तपते जेठ मे गुलमोहर जैसा
सपना सिंह
(20)
अभिनव के स्थानान्तरण होते रहते थे। हर बार नयी जगह, नये परिवेश में जमना .... अप्पी को पसंद था ... यह उसके मन का जीवन था। अपूर्व बड़ा हो रहा था, अप्पी खाली हो रही थी। अब समय का पहाड़ था उसके पास... खालीपन कचोटता। नींद नहीं आती ... लगता समय व्यर्थ जा रहा है। शुक्र था, तमाम घसर-पसर के बावजूद एक आदत अब भी बदस्तूर जारी थी, किताबे और पत्र पत्रिकायें पढ़ने की। अभिनव तो इससे भी चिढ़ता था जिधर देखो अखबार... किताब, पत्रिकायें.... ठीक से क्यों नहीं रखती इन्हें ...? अप्पी अनुसना कर देती। अनसुना करने की टेªेनिंग... उसने अपने आपको बखूबी दे रखी थी ... कहां, क्या सुनना है ... और कब सोंस जैसे अनुसुना कर देना है... आ गया था उसे... अभिनव ने भी उसकी इस आदत को नापंसद करने के बावजूद बरदाश्त कर लिया था ...। अप्पी जितना पढ़ती ... बेचैनी और बढ़ती जाती। आँख बंद कर लेटी होती तो भड़भड़ाकर उठ जाती। क्या कर रही ... ऐसे कैसे लेटी है... कुछ करती क्यों नहीं। शादी के बारह वर्ष बाद उसने एक स्कूल में नौकरी कर ली.. घर के पास ही था ये स्कूल ... इस तरह बाहर निकालने का सिलसिला शुरू हुआ कुछ-कुछ चीजेे़ छपने लगीं.. । अभिनव का प्रमोशन हुआ... नयी जगह पर अप्पी की एक सहेली बन गई मिसेज शर्मा .... उससे उम्र में लगभग दस पन्द्रह वर्ष बड़ी। अप्पी से बड़ी प्रभावित। वह यूनिवर्सिटी में फिलाॅसफी की हेड थी उन्होंने अप्पी को प्रोत्साहित किया .... फिर से पी.एच.डी. में रजिस्टेªशन कराने को ... अप्पी हैरत में... अब क्या करूँगी करके? नौकरी तो मिलने से रही ...।
सबकुछ नौकरी के लिए ही नहीं किया जाता ... तुम करो ... मैं तुम्हारी गाइड बनूंगी ...। अप्पी भी उत्साहित हो गयी ... अभिनव को बताया तो उसने मुंह बना दिया... इतना आसान है क्या ....। पर अप्पी ने अनसुना... कर दिया.... जुट गयी पी.एच.डी. करने में इस सिलसिले में अक्सर यूनिवर्सिटी और मैडम के घर जाना होता ... मैडम से लम्बी बातें होंती लाइब्रेरी की खाक छानी जाती ... मैटर कलेक्टर करने के लिए अप्पी अन्य यूनिवर्सिटी में भी गई ... इस बीच स्कूल की नौकरी उसने जारी रखी, लिखना जारी रखा। पी.एच.डी. कम्पलीट हो गयी उसे विश्वास नहीं हुआ .... ये हुआ है .... शर्मा मैडम ने विभाग में ही उसे नियुक्ति दे दी। वर्षो बाद यूनिवर्सिटी में क्लास लेना .... जैसे कोई भूला सपना सच हुआ हो...। जिन्दगी फिर, पटरी पर आ गयी थी।
दुनियां इस बीच बहुत बदल गयी थी। वैश्विक परिदृश्य बदला था.... राजनीतिक हालात बदले थे .... और सामाजिक भी। औरतों के लिए दुनियां अच्छी बनी थी या और बिगड़ गयी थी .... दृश्य भ्रामक थे। कितने नये अविष्कार हुए .... सेटेलाइट्स ने अनगिनत चैनलों की सुविधा दे दी ... और सबसे क्रान्तिकारी ईजाद - मोबाइल फोन का .... एक छोटा सा हरदम साथ रहने वाला फोन ...... कितना सुविधाजनक।
