीपन अलग अपना असर दिखाने लगा था.
एक ख़ास बात रही सविता का सेक्स को लेकर रवैया. उसे हर समस्या का हल सेक्स में नज़र आता. बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि हट्टा-कट्टा जीवन के जोश से भरा निहाल भी उसकी सेक्स की बहुत बढ़ चुकी मांग से घबराने लगा. उसने ज्यादा वक़्त घर के बाहर रहना शुरू कर दिया. सविता बच्ची के साथ और अकेली पड़ गयी.
दिन भर निहाल के इंतजार में किसी तरह काटती. निहाल रात को देर से आता, खाना बाहर खा कर और सीधे अपने कमरे में जा कर सो रहता. सविता को उसने बेटी के कमरे में सोने की हिदायत दे रखी थी. कहता था जब तुम्हारी ज़रुरत होगी उठा लूँगा.
सविता इस इंतजाम से भी खासी नाखुश रहती थी. आये दिन दोनों में झगडे होने लगे. जो कमरों से निकल कर आंगन तक बिखर गए. दोनों जी भर कर तू-तड़ाक करते. एक दूसरे को भद्दी-भद्दी गालियों से नवाजते. बच्ची चुपचाप सहमी हुयी देखती तो दादी उसे अपने पास बुला लेती. वह अहिस्ता अहिस्ता दादी के पास ज्यादा रहने लगी. सविता और अकेली पड़ने लगी. उसका गुस्सा और निराशा दिनों-दिन और बढ़ने लगे.
धीरे धीरे पति-पत्नी के झगड़े आये दिन होने लगे. हर दूसरे दिन निहाल और सविता आंगन में खड़े हो कर नौकरों, घर के दूसरे सदस्यों, मेहमानों, रिश्तेदारों के सामने ही एक दूसरे को कोस रहे होते. उस वक़्त को बुरा कह रहे होते जब वे एक दूसरे को मिले थे.
ऐसे में बच्ची जसमीत दादी के पास चली जाती. दादी उसे गोद में उठा कर चूमती और अन्दर अपने साथ ले आती. ड्राईवर को गाडी निकलाने को कहती और बच्ची को घंटों तक इधर उधर रिश्तेदारों के यहाँ घुमाती फिराती. बाज़ार ले कर जाती. आइस क्रीम, चाट-पकौड़ी खिलाती. बच्ची जैसे-जैसे बड़ी हो रही थी उसका का मन दादी के साथ हिल रहा था.
आखिर एक दिन ऐसा आया कि निहाल बिज़नस के सिलसिले में कई बार की तरह दिल्ली गया तो लौट कर नहीं आया.
एक हफ्ते के बाद उसका फ़ोन एक इंटरनेशनल नंबर से सविता के पास आया इस इत्तेला के साथ कि वह जर्मनी में है और अब यहीं रहेगा. सविता जहाँ चाहे वहां जा सकती है. माताजी उसे ज़रुरत के रुपये दे देंगीं. अपने जेवर भी वह उनसे ले सकती है. बच्ची जसमीत को दादी के पास ही छोड़ देने की हिदायत दे दी गयी. इस ताने के साथ कि तुम उसे कहाँ ले कर जाओगी? और इससे पहले कि सविता इस झटके से बाहर आती, कुछ सोचती और बोलती, उधर से फ़ोन काट दिया गया.
सविता ने इधर से उस नंबर पर फ़ोन लगाया तो रिंग जाती रही. यानी फ़ोन किसी पब्लिक बूथ से किया गया था.
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