अपूर्व कोचिंग के लिए दिल्ली जा चुका था। अभिनव की तरह उसे भी प्रशासनिक अधिकारी बनना था ...... दिल्ली में एडमिशन ही बहुत बड़ी उपलब्धि थी .... कट-आॅफ बहुत ऊपर जाता था पर, अपूर्व को प्रतिष्ठित काॅलेज में एडमिशन मिल गया। अभिनव तो खुशी में इतरा रहा था ....। भाई कलेक्टर साहब ने मिटिंग में हाथ मिलाकर मुझे बधाई दी ‘‘सिंह .... बहुत बड़ी बात है...।’’ खुश तो अप्पी भी थी... अपूर्व ने उसके मान को बढ़ाया था ... एक राहत भी थी कि चलो, अपने लक्ष्य की तरफ पहला कदम उसने रख लिया है ... आगे ईश्वर की मर्जी .... इस बार अप्पी गोरखपुर गई तो उसी समय छोटी मौसी की लड़की की शादी भी थी। अप्पी रिश्तेदारियों में शादी ब्याह इत्यादि में कभी नहीं आ पाती थी ..... वह तो बड़े मौसाजी, और मौसीजी के स्वर्गवास पर भी गोरखपुर नहीं आई थी ...। अब तो वह कोठी भी बिक गई थी...... जहाँ उसकी कितनी यादें जमा थीं....पता नहीं कौन लोग रहते होंगे उसमें। आते जाते जब कोठी पर नजर पड़ती तो दिल में हौल सा उठता .....जी करता एक बार जाकर.... अंदर उन सब कमरों .... सारी दीवारों को महसूस कर ले .... नीरू दी भी आई थीं शादी में .... उनसे भी अप्पी अर्से बाद मिल रही थी। नीरू दी ने ही उसे सुविज्ञ का मोबाइल नं. दिया था अप्पी ने रख लिया था ... यूँ ही.... अब उन्हें भला क्या याद होगी अप्पी...। कभी ध्यान आता भी होगा तो ये सोचकर ख्याल झटक देते होंगे कि ... थी एक पागल ....।
गोरखपुर से ही अप्पी ने सुविज्ञ को फोन लगाया था ...। लगभग सत्तरह साल, चार महीने और कुछेक दिन बाद वह सुविज्ञ की आवाज़ सुन रही थी .... ‘‘हाँ .... कौन बोल रहा है...?’’ उधर से सुविज्ञ पूछ रहे थे ....
‘‘ प.... ह... चानो...।’’ अप्पी को अपनी आवाज़ खुद़ ही अपहचानी लग रही थी .... नहीं ... पहचाना ...?’’
‘‘किसी अपराजिता की याद नहीं ....?’’
‘‘अरे .... अप्पी...।’’ सुविज्ञ की आवाज़ की खुशी लरजती हुई अप्पी तक पहुँची थी .... और बीच का वक्त मानों पानी में डले नमक की भाँति घुल गया था ... होते हुए भी न होने जैसा ...।
‘‘कहाँ है ... आप ...?’’
‘‘ट्रेन में हॅूँ.... दिल्ली जा रहा हॅूँ... एक काॅन्फं्रेस में...।’’ तुम ... कहाँ हो?’’
गोरखपुर ... आयी हॅूँ’’
‘‘कब तक हो ...?’
‘‘अप्पी ने अपने जाने की डेट बता दी..’’
‘‘ठीक... मैं आता हॅूँ... काॅन्फ्रेंस अटेंड कर सीधे गोरखपुर ..।’’
‘‘अरे, पागल हुए हैं ...।’’
‘‘मैं तुम्हें देखना चाहता हॅँू... मिलना चाहता हॅूँ...।’’
‘‘क्या करोगे मिलकर’’
‘‘देखूंगा...?’’
अप्पी डर सी गई ... जैसे कुछ नाजायज होने जा रहा हो। पर, हर नाजायज चीज़ अनैतिक नहीं होती न। जीवन भर कितने अवाट-बवांट लोगों से मिलने रहते हैं हम ... पर जिससे सबसे ज्यादा मिलना चाहते हैं उसी से न मिलने के लिए अपने इर्द-गिर्द बाड़े बना लेते हैं। उसे याद आया था वो वक्त ... वो सारे मसरूफ वक्त जब वह दुनियादारी में अपने सुबहो शाम गर्क कर रही थी .... एक टीस की तरह मन में दबी हुई चाहतें दर्द देती थीं.... ऐसी जिंदगी तो नहीं चाही थी उसने .... उसे जीवन में शांति क्यों नहीं मिलती .... कितना काम-काज किया ... पगलेट की तरह .... सुबह का नाश्ता ... फिर खाना .. .फिर रात का खाना ...। गेंहू धोना .... चावल के कीड़े देखना। उंगलियों में कपड़ा लपेट खिड़कियों की धूल साफ करना .... फिर दिनों तक नहीं भी करना .... किचन के डब्बे-डुब्बी साफ करना, सरियाना ... फिर दिनों तक यूँ ही छोड़ भी देना। कपड़ों की अलमारी जमाना ... फिर कई दिनों तक उधर देखना भी नहीं। रगड़ रगड़ कर बाथरूम की टाइल्स साफ करना ... फिर हफ्तों देखना भी नहीं .... मूड हुआ तो बाजार जाकर ढेरों गमले उठा लाई ... खुद से उसमें मिट्टी खाद भरा और पौधे लगाये ... उनकी सेवा में रमी रही ... अपने उगाये फूलों पर इतरायी .... फिर, जाने क्या हुआ कि वो भी करना छोड़ दिया, मन रमता क्यों नहीं उसका कहीं भी। अंदर ही अंदर छीजती जा रही हो जैसे। नहीं ये प्रेम में नाकामी की छीजन नहीं थी ... उसकी बनावट ऐसी नहीं कि, प्रेम न मिले तो दुनियाँ से बेजार हो जाये.... जीना छोड़ दिया जाये। जब उसने प्रेम किया था तब भी उसे पता था कि ये एक असंभव प्रेम है.....। पर, उसने उस असंभव को भी पूरी डिगिन्टी के साथ साधा था ... हाँ वो प्रेम किसी की तकलीफ का कारण न बने .... कुछ बिखरे उजड़े नहीं इसलिए .... रूक गई थी। प्रेम को अपने भीतर महसूस करना... प्रेम का होना और उम्र भर वैसा ही बना रहना ज्यादा महत्वपूर्ण था ..... न कि चन्द पलों का साथ ... कुछ शारीरिक लटर-पटर और मानसिक यंत्रणाा की त्रासद अन्तहीनता...। एक ऐसी बेसकून जिंदगी ... जिसमें वह उन सबको अनचाहें ले आती.... जिन्हें वो बेइन्तहा प्यार करती है ..... जिन्हें किसी भी तरह का दुःख दे देना .... उसके लिए अनैतिक होना होता .... प्रेम और युद्ध में सब जायज होता है, इसे वह एक फितूरी दिमांग की उपज मानती थी... उसके लिए तो सही ही सही है.... और गलत गलत। वह बेहद नम्र दिल है ... शायद तभी बहुत झेलती है। ऐसी कोई भी सहूलियत जो दूसरों को बेसहूलियत कर दे उसे अपने लिए गवारा नहीं।
कैसी अजीब सी बात है ... उसे अपने लिए अपने आस-पास से सबसे अच्छा चाहिए था ... हर चीज। बचपन से ही...। कभी भीड़-भाड़ में भी वह अपने सोने के लिए सबसे साफ चद्दर और सबसे आरामदायक जगह छेका लेती ...। खाने में इतनी भिनभिनही कि हीड़ा-हाड़ा खाना कभी न खाती ...भले भूखी रहे आये ... फलों में जो सबसे ताजा होगा वही खाना ... मजाल जो पका लिबलिबा केला या ....अमरूद खा ले। नाॅनवेज में मम्मी उसे सबसे अच्छे पीस देतीं.... मालूम था उसे थोड़ा चाहिए पर अच्छा चाहिए... वह समझौते नहीं करती थी। पर, फिर पता नहीं कैसे उसे तकलीफें सहेजना आता चला गया.. जो लोग मानते थे कि नाक पे मक्खी न बैठने देने वाली ये लड़की पता नहीं ससुराल और पति से कैसे निभायेगी .. उन लोगों को तो भनक भी नहीं लगने दी उसने कि दाम्पत्य नाम के इस सुरक्षात्मक दीवार के भीतर वह अपने को कितना असुरक्षित पाती थी। उसने अभिनव का जो रूप देखा था... वही उसे चैन नहीं लेने देता था। उसने अपनी स्वभाविकता खो दी थी। अभिनव ने उसे स्वभाविक रहने ही नहीं दिया था। लगता वह सारे समय प्रीटेंड कर रही है। उसने बहस करना बंद कर दिया था, इरिटेट होना बंद कर दिया था ...। अपनी खुशी के लिए अभिनव की ओर ताकना बंद कर दिया था। अभिनव अगर इस एहसास तले खुश था कि उसने अप्पी को नियत्रित कर लिया है तो उसके इस एहसास को ब्रेक करने में अप्पी की कोई दिलचस्पी नहीं थी। यूँ भी अप्पी के भीतर अद्दभुत जीजीविषा थी। जीवन से उसने बहुत सी आसमानी ख्वाहिशें नहीं पाली थीं। फिर, अभिनव ने उसे दुनियावी सुखों से भरी एक दुनियाँ तो दी ही थी ... जिसमें सारे सुख..... आराम की वस्तुयें थीं। समाज में एक स्टे्टस था। वह अधिकारी की पत्नी कहलाती थी। नौकर चाकर थे ... रूतबा था ... जो आॅफिसर की पत्नियों को ऐवें ही मिल जाता था ...। पर अक्सर ... अभिनव कुछ ऐसा कर देता कि अप्पी खुद को टुअर महसूस करने लगती... सारी खुशफहमियां धारासाही हो जाती। ऐसे ही चल रहा था सब.....ऐसे ही चलता रहता...... और ऐसे ही चलते-चलतमे सांसों की डोर टूट जाती और फिर सब खत्म...।
उसने कितनी-कितनी बार तो सोचा... क्या कभी सुविज्ञ को नहीं देख पायेगी। जब जब ये ख्याल आया, कितनी तो घुटन महसूस हुई। एक बार ऐसे ही किसी बहुत मानता वाले स्थान जाना हुआ। लोग दूर-दूर से आते थे दर्शन के लिए, मन्नत के लिए। अप्पी उन औरतों से अलग नहीं थी जिनकी सारी मनौतियाँ अपने परिवार की सलामती से जुड़ी होती हैं.... पर तब पता नहीं किस अन्दरूनी इच्छा से वशीभूत अंसुआई आंखों से देवता की मूरत की ओर देखते हुए उसने एक असंभव सी याचना कर डाली थी। एक नाजायज इच्छा ... मानों ईश्वर को चैलेंज दे रही हो। एक ऐसी मन्नत जिसके बारे में वो जानती थी कि, वह नहीं पूरी होनी... क्योंकि ...उसने वो रास्ते... वो दरवाजे... जो उस तरफ जाते थे... खुलते थे... उन्हें वह खुद बंद कर आयी है। अभिनव की उज्जडई की कोई सीमा नहीं है। उसके अश्लील आरोंपों के कीचड़ अब भी बरसते हैं। वह इन सबमें सुविज्ञ को क्यों शामिल करें...? सुविज्ञ के नज़रों में अपने लिए दया जैसा कुछ देखने से पहले वह मर जाना पंसद करेगी....।
इधर के कुछ सालों में उसने अपने हिस्से की थोड़ी जमीन थोड़ा आसमान हासिल करने की जद्दोजहद शुरू की थी ....। उसका नतीजा था कि, उसमें आत्मविश्वास जगा था... एक दिशा नजर आयी थी ... चलने के लिए एक रास्ता नजर आया था। हाँ, अब वह डाॅ. सुविज्ञ का सामना कर सकती है... वही पहले जैसी निर्मलता और पहले जैसी सुदंरता के साथ .... जो उसके व्यक्तित्व की खूबी हुआ करती थी...।
अप्पी याद करने लगी... वर्षों पहले का वाकया ....। दूरदर्शन पर कोई हेल्थ प्रोग्राम आ रहा था। कुछ डाॅक्टर थे और एंकर प्रश्न पूछ रही थी। डाॅक्टर्स में सुविज्ञ भी थे। अप्पी अभीभूत सी देखती रही एकटक। क्या कोई कनेक्शन था ... अप्पी ने उसी वक्त टीवी खोला .... घर पर अभिनव भी नहीं था। पहले वाली अप्पी होती तो अभिनव के आते ही चहककर उसे बताती... पता है। आज डाॅक्टर साहब ...... को टीवी पर देखा और अगर अभिनव वो आदमी होता जिसके साथ अप्पी जीवन बिताने का सपना देखती थी कभी ... तो वो अप्पी के सिर पर एक चपत लगाता और दुलार से कहता...’ अच्छा... तो तभी मोहतरमा इतनी खुश हैं ...’ अप्पी बनावटी नाराजगी दिखती ... और अभिनव उसे खिजाता ...। पर ऐसा कुछ खुशगवार मौसम उसके हिस्से का नहीं था जो था, अप्पी ने उसे कुबूल लिया था। चीजों को अपनी तरह से चलने देना और लोगों को अपने वक्त से होश में आने देने का इंतजार करना जरूरी होता है। अपने को समर्पित कर देना ज्यादा बड़ा त्याग होता है .... और अप्पी अभिनव के आगे अपने सारे हथियार डाल चुकी थी। गृहस्थी नामक यूूटोपिया बनाए रखने की यही एक मात्र सूरत थी.. बस…
